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अक्तूबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कविताएँँ- देवेश पथ सारिया

संभावना विषय नया हो या पुराना देवेश हर बार नई ज़मीन तलाशते हैं ।                                          सवाई सिंह शेखावत पिछले कुछ वर्षों में हिंदी कविता में जिन युवा कवियों ने बड़ी तेजी से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है-उनमें राजगढ़ (अलवर) से अनुज देवेश पथसारिया का नाम महत्वपूर्ण है।देवेश सम्प्रति ताइवान में खगोलशास्त्र में पोस्ट डॉक्टरल फेलो हैं।हिंदी की तमाम नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में अनेक बार प्रकाशित होने के अतिरिक्त उनकी कविताएँ डिज़िटल मीडिया के सभी चर्चित ब्लॉग्स पर शाया होती और प्रशंसा बटोरती रही हैं।देवेश के कवि की सबसे बड़ी खूबी यह है उनकी कविताएँ पढ़ते हुए आपको किन्ही ख़ास नई-पुरानी या फिर चर्चा में रहीं समकालीन कविताओं की याद नहीं आती।अपने विषय और प्रस्तुतिगत कौशल में वे सर्वथा अभिनव हैं।नया हो अथवा पुराना किसी भी विषय पर कविताएँ लिखते हुए वे हर बार अपने लिए नई ज़मीन तलाशते हैं। अब यदि इन्ही कविताओं की बात की जाए तो 'उस शाम की बात' शीर्षक कविता में वे ट्रेफ़िक सिग्नल पॉइंट जैसी आकस्मिक जगह में युवा लड़कियों से संवाद में बरती जाने वाली सतर्कताओं,उससे जुड़े नैतिक विवेक,आदमी की नीय

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो

दि एक्ट आफ किलिंग

सिने -संवाद मीमांसा पर सिने संवाद कि इस कड़ी में  मनीष आजाद  बात कर रहे हैं ,2012 में आयी ऑस्कर नामांकित फिल्म  'दि एक्ट ऑफ़ किलिंग' की । यह फिल्म इंडोनेशिया में हुए 1965-66 के भीषण जनसंहार के पीछे के स्थानीय एवं अंतरराष्ट्रीय कारको को सामने लाती है , जिसे लगभग अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में विस्मृत कर दिया गया है । फिल्म 55 साल पहले हुए इस जनसंहार के वर्तमान पर अच्छादित आतंक के बादलों को भी रेखांकित करने का साहस करती है । ‘दि एक्ट आफ किलिंग’ [The Act of Killing]                                                                                                                                     - मनीष आज़ाद  आज से ठीक 55 साल पहले इण्डोनेशिया में एक भीषण कत्लेआम हुआ था। 1965-66 में हुए इस भीषण कत्लेआम में करीब 10 लाख लोग मारे गये थे। यह जनसंहार मुख्यतः केद्रित था, ‘इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी’ अर्थात पीकेआई के खिलाफ। उस वक़्त 'पीकेआई' चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी थी. लेकिन इसकी जद में मजदूर यूनियन के सदस्य और बुद्धिजीवी लोग भी

डायरी - रामानंद राठी

डायरी डायरी में प्रस्तुत है लेखक रामानंद राठी की डायरी के अंश । रामानंद राठी की चार दशकों में फैली रचना यात्रा पर टिप्पणी की है उनके सृजन के सहयात्री आलोचक मनु शर्मा ने । आलोचक मनु शर्मा की यह टिप्पणी न केवल लेखक रामानंद राठी के सृजन के सरोकारों पर दृष्टि डालती है अपितु उनकी रचना प्रक्रिया की समग्रता में गहराई से विवेचना भी करती है । रामानंद राठी की रचना प्रक्रिया                                                        ■    डॉ. मनु शर्मा रामानंद राठी ने कहानियों के अलावा शब्द चित्र , रिपोर्ताज ,नाटक, जीवन वृत्त, इतिहास और कला संस्कृति पर भी लिखा है । और इन सभी में उनकी रचनात्मकता के अलग-अलग पहलू प्रकट हुए हैं । अधिकतर रचनाओं में उनका पैतृक गांव गूंती महानायक की भांति मौजूद है। ऐसा महानायक जो निरंतर अपनी सीमाओं को लांघ कर विराट रूप में सामने आता है । जैसे 'पिंड में ब्रह्मांड '।  अपनी जड़ों की पहचान के दौरान राठी ने उन संदर्भों की खोज की है , जिनसे आजाद भारत के गांव में अप-संस्कृति , नैतिक पतन , मनुष्यता के लोप और उपभोक्ता संस्कृति के क्रूर चेहरे को अच्छी तरह पढ़ा जा सके । इन्हीं

चित्र के झरोखों से झाँकतीं कथाएँ

कला चित्र के झरोखों से झाँकतीं कथाएँ                                                    दीप्ति वि. कुशवाह   मनुष्य से आज के सुसंस्कृत मनुष्य तक की यात्रा के साथ चित्र परंपराओं की एक यात्रा समानांतर रूप से चलती है। इस समानांतर यात्रा में मानव विकास के विविध सोपानों को पढ़ा जा सकता है। इसमें मानव मन की क्रमिक गूँज-अनुगूँज को भी सुना जा सकता है क्योंकि चित्रों में मनुष्य की तीन मूल इच्छाएँ-  सिसृक्षा, रिरंसा एवं युयुत्सा भी परिलक्षित होती हैं। लिखित भाषा जब अस्तित्व में नहीं आई थी, मनुष्य ने चित्रों के माध्यम से मनोभावों को अभिव्यक्त किया। भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक अनेक चित्रशैलियों के प्रमाण मिलते हैं। कुछ शैलियों ने जनजातीय-अंचलों में अपने मूल रूप को काफी हद तक अछूता रखा है, जैसे, गुजरात के राठवाओं में “पिथोरो”, उड़ीसा की साओरा जनजाति में “इटेलान” लोककला।  ठाणे (महाराष्ट्र) की वारली में बदलाव की बयार घुली और इसके त्रिकोण की हद विदेशों तक जा पहुँची। भीलवाड़ा (राजस्थान) की “फड़” ने भी आधुनिकता का स्पर्श पाकर समय पर अपनी पकड़ मज़बूत की, परन्तु, ऐसा नहीं हुआ है, इसी