नवीन नारायण ने जे.एन.यू. नयी दिल्ली से उच्च शिक्षा ली है। वे दलित मुद्दों पर लिखते रहे हैं। फिलहाल एक्शन एड इंडिया जयपुर में कार्यरत है।
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राजस्थान का कालबेलिया समुदाय पारंपरिक रुप से दो कामों से जुडा रहा है- सांप दिखाना और पत्थर घिसाई। इस पेशे की प्रकृति के हिसाब से ये लोग गांव-गांव घूमते रहते, ग्रामीणों का मनोरंजन करते। इसके बदले, अपनी आजीविका की दो मुख्य आवश्यकताओं के लिए गांव वाले इन्हें रोटी (जो प्रायः बासी या बची हुई होती) और कपडे (जो उतरन होते) दे देते थे। इस तरह, पूरा परिवार समूहों में घुम्मकड जीवन बिताता रहा और कहीं एक जगह ठिकाना बनाकर नहीं रहा।
कालान्तर में मनोरंजन के सामाजिक रुपों में परिवर्तन आया। मनोरंजन के पारंपरिक रुपों की जगह नये टेलिविजन और सिनेमा जैसे सशक्त माध्यमों ने ले ली। इन दिनों समाज में पारंपरिक कलाओं का दर्शक वर्ग कहीं खो गया। इस परिवर्तन का कालबेलिया समुदाय पर दो तरह से असर हुआ। एक तरफ वे अपना पारंपरिक पेशा छोडने पर विवश हुए और दूसरी ओर उन्हे भीख मांगने के लिए मजबूर होना पडा। इसके नतीजे में वे एक जगह स्थायी रुप से बसने के लिए कठिन प्रयास करने लगे और साथ ही आजीविका के लिए भी स्थायी काम ढूंढ़ने लगे। किन्तु चीजें भौतिक और सामाजिक रुप से उनके इन प्रयासों के पक्ष में नहीं थीं। एक तरफ यह समुदाय भयानक गरीबी से जूझ रहा है तो दूसरी ओर इन्हे समाज से अस्पृश्यता और जबर्दस्त भेदभाव का सामना करना पड रहा है। इस स्थिति ने इन्हें घोर निःशक्त बना दिया है और ये लोग किसी भी प्रकार के सामुदायिक संसाधनों से वंचित हैं। शीर्ष स्तर पर ये लोग राज्य की ओर से उपेक्षित हैं।
समाज के भेदपरक दृष्टिकोण और राज्य की उपेक्षा ने मुख्यधारा में आने के कालबेलिया समुदाय के संघर्ष में बडी बाधा उत्पन्न की है। विकास के सभी संकेतकों, जैसे- शिक्षा, खाद्य सुरक्षा, आवास, स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता, आजीविका- में इस समुदाय की अत्यंत धुंधली-सी उपस्थिति हैं।
एक अध्ययन से पता चला है कि यह समुदाय नागरिकता के बुनियादी अधिकारों से ही वंचित है जबकि इस समुदाय की अनेक पीढ़ियां सदियों से इसी देश में रहती आयी हैं।
किसी भी ग्रामीण (जो अन्य जाति का है) के लिए इसका कारण बहुत साफ है। कालबेलिया इधर-उधर घूमते रहे हैं, वे एक जगह पर कभी टिक कर नहीं रहे हैं। चूंकि इन्होंने पारंपरिक रुप से जमीन के किसी छोटे से टुकडे पर भी अपना स्वामित्व कायम नहीं किया, इसलिए वे अपने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित हैं। इन अधिकारों को प्रदान करने का आधार किसी का एक जगह स्थायी रुप से बास करना है।
इधर के वर्षों में इनके रहने के तरीके में अंतर आया है। इन्होंने गांवों के बाहर छोटे-छोटे स्थायी डेरे बनाकर रहना शुरु किया है। सरकार द्वारा इनकी बसाहटों को कानूनी दर्जा नहीं दिया गया है क्योंकि सरकारी अधिकारियों के दिमाग में यह धारणा बैठी हुई है कि कालबेलिया लोग कहीं स्थायी रुप से नहीं रहते।
ये एक विडम्बना है कि एक ही जैसे एक समुदाय का नामकरण ;दवउमदबसंजनतमद्ध अलग-अलग किया हुआ है। इन नामों के अनुसार राज्य द्वारा इनकी श्रेणियों का निर्धारण किया गया है। कालबेलिया और सपेरा अनुसूचित जाति (SC) हैं जबकि जोगी अन्य पिछडा वर्ग (OBC) में शामिल हैं। जबकि कनिपा नाथ समुदाय को किसी श्रेणी में शामिल नहीं किया गया है। समुदायों के नामों की भिन्नता ने सरकारी तंत्रा के लिए इन्हें और उपेक्षित कर दिया है। यह तथ्य जनगणना के आंकडों से भी पुष्ट होता है। 2001 की जनगणना के अनुसार कालबेलिया समुदाय की कुल जनसंख्या 75,118 है। इनमें 39,534 पुरुष और 35,584 स्त्रियां हैं। समुदाय की 9,620 आबादी कस्बों-शहरों के इर्द-गिर्द बसी है। कालबेलिया समुदाय की कुल आबादी में से 26.95 प्रतिशत 0 से 6 वर्ष आयु समूह का है। समुदाय में केवल 12.51 प्रतिशत साक्षरता है। कालबेलियाओं की 64.95 प्रतिशत आबादी गैर कामगार है। जबकि समुदाय से बातचीत से लगता है कि इनकी कुल आबादी एक लाख से भी ज्यादा है। कालबेलिया समुदाय मुख्यतः राजस्थान के पश्चिमी (बाडमेर, जैसलमेर और जोधपुर) तथा दक्षिणी (भीलवाड़ा, प्रतापगढ़ और उदयपुर) हिस्सों में छितराये हुए हैं।
कुल मिलाकर, इन समुदायों की जो स्थिति उभरती है उसके अनुसार इनके पास स्थायी रुप से रहने के लिए जमीन का अपना एक टुकडा भी नहीं है। वे गांव के बाहर सामान्यतः खुले मंे बसे हुए हैं जहां किसी भी तरह की बुनियादी सुविधा उपलब्ध नहीं है। यहां भी इनका ठिकाना गांव के प्रभावशाली लोगों के रहमोकरम पर निर्भर है।
इनके पास अपने निवास स्थान का साबित करने का कोई प्रमाण नहीं है। यहां तक कि राशन कार्ड तक नहीं है। इसके बिना सरकारी योजनाओं; जैसे- सार्वजनिक वितरण प्रणाली, आंगनबाडी, मिड-डे मील अथवा किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा या पेंशन आदि का लाभ इन्हें नहीं मिल पा रहा है। इस तरह से ये बुनियादी नागरिकों हकों और अधिकारों से वंचित हैं। मतदाता सूची में दर्ज नहीं होने के कारण ये मतदान और दूसरे राजनीतिक अधिकारों के दायरे से बाहर हैं। आर्थिक व सामाजिक अधिकार भी इन्हें नहीं मिल पाते हैं। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना (नरेगा) में इनके जॉब कार्ड ही नहीं बने। यहां तक कि उन्हें ऐसी किसी योजना की जानकारी नहीं है। जहां नरेगा का काम चल रहा है, वहां भी पंचायतों ने इन्हें उससे बाहर ही रखा है।
इन समुदायों में आज की पीढ़ी के बच्चे भी स्कूल नहीं जा रहे हैं। स्कूल इनकी बसाहटों से काफी दूर हैं। इनकी बस्तियों में बिजली-पानी का कोई इंतजाम नहीं है। शायद ही किसी कालबेलिया परिवार ने किसी सरकारी योजना का लाभ प्राप्त किया हो। इनकी औरतें और बच्चे अभी भी गांव में भीख मांगने जाते हैं। कई बार वे बेगार करने के लिए भी बाध्य किये जाते हैं। इन समुदायों से भेदभाव और अश्पृश्यता बरती जाती है। समुदाय सांप दिखाने जैसा अपना पारंपरिक पेशा छोड चुका है लेकिन मजदूरी जैसे किसी नये पेशे को अपनाने में भारी मुश्किलों से जूझ रहा है।
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