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दिसंबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वृहद कैनवास की कविता: हिन्दनामा

राजाराम भादू हिन्दनामा पर इसके रचयिता खुद कृष्ण कल्पित ने जितना बोल- लिख दिया है उसने दूसरों के लिए मुश्किल पैदा कर दी है। यदि कोई इस किताब के पक्ष में कुछ कहता है तो वह कल्पित  की किसी अथवा किन्हीं बातों का अनुमोदन मात्र होगा क्योंकि इसके पक्ष में शायद ही कोई बात हो जिसे वे पहले न कह चुके हों। यदि कोई आलोचना में कुछ कहता है तो दूसरी मुश्किल है। जब उनके कुछ कहे पर किसी ने प्रतिक्रिया दी कि आप तो अपनी किताब का प्रचार कर रहे हैं तो उनका जबाव था, प्रचार कर रहा हूं, दुष्प्रचार नही। तो आप पर दुष्प्रचार करने का लांछन लग सकता है। असल में, लेखकों द्वारा अपनी किताब के प्रमोशन में उतरने से ऐसी दुविधा उत्पन्न हुई है। वैसे रचनाकार अपनी कृति के बारे में कितना बोले, क्या बोले- इसे लेकर कोई नियम - कायदे तो हैं नहीं , और होने भी नहीं चाहिए। लेखक काफी समय से अपनी किताबों के ब्लर्व लिखते रहे हैं। पहले ये बेनामी होते थे, अब इसके साथ अपना नाम दिया जाने लगा है। किताब की भूमिका लिखने का रिवाज तो ऐतिहासिक है। वे अपनी रचना- प्रक्रिया पर बोलते- लिखते रहे हैं और साक्षात्कारों में अपनी पसंद के पेन, कागज अथव

ललित निबंध और अष्टभुजा शुक्ल

राजाराम भादू ललित निबंध सिर्फ विचार- मंथन ही नहीं, वहाँ कल्पना की उन्मुक्त उड़ान भी है। कल्पना की उड़ान तो उन्मुक्त ही होगी, तो क्या फिर कल्पना का भी क्षरण हो गया? उसके पर कतर दिये गये या उसे उन्मुक्त उड़ान भरने को आकाश ही नहीं बचा है? यह सही है कि हमारी जीवन- शैली में अभूतपूर्व बदलाव आया है। हम एक कठोर अनुशासित और यांत्रिक जिन्दगी जी रहे हैं। यहाँ विकल्प के चयन की गुंजाइश नहीं, बाध्यता है। कथित विकास ने हमारी जीवन- पद्धति को कंडीशंड बना दिया है। शायद इसी का प्रतिबिंबन साहित्य की विधाओं में है। जो विधाएं हमारी अनुकूलित जीवन- स्थितियों के अनुकूल हैं, वेे ही हमारा सृजन- क्षेत्र बनकर रह गयी हैं। अनुकूलित जीवन- पद्धति में चला आ रहा विचार खपता है। ढर्रे की जिन्दगी यथास्थिति का पोषण करती है। नया विचार वस्तुत: हमारे आभ्यन्तर में ही बैचेनी पैदा नहीं करता, वह हमारे जीवन में खलल पैदा करता है। वह अनुकूलन में विचलन उत्पन्न करता है। वह ठहरे हुए पानी में कंकड मारता है। अंग्रेजी का एक प्रसिद्ध निबंध है- आन डूइंग नथिंग यानी कुछ न करने पर- वह हमारी एकरस जीवनचर्या की निरर्थकता पर प्रश्न खडे करता

लुप्त होते ललित निबंध भाग -एक

राजाराम भादू हमें इस ओर भी एक नज़र जरूर डाल लेनी चाहिए कि इस समय ललित निबंध की  स्थिति क्या है। इसके लिये हमें बहुत तकलीफ नहीं उठानी होगी, बल्कि हम बहुत जल्दी यह निष्कर्ष दे देंगे कि ललित निबंध शीघ्र लुप्त हो जाने वाली विधा है। ललित निबंध जैसी विधा का क्षरण एक गंभीर घटना है, यदि हम हिन्दी को एक ठोस धरातल प्रदान करने में ललित निबंध की ऐतिहासिक महत्ता को समझते हैं। ललित निबंध की स्थिति प्रकारान्तर से यह दर्शाती है कि हिन्दी में गंभीर और कलात्मक गद्य एक खतरनाक संकट की स्थिति में है। जिस समीक्षा की हम आज अपेक्षा करते हैं, क्या वह सबसे गंभीर और सरस गद्य नहीं होती? इसका क्या कारण है कि आज कोई लेखक ललित निबंध नहीं लिखना चाहता और न केवल आलोचना। आखिर कोई पत्रिका कविता या कहानी से इतर विशेषांक निकालने में ज्यादा दिलचस्पी क्यों नहीं लेती, जबकि हिन्दी में साहित्यिक पत्रिकाओं की कमी नहीं है। ऐसा क्यों है कि संपादक सिर्फ कविता या कहानी के संकट की समस्या उठाते हैं,  अथवा आलोचना के गतिरोध का मामला उठाया जाता है? लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि किसी विधा को समग्र परिप्रेक्ष्य से काटकर किन्हीं सुसंगत

शब्दों की दुनिया

राजाराम भादू उत्तर आधुनिकता से अभिहित किये जाने वाले विमर्श में पाठ ( टेक्स्ट) बहुत महत्वपूर्ण हो उठा है। हिन्दी शब्द पाठ के दो अर्थ हो सकते हैं, एक पाठ्य- वस्तु और दूसरा पाठ ( रीडिंग)। कुछ उत्तर आधुनिक चिंतकों के अनुसार ज्ञान अथवा सृजन वास्तव जगत का पाठ ( टेक्स्ट) मात्र है। इस पाठ की व्याख्या भी  एक पाठ (रीडिंग) है। कुछ अन्य उत्तर आधुनिक व्याख्याकार समूची संस्कृति को पाठ और उप -पाठ बताते हैं। दूसरे कुछ चिंतक भाषा को ही वास्तव जगत का पाठ मानते हैं। भाषा वस्तु ( ऑब्जेक्ट) को संकेत, संकेतक और संकेतित ( साइन, सिग्नीफायर, सिग्नीफिकेन्ट) में परिवर्तित कर देती है। इन चिन्तकों का मानना है कि वास्तविक जगत और उसकी भाषिक सृष्टि के बीच एक बड़ा अंतराल रहता है जिसे हमारा कोई भी पाठ( रीडिंग) और व्याख्या पूरी तरह पाट नहीं सकती। उत्तर आधुनिक चिन्तकों में से कुछ चिन्तक विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं को वृत्तांत ( नैरेटिव) मानते हैं।प्राचीन शास्त्रीय संस्कृतियां उनके लिए महा वृत्तांत ( मेगा नैरेटिव्स) हैं। देरिदा जैसे चिन्तक इन्हीं वृत्तान्तों के विखंडनात्मक पाठ ( डिकंस्ट्रक्टिव रीडिंग) की बात करते हैं

परिवेश और मूलचंद गौतम

राजाराम भादू हिंदी के समकालीन परिदृश्य में पत्रिका "परिवेश" अौर  उसके संपादक मूलचंद गौतम पर्याय जैसे रहे हैं। परिवेश मुकम्मिल रूप में एक लघु पत्रिका थी- छोटी जगह से प्रकाशित, सादगीपूर्ण और अपने बड़े मंतव्यों से परिचालित। परिवेश से संस्थापक संपादक के रूप में कथाकार काशीनाथ सिंह का नाम जुड़ा रहा। उन्ही के शब्दों में, परिवेश का पहला अंक १९७१ में आया था। सब मिलाकर छह-सात अंक निकाले थे। १९७६ में आपातकाल की घोषणा के बाद इसे बंद कर देना पड़ा। परिवेश का पंजीकरण नहीं हुआ था। यह विश्वविद्यालय ( बनारस) की ओर से निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिका थी। मुझसे विश्वविद्यालय ने ही मौखिक रूप से कहा था कि इसके पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है। ऑडिट वगैरह की झंझटों से बचने के लिए इसका मूल्य भी नहीं रखा गया था। दूसरे विश्वविद्यालयो- पुस्तकालयों, लेखकों- पाठकों और छात्र- छात्राओं को मुफ्त भेजी जाती थी। कुमार संभव १९७२ में ही दूसरे अंक से परिवेश से जुड गया था। लेकिन रामपुर से जब उसने परिवेश निकालने का निर्णय किया तो उसने सिर्फ नाम लिया, बाकी सारा कुछ उसका अपना था। मूलचंद गौतम परिवेश के ११वें अंक से क