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सितंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुझे चांद चाहिए - राजाराम भादू

पिछले दिनों एक प्रसंग तो मुझे चांद चाहिए के लेखक सुरेन्द्र वर्मा को लेकर सोशल मीडिया पर चली बहस थी जिसमें उन्होंने कथित रूप में किसी शोधार्थी से साक्षात्कार के लिए पैसे मांग लिए थे। इस पर पक्ष- विपक्ष में बहस से ज्यादा मुझे ममता कालिया का अभिमत ज्यादा मौजू लगता है कि ऐसा शायद उन्होंने उस शोधार्थी से पीछा छुडाने के लिए किया हो। लेकिन मेरा सरोकार एक दूसरे प्रसंग से है। कुछ समय पहले अभिनेत्री सविता बजाज की टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर आयी थी जिसमें वे बहुत व्यथित होकर कह रही थीं कि पहले कोरोना और फिर उसके प्रभाव से हुई बीमारी के उपचार में उनकी पूरी बचत समाप्त हो गयी है। बहरहाल, इस खबर का असर हुआ और फिल्म राइटर्स एसोसिएशन तथा सिन्टा सहित कई लोग उनकी मदद के लिए आगे आये। अभी सिन्टा की ओर से अभिनेत्री नूपुर अलंकार उनकी बहुत अच्छे से देखभाल कर रही हैं। वे अपनेकिराये का फ्लैट छोडकर नूपुर की बहिन के घर रह रही हैं। मुझे चांद चाहिए के कथानक की पृष्ठभूमि दिल्ली का नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, रंगमंच और मुम्बई का फिल्म - जगत है। यह भी कहा गया था कि यह एनएसडी की ही एक अभिनेत्री की सच्ची कहानी पर आधारित है।

एक पाठक के प्रश्न- मेघा मित्तल

एक चिथडा सुख पर मेघा मित्तल ने अपनी सहज जिज्ञासाएं, स्वाभाविक प्रश्न और मासूम विभ्रम दर्ज किये हैं। इनके साथ कृति के मूल भाव से किसी हद तक तादात्म्य स्थापित कर पाने की प्रतीति भी है। मेरे जैसे अनुभवी से वे कृति और कृतिकार को और साफ समझना चाहती हैं। मुझे इसे पढकर साहित्य में अपने आरंभिक दिन याद आ गये, जब किसी किताब को शुरू करने पर लगता था जैसे अंधेरे कमरे में टटोलते हुए आगे बढ रहे हैं। निर्मल वर्मा को मुझसे भी बेहतर समझने वाले लोग है। हम इस पाठकीय टिप्पणी को इस उम्मीद से प्रस्तुत कर रहे हैं कि एक स्नातक पाठक के रूप में पूरी ईमानदारी से मेघा ने जो हमारे सामने रखा है, उसे आधार बनाते हुए आगे चर्चा करें। शायद इससे कुछ और लोगों को भी मदद मिले जो उतने मुखर नहीं हैं लेकिन इसे समझने के लिए  वैसे ही जूझ रहे हैं।              -राजाराम भादू                                        नमस्कार सर.. मैंने हाल ही में निर्मल वर्मा जी की ‘एक चिथड़ा सुख’ किताब पढ़ी। मैंने उसे पढ़ तो लिया है लेकिन मुझे लग रहा है कि मैं समझ ही नहीं पाई हूँ कि इस किताब में वो कहना क्या चाह रहे हैं? मुझे लगा कि मुझे ज़रूरत है कि

दुष्यंत की राजो... जयश्री शर्मा

स्मृतिशेष हालांकि दुष्यंत कुमार की लोकप्रियता उनकी उत्प्रेरक गजलों के कारण है। लेकिन वे अपनी ही शैली के कवि- कथाकार भी थे। उनकी सहधर्मिणी राजेश्वरी की उनके जीवन में तो अहम् जगह थी ही, उनके बाद भी बड़ी शिद्दत से उन्होंने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन किया। संस्मरणकार कांतिकुमार जैन ने दुष्यंत- राजेश्वरी के रागात्मक संबंधों का बडा जीवंत चित्रण किया है। हमने मीमांसा के लिए जयश्री शर्मा से राजेश्वरी की स्मृति में लिखवाया है जिन्होने दुष्यंत कुमार के सृजन पर गंभीर शोध किया है। उनका राजेश्वरी जी से हाल तक संपर्क व संवाद था। राजेश्वरी सहारनपुर जिले के डंगेटा गाँव के सूरजभान कौशिक की पुत्री थीं जिनका विवाह दुष्यन्त कुमार के साथ 30 नवंबर 1949 को हुआ था। विवाह के समय दुष्यन्त कुमार की उम्र 18 वर्ष और राजेश्वरी की उम्र 16 वर्ष की थी। शादी के समय दुष्यन्त कुमार इंटर पास थे जबकि राजेश्वरी हाई स्कूल पास थीं। राजेश्वरी की माँ सोना देवी गृहणी तथा सूरजभान कौशिक सरकारी विभाग में कानूनगो थे। राजेश्वरी के दो भाई और एक बहन थी। जिस प्रकार छोटी उम्र के प्यार की आयु लम्बी होती है, उसी तरह छोटी उम्र के विवाह

अंबर तृष्णा -2 : गरिमा पंत जोशी

उपन्यासिका भारत ही नहीं, अन्यत्र भी स्त्री- स्वातंत्र्य समस्यामूलक है। स्वत्व के लिए संघर्षरत स्त्री के समक्ष एकल जीवन का अवसाद और चुनौतियां होती हैं, तो दूसरी ओर अनुकूलित समर्पिताएं माडल की तरह पेश आती हैं। यह उपन्यासिका स्त्री जीवन के इन उभय- पक्षों  की गहरी पडताल करती है। मीमांसा के दो अंकों में विस्तारित इस कथा की बहती भाषा आपको बांधने में समर्थ है। इसी के चलते गरिमा ने पारदर्शिता के साथ इस संवेदनशील कथानक को प्रस्तुत किया है। दरवाजे की घंटी बजी... अपनी अनमनी अवस्था की तंद्रा से जाग टीनू ने हठात ओढ़े हुए अवसाद के कंबल को दूर फेंका। अवसाद से अधिक तो अनमानापन था। सच पूछा जाए तो वह एक नौसिखिया नटी की भांति एक पतली रस्सी पर चल रही थी जिसकी एक और थी अवसाद की गहरी खाई और दूसरी ओर अनमनेपन की। पर खाई तो थी। और ये ज़िद की खाई थी। एकाकीपन की ज़िद। खुद को अवसाद में आकंठ डुबो देने की ज़िद।  उसने अपने बेतरतीब कपड़ों को ठीक किया और दरवाजा खोला।  "जी मैं दिव्या", दरवाज़े पर खड़ी युवती ने कुछ सकुचाते हुए कहा। टीनू कुछ और पूछती, इससे पहले ही युवती अपने दुपट्टे को दोनो कंधों पर ऊंचा उठाते

अंबर तृष्णा - गरिमा जोशी पंत

उपन्यासिका भारत ही नहीं, अन्यत्र भी स्त्री- स्वातंत्र्य समस्यामूलक है। स्वत्व के लिए संघर्षरत स्त्री के समक्ष एकल जीवन का अवसाद और चुनौतियां होती हैं, तो दूसरी ओर अनुकूलित समर्पिताएं माडल की तरह पेश आती हैं। यह उपन्यासिका स्त्री जीवन के इन उभय- पक्षों  की गहरी पडताल करती है। मीमांसा के दो अंकों में विस्तारित इस कथा की बहती भाषा आपको बांधने में समर्थ है। इसी के चलते गरिमा ने पारदर्शिता के साथ इस संवेदनशील कथानक को प्रस्तुत किया है। टीनू ने सिगरेट का आखिरी कश खींचा और फिर बीयर का गिलास उठा लिया। एक घूंट बीयर बची थी गिलास में बस। उसे एक सांस में गटका के वह बिस्तर पर औंधे मुंह जा गिरी। बिना बाहों का पतला टॉप और एक स्कर्ट पहने ही वह नींद के आगोश में जा रही थी। पता नही यह नींद का आगोश था या नशे का या फिर नशे ने ही नींद की थपकी दे दी। अलकनंदा पहले ही सो चुकी थी। टीनू की सात साल की बेटी अलकनंदा। कितना ढूंढ कर रखा था उसने यह नाम। एक सहमा सा स्मित अलकनंदा के गोल चेहरे पर हमेशा बना रहता। उसने नींद में ही कुनमुना के एक बार मां की ओर देखा और फिर से सो गई। शायद सो ही गई होगी। यह माहौल तो अब उसके लिए