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अक्तूबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बोनती : मोर्जुम लोयी

कहानी मोर्जुम लोयी ने अपने उपन्यास- मिनाम - से अपनी खास पहचान बनायी है। उन्होंने पूर्वोत्तर के स्त्री- संघर्षों की वास्तविकता को बडे फलक पर प्रस्तुत किया है। अभी वे अपने गाँव को केन्द्र में रखकर एक औपन्यासिक कृति पर काम कर रही हैं। उसी से एक मार्मिक अंश मीमांसा में दे रहे हैं। इसके जरिए आप मोर्जुम लोयी की संवेदनशील दृष्टि, समर्थ भाषा के साथ एक उद्वेलित करने वाले प्रसंग से रूबरू हो सकते हैं। बोनती/बोनी/भोनती ये सभी एक अर्थ का द्योतक है। अब बात आती है ये शब्द कहां से आया? या इसका अर्थ क्या है?  ‘भोनती’ असमिया शब्द है जिसका अर्थ होता है छोटी बहन । चूंकि असम अरुणाचल पड़ोसी राज्य है तो यहां के कई शब्द अरुणाचल प्रदेश की बोलियों में सम्मिलित हो गए है और कई बार उच्चारण बदल जाता है और वैसे ही ‘भोनती’ शब्द अरुणाचल में ‘बोनती’ बन गई।  असम की चाय के बागानों से आदिवासी लड़कियां, असमिया,कुलि-बंगाली आदि, तिराप-चाङलाङ से चाकमा लड़कियां आदि अरुणाचल के घरों में काम करती हुई पाएं जाते है। इन्हीं कामवालियों को यहां बोनती कहा जाता है। ये शब्द इस प्रदेश में इतनी रूढ़ हो गई है कि यहां के लड़कियों को असमिया लोग कभ

यह मेरे लिए नहीं : धर्मवीर भारती

अन्तर्पाठ आलोचक राजाराम भादू अन्तर्पाठ श्रृंखला में प्रतिष्ठित कथाकारों की उन कहानियों की चर्चा कर रहे हैं जो महत्वपूर्ण होते हुए भी चर्चा में उतनी नहीं आ पायीं। हमारे विशेष आग्रह पर शुरू की गयी इस श्रृंखला में अभी तक आप मोहन राकेश की कहानी- जानवर और जानवर तथा कमलेश्वर की - नीली झील- पर पढ चुके हैं। इस श्रृंखला की तीसरी कडी में आप पढ रहे हैं धर्मवीर भारती की कहानी -यह मेरे लिए नहीं- और इस कहानी पर राजाराम भादू की टिप्पणी।                  - विनोद मिश्र सं. / कृति बहुमत, अक्टूबर, २०२१ इदन्न मम् : अस्मिता और आत्मसंघर्ष - राजाराम भादू धर्मवीर भारती ने अनेक कहानियाँ लिखी हैं। इनमें गुलकी बन्नो और बंद गली का आखिरी मकान जैसी तीन- चार कहानियों की ज्यादा चर्चा होती है। उनकी कहानी- यह मेरे लिए नहीं- ने मुझे विशेष प्रभावित किया जो १९६३ में प्रकाशित बंद गली का आखिरी मकान संकलन में शामिल है। भारती ने अपने बारे में बहुत कम लिखा है। कथा- साहित्य ही नहीं, उनकी कविता में भी अपने समकालीनों की तुलना में आत्मपरकता कम है। यह मेरे लिए कहानी आत्मपरक शैली में लिखी है लेकिन मुझे पहली बार पढते ही लगा था कि यह

वास्तविकता में विन्यस्त कविताएँ - मंजुला बिष्ट

समीक्षा विशाखा मुलमुले की कविताएँ समालोचन से लेकर कई जगहों से प्रकाशित हुई हैं जिनमें मीमांसा भी शामिल है। उन्हे सर्वत्र लक्षित किया गया। बोधि प्रकाशन ने प्रतिष्ठित दीपक अरोड़ा पाण्डुलिपि प्रकाशन योजना में उनके पहले संकलन का चयन कर इसे प्रकाशित किया है। कवि- कहानीकार मंजुला बिष्ट द्वारा  लिखी गयी यह समीक्षा शायद पहली है जिससे विशाखा की कविताओं पर समीक्षा- संवाद शुरू होने जा रहा है। विशाखा मुलमुले का कविता-संग्रह"पानी का पुल"बोधि प्रकाशन,जयपुर द्वारा आयोजित 'दीपक -अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना"के तहत चयनित है।संग्रह में कुल 71 कविताएँ हैं,जिनके बारे में निर्णायक मंडल की व्यक्तिगत टीप भी किताब में दर्ज है।कवि दीपक अरोड़ा की स्मृति में नए कलमकारों को सम्मान दिए जाने के इस साहित्यिक प्रयास हेतु बोधि प्रकाशन व मायामृग जी अवश्य ही बधाई के पात्र है।   जैसा कि हर कवि की अपनी भावभूमि होती है और उसके ऊपर गहराता उसका अपना मन-आकाश,इस संग्रह में भी यह कविमन अपने सुगठित व्यवहारिक ताने-बाने के साथ प्रस्तुत होता है।विशाखा की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि उन्हें अपनी बात कहने का असीम

कविताएँ : मनमोहन भारती

कविताएँ हम तो उसे मनमोहन भारती के नाम से ही जानते हैं। जिन दिनों मैं मुम्बई महानगर में ( अखबार में भी ) था, मनमोहन भारती और केसर सिंह बिष्ट दो युवा और साहसी रिपोर्टर थे। उन्होंने ही रातों की यात्राओं में मेरी बम्बई से कुछ पहचान करायी। बाद में धीर गंभीर प्रणव प्रियदर्शी इस टीम में आये। वापस आने पर भी मुझे महानगर के हालचाल मिलते रहे। इनमें मनमोहन किसी किस्से कहानियों का उदात्त चरित्र लगता है। जैसे लंबे संकोच के बाद प्रणव ने अपनी कहानियों के बारे में बताया। वे मीमांसा में और फिर दूसरी जगह आयीं और सराही गयीं। मनमोहन तो जितने साहसी हैं, उतने ही विनम्र और शर्मीले। उसने भी अपने भीतर एक कवि को जज्ब किया हुआ था। हमें खुशी है कि वह भी मीमांसा के जरिए बाहर आ रहा है। कविता कुछ लंबा रियाज चाहती है। आप इन्हें एक सच्चे, जज्बाती किन्तु निर्भय व्यक्ति के अंतस की शक्ति के रूप में भी पढ सकते हैं।               - राजाराम भादू 1. अंधेरों से हिस्से करने लगा हूं मैं जिंदगी तुम ही से डरने लगा हूं मैं अंधेरों में ही उजाले नजर आने लगे हैं अंधेरों से दीए जलाने लगा हूं मैं ***** 2. बिखर चुका हूं,  समेटना मुश्किल

यंग शन शुन की कविताएँ

भाषान्तर ताइवान, हांगकांग और म्यांमार इस समय अपनी आजादी को वास्तविकता में बदले की कठिन लड़ाई लड रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि छात्र और युवाओं की इस संघर्ष में अहम् भूमिका है। हमारे कवि- मित्र देवेश पथ सारिया ताइवान में हैं।‌ हमने उनसे आग्रह किया कि वे वहां के युवाओं की कुछ कविताएँ- कहानियां मीमांसा के लिए उपलब्ध करायें। युवाओं को प्रस्तुत करना इसलिए भी कठिन है कि वे अपनी मातृभाषा में लिखते हैं जिससे अनुवाद देवेश के लिए संभव नहीं था। अंग्रेजी में अनूदित होने के लिए युवाओं को लंबा इंतजार करना पड रहा है। फिर भी, देवेश ने यंग शन शुन को खोज निकाला जिनकी कविताएँ मातृभाषा से भी पहले उनकी चित्र- कृतियों के साथ हिन्दी में आ रही है। आभार देवेश इस प्रस्तुति और अनुवाद के लिए, स्वागत यंग शन शुन ! यंग शन शुन इक्कीस साल की हैं पर उनकी कविताएँ उनकी उम्र से कहीं अधिक गूढ़ हैं। यहाँ तत्सम शब्दों से चौंका देना मात्र नहीं है, बल्कि भावों की गहराई है। कुछ विपरीत या असम्बद्ध सन्दर्भों का संयोजन उनकी कविता का एक प्रमुख तत्व है। इन कविताओं में एक रहस्यवाद दिखाई देता है। चूँकि यंग शन शुन एक चित्रकार भी हैं