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सितंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विभाजित अंधेरे

संभावना लेखिका मंजुला बिष्ट के पास अत्यंत तरल भाषा एवं सूक्ष्म ऑब्जर्वेशंस हैं ,जो कहानी के कहन को प्रभावी तथा वातावरण को जीवंत बनाते हैं । चरित्रों के मनोविज्ञान की बारीक पकड़ , उनके अंतर्विरोधों को गहराई से रेखांकित करने में सहायक है । लेखिका अपनी इन सभी खूबियों का ' विभाजित अंधेरे' में स्त्री संसार के अंधेरे कोनों के मूक साझाकरण की प्रक्रिया में आए अवरोधों की पड़ताल में बेहद खूबसूरती से उपयोग करती हैं  । दूसरे फलक पर यह अस्तित्व के युद्ध की संवेदनहीन भूमि पर मानवीय भावनाओं के अंकुरण के लघु प्रयास की भी कहानी है ।  साथ ही यह स्त्री मनोभावों के दो अलग-अलग समांतर संसार के बीच की अंतः क्रिया की सीमाओं एवं शक्तियों को भी उजागर करती है । विभाजित अंधेरे                                         मंजु ला बिष्ट               वह मई माह की एक ऊबी हुई दुपहरी थी।सूरज आदतन अपनी तासीर बढ़ा रहा था।खुले आसमान तले भावी तीख़ी तपन से बचने के लिए मुझे भी अपना काम निपटाने की जल्दी होने लगी थी।देहली गेट की सब्जी मंडी में रोज़ाना की तरह चहुँ तरफ़ा लोगों की आवाजाही बनी हुई थी।मुझे सब्जी-फल के बाद फूल भी खर

शिक्षा विमर्श के नए आयाम खोलती 'किताब'

कृति चर्चा  प्राचार्य एवं  प्रशासक रहे डॉ आर.डी सैनी लगभग चालीस वर्षों से साहित्य संसार में सक्रिय हैं । कविता ,उपन्यास एवं कथेतर विधाओं से गुजरते हुए 'किताब' उनकी दसवीं पुस्तक है । 'विचार प्रक्रिया ' और 'संज्ञानात्मक बोध ' का बच्चों में विकास कैसे हो ? इसका व्यावहारिक धरातल पर समाधान यह पुस्तक प्रस्तुत करती है   । डॉ. ममता चतुर्वेदी प्राचार्य है , जो कि लंबे समय से पठन-पाठन के साथ-साथ शिक्षा के व्यापक सरोकारों से जुड़ी रही हैंं । एक शिक्षिका की दृष्टि से डॉ. आर.डी सैनी की 'किताब' की यह समीक्षा , पाठकों को शिक्षा से जुड़े उन मूलभूत प्रश्नों एवं समस्याओं के समाधान समझने में मदद करेगी , जिनका सफलतापूर्वक सामना लेखक ने स्वयं किया है ।  यह पुस्तक समीक्षा 'किताब' के सभी आयामों को दृष्टिपात करते हुए पाठक को किताब की दहलीज तक ले जाती है । एक पुस्तक के रूप में  'कुछ यूं रचती है हमें "किताब", शिक्षा व बाल मनोविज्ञान पर आधारित भाव प्रधान पुस्तक है । इसमें लेखक डॉ आर.डी सैनी ने मानव मूल्य , नैतिकता, कर्तव्य एवं घटनाओं का मार्मिक चित्रण किया है

निराशा के कर्त्तव्य और स्वप्न- चित्र

 निराशा के कर्त्तव्य और स्वप्न- चित्र हिन्दी साहित्य के विमर्श-क्षेत्र में अज्ञेय और रामविलास शर्मा का अवसान एक युगान्तर था। इसी के साथ विमर्श की लगभग दो ध्रुवीय दुनिया भी विखंडित हो गयी। यद्यपि अपने आखिरी दिनों में जन- वृत्त के लिहाज से ये दोनों ही विभूतियाँ करीबन वानप्रस्थ हो गयीं थीं। उनके बाद हिन्दी साहित्य के पब्लिक स्फियर में जो त्रिमूर्ति लंबे समय छायी रही, उनमें हैं- नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी। इनकी हैसियत समूचे वितान में सम्मानित, विवादास्पद और विचारोत्तेजक बनी रही। अब इनमें से अशोक वाजपेयी रह गये हैं। हालांकि उनके शिखर कद को स्वीकारने में बहुतों को असहमति हो सकती है। उनमें अन्तर्विरोध भी अपेक्षाकृत ज्यादा देखे गये हैं। इस प्रसंग में सिर्फ दो तथ्यों का उल्लेख किया जा सकता है। देश भर में घूमकर भाषण देने में हिन्दी से शायद नामवर जी के बाद उनका दूसरा नंबर है। यदि नामवर जी के व्याख्यान और साक्षात्कार, राजेन्द्र यादव के व्याख्यान और संपादकीय ( साक्षात्कार उनके कम हैं ) के कुल योग से भी अशोक वाजपेयी के व्याख्यान, संपादकीय और स्तंभ- लेखन को जोड लें तो आप इन्हें भी उनक

कविता की जरूरत

  कविता की जरूरत असुंवन जल सींच सींच प्रेमबेलि बोई, अब तो बेलि फैल गई होवे सो होई। यह मीरा के एक पद का छंद है। मुझे किसी क्षण सहसा स्मरण हो आया। बार- बार स्मृति में उभरता रहा। यह कविता है। एक आत्यंतिक अनुभूति की समूर्त अभिव्यक्ति। एक जीवंत बिम्ब और निर्भय वक्तव्य- होवे सो होई। क्या यह सिर्फ भक्ति- भाव है। नहीं, यह सामंती पतनशीलता और जकड़न का तीव्र प्रतिकार है। असुंवन जल सींच -सींच, वेदना का आर्तराग। शताब्दी गुजर गयी, इतिहास का गर्द- गुबार बार-बार उठा और बैठ गया। मीरा की प्रेम- बेलि अभी तक हरी- भरी है, सदाबहार है। लेकिन प्रश्न यह है कि कोई कविता मैं क्यों पढता हूं? यदि कविता में मेरी किंचित दखलंदाजी न हो तो भी क्या मैं कविता पढूंगा? इस तरह यह प्रश्न देखेंगे तो हमें बहुत काम की बात नहीं मिलेगी। रचनाकार चूंकि सृजन का सोच- विचार कर चुनाव करते हैं, अतः कविताएँ पढना एक तो उनके अध्ययन का हिस्सा है, दूसरे उनकी उत्सुकता का विषय। मसलन, अपने रचनाकार का विकास करने के लिए वे अपने पूर्ववर्तियों और क्लासिकों का अध्ययन करते हैं। उत्सुकतावश समकालीनों का और प्रायः राय- मशविरा देने के लिए नये रचनाकारों क

उत्तर- आधुनिकता के अन्तर्विरोध

उत्तर- आधुनिकता को लेकर भारत में और विशेष रूप से हिन्दी- क्षेत्र में बहुत भ्रम और आकर्षण है। सामान्यतः हमारे पास इसको लेकर बहुत आधी- अधूरी सूचनाएं हैं। ज्यादातर तो उत्तर- आधुनिकता की चर्चा बतौर फैशन की जाती है, उसे लेकर कोई गंभीर चिंतन और चिंता हमारे यहां लगभग अनुपस्थित है। इस संदर्भ में हम इस खतरनाक भ्रम पर कुछ विचार करना चाहेंगे। वास्तव में, उत्तर- आधुनिकता कोई एक विशिष्ट चिंतन- सरणि या विचारणा नहीं है, यह उत्तर- आधुनिक पाश्चात्य समाजों की विभिन्न चिंतन- सरणियों के एक समग्र दौर का नाम है। यह समय- विभाजन को, उसमें आए समस्त परिवर्तनकारी कारकों के परिप्रेक्ष्य को ठीक से समझने के लिए दी गयी एक संज्ञा है। पिछले दशकों में यूरोप में चिंतन, संस्कृति और सृजनात्मकता के क्षेत्र में ढेर सारी प्रवृत्तियाँ उभरीं। इन प्रवृत्तियों को उत्तर आधुनिकता की संज्ञा से अभिहित किया गया। उत्तर- आधुनिकता यदि एक विशिष्ट जीवन- दृष्टि है तो इस अर्थ में कि इसमें उत्तर- औद्योगिक दौर की उन्नत सभ्यताओं की प्रमुख लाक्षणिकताएं- उच्च तकनीक, वैश्विक बाजार, नव- उपनिवेशवाद और आर्थिक उदारीकरण तथा विश्व स्तर पर संस्कृतियों क