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अगस्त, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खुद के विरोध में

खुद के विरोध में अनिल अनलहातु के कविता-संकलन - बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ- की अधिकांश कविताओं में अन्य साहित्यिक- कला कृतियों/ इतिहास की घटनाओं, पात्रों और स्थानों के प्रसंग और संदर्भ आते हैं। संकलन पर चर्चा से पहले, मुझे लगता है, हाल की एक घटना का संक्षिप्त विवरण देना जरूरी है जो मेरे हिसाब से इस कृति से संदर्भित है। १. यह प्रसंग फेसबुक पर मौजूद है। एक फेसबुक लाइव कार्यक्रम में कवि अदनान कफील दरवेश ने अपने कविता- पाठ के साथ कुछ चर्चा भी की। उन्होंने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कहा कि जब बाबरी मस्जिद का फैसला आया तो हिन्दी ( जगत) में एक अश्लील शांति पसरी हुई थी। जब मस्जिद गिरायी गयी तब ऐसी शांति नहीं थी बल्कि कविता लिखने की होड थी। सबके सामने अपने को सेक्युलर प्रूव करते का चैलेंज था और उस वक्त सभी ने सिद्ध किया कि हिन्दी सेक्युलर भावों पर खड़ी है और हिन्दी सांप्रदायिकता की राजनीति के खिलाफ है। धीरज सैनी ने उनके इस वक्तव्य को सवाल की तरह जारी किया। आनंदस्वरूप वर्मा ने इस पर प्रत्युत्तर में लिखी एक लंबी पोस्ट के जरिए बताया कि कैसे दिल्ली से अनेक रचनाकार- बुद्धिजीवी घटना के तत्काल बाद ल

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

आलोक- वृत्त में स्वयं- प्रभ !

आलोक- वृत्त में स्वयं- प्रभ ! सुमन केशरी की कविताओं के संदर्भ हमारे धूसर वर्तमान, प्रश्नाच्छादित अतीत और आशंकित भविष्य से उलझे हुए हैं। उनके यहां सांस्कृतिक स्मृतियाँ बारंबार आती हैं जो हमारे मिथकों में दर्ज हैं और जिनका वे वर्तमान के प्रसंग में प्रत्याख्यान करती हैं। एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में परिदृश्य के विस्तृत और कई बार अपरिभाषेय फलक को वे अपनी कविता में एक स्त्री के नजरिये से देखती- परखती हैं। उनके संकलन- पिरामिडों की तहों में तथा मोनालिसा की आखें- की कविताओं से गुजरना अपने आप में एक उद्वेलनकारी अनुभव है। ये दिन पिरामिडों की तहों में गुजरते दिन हैं... कवि की यह प्रतीति किसी को अतिरंजित लग सकती थी लेकिन महामारी की मौजूदा आपदा और इससे निपटने में भारी असफलताओं ने इसे एक भयावह वास्तविकता बना दिया है। यहीं से एक लंबी कविता- श्रृंखला आरम्भ होती है, जो असल में एक विराट फंतासी है और संकलन के आखिर में ही समाप्त होती है। इसी के उत्तरार्द्ध में जो कविता किंचित भिन्न और खुली लग रही हैं, वे भी   फंतासी के उसी संसार की किसी ऊपरी सतह पर घटित हो रही हैं। कविता पिरामिड की  दुनिया के जिस अंत: क्षेत

कभी न छीने काल

कभी न छीने काल अपने जीवन में मैं ने देखा है सब कुछ सारे विषाद भरे अनुभव हैं मेरे खाते में तमाम लौकिक प्रार्थनाओं में मैं गुहारता हूं बस एक किसी बच्चे को कभी न छीने काल। मैं जानता हूँ कि संभव नहीं कि मौत फेंके न किसी पर फंदा अपना, फिर भी थकूंगा नहीं, मैं गुहारता रहूंगा अनथक किसी बच्चे को कभी न छीने काल। वर्षों पहले वसुधा ने अपनी यशस्वी परंपरा में काएसिन कुलिएव की अनूदित कविताओं की पुस्तिका जारी की थी- कभी न छीने काल। उसी की शीर्षक कविता से ये पंक्तियों उद्धरित की गयी हैं। इनके अनुवादक थे- कवि सुधीर सक्सेना। एक कवि की सोच और अभिरुचि को जानने में उसके द्वारा चयनित रचनाकार और रचनाओं से काफी मदद मिलती है। मैं तभी से सुधीर सक्सेना की कविताओं को पढता रहा हूं। जीवन की हरीतिमा के प्रति उनके आग्रह और अनुरक्ति का कुछ रिश्ता तो काएसिन कुलिएव से भी जुडता ही है जो हिन्दी वालों के लिए बहुत परिचित कवि नहीं हैं। सुधीर सक्सेना लगभग चार दशक से कविताएँ लिख रहे हैं और अभी तक उनके करीबन दस संकलन आ चुके हैं। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उनकी उपेक्षा या अनदेखी हुई है पर मुझे यह जरूर लगता रहा है कि उनकी कविता को

वास्तविकता का विद्रूप चेहरा

वास्तविकता का विद्रूप चेहरा चंदन पाण्डेय का उपन्यास वैधानिक गल्प वास्तविकता के विद्रूप चेहरे को हमारे सामने लाता है जिसका सहजता से सामना करना संभव नहीं है। हिन्दी में अपराध और हिंसा की पृष्ठभूमि पर बहुत कम लेखन हुआ है जबकि समाज में ये प्रवृत्तियाँ बढती जा रही हैं। हिन्दी सिनेमा के लिए अपराध और हिंसा बिकने वाले विषय हैं जिसके साहित्यिक संस्करण सस्ते लोकप्रिय उपन्यासों के रूप में मिलते रहे हैं। वहाँ इस विषय को लोकरंजक तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। यदि कोई समाज अपराध और हिंसा से अपना मनोरंजन करने लगे तो यह कतई सुखद संकेत नहीं है। यह रंजकता अपराध और हिंसा के लिए पहले समाज में स्वीकृति की जमीन तैयार करती है। तदनन्तर समाज का वह हिस्सा उन प्रवृत्तियों को लेकर अनुकूलन की स्थिति में आ जाता है। दुर्भाग्य से ऐसा हो रहा है और वैधानिक गल्प इस तथ्य की ताईद करता है। अर्से पहले अवधेश प्रीत की एक कहानी पढी थी- नृशंस। उसका कथ्य और कहन का प्रभाव लंबे समय तक बना रहा, बल्कि अभी तक स्मृति में है। फिर वर्षों बाद चंदन पाण्डेय की कहानी पढी- जमीन अपनी तो थी। यह कहानी भी वैसी ही पीछा करने वाली है। पंजाब की हरि

एक जन- नाटक का जनम

पूर्व-कथन नीचे आप एक अखबार की कटिंग देख रहे हैं। इसमें तसवीर के साथ टिप्पणी में लिखा है कि जब अभिनेता इरफान जयपुर के अपने आरंभिक दिनों में नाटक महाभोज ( मन्नू भंडारी) में काम करने गये, तब तक इसकी कास्टिंग हो चुकी थी। लेकिन इरफान निर्देशक प्रदीप भार्गव के साथ नाटक करने के लिए इस कदर व्यग्र थे कि उन्होंने खुद अपने लिए नाटक में रोल गढ लिया और फिर उसे अभिनीत भी किया। इस अनुभव- आलेख में आप उन अल्प- चर्चित नाट्य- निर्देशक की कार्य- शैली को थोडा जान सकते हैं। अपने सरोकारों के लिए रंगमंच से जुडे प्रदीप भार्गव ख्यात अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने प्रो विजयशंकर व्यास और ज्यां ड्रेज के साथ काम किया है। अष्टावक्र गीता का किया इनका भावानुवाद प्रकाशनाधीन है।  दूसरे, आप्रवासी मजदूरों की आवाजाही इन दिनों हमारी चिन्ता और चर्चा में रही है। आप जयपुर महानगर में ऐसे प्रवासी मजदूरों की जद्दोजहद की करीब पच्चीस साल पहले की कुछ झलक पा सकते हैं। एक जन- नाटक का जनम ये मार्च १९९४ की उतरती सर्दियों के दिन थे। इस पूरे महीने में इस नाट्य- अनुभव ने रूपाकार लिया। युवाओं का एक छोटा- सा समूह था। एक सरोकार था शहीद भगतसिंह के

जो टूट गये- उनके लिए : मायामृग

जो टूट गये- उनके लिए : मायामृग १. बकलम खुद : मायामृग नाम मैं ने खुद रखा। परिजनों ने रखा था नाम संदीप कुमार, जो अब सिर्फ सरकारी रिकॉर्ड में रह गया है। मेरा जन्म 26 अगस्त,1965 को फाजिल्का ( पंजाब) में हुआ। जन्म के दस दिन बाद ही परिवार को पंजाब छोड हनुमानगढ़ ( राजस्थान) आना पड़ा, मेरे जीवन के शुरुआती 25 साल यहां बीते। इसके बाद जयपुर आकर बस गया। पहले शिक्षा विभाग में सरकारी नौकरी की और नौकरी छोड़कर पत्रकारिता। इसके बाद मुद्रण और प्रकाशन को व्यवसाय के रूप में चुना। संप्रति प्रकाशन और लिखने- पढने के  काम में व्यस्त हूं। २. पहले तो किताब के पिछले कवर पर छपे मायामृग के इस परिचय को मुकम्मिल करने की जरूरत है। यह गुजरी शताब्दी का आखिरी दशक था। मैं ने मायामृग की कविताएँ खबरनवीस में देखी। इस नाम ने तो आकर्षित किया ही, कविताओं ने भी ध्यान खींचा। सत्यनारायण ( जो तब खबरनवीस के संपादक थे।) ने पूछने पर बताया कि यह बड़ा अलग सोचने वाला युवा है। मैं जयपुर आ चुका था और आई डी एस में काम कर रहा था। किसी काम से भारत ज्ञान- विज्ञान समिति के आफिस जाना हुआ। वहाँ से निकलने ही वाला था कि वीरेन्द्र विद्रोही ने कहा- 

कन्याशुल्कम्

कन्याशुल्कम् कन्याशुल्कम् मूल तेलगू में गुरजाडा अप्पाराव का नाटक है जिसे आधुनिक तेलगू साहित्य में क्लासिक का दर्जा हासिल है। गुरजाडा वेंकट अप्पाराव विजयनगरम के महाराज कालेज में प्राध्यापक थे। विजयनगरम के महाराजा आनंद गजपति राजू से 1887 में अप्पाराव का परिचय हुआ। तदनन्तर उन्हें विजयनगरम रियासत में प्राप्त शिलालेखों के अध्ययन कर्ता के रूप में नियुक्त किया गया। उन दिनों वहाँ कन्या विक्रय प्रथा का विशेष रूप से ब्राह्मण समाज में प्रचलन था। छोटी- सी लड़कियों का विवाह वृद्धों के साथ कर दिया जाता था। कई बार विवाह- मंडप में ही दूल्हे की मृत्यु हो जाती थी और उस बाल- विधवा का जीवन दयनीय हो जाता था। समाज विधवा विवाह की अनुमति नहीं देता था। उन्हें या तो सदा के लिए विधवा का नारकीय जीवन बिताना होता था अन्यथा वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर होना पड़ता था। इस दुुराचार का निर्मूलन करने के उद्देश्य से महाराज गजपति राजू ने गुरजाडा अप्पाराव से अनुरोध किया कि किसी साहित्यिक विधा के माध्यम से इस कुप्रथा के विरुद्ध उद्वेलन के लिए प्रयत्न करें। कन्या विक्रय के प्रचलन का जोरदार खण्डन करने के उद्देश्य से अप्पाराव ने क

जेल : एक बच्चे की नजर से

जेल : एक बच्चे की नजर से मनीष आजाद और अमिता शीरीन को उत्तर प्रदेश की एटीएस नक्सली गतिविधियों में लिप्तता के संदेह के चलते भोपाल से गिरफ्तार करके लायी। इन्हें कई महीने पुलिस हिरासत और फिर जेल में गुजारने पडे।  यह अर्बन नक्सल के दुष्प्रचार का दौर था। अपने इन अनुभवों को मनीष ने लिपिबद्ध किया है। दुनिया की अनेक भाषाओं में जेल डायरियों का यशस्वी इतिहास है जिनमें एंटोनियो ग्राम्शी और भगतसिंह की जेल नोटबुक हैं तो दूसरीओर भारतीय जेलों पर मेरी टाइलर और वरवर राव के अनुभव वृत्तान्त हैं। मनीष की जेल डायरी हिन्दी में है। इसकी एक और विशेषता यह है कि इसमें एक छह साल का बच्चा अब्बू भी उनके साथ है। यह उनके एक मित्र का बेटा अबीर है जिससे मनीष को बहुत लगाव है और जो उसे मौसा कहता है। मनीष लिखते हैं कि अब्बू को अपनी जेल- यात्रा में शामिल करने का खयाल उन्हें जर्मन फिल्म लाइफ इज ब्यूटीफुल से आया जिसमें जर्मनी के एक नाजी यातना शिविर में एक पिता अपने पांच साल के बच्चे के साथ है। अपने बच्चे के मासूम मन को नाजी नृशंसता के आघात से बचाने के लिए वह शिविर की सभी कारगुजारियों को बच्चे के सामने एक खेल की तरह बयान करता

ऋतुराज को पहल सम्मान : जयपुर-१९९४

ऋतुराज को पहल सम्मान : जयपुर-१९९४ कविताएँ मेरी बकरियाँ हैं। सीधे रास्तों पर चलने के बजाय ऊबड- खाबड और पहाड़ी रास्तों पर चलना पसंद करती हैं। इस रेवड के बढने के साथ- साथ मेरी जिम्मेदारियां भी बढी हैं। मुझे इसे संभाले रखना है। लोगों ने हाथी- घोडे बांध लिए हैं जबकि यही मेरी सम्पत्ति हैं। जयपुर में २४ दिसम्बर, १९९४ को आयोजित पहल- सम्मान समारोह में अपना उद्बोधन देते हुए कवि ऋतुराज ने यह कहा। मराठी के सुप्रसिद्ध कवि भुजंग मेश्राम ने ऋतुराज को प्रशस्ति पत्र एवं पुरस्कार राशि भेंट की। उन्होंने राज्याश्रित पुरस्कारों से कविता को हुए नुकसान को रेखांकित करते हुए कहा, वो ठोकते हैं हमारी पीठ तो टूट जाती है रीढ की हड्डी। कई दलित कवि पुरस्कार पाकर खामोश हो गये। इस तरह दलित कविता को दलित होकर भी मध्यवर्गीय बना दिया जाता है। भुजंग मेश्राम ने साहित्यकारों से टी. वी. रेडियो के माध्यम से शीघ्र प्रतिष्ठा पाने की महत्वाकांक्षा छोडने तथा आत्म की खोज करने का आह्वान किया। उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा साहित्यकारों के सम्मान की परंपरा का स्वागत करते हुए कहा कि हिन्दी में यह प्रक्रिया पहले शुरू हो गयी है और

अचर्चित रह गया कवि- एकादश

कवि- एकादश २००८ में मेधा बुक्स ( दिल्ली) से प्रकाशित कविता-संचयन है। इसका संपादन लीलाधर मंडलोई और अनिल जनविजय ने किया है। इसे तार- सप्तक के बाद की हिन्दी कविता का प्रतिनिधि संकलन कहा गया है जिसमें ११ कवियों की चुनी हुई कविताएँ हैं। कविताओं से पूर्व कवि का विस्तृत परिचय और आत्म- कथ्य दिया गया है। ये ११ कवि हैं : विष्णुचन्द्र शर्मा, मलय, चन्द्रकान्त देवताले, विजेन्द्र, विनोद कुमार शुक्ल, भगवत रावत, नरेश सक्सैना, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, ऋतुराज, वेणु गोपाल और सुदीप बनर्जी हैं। संपादक- द्वय ने इस संचयन की एक भूमिका लिखी है जिसमें इसके एक और खंड निकालने की बात है। मुझे लगता था कि इस संचयन को लेकर काफी वाद- विवाद होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह भी पता नहीं चला कि लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं अथवा खारिज। अचर्चित रह गये इस सचयन का अगला खंड भी मेरी जानकारी में तो आया नहीं। क्या पता इसके अलक्षित चले जाने से इसके संपादकों का उत्साह ठंडा पड गया हो। हिन्दी रचनाकारों के अलग- अलग संचयन अनेक लोगों द्वारा निकाले जाते रहे हैं और उनमें सामान्यतः कुछ बुरा नहीं है। लेकिन संपादक- द्वय ने इस संचयन के कवियों को