सुष्मिता बनर्जी का परिवार बहुत वृहद है जिसके कुछ सिरे देश से बाहर तक फैले थे। ये बहुत विविधतापूर्ण और समृद्ध परिवार है जो उन्होंने ही बनाया है। इससे उनके बहुआयामी, आकर्षक और सृजनशील व्यक्तित्व को जाना जा सकता है। उनके ना रहने पर शोक समारोह (इसे ‘समारोह’ ही कहना ज्यादा ठीक है, सुष्मिता खुद समारोह का शायद ही कोई अवसर जाने देती थीं।) को ‘हमारी सुष्मिता’ नाम दिया गया। इसी नाम से एक ब्लॉग भी बनाया गया। यह उपक्रम सुष्मिता के अर्जित परिवार की सामूहिकता की अभिव्यक्ति है। लेकिन हम उनके व्यक्तित्व की उस खूबी को भी रेखांकित करना चाहते हैं जिसके चलते हर जना उनमें अपनी सुष्मिता भी पाता है। वे अपने परिवार के हर सदस्य को दूसरों से मिलाने के सहज अवसर देखती रहती थीं। लेकिन हरेक की निजता के प्रति भी बहुत सचेष्ट रहती थीं। यही कारण है कि कोई भी उनसे बेझिझक और अपनापे के साथ अपना अंतरंण शेयर कर सकता था। और शायद यही उनसे रिश्ते की मजबूती का आधार भी था। सुष्मिता कई कार्यों के लिए जानी जाती हैं। हमने उन्हें कवि, रंगकर्मी, शोधकर्ता, संपादक और एक्टिविस्ट के रुप में देखा है। हमें दो बार उनकी कविताओं को सामने लाने (पहले ‘दिशाबोध’ और फिर ‘मीमांसा’ में) का गर्व है। वे अपनी कविताओं को बहुत कम आंकती थीं लेकिन इनकी सराहना से बच्चों की तरह खुश भी होती थीं। उन्हें बच्चों के लिए नाटक तैयार करते देख पहली बार लगा कि बच्चों का रंगमंच कितना भिन्न होता है। इसी तरह बाल साहित्य भी। ‘संप्लव’ का हर अंक उनके बच्चों और शिक्षा से जुडे सोच और दृष्टिकोण का गवाह है। सुष्मिता स्त्रीवादी थीं, किन्तु इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह था कि स्त्रीवादी विमर्श को उन्होंने राजस्थान के पिछडे-सामंती परिवेश में जद्दोजहद करती स्त्रियों की जिजीविषा से जोडा। स्त्री सशक्तीकरण, स्कूल पूर्व शिक्षा सहित शिक्षा के मसले और शोध के विभिन्न गुणात्मक आयामों पर उनका चिंतन और विश्लेषण अपनी विशिष्ट छाप रखता है। यह छाप यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि उनके व्यक्तित्व की आभा और खुशबू बनकर उनके वृहद परिवार के हर सदस्य के आभ्यंतर पर तारी है।
शिवराम के संघर्षशील जीवन के कई दौर हैं। इनका खुद शिवराम ने भी संभवतः ठीक से पुनरावलोकन और विश्लेषण नहीं किया। शायद इसके लिए जरुरी ठहराव का अनुभव उन्हें न हुआ हो। जो भी, हमें लगता है कि एक तो उनके प्रतिबद्ध और एक्टिविस्ट शिवराम में ढ़लने का दौर है। इसकी कुछ जानकारियां कथाकार स्वयं प्रकाश से जुड़े उनके संस्मरण और कुछ समय पहले ‘मीमांसा’ में छपे आत्मकथ्य से मिलती हैं। बेशक, उनके नाटक व कविता-संकलनों की भूमिकाओं में भी इस समय का थोडा प्रतिबिम्बन है। शिवराम के इन तीन दशक से अधिक समय में फैले सक्रिय और सृजनशील जीवन की हम सब के पास अनगिनत यादगार छवियां-प्रतिच्छवियां हैं। उनका सिलसिलेवार बयान हमारे लिए मुश्किल है। कुछ बातें जेहन में उभर रही है। पहली ये कि वे अजातशत्रु थे। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि एक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति के दूसरों से सामान्यतः गंभीर मतभेद भी हो सकते हैं। ऐसे में इनसे उत्पन्न कटुता से पार पाना कई बार तो असंभव-सा लगता है। शिवराम को इस पर पार पाना आता था और वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से मामूली-सा समझौता किये बिना भी ऐसा कर सकते थे। उनके विचारों से सभी वाकिफ हैं। आपसे अपनी मत-भिन्नता को शिवराम छिपाते नहीं थे। इसके बावजूद एक तरह की निष्कलुष पारिवारिकता वे बनाये ही नहीं रखते बल्कि पूरी सामाजिकता से इसका निर्वाह करते हैं। यही कारण है कि जलेसं के अपने पुराने साथियों से उनकी दोस्तियां बरकरार रहीं। साझा सांस्कृतिक मंच का संयोजक उन्हें जिस अपनापे और सर्वानुमति से ऐसे समय में चुना गया जब बाकी सबके बीच दूरियां और कटुताएं बढती गयी थीं, उनके अजातशत्रु और सबके विश्वसनीय होने का ठोस प्रमाण है। एक समय हुआ कि हमने किसी परिवर्तन के योद्धा के दैहिक अवसान के बाद उसके संघर्ष से प्रेरणाएं लेना छोड दिया। बल्कि हम उसके काम को आगे बढ़ाने के संकल्प की रस्म अदायगी कर शोक अभिव्यक्ति की इति-श्री कर लेते है। शिवराम ने इस मामले में भी हमें चुनौती पेश की है। शिवराम के गठित किये मंच ‘विकल्प’ का वजूद आज भी हैं, ‘अभिव्यक्ति’ पत्रिका की टीम बरकरार है। यदि हम शिवराम के कामों की जरा भी कद्र करते हैं तो उसे आगे बढ़ाने का पूरा तंत्र और प्रक्रिया यहां मौजूद है। अन्यथा चीजे हमारे शोक की अभिव्यक्ति के खोखलेपन को उजागर कर देंगी। (मीमांसा)
शिवराम के संघर्षशील जीवन के कई दौर हैं। इनका खुद शिवराम ने भी संभवतः ठीक से पुनरावलोकन और विश्लेषण नहीं किया। शायद इसके लिए जरुरी ठहराव का अनुभव उन्हें न हुआ हो। जो भी, हमें लगता है कि एक तो उनके प्रतिबद्ध और एक्टिविस्ट शिवराम में ढ़लने का दौर है। इसकी कुछ जानकारियां कथाकार स्वयं प्रकाश से जुड़े उनके संस्मरण और कुछ समय पहले ‘मीमांसा’ में छपे आत्मकथ्य से मिलती हैं। बेशक, उनके नाटक व कविता-संकलनों की भूमिकाओं में भी इस समय का थोडा प्रतिबिम्बन है। शिवराम के इन तीन दशक से अधिक समय में फैले सक्रिय और सृजनशील जीवन की हम सब के पास अनगिनत यादगार छवियां-प्रतिच्छवियां हैं। उनका सिलसिलेवार बयान हमारे लिए मुश्किल है। कुछ बातें जेहन में उभर रही है। पहली ये कि वे अजातशत्रु थे। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि एक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति के दूसरों से सामान्यतः गंभीर मतभेद भी हो सकते हैं। ऐसे में इनसे उत्पन्न कटुता से पार पाना कई बार तो असंभव-सा लगता है। शिवराम को इस पर पार पाना आता था और वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से मामूली-सा समझौता किये बिना भी ऐसा कर सकते थे। उनके विचारों से सभी वाकिफ हैं। आपसे अपनी मत-भिन्नता को शिवराम छिपाते नहीं थे। इसके बावजूद एक तरह की निष्कलुष पारिवारिकता वे बनाये ही नहीं रखते बल्कि पूरी सामाजिकता से इसका निर्वाह करते हैं। यही कारण है कि जलेसं के अपने पुराने साथियों से उनकी दोस्तियां बरकरार रहीं। साझा सांस्कृतिक मंच का संयोजक उन्हें जिस अपनापे और सर्वानुमति से ऐसे समय में चुना गया जब बाकी सबके बीच दूरियां और कटुताएं बढती गयी थीं, उनके अजातशत्रु और सबके विश्वसनीय होने का ठोस प्रमाण है। एक समय हुआ कि हमने किसी परिवर्तन के योद्धा के दैहिक अवसान के बाद उसके संघर्ष से प्रेरणाएं लेना छोड दिया। बल्कि हम उसके काम को आगे बढ़ाने के संकल्प की रस्म अदायगी कर शोक अभिव्यक्ति की इति-श्री कर लेते है। शिवराम ने इस मामले में भी हमें चुनौती पेश की है। शिवराम के गठित किये मंच ‘विकल्प’ का वजूद आज भी हैं, ‘अभिव्यक्ति’ पत्रिका की टीम बरकरार है। यदि हम शिवराम के कामों की जरा भी कद्र करते हैं तो उसे आगे बढ़ाने का पूरा तंत्र और प्रक्रिया यहां मौजूद है। अन्यथा चीजे हमारे शोक की अभिव्यक्ति के खोखलेपन को उजागर कर देंगी। (मीमांसा)
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