(संदर्भ-भूमण्डलीकरण और कविता की चुनौतियां)
अनिरुद्ध उमट एक प्रयोगशील रचनाकार हैं। उनके उपन्यास, कहानी व कविता संकलनों ने अपनी विशिष्टता के चलते ध्यान खींचा है। इकहरी अभिव्यक्ति के इस दौर में उनकी कृतियां अपनी संश्लिष्टता और बहुपर्ती आशयों के चलते पाठक एक अलग कलात्मक अनुभव से गुजरता है। सृजन के प्रति गहरी सभ्यृक्ति रखने वाले अनिरुद्ध इस तरह का गद्य कभी-कभार लिखते हैं।
फिक्रे दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ
- मिर्जा ग़ालिब
‘मानवीय नियति हमारे समय में अपने को अनिवार्यतः राजनीतिक शब्दावली में व्यक्त करती है।’
-टॉमस मान
भूमंडलीकरण और उसकी चुनौतियाँ जैसे नितान्त राजनीतिक क्षेत्रा से जुड़े इन दिनों के चर्चित-प्रिय-बिकाऊ विषय पर जहाँ एक से एक तर्क-कुतर्क बेहद सधे अन्दाज में इसके विशेषज्ञ करते हैं और इस जानी-पहचानी सरल सी पहेली को और जटिल बनाते-सुलझाते लगभग निरुपाय या बेहद समर्थ हो हमारे सामने प्रकट होते हैं, उसी विषय पर एक ऐसी विधा के व्यक्ति से पूछना जो विधा अपने में सर्वस्व है और सर्वस्व के कणकण में स्वयं को समाहित-स्पंदित पाती है, बेहद चतुराई भरा उपक्रम लगता है। जैसे यदि कोई भेड़ उन्मुक्त विचरण-बसर कर रही हो उसे भी पूछ लेना कि भई, ‘ब्लेक हॉल’ के बारे में तुम्हारा सर्जनात्मक चिन्तन-चिन्ता क्या है?कवि निश्चय ही भेड़ नहीं मगर वह राजनीतिक चालबाजी, आर्थिक पहेलियों का न तो बहेलिया है न ही उनका निचोड़-सार प्रस्तुत करता कोई अवतार।
उसके तो पुरखे ही उसके इस तरह के संकटों मंे उसके काम आते, मार्ग दिखाते, भंवर से निकालते रहे हैं-
बाज़ीचए अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे
- मिर्जा ग़ालिब
कवि के लिए तो पहले भी कविता ही बची थी, वही बचनी भी थी, उसे ही वह सारे संकटों-संशयों से पार पा जाने का मंत्रा समझता था। ऐसा मंत्रा जो वायुमण्डल में सदियों तक गूंजता था व रहेगा। अचानक यह पत्थर किसने दे मारा?वह भावुक हृदय तो गा रहा था दुनिया में हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ। ऐसे, पूर्व से ही सनातन संशयी आत्मा से नितान्त राजनीतिक खेल का एक मारक प्रश्न सुलझाने को कहना वह भी इस रूप में कि वही उसकी कविता की चुनौती या कहें संकट है। वह, जिसकी विधा या जिसका स्वयं का सदियों से, पीढ़ियों से सीमा की चौधराहट से, देश-विदेश से, पूर्व-पश्चिम से कोई वैसा बैर नहीं रहा जैसा भूमंडलियों के गुंडातत्वों से चिन्तकों को रहा है। कवि और उसकी कविता का पसारा जहाँ किसी की बाड़, किसी की भैंस, किसी की बेवा को नुकसान नहीं पहुँचाता रहा है, जिसका कंधा कहीं भी उपलब्ध हो नष्ट होते, बिसूरते को दिलासा देता रहा है। उसके सामने आज कालजयी, अल्पजीवी, परोपजीवी कविता लिखने से इतर यह महत्वपूर्ण हो गया है कि सिर पर आ धमके भूमंडलीय जलजले का क्या किया जाए ?
दरअसल गंभीरता से ठहर देखें, सोचें तो संकट उनके लिए सर्वाधिक होता है जो उसे उत्पन्न करते हैं। उसकी निरंतरता को कायम रखने का तनाव उन पर प्रतिक्षण रहता है जिससे ध्यान हटाने के लिए पापों के प्रायश्चित का भंडारा-पाठ कराना पड़ता है। संकट के आविष्कारकों का अपना बाजार-प्रयोगशाला होती है जहाँ वे कुछ डेमोस्ट्रेशन के लिए असहाय -निर्बल- अल्पसंख्यकों, जीवों पर उसका मारक प्रयोग करते हैं फिर सार, अर्क हमारे सामने रखते हैं, दरअसल हर्बत मारक्यूज के शब्दों में कहें तो हमारी चेतना के क्रान्तिकारी आयाम इस सारे प्रपंच में न जाने कहाँ बिला जाते हैं। असहाय-निर्बल-अल्पजन के हितों को दर्शाती यह प्रणाली महबूब उल हक के अनुसार गरीबी पर सीधा प्रहार न कर गरीब पर करती है, इसलिए प्रयोगशाला कायम रहती है।
जो भी जाति अपने ‘स्व’ से च्युत, विस्मृत है वह नष्ट होगी मगर यह ‘स्व’ क्या है? कोई धार्मिक मामला तो नहीं? क्योंकि सब कुछ इधर वैज्ञानिकता के पारदर्शी, निर्मम, अत्याधुनिक स्वचालित उपकरणों द्वारा उच्च मानकों पर जांचा-परखा जाएगा। आपका सत्य भी, असत्य भी। अब सत्य-असत्य, स्वप्न, कल्पना, संवेदना, शोक, पीड़ा, अवसाद, अकेलापन, उमंग, उल्लास, सुख उतने ही अमूर्त हैं जितने अन्य चेतना के वे उपकरण-मार्ग जिन्हें हम अक्सर ‘साधना’ के खाते में डाल हाथ झाड़ लेते हैं। जहाँ दो पक्षों में (सत्य-असत्य) में इतना अपाट्य संगीन मामला होगा वहाँ सबसे पहले नीयत पर संदेह होगा फिर नियति पर। नीयत भूमंडलीकरण के खाते में, नियति कवि-कविता के खाते में। अब ये दो रसोइये जो एक शाकाहारी, एक मांसाहारी हैं उनमें आप कहाँ किस बिन्दु पर सहमति चाहेंगे? यहाँ सहमति चाहना भी कोई कम राजनीतिक क्रीड़ा नहीं। जो अस्तित्व की लड़ाई में असमर्थ है उसे नष्ट होना होगा, ये कहा जाता है, मगर कवि कहता है कि जिसका अस्तित्व खतरे में, संदेह में है, मरण तय सा है, उसे भी जीना है, उसे भी किसी आपात मानवीय उपक्रम के तहत जीवित रखना है। वह उसे जीवित रखना चाहता है, यहा ‘चाहना’ किसी भी संकट से प्रबल है। कोई हवाई आदर्श या भावुकता नहीं। वैसे आदर्श से, भावुकता से परहेज भी राजनीति ही सिखाती है, सिद्धान्त में भी, व्यवहार में भी। और वह इन दोनों तत्वों का इस्तेमाल भी करती जाती है। मूल मुद्दा है क्या हम अपने आपको इस्तेमाल होने दे सकते हैं? यह इस्तेमाल न होने देना दरअसल मेरी विधा का सहज प्रतिरोधी चरित्रा है। यह सत्य के प्रति अंतिम समय तक के आग्रह का उपक्रम ही मुझे वह दृष्टि-संवेदना देता है जहाँ हर व्यक्ति मुझे कवि लगता है। और यह कवि ही भूमंडलीकरण के रसियों-प्रणेताओं के लिए असल खतरा है। अब वे सोवियत, नाजी कैम्प तो रहे नहीं जहाँ आपकी आत्मा-चेतना का शुद्धिकरण कर दिया जाता सो अधिक तकनीकी, आधुनिक भय खड़े करने होंगे, कल्पना मात्रा से कंपाना होगा। और ये कंपाना उसे होगा जिसकी आधी से अधिक भूमि जल की तरह कल्पना में डूबी रहती है, क्योंकि शेष आधी पर जल में रहने से पृथक प्रकृति के जीव रहते हैं, जल में जलचर रहते हैं। यह उनका स्वपोषित, मर्यादित प्रकृति प्रदत्त आचरण है, भूमंडलीकरण है। कुछ जीव इधर-उधर भी रमण-भ्रमण कर सकते हैं, जहाँ मरता, विस्थापित कोई नहीं होता। जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का सार फलता है। वह महाभारत का संजय हो सकता है मगर वह वर्ल्ड बैंक का सांस्कृतिक दूत नहीं हो सकता। जहाँ देश का प्रधानमंत्राी घुटने टेकने की क्रिया में पारंगत हो वहीं एक फकीर ने इस सभ्यता को ‘हिन्द स्वराज’ में स्पष्टतः शैतानी सभ्यता कहा था। मेरी दृष्टि में वह फकीर भी एक कवि है। आज उसका वह ‘होना’ याद आता है क्योंकि हमारे नियंता उसी ‘होने’ को बिसार अन्यों का ‘होना’ दाँव पर लगा रहे हैं। यहाँ कवि विचारक नन्द किशोर आचार्य का यह कथन भी स्मरण कर लेना जरूरी है, ‘क्या हमारे अर्थशास्त्राी और नीति निर्माता इतने अनुकरणधर्मी और अमौलिक हैं कि वे किसी ऐसे विकल्प का विकास नहीं कर सकते जो अपने आप में मानवीय हो और जिसे मानवीय चेहरे में दिखाने का कोई कृत्रिम प्रयास उन्हें नहीं करना पड़े ?’
अब भूमंडलीकरण और उसके कृत्रिम मानवीय प्रयास ‘सबै भूमि गोपाल की’ का नवीन संशोधित-परिवर्तित रूप हैं। अब गोपाल वंशी बजाता गऊएँ नहीं चराता बल्कि वह गऊओं के शारीरिक विकास-दोहन के लिए इंजेक्शन, उन्नत किस्म के वैज्ञानिक जांच पड़ताल से नहाए धोए बीज, खाद वितरित करता जी-8, जी-7 या जेड का मायावी सरगना बन गया है। ऐसे में कवि क्या वैसी ही कविता लिखे जैसी उसने राष्ट्रीय भावावेश में अयोध्या, बाबरी, गोधरा, पंजाव या नरसिंहराव- मनमोहनसिंह के समय में लिखी थी। एक दल का सदस्य बन दूसरे का लाल या भगवा उतारे। और खयाल रखे कि उसका लाल या सफेद अंगोछा बना भी रह सके। जो रंग कभी विन्सेन्ट के प्रिय रहे होंगे कैसे देखिए मनुष्य के रक्त, उसके दुःस्वप्नो, षड़यन्त्रों, आहों में परिवर्तित हो गए हैं। कविता न पहले किसी की अनुगामी, प्रवक्ता दास थी और थी तो वह बाद में सदिग्ध हो अपनी मौत खुद मरी। न अब कविता किसी गरीब की जोरू है जिसे जब चाहे चरित्राहनन कर जिला बदर कर दे या पिरामिडो में शासकों के अगले जन्म की सुविधार्थ दफन कर दिया जाए। वह एक अकेले का गान जो किसी आततायी के स्वप्न का दोष बन गया कोरी भावुकता नहीं बल्कि सबसे खरा सत्य है। आह से उपजा गान भी अपना भूमंडलीकरण जानता है। सूडान, इथोपिया, इराक, केन्या, अफगानिस्तान तक यह गान पहुंचता है निर्बाध। यह अंतिम व्यक्ति तक पहुंचती थाती ही गाँधी का सपना था। वह सपना एक कविता जो थी, जो है, वह अपनी स्वायत्तता में आज भी कायम है। इस पर खुद कवियों को यकीन न हो तो क्या करें मगर सच जानिए भूमंडलीकरण के सपेरों, मदारियों को इस पर तनिक भी सन्देह नहीं, इसलिए वे कवियों के साथ सांस्कृतिक रिश्ता भी महसूस करते हैं- जबकि यह पॉलिटिकल इकॉनॉमी के सिद्धान्त के प्रतिकूल भी है।
कविता की चुनौती आज भी कबीर, ग़ालिब, फैज, शमशेर, अज्ञेय, महादेवी, निराला, फरूख फरूखजाद, स्वेतायेवा, अख्मातोवा, ऐन फ्रेंक, गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मन्सूर, सोहनी देवी, भूरीबाई, बन कायम है। ये सब अपने होने में कविता हैं। इनका होना कविता होना है। ‘हिन्द स्वराज’ का होना हमारी सबसे बड़ी कविता है।
विश्व बैंक के प्रिपेड-पोस्टपेड कारिंदे अब हर हाथ को चरखा नहीं मोबाइल व नरेगा का सपना देते हैं, अब किसानों का अकाल मृत्यु का वरण करना भंडारों में पड़े धान को खाते चूहों को भी लजाता है, आदिवासी, अल्पसंख्यक या तो आशंकित रहते हैं या लुप्त होते हैं, जहाँ स्थानीयता और भाषायी विविधता द्रोपदी की तरह दाँव पर लगायी जाती है, ऐसे में यदि वह भावुकता ही सही यदि यह बची है कि सब कुछ होना बचा रहेगा तो यह भी कहीं और नहीं कवि और उसकी कविता में है। जहाँ यह भावुकता विकार की तरह त्याग राजनीतिक विचारधारा की लंगोट पहनी गयी है वहीं से छद्म-पाखंड का खेल शुरू होता है, दुर्भाग्य से वह भी कविता की भूमि पर खेला जाता है। वह भूमि बाद में कुलधरा गाँव की तरह त्यागी गयी खंडहर बिसूरती पुरातत्व विभाग द्वारा सहेजी जाती है। अन्त में अपनी एक कविता से मैं अपनी बात को यहीं विराम देना चाहूँगा-
चीजें जानती हैं
कुछ नहीं है होना
उन्हें रहना है
ताकि
लोग न रह जाए
अकेले।
(यह टिप्पणी भारत भवन, भोपाल में आयोजित ‘कवि भारती-5’ में 20 मार्च 2010 को पढ़ी गयी।)
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