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जाति गणना के निहितार्थ - राजाराम भादू

इस दशक (2010) की जनगणना में दो ऐतिहासिक चीजें होने जा रही हैं। इनमें एक है जातिवार जनगणना और दूसरी है हर व्यक्ति का विशिष्ट परिचय पत्र (यूनिक आइडेन्टिटी कार्ड)। हम पहली परिघटना पर विमर्श में शामिल होना चाहते हैं।
जाति आधारित जनगणना कहते हैं कि आखिरी बार 1930 में हुई थी, उसके बाद इसे बंद कर दिया गया। भारतीय संविधान में सकारात्मक सक्रियता (अफर्मेटिव एक्शन) के चलते आरक्षण का प्रावधान करते समय जातियों को आधार न बनाकर इनकी अनुसूचित श्रेणियों को आधार बनाया गया था। संविधान निर्माताओं की संकल्पना थी कि देश से जल्दी ही जातियां तिरोहित हो जायेंगी। हम देखते हैं कि संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी भारतीय समाज में जाति व्यवस्था और मजबूत हुई है। इसके कारणों का गंभीर विश्लेषण भले ही न हुआ हो लेकिन जन्नत की हकीकत हम सभी जानते हैं।
इन दशकों में जातियों की गणना की मांग भी उठती रही है। विशेषकर आरक्षण के संदर्भ में अक्सर जातियों की सही संख्या पता करने की बात की जाती है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से पिछड़ों की जनसंख्या को लेकर न्यायालय ने भी जाति आधारित जनगणना पर अपनी राय का इजहार किया था। अभी तक जातियों को लेकर 1930 की गणना के आधार पर ही कयास (प्रोजेक्शन) लगाये जाते थे। विगत कुछ वर्षों से कहा जा रहा था कि जनगणना में जातियों के आधार को भी शामिल किया जाये।
जब 2010की जनगणना प्रक्रिया शुरू हुई तो यह मांग बलवती होकर उभरी। आरंभिक अन्यमनस्कता के बाद कांग्रेस नीत प्रगतिशील गठबंधन सरकार अंततः जातियों के आधार पर जनगणना के लिए राजी हो गयी। यह दिलचस्प है कि संसद में इस मुद्दे को लेकर कोई विशेष वैचारिक बहस नहीं हुई। भाजपा सहित किसी विपक्षी राजनैतिक दल ने भी इसका कडा प्रतिवाद नहीं किया। चंद संसदीय और मंत्रिमण्डलीय समितियों में सलाह-मशविरे के बाद जाति गणना को लेकर लगभग राजनीतिक सर्वसहमति बन गयी। अर्थात् संविधान लागू होने के छह दशक बाद भारतीय समाज में जाति के अस्तित्व को राजनीतिक मान्यता मिल गयी।
जाति के आधार पर जनगणना का कोई सशक्त राजनीतिक प्रतिवाद सामने नहीं आया। बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और जन संगठनों के कुछ नुमाइंदों ने मिलकर जरुर इसका कडा विरोध किया पर देश के विराट फलक पर यह विरोध करीबन प्रतीकात्मक से ज्यादा दर्जा नहीं पा सका। इन लोगों का तर्क था कि जाति आधारित जनगणना समाज के लिए विघटनकारी है। यह संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। इससे भारतीय समाज खंड-खंड हो जायेगा। इसमें सूक्ष्म फासीवादी प्रवृत्तियों के उभार के खतरे हैं। कुल मिलाकर यह एक प्रतिगामी प्रक्रिया है जो समाज को सामंती युग की ओर वापस ले जायेगी। निसंदेह प्रतिवादियों के ये तर्क निराधार नहीं हैं।
हम जरा जाति गणना के इतर निहितार्थों पर भी विचार करना चाहते है। इस प्रसंग मंे प्रबल कारक वस्तुगत यथार्थ है जो बताता है कि जाति भारतीय समाज की एक ठोस परिघटना है। यह व्यक्ति की जन्मजात पहचान से जुड़ी है। आधुनिकता की हवा भी इसे क्षरित करने में असफल रही है। भारतीय राजनीति में जैसे-जैसे वैचारिक हृास होता रहा है,उसमें साम्प्रदायिक कारकों के समानान्तर जाति का कारक प्रभावी भूमिका ग्रहण करता गया है। सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) के नाम पर वर्तमान राजनीति में जातीय गठबंधनों ने जो स्वीकृति पायी,उसकी तार्किक परिणति हम जाति-गणना के रुप में देखते हैं। जब इसके तिरोहित होने की क्षीण-सी संभावना भी नजर नहीं आती, इसकी उत्तरोत्तर अहम होती भूमिका दिखायी दे रही है तो फिर क्यों नहीं इसे गतिशील वास्तविकता के रुप में स्वीकार कर लिया जाये।
जाति गणना के तात्कालिक नतीजे तो जातियों के पुनः एकीकरण,धु्रवीकरण और राजनीतिक गोलबंदी के रुप में दिखायी देंगे। आरक्षण को जातियों के अनुपात मंे विभाजित करने की अनेकानेक आवाजें उठेंगी। इसके बाद जाति विशेष पर वर्चस्व कायम करने की राजनीतिक-सामाजिक प्रतिस्पर्धाएं छिडेंगी। ये सभी चीजें अभी भी स्वतः स्फूर्त अवस्था में मौजूद हैं। इन्हें एक ठोस जन-सांख्यिकीय आधार मिल जायेगा।
जाति का प्रश्न एक सांस्कृतिक प्रश्न भी है। जैसाकि हमने पूर्व में उल्लेख किया, संविधान ने जातियों को अनुसूचित श्रेणियों के आधार पर आरक्षित किया था। तदन्तर सामाजिक न्याय के मुद्दे पर ये श्रेणियां दलित और आदिवासी के रुप में गोलबंद हुई। पिछडों की एकता की बात भी मंडल आयोग के बाद उठती रही। जल्दी ही इन सामाजिक श्रेणियों को सांस्कृतिक अस्मिता के रुप मंे स्थापित करने की कोशिशें शुरु हुईं। यदि सामाजिक गतिशीलता की इस प्रक्रिया में उभरे नये वर्चस्व का विश्लेषण किया जाये तो पता चलता है कि इन श्रेणियों में कुछ नेतृत्वकारी जाति समुदाय ही लाभान्वित हुए। श्रेणी समुच्चय में शेष बहुसंख्यक जाति समुदायों की वंचना बरकरार रही।
जाति गणना छोटे और विश्रृंखलित जाति समुदायों को सामाजिक गतिशीलता में मददगार हो सकती है। इसके चलते दलित, आदिवासी और पिछडों की स्थापित श्रेणियां विखंडित होंगी और अभी तक उपेक्षित और हाशियाकृत समुदायों की स्वतंत्र इयत्ता स्थापित होगी। असल में दलित और आदिवासी अन्तर्भेद के मुद्दे अभी तक अस्मिता विमर्श में स्थगित किये जाते रहे हैं। जबकि अनेकानेक जाति और जनजाति समुदायों की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक अस्मिता है। इसे अब राजनीतिक मान्यता मिलने की संभावना बढ़ जाती है क्योंकि एक छोटा ही सही किन्तु दबाव रखने वाला मतदाता समूह किसी भी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
हमें नहीं मालूम की मुस्लिम और ईसाई तबकों में जाति आधारित गणना होगी या नहीं। समाजशास्त्रीय और नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन यह प्रमाणित कर चुके हैं कि इन तबकों में भी भिन्न-भिन्न जाति-समुदायों का अस्तित्व है, इनके बीच सोपान क्रमिक संबंध और अन्तर्भेद हैं। हमारा मानना है कि इन तबकों पर भी जाति आधारित गणना को लागू किया जाना चाहिए। वर्चस्वशाली शक्तियों द्वारा निजी हितों के लिए सामुदायिक राजनीति यहां और भी भयावह रुप में विद्यमान है। बिहार मंे पसमांदा महाज जैसे प्रतिरोधों में हम इसे देख चुके हैं।
सच्चर समिति और जस्टिस रंगनाथ आयोग की मुस्लिम समुदाय पर आयी रिपोर्टो के तथ्यों को हम अन्तर्सामुदायिक भेद व क्षेत्रीय आधार पर विश्लेषित कर सकते हैं। मुस्लिम समुदाय के पिछडे तबकों के आरक्षण की लडाई भी इस समुदाय में जाति गणना से सफलता की ओर बढ़ सकती है। भारत बहुधार्मिक, उप राष्ट्रीयताओं और सांस्कृतिक बहुलता वाला देश है। इसमें जाति बहुलता के तथ्य को भी हमें स्वीकार कर लेना चाहिए। विभिन्न जाति समुदायों के बीच सहमेल की कल्पना तब तक नहीं की जा सकती जब तक हम राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रुप से उन्हें न्याय और गरिमा प्रदान नहीं की जाती। जाति गणना को हम इस अनिवार्य कार्यभार के लिए आधार भूमि के रुप में लें तो सही मायने में यह एक ऐतिहासिक चरण की शुरुआत हो सकती है।
एक छोटी-सी टिप्पणी विशिष्ट पहचान पत्र (यू.आई.डी.) पर भी। इस प्रक्रिया में कार्पोरेट तकनीकी घरानों के दखल ने कई तरह की आशंकाएं पैदा की हैं। दूसरी ओर, इसे अगर तकनीकी के वर्चस्व के लिहाज से देखें तो व्यक्ति अस्मिता के एक अमूर्त अंक में बदल जाने का खतरा है। भारतीय विषमतामूलक समुदायों में इस सुविधा से किसको लाभ मिलेगा और कौन आंकडों के जटिल संजाल में उलझकर रह जायेगा, ये एक बडा यक्ष-प्रश्न है। इसके चलते व्यक्ति की बहुआयामी पहचान को कैसे सुनिश्चित किया जायेगा, उसे विकास की प्रक्रियाओं से कैसे सम्बद्ध किया जायेगा और ये सब विकेन्द्रीकृत प्रशासन और राष्ट्रीय सुरक्षा की संगति में होगा, यह अभी साफ नहीं है।

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