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अगस्त, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नरक में मोहलत -प्रणव प्रियदर्शी

कहानी प्रणव प्रियदर्शी की एक लंबी कहानी हम पहले मीमांसा में दे चुके हैं जिसे काफी सराहना मिली थी। उनकी यह कहानी प्रिन्ट मीडिया में प्रविष्ट पतनशीलता को उद्घाटित करती है। वैसे तो भारत के समूचे मीडिया का ही चरित्र बदल गया है। लेकिन यह बदलाव एक सच्चे आदमी की नैतिकता में कैसे सेंध लगाता है, यह कहानी इस परिघटना का विचलित कर देने वाला आख्यान है। नरक में मोहलत प्रणव प्रियदर्शी घर से निकलते समय ही अनिता ने कहा था, ‘बात अगर सिर्फ हम दोनों की होती तो चिंता नहीं थी। एक शाम खाकर भी काम चल जाता। लेकिन अब तो यह भी है। इसके लिए तो सोचना ही पड़ेगा।’ उसका इशारा उस बच्ची की ओर था जिसे अभी आठ महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। वह घुटनों के बल चलते, मुस्कुराते, न समझ में आने लायक कुछ शब्द बोलते उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थी। अनिता के स्वर में झलकती चिंता को एक तरफ करके अशोक ने बच्ची को उठा लिया और उसका मुंह चूमते हुए पत्नी अनिता से कहा, ‘बात तुम्हारी सही है। अब इसकी खुशी से ज्यादा बड़ा तो नहीं हो सकता न अपना ईगो। फिक्कर नॉट। इस्तीफा वगैरह कुछ नहीं होगा। जो भी रास्ता निकलेगा, उसे मंजूर कर लूंगा, ऐसा भी क्या है।’ बच

मानिनी का मान : शिवानी

समीक्षा कविता कैसे हमारे बाहर- भीतर इर्द- गिर्द बिखरी है, बस उसे सृजनात्मक रूप से सहेजने की सामर्थ्य होनी चाहिए- इस बात को समझना है तो नूतन गुप्ता की कविताएँ आपकी मदद कर सकती हैं। कविताओं के भीतर किस विनम्रता और भाव- बोध से उतरना चाहिए और अवगाहन से जो हासिल हो, उसे सहजता से प्रस्तुत करें - यह समीक्षा ऐसा संदेश देती लगती है। शिवानी ने बड़े मनोयोग से इन निन्यानवें कविताओं का पाठ किया है, वह इस प्रक्रिया को उत्सव में बदल देता है। जिजीविषा की कहानी कविता की ज़ुबानी" जो पाया वो पाने की चाहत से कम था! पर और पाने के लिए ज़िन्दगी से चिरौरी न करके, पाए गए को सहेजने में ही लगे रहे! इसीलिए कहा कि "कम है तो अच्छा है!" जब बात संवेदनाओं की होती है तो उनके कम-ज्यादा होने की मापनी कैसे की जाए!जो एक बात किसी एक के लिए अति संवेदनशील होती है वही किसी दूसरे के लिए बिल्कुल साधारण सी भी हो सकती है! मगर उस साधारण सी बात को कहने का वैशिष्ट्य उसकी संवेदनशीलता को सर्वग्राही बना सकता है! नूतन गुप्ता जी की कविताओं से गुज़रते हुए यही बात सत्यापित होती है! बिना किसी कठिन शब्दावली और गूढ़ार्थ के,ये कव

विजयदशमी - रेखा चटर्जी

कहानी नयी सभ्यता द्वारा प्रदत्त संघातिक बीमारियों और उनके महंगे उपचार अल्प- आय वर्ग के परिवारों को तबाही की ओर धकेल रहे हैं। इसके विरुद्ध भी महिलाएं ही असीम धैर्य और अदम्य जिजीविषा से लड रही हैं। रेखा चटर्जी की कहानी में यह यथार्थ मार्मिकता में उभरता है, साथ ही बहनापा ( सिस्टरहुड ) भी  रूप  एक शक्ति के   रूप में उद्घाटित होता है। मीमांसा में स्वागत है रेखा ! दुर्गा माँ के बोधोन के साथ ही आज से दुर्गा पूजा शुरू हो गयी थी। हर बंगाली परिवार के घर में उल्लास का माहौल था, लेकिन भाव्या के लिए यह दिन पिछले कई दिनों की तरह भारी था। सौरभ की किडनी की बीमारी ने उसके परिवार के उत्साह और उल्लास को जैसे नजर लगा दी हो। कब सौरभ की दोनों किडनी खराब हो गयीं पता ही नहीं चला। सौरभ में तो कोई ऐब भी नहीं था। उसने शराब, गुटखा या सिगरेट के कभी हाथ भी नहीं लगाया, फिर ऐसा कैसे हुआ। लेकिन हकीकत यही थी कि सौरभ की दोनों किडनी डैमेज हो चुकी थीं और आज वो अस्पताल में जिन्दगी और मौत से संघर्ष करते हुए डायलिसिस के भरोसे एक नई जिन्दगी की पाने की उम्मीद में जी रहा था। ऐसे में भी भाव्या अस्पताल में भर्ती पति के इलाज में ख

लोक-सृजन में कला- सौंदर्य -सुभाष सिंगाठिया

आलेख लोक- जीवन में कला स्वत: स्फूर्त रूप में यत्र- तत्र बिखरी रहती है। वह इतनी सहज व्याप्त है कि उसकी कलात्मकता और सौंदर्य पर प्रायः हमारा ध्यान नहीं जाता। अक्सर उसके परिष्कृत रूप ही हमारे विमर्श में आते हैं। लोक- सृजन में निहित कला और सौंदर्य को अपने लेख में सुभाष सिंगाठिया ने बड़ी सूक्ष्मता से रेखांकित किया है।                              साहित्य और कला- सौंदर्य बोध से भरपूर अपनी खूबसूरती को समेटे हुए ये दोनों बेहद महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील घटक किसी भी समाज के यथार्थ से लबरेज ऐसे सजीव और जीवंत चेहरे हैं जो उसके साँस्कृतिक और कलात्मक अस्तित्व को सहेजे हुए रहते हैं- आवरण रहित बहुआयामी चेहरे। एस्थेटिक सेंस से लबालब  इन चेहरों को लोक कला में ढूँढें तो ये जीवन के और अधिक नजदीक महसूस होते हैं- जीवन की गहन अनुभूति लिए हुए। जिनमें जीवन, जीवन-संघर्ष, जीवन-आनंद और जीवन-उत्सव के व्यापक आयाम निहित हैं, यानि लोक-कला लोक-जीवन और लोक-मानस के ही सदृश है और इसका मूल उद्देश्य या लक्ष्य अंततः लोकहित ही होता है। मैंने कहीं पढ़ा था कि- "शब्द जहाँ अपनी अभिव्यक्ति का सामर्थ्य खो देते हैं, ठीक वहीं स

नवगीत - जयप्रभा यादव

गीत हिन्दी में गीत- गजलें मुक्त- छंद कविताओं के समानान्तर रची जा रही हैं। हर रचनाकार अपनी मन: स्थिति और अभिमुखीकरण के अनुसार अभिव्यक्ति विधा का चयन करता है। तब महत्वपूर्ण यह है कि वह अपने लिए उस विधा का कैसे अभिनवन करता है। जयप्रभा यादव की गीति- कविता में अनुभूति, संवेदना, शब्द- विन्यास और शैली में प्रभावी समन्वयन है। मीमांसा में उनके कुछ गीत प्रस्तुत हैं। *जीवन रसधारा बहने दे।* जीवन रसधारा बहने दे। यह कीकर मन मधुरिक्त रहा। कब पुष्पों से अभिसिक्त रहा ।। कदली रसाल का साथ न था। गर्वोन्नत था नत माथ न था।। अब नीडों की ऋतु आई है। कलरव दे रहा सुनाई है।। शतस्वप्न पले इन विहगों से  अब तो तू मन की कहने दे । *जीवन रसधारा बहने दे ।।* मृग सिकता में भ्रम खाता था। बन पागल दौड़ लगाता था ।। उसको जलधारा मिली न थी । यह दीठ तृषा भी बुझी न थी ।। मग में थी अथक थकान भरी । प्राणों की जाती डूब तरी ।। अब जलदों का मौसम आया दुश्चिन्ताओं को दहने दे । *जीवन रसधारा बहने दे।।* घाटों घाटों के पगधर थे । मन मिले नहीं यायावर थे।। दिनमणि सँग चलते पाँव रहे। पाते ठूँठों की छाँव रहे।। आशाओं के व्यापारी थे। अंत:ज्योति के पुज