राजाराम भादू
हिंदी के समकालीन परिदृश्य में पत्रिका "परिवेश" अौर उसके संपादक मूलचंद गौतम पर्याय जैसे रहे हैं। परिवेश मुकम्मिल रूप में एक लघु पत्रिका थी- छोटी जगह से प्रकाशित, सादगीपूर्ण और अपने बड़े मंतव्यों से परिचालित। परिवेश से संस्थापक संपादक के रूप में कथाकार काशीनाथ सिंह का नाम जुड़ा रहा। उन्ही के शब्दों में, परिवेश का पहला अंक १९७१ में आया था। सब मिलाकर छह-सात अंक निकाले थे। १९७६ में आपातकाल की घोषणा के बाद इसे बंद कर देना पड़ा। परिवेश का पंजीकरण नहीं हुआ था। यह विश्वविद्यालय ( बनारस) की ओर से निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिका थी। मुझसे विश्वविद्यालय ने ही मौखिक रूप से कहा था कि इसके पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है। ऑडिट वगैरह की झंझटों से बचने के लिए इसका मूल्य भी नहीं रखा गया था। दूसरे विश्वविद्यालयो- पुस्तकालयों, लेखकों- पाठकों और छात्र- छात्राओं को मुफ्त भेजी जाती थी। कुमार संभव १९७२ में ही दूसरे अंक से परिवेश से जुड गया था। लेकिन रामपुर से जब उसने परिवेश निकालने का निर्णय किया तो उसने सिर्फ नाम लिया, बाकी सारा कुछ उसका अपना था।
मूलचंद गौतम परिवेश के ११वें अंक से कुमार संभव के साथ संपादन में जुड़े। इस अंक में अखिलेश को विशिष्ट कथाकार के रूप में प्रस्तुत किया गया था। यहाँ से परिवेश के पीछे गौतम का विजन और श्रम और कुमार संभव का सहयोग शुरू हुआ। परिवेश के १५ वें अंक के बाद कुमार संभव की दुखद मृत्यु ( १९९३) हो गयी। इसका १८-१९ वां सयुक्तांक कुमार संभव पर ही केन्द्रित था। इस तरह मूलचंद गौतम ने १६-१७ वें अंक से पूर्ण संपादन का दायित्व संभाल लिया था। तदनंतर संस्थापक संपादकों के रूप में काशीनाथ सिंह और कुमार संभव का नाम पत्रिका के हर अंक में जाता रहा। इसके ६३ वे अंक तक मूलचंद गौतम ने कुल ४८ अंकों का स्वतन्त्र संपादन किया। कथाकार महेश राही उनसे सहयोगी के रूप में जुड़े रहे। परिवेश से उनका भी पुराना जुडाव था।
परिवेश के विशेषांकों की श्रृंखला में १९९२ में बावरी मस्जिद विध्वंस के बाद सांप्रदायिकता विरोधी अंक सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी के अतिथि संपादन में निकला। पत्रिका के अन्य विशेषांकों में हिन्दी क्षेत्र में वामपंथ, बसपा का ब्राह्मण सम्मेलन, धर्मनिरपेक्षता बनाम धर्मनिरपेक्षता, पृथक प्रदेशों की राजनीति, जातिगत जनगणना और बौद्ध धर्म में लामाबाद चर्चित रहे।
एक पत्रिका की भूमिका तब और प्रभावी हो जाती है, जब यह अपने इर्द- गिर्द गतिविधियों को आयोजित- प्रोत्साहित करती है। सत्ता, संस्कृति और भूमंडलीकरण पर परिवेश के संयुक्तांक का लोकार्पण १९९६ में दो दिवसीय संगोष्ठी के साथ किया गया था। इससे पहले चंदौसी में १९९५ में आयोजित दो दिवसीय परिवेश नाट्य समारोह उस अंचल की एक उल्लेखनीय सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। परिवेश द्वारा रामपुर, देहरादून और इलाहाबाद तक कार्यक्रम आयोजित किये गये।
इसी के साथ परिवेश ने नये संभावनाशील रचनाकारों को सम्मानित करने का सिलसिला शुरू किया। सम्मान- पुरस्कारों के विवादास्पद दौर में परिवेश द्वारा किये गये चयन को समय ने स्वत: सिद्ध कर दिया है। कुमार संभव की स्मृति में आरंभ की गयी सम्मान श्रृंखला में १८ लोग सम्मानित किये गये जिनमें हरिचरण प्रकाश, ओमप्रकाश वाल्मीकि, योगेन्द्र आहूजा, सुधीर विद्यार्थी, अल्पना मिश्र, अष्टभुजा शुक्ल, लवलीन और सुभाष चन्द्र कुशवाहा जैसे नाम शामिल हैं।
लघु पत्रिकाओं के कलकत्ता में आयोजित प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन में ज्ञानरंजन के नेतृत्व में एक समन्वय समिति बनी जिसमें परिवेश की ओर से मूलचंद गौतम को संयोजन समिति में शामिल किया गया। परिवेश ने निरंतर लघु पत्रिका आन्दोलन के आदर्श और मूल्यों को प्रतिबिंबित- प्रोत्साहित किया। परिवेश की ओर से मलखान सिंह की कविताओं और राजेश कुमार के नाटकों पर पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया गया।
परिवेश का आखिरी अंक ६४-६५वां संयुक्तांक है जो २०१४ में महेश राही के संपादन में निकला है। यह अंक संपादक- आलोचक मूलचंद गौतम पर केन्द्रित है। पिछले दिनों प्रगतिशील लेखक संघ के जयपुर में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में गौतम जी से मेरी दूसरी बार मुलाकात हुई। उनसे पहली मुलाकात. यहीं जयपुर में लघु पत्रिकाओं के चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन में हुई थी जिसके आयोजकों में मैं भी शामिल था। बहरहाल, परिवेश पर तो चर्चा होनी ही थी। उन्होंने बताया कि पत्रिका बंद हो चुकी है और इसका यह आखिरी अंक बडे संकोच के साथ मुझे दिया।
इस अंक के आत्मकथ्य में उन्होंने अपने परिवार की विपन्न स्थिति और नियति की आपदाओं का उल्लेख किया है। चूंकि उनका जन्म परिवार की कई असामयिक मृत्युओं के बाद हुआ था, इसलिए उनका नाम मूलचंद रख दिया गया। उत्तरी भारत के अनेक समुदायों में यह मान्यता है कि शिशु के ऐसा नाम रखे जाने से मृत्यु उससे कतराकर निकल जाती है। वैसे गौतम आत्मकथ्य में कहते हैं, नाम में क्या रखा है। जबकि मुरादाबाद जनपद की चंदौसी से भारत भूषण अग्रवाल, रामावतार त्यागी, दुष्यन्त कुमार और कुँवर बैचेन के नाम जुड़े हैं। स्वप्निल श्रीवास्तव ने अपने संस्मरण में लिखा है, मूलचंद नाम में कोई साहित्यिकता नहीं, यह नाम मंडी से जुड़ा हुआ नाम लगता था। स्वप्निल उन्हें खोजने सीधे चंदौसी की अनाज मंडी में चले गए लेकिन वहाँ इस नाम का कोई व्यापारी नहीं था। उन्हें वे रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय के मशहूर पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में हिन्दी प्रवक्ता के रूप में मिले। हमारे समय की साहित्यिक दुनिया में चंदौसी को मूलचंद गौतम के नाम से जाना जाता रहा है। वहाँ देश के ख्यात साहित्यकार आते रहे। जब गौतम ने अपने कालेज में विष्णु प्रभाकर को आमंत्रित किया, उनके व्याख्यान में स्वप्निल मौजूद थे। स्वप्निल ने अपने चंदौसी प्रवास का बहुत ही जीवंत वर्णन किया है जिसमें परिवेश के संपादक-द्वय की जुगलबंदी के दृष्टांत हैं। उनके अनुसार गौतम की कथा में कुमार संभव एक अहम किरदार है। इस कथा के सूत्र वीरेन डंगवाल और वाचस्पति तक फैले हैं।
सुधीर विद्यार्थी ने परिवेश द्वारा बनारस में बाबा नागार्जुन और चंदौसी में रामविलास शर्मा और १८५७ पर केन्द्रित आयोजनों का जिक्र किया है। वे मोरी की ईंट उपन्यास के ख्यात रचनाकार मदन दीक्षित का भी उल्लेख करते हैं। अष्टभुजा शुक्ल ने अपनी ही तिर्यक शैली में कहा है, मूलचंद न तो कभी प्रतिष्ठित रहे, न बने। फिर वे कहते हैं कि कैसे उन्होंने परिवेश सम्मान के जरिए अलक्षित प्रतिभाओं को प्रतिष्ठित किया। अष्टभुजा एक और बात बताते हैं। आलोचक होते हुए मूलचंद गौतम परिवेश में सिर्फ एक पन्ने का परिवेशगत (संपादकीय) लिखते थे जो किसी प्रासंगिक मुद्दे पर होता था। पत्रिका के बाकी सभी पृष्ठ रचनाकारों के लिए होते थे। वे लिखते हैं, पहली बार जब मूलचंद से भेंट हुई थी तो लगता था कि उनकी देह में खून ही खून है लेकिन गत वर्षों जब फैजाबाद में किसी कार्यक्रम में मिले तो लगा कि उन्होंने बहुत कुछ परिवेश को पिला दिया है।
कमलेश भट्ट कमल पहले परिवेश से सम्मानित हुए, बाद में मूलचंद गौतम के समधी बने। किसी परिवार का सच्चा चरित्र उसकी बहुओं के मायके वालों से पता चल सकता है। कमल जी उसी पक्ष से हैं। वे गौतम के व्यवहार में अभिव्यक्त मूल्यों को रेखांकित करते हुए अंत में लिखते हैं, मूलचंद गौतम... नदी- व्यक्तित्व के रचनाकार हैं, धीरे- धीरे मंथर गति से चलते- बहते रहने वाले, अपने साथ- साथ इतर समाज के सरोकारों से जुड़े रहने में अपने होने की सार्थकता अनुभव करने वाले। इसी संचयन में मूलचंद गौतम के छात्र जीवन के दो मित्रों ने अपने दिलचस्प संस्मरण लिखे हैं जो बाद में खुद भी अध्यापन और लेखन के क्षेत्र मे सक्रिय रहे हैं। हरिमोहन और प्रेमकुमार के साथ गौतम के दशकों पुराने आत्मीय रिश्ते मुखरता से यहाँ व्यक्त हुए हैं। उनके सहकर्मी रामप्रकाश यादव ने बताया है कि कैसे गौतम ने उन्हें समाज के बड़े सरोकारों से जोड़ा और एक मानवाधिकार संगठन का दायित्व सौंपा। यादव ने गौतम की इस मान्यता को उद्धृत किया है, भ्रष्ट केवल रिश्वत लेने वाला नहीं होता है बल्कि मुफ्त वेतन पाने वाला ड्यूटी चोर भी भ्रष्ट और अपराधी होता है।
मूलचंद गौतम की कर्त्तव्य- परायणता और अपने विद्यार्थियों से मित्रवत व संवेदनशील व्यवहार पर उनके शिष्य उमेशचंद सिरसवारी, बृजलाल कोरी और श्योराजसिंह बैचेन ने रोशनी डाली है। बैचेन ने इस बात का विशेष उल्लेख किया है कि गौतम ने दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि का परिवेश सम्मान के लिए चयन किया।
इस अंक में मूलचंद गौतम की सिर्फ दो आलोचना पुस्तकों पर चर्चा है - साहित्य अकादमी द्वारा भारतीय साहित्य के निर्माता श्रृंखला के अन्तर्गत भारतभूषण अग्रवाल पर प्रकाशित पुस्तक और उनके आलोचनात्मक निबंधों का संचयन- पुरोवाक। इन पर मनोज मिश्र, रघुवंश मणि, वेदप्रकाश अमिताभ और अखिलेश पाण्डेय के लेख हैं। जाहिर है कि संपादन की भूमिका के चलते उनका अपना लेखन नेपथ्य में रहता आया है।
पत्राचार में हजारीप्रसाद द्विवेदी, बच्चन, विमल मित्र से चलकर शैलेश मटियानी, राजेन्द्र यादव और प्रभा खेतान तक होते हुए वाचस्पति और महेश्वर तक एक बडे फलक में गौतम का लिखित संवाद विस्तारित है। गौतम के नाम तमाम साहित्यकारों के इन प्रत्युत्तरों से हम संवाद की गंभीरता और ऊष्मा का अनुमान लगा सकते हैं।
इसी अंक में कहीं कवि वेणु गोपाल की टिप्पणी है ; हिन्दी में साहित्य वाद- विवादों में पत्रिकाओं का महत्व पुस्तकों से कहीं बढकर रहा है। परिवेश इस परिप्रेक्ष्य में शामिल रहेगी, ऐसी और समान धर्मा पत्रिकाओं के साथ। अंततः, बकौल अष्टभुजा शुक्ल, जिस खेत की मूली हो मूलचंद, उन्हें यह कविता तो समर्पित की ही जा सकती है-
ऊपर- ऊपर
जिसने भी देखा
हर वक्त हरा ही दिखा मैं
समूल उखाडने पर ही
समझ सके लोग
कि मुझमें
मूली जैसी सफेदी थी
या गाजर जैसी लाली?
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