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कविताएँ : गरिमा जोशी पंत

कविताएँ मीमांसा में गरिमा की उपन्यासिका ने सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया था। अब उनकी कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। इनमें अदृश्य शक्ति संरचनाओं की शिनाख्त की गयी है तो अभिव्यक्ति के अन्तसंघर्ष का भी बयान है। इन कविताओं मे सामाजिक संबंधों के क्षरण से उपजा विषाद है। साथ ही, बहुत कुछ ऐसा कहा गया है, जो स्रियों के संदर्भ में प्रायः अनकहा रह जाता है। तृप्ति की खोज में    अतृप्तियों के दग्ध हृदय में  हूक सी उठती है तृप्ति की एक लंबा कश खींचती हैं इच्छाएं धुआं धुआं होते जाते हैं नियम उसूल मर्यादाओं की पतली लकड़ियां  पकड़ लेती हैं चिंगारी और धीरे धीरे रेंगते हुए खाक कर देती एक पूरा गांव जो बच जाता है उस पर पड़े फफोले रिसते रहते हैं ताउम्र खोजते एक सुकून की मलहम अनवरत। लिख तो दूं मगर… मैं लिख तो दूं मगर पढ़ेगा कौन उसे? क्या वही जो पहले से ही  वाकिफ है उससे बस पिरो नहीं पाया शब्दों में या पिरो पाया था किसी और ढब से वो बांटेगा वाहवाही और मुझे अपना कद थोड़ा और  ऊंचा लगने लगेगा नीचे खून पसीने में लथपथ कुचले दबे अनभिज्ञ लोट रहे होंगे वही जिन की आवाज़ बनने का दावा कर मैंने किला फतह किया और उनकी जीवि

बोनती : मोर्जुम लोयी

कहानी मोर्जुम लोयी ने अपने उपन्यास- मिनाम - से अपनी खास पहचान बनायी है। उन्होंने पूर्वोत्तर के स्त्री- संघर्षों की वास्तविकता को बडे फलक पर प्रस्तुत किया है। अभी वे अपने गाँव को केन्द्र में रखकर एक औपन्यासिक कृति पर काम कर रही हैं। उसी से एक मार्मिक अंश मीमांसा में दे रहे हैं। इसके जरिए आप मोर्जुम लोयी की संवेदनशील दृष्टि, समर्थ भाषा के साथ एक उद्वेलित करने वाले प्रसंग से रूबरू हो सकते हैं। बोनती/बोनी/भोनती ये सभी एक अर्थ का द्योतक है। अब बात आती है ये शब्द कहां से आया? या इसका अर्थ क्या है?  ‘भोनती’ असमिया शब्द है जिसका अर्थ होता है छोटी बहन । चूंकि असम अरुणाचल पड़ोसी राज्य है तो यहां के कई शब्द अरुणाचल प्रदेश की बोलियों में सम्मिलित हो गए है और कई बार उच्चारण बदल जाता है और वैसे ही ‘भोनती’ शब्द अरुणाचल में ‘बोनती’ बन गई।  असम की चाय के बागानों से आदिवासी लड़कियां, असमिया,कुलि-बंगाली आदि, तिराप-चाङलाङ से चाकमा लड़कियां आदि अरुणाचल के घरों में काम करती हुई पाएं जाते है। इन्हीं कामवालियों को यहां बोनती कहा जाता है। ये शब्द इस प्रदेश में इतनी रूढ़ हो गई है कि यहां के लड़कियों को असमिया लोग कभ

यह मेरे लिए नहीं : धर्मवीर भारती

अन्तर्पाठ आलोचक राजाराम भादू अन्तर्पाठ श्रृंखला में प्रतिष्ठित कथाकारों की उन कहानियों की चर्चा कर रहे हैं जो महत्वपूर्ण होते हुए भी चर्चा में उतनी नहीं आ पायीं। हमारे विशेष आग्रह पर शुरू की गयी इस श्रृंखला में अभी तक आप मोहन राकेश की कहानी- जानवर और जानवर तथा कमलेश्वर की - नीली झील- पर पढ चुके हैं। इस श्रृंखला की तीसरी कडी में आप पढ रहे हैं धर्मवीर भारती की कहानी -यह मेरे लिए नहीं- और इस कहानी पर राजाराम भादू की टिप्पणी।                  - विनोद मिश्र सं. / कृति बहुमत, अक्टूबर, २०२१ इदन्न मम् : अस्मिता और आत्मसंघर्ष - राजाराम भादू धर्मवीर भारती ने अनेक कहानियाँ लिखी हैं। इनमें गुलकी बन्नो और बंद गली का आखिरी मकान जैसी तीन- चार कहानियों की ज्यादा चर्चा होती है। उनकी कहानी- यह मेरे लिए नहीं- ने मुझे विशेष प्रभावित किया जो १९६३ में प्रकाशित बंद गली का आखिरी मकान संकलन में शामिल है। भारती ने अपने बारे में बहुत कम लिखा है। कथा- साहित्य ही नहीं, उनकी कविता में भी अपने समकालीनों की तुलना में आत्मपरकता कम है। यह मेरे लिए कहानी आत्मपरक शैली में लिखी है लेकिन मुझे पहली बार पढते ही लगा था कि यह

वास्तविकता में विन्यस्त कविताएँ - मंजुला बिष्ट

समीक्षा विशाखा मुलमुले की कविताएँ समालोचन से लेकर कई जगहों से प्रकाशित हुई हैं जिनमें मीमांसा भी शामिल है। उन्हे सर्वत्र लक्षित किया गया। बोधि प्रकाशन ने प्रतिष्ठित दीपक अरोड़ा पाण्डुलिपि प्रकाशन योजना में उनके पहले संकलन का चयन कर इसे प्रकाशित किया है। कवि- कहानीकार मंजुला बिष्ट द्वारा  लिखी गयी यह समीक्षा शायद पहली है जिससे विशाखा की कविताओं पर समीक्षा- संवाद शुरू होने जा रहा है। विशाखा मुलमुले का कविता-संग्रह"पानी का पुल"बोधि प्रकाशन,जयपुर द्वारा आयोजित 'दीपक -अरोड़ा पांडुलिपि प्रकाशन योजना"के तहत चयनित है।संग्रह में कुल 71 कविताएँ हैं,जिनके बारे में निर्णायक मंडल की व्यक्तिगत टीप भी किताब में दर्ज है।कवि दीपक अरोड़ा की स्मृति में नए कलमकारों को सम्मान दिए जाने के इस साहित्यिक प्रयास हेतु बोधि प्रकाशन व मायामृग जी अवश्य ही बधाई के पात्र है।   जैसा कि हर कवि की अपनी भावभूमि होती है और उसके ऊपर गहराता उसका अपना मन-आकाश,इस संग्रह में भी यह कविमन अपने सुगठित व्यवहारिक ताने-बाने के साथ प्रस्तुत होता है।विशाखा की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि उन्हें अपनी बात कहने का असीम

कविताएँ : मनमोहन भारती

कविताएँ हम तो उसे मनमोहन भारती के नाम से ही जानते हैं। जिन दिनों मैं मुम्बई महानगर में ( अखबार में भी ) था, मनमोहन भारती और केसर सिंह बिष्ट दो युवा और साहसी रिपोर्टर थे। उन्होंने ही रातों की यात्राओं में मेरी बम्बई से कुछ पहचान करायी। बाद में धीर गंभीर प्रणव प्रियदर्शी इस टीम में आये। वापस आने पर भी मुझे महानगर के हालचाल मिलते रहे। इनमें मनमोहन किसी किस्से कहानियों का उदात्त चरित्र लगता है। जैसे लंबे संकोच के बाद प्रणव ने अपनी कहानियों के बारे में बताया। वे मीमांसा में और फिर दूसरी जगह आयीं और सराही गयीं। मनमोहन तो जितने साहसी हैं, उतने ही विनम्र और शर्मीले। उसने भी अपने भीतर एक कवि को जज्ब किया हुआ था। हमें खुशी है कि वह भी मीमांसा के जरिए बाहर आ रहा है। कविता कुछ लंबा रियाज चाहती है। आप इन्हें एक सच्चे, जज्बाती किन्तु निर्भय व्यक्ति के अंतस की शक्ति के रूप में भी पढ सकते हैं।               - राजाराम भादू 1. अंधेरों से हिस्से करने लगा हूं मैं जिंदगी तुम ही से डरने लगा हूं मैं अंधेरों में ही उजाले नजर आने लगे हैं अंधेरों से दीए जलाने लगा हूं मैं ***** 2. बिखर चुका हूं,  समेटना मुश्किल

यंग शन शुन की कविताएँ

भाषान्तर ताइवान, हांगकांग और म्यांमार इस समय अपनी आजादी को वास्तविकता में बदले की कठिन लड़ाई लड रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि छात्र और युवाओं की इस संघर्ष में अहम् भूमिका है। हमारे कवि- मित्र देवेश पथ सारिया ताइवान में हैं।‌ हमने उनसे आग्रह किया कि वे वहां के युवाओं की कुछ कविताएँ- कहानियां मीमांसा के लिए उपलब्ध करायें। युवाओं को प्रस्तुत करना इसलिए भी कठिन है कि वे अपनी मातृभाषा में लिखते हैं जिससे अनुवाद देवेश के लिए संभव नहीं था। अंग्रेजी में अनूदित होने के लिए युवाओं को लंबा इंतजार करना पड रहा है। फिर भी, देवेश ने यंग शन शुन को खोज निकाला जिनकी कविताएँ मातृभाषा से भी पहले उनकी चित्र- कृतियों के साथ हिन्दी में आ रही है। आभार देवेश इस प्रस्तुति और अनुवाद के लिए, स्वागत यंग शन शुन ! यंग शन शुन इक्कीस साल की हैं पर उनकी कविताएँ उनकी उम्र से कहीं अधिक गूढ़ हैं। यहाँ तत्सम शब्दों से चौंका देना मात्र नहीं है, बल्कि भावों की गहराई है। कुछ विपरीत या असम्बद्ध सन्दर्भों का संयोजन उनकी कविता का एक प्रमुख तत्व है। इन कविताओं में एक रहस्यवाद दिखाई देता है। चूँकि यंग शन शुन एक चित्रकार भी हैं

मुझे चांद चाहिए - राजाराम भादू

पिछले दिनों एक प्रसंग तो मुझे चांद चाहिए के लेखक सुरेन्द्र वर्मा को लेकर सोशल मीडिया पर चली बहस थी जिसमें उन्होंने कथित रूप में किसी शोधार्थी से साक्षात्कार के लिए पैसे मांग लिए थे। इस पर पक्ष- विपक्ष में बहस से ज्यादा मुझे ममता कालिया का अभिमत ज्यादा मौजू लगता है कि ऐसा शायद उन्होंने उस शोधार्थी से पीछा छुडाने के लिए किया हो। लेकिन मेरा सरोकार एक दूसरे प्रसंग से है। कुछ समय पहले अभिनेत्री सविता बजाज की टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर आयी थी जिसमें वे बहुत व्यथित होकर कह रही थीं कि पहले कोरोना और फिर उसके प्रभाव से हुई बीमारी के उपचार में उनकी पूरी बचत समाप्त हो गयी है। बहरहाल, इस खबर का असर हुआ और फिल्म राइटर्स एसोसिएशन तथा सिन्टा सहित कई लोग उनकी मदद के लिए आगे आये। अभी सिन्टा की ओर से अभिनेत्री नूपुर अलंकार उनकी बहुत अच्छे से देखभाल कर रही हैं। वे अपनेकिराये का फ्लैट छोडकर नूपुर की बहिन के घर रह रही हैं। मुझे चांद चाहिए के कथानक की पृष्ठभूमि दिल्ली का नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, रंगमंच और मुम्बई का फिल्म - जगत है। यह भी कहा गया था कि यह एनएसडी की ही एक अभिनेत्री की सच्ची कहानी पर आधारित है।

एक पाठक के प्रश्न- मेघा मित्तल

एक चिथडा सुख पर मेघा मित्तल ने अपनी सहज जिज्ञासाएं, स्वाभाविक प्रश्न और मासूम विभ्रम दर्ज किये हैं। इनके साथ कृति के मूल भाव से किसी हद तक तादात्म्य स्थापित कर पाने की प्रतीति भी है। मेरे जैसे अनुभवी से वे कृति और कृतिकार को और साफ समझना चाहती हैं। मुझे इसे पढकर साहित्य में अपने आरंभिक दिन याद आ गये, जब किसी किताब को शुरू करने पर लगता था जैसे अंधेरे कमरे में टटोलते हुए आगे बढ रहे हैं। निर्मल वर्मा को मुझसे भी बेहतर समझने वाले लोग है। हम इस पाठकीय टिप्पणी को इस उम्मीद से प्रस्तुत कर रहे हैं कि एक स्नातक पाठक के रूप में पूरी ईमानदारी से मेघा ने जो हमारे सामने रखा है, उसे आधार बनाते हुए आगे चर्चा करें। शायद इससे कुछ और लोगों को भी मदद मिले जो उतने मुखर नहीं हैं लेकिन इसे समझने के लिए  वैसे ही जूझ रहे हैं।              -राजाराम भादू                                        नमस्कार सर.. मैंने हाल ही में निर्मल वर्मा जी की ‘एक चिथड़ा सुख’ किताब पढ़ी। मैंने उसे पढ़ तो लिया है लेकिन मुझे लग रहा है कि मैं समझ ही नहीं पाई हूँ कि इस किताब में वो कहना क्या चाह रहे हैं? मुझे लगा कि मुझे ज़रूरत है कि

दुष्यंत की राजो... जयश्री शर्मा

स्मृतिशेष हालांकि दुष्यंत कुमार की लोकप्रियता उनकी उत्प्रेरक गजलों के कारण है। लेकिन वे अपनी ही शैली के कवि- कथाकार भी थे। उनकी सहधर्मिणी राजेश्वरी की उनके जीवन में तो अहम् जगह थी ही, उनके बाद भी बड़ी शिद्दत से उन्होंने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन किया। संस्मरणकार कांतिकुमार जैन ने दुष्यंत- राजेश्वरी के रागात्मक संबंधों का बडा जीवंत चित्रण किया है। हमने मीमांसा के लिए जयश्री शर्मा से राजेश्वरी की स्मृति में लिखवाया है जिन्होने दुष्यंत कुमार के सृजन पर गंभीर शोध किया है। उनका राजेश्वरी जी से हाल तक संपर्क व संवाद था। राजेश्वरी सहारनपुर जिले के डंगेटा गाँव के सूरजभान कौशिक की पुत्री थीं जिनका विवाह दुष्यन्त कुमार के साथ 30 नवंबर 1949 को हुआ था। विवाह के समय दुष्यन्त कुमार की उम्र 18 वर्ष और राजेश्वरी की उम्र 16 वर्ष की थी। शादी के समय दुष्यन्त कुमार इंटर पास थे जबकि राजेश्वरी हाई स्कूल पास थीं। राजेश्वरी की माँ सोना देवी गृहणी तथा सूरजभान कौशिक सरकारी विभाग में कानूनगो थे। राजेश्वरी के दो भाई और एक बहन थी। जिस प्रकार छोटी उम्र के प्यार की आयु लम्बी होती है, उसी तरह छोटी उम्र के विवाह