सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व

कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है।

डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है।

जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहता है। हालांकि डाकुओं में भी अंतर रहा है और जन सामान्य की ओर से सभी को नायकत्व हासिल नहीं हुआ। जन- श्रुतियों के अनुसार ऐसे डाकू रहे हैं जो गरीबों के प्रति संवेदनशील थे। सुल्ताना डाकू और मानसिंह के बारे में कहा जाता है कि वे अमीरों को लूटकर उनका धन गरीबों में बांट देते थे। स्त्रियों को लेकर भी डाकुओं की मान- मर्यादा की चर्चा होती है। पुतली बाई जैसी महिला दस्यु को भी जन सामान्य में नायक का दर्जा हासिल है।

हिन्दी प्रदेशों के दस्यु प्रभावित क्षेत्र दूर- दराज के पिछड़े हुए इलाके हैं जहां एक ओर सामंती सामाजिक ढांचा बरकरार है तो दूसरी तरफ आधुनिक सभ्यता की पहुँच नाम मात्र रही है। जन समुदायों में यह सामान्य धारणा है कि कोई शौक से डाकू नहीं बनता बल्कि मजबूरियों के चलते इस राह पर चल पड़ता है। इसे उनकी नज़र में बगावत माना जाता है और इसीलिए उन अंचलों में डाकू को बागी कहा गया है। इस प्रकार यह विद्रोह का ही एक पूर्व आधुनिक रूप रहा है। जो लोग वर्चस्व के तले स्वयं उत्पीड़ित अवस्था में रहते हैं, वे विद्रोहियों के प्रति एक तरह का सम्मान भाव रखते हैं। इन अंचलों में डाकुओं को जाति- समुदायों से जोडकर भी देखा गया है। इनके बारे में तथ्यपरक और प्रासंगिक जानकारी के अभाव में अतिरंजना बढती गयी है।

हिन्दी सिनेमा में दस्यु जीवन को एक सीमा तक यथार्थवादी तरीके से चित्रित करने की कोशिशों का भी इतिहास रहा है। ऐसी फिल्मों का मदर इंडिया से लेकर मुझे जीने दो तक एक धुंधला और बिखरा- सा क्रम है। लेकिन अधिक लोकप्रियता तो मेरा गाँव मेरा देश, कच्चे धागे और चंबल की कसम व शोले जैसी फिल्मों को ही मिली है। ऐसी फिल्मों में घोडे दौडते रहते हैं जो पुलिस की जीपों को भी छकाते रहते हैं। डाकुओं के अड्डे पर मुजरे होते रहते हैं या कब्बालियां होती हैं। इस सबके साथ रोमांस तो है ही। सत्तर के दशक के बाद तस्कर और माफियाओं ने डाकुओं को हिन्दी सिनेमा से अपदस्थ कर दिया। इसके बाद वे आते भी थे तो काफी हास्यास्पद लगते थे। और फिर शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन और तिग्मांसु धूलिया ने दस्यु दुनिया का एक भिन्न, धूसर और बदरंग किन्तु युगान्तरकारी नैरिटिव प्रस्तुत किया।   
डांग- एक अभिनव आख्यान

एक बेहतर और सार्थक फिल्म बनाने के लिए एक अच्छी कहानी पूर्व शर्त है। पहले जो दस्यु फिल्में सफल रहीं, उनमें भी कथावस्तु की निर्णायक भूमिका थी। भले ही यह अतिरंजित और रोमांचक हो। दस्यु जीवन पर यथार्थवादी नजरिये से लिखी गयी कथाओं के नाम पर लगभग शून्य है। यह जानकर एक तरह की हैरत होती है कि प्रगतिशील कथाधारा में भी डाकुओं के कथानक गायब हैं। यदि यह बगावत का पूर्व आधुनिक रूप था तो इसे कथा के जरिये समझने की कोशिश होनी चाहिए थी। सामाजिक शोध में संलग्न संस्थानों ने भी दस्यु जीवन पर शायद ही कोई उल्लेखनीय अनुसंधान किया है। ऐसे में मुक्तिबोध की लंबी कविता चंबल की घाटी में एक अपवाद की तरह है। यह कविता इस बीहड जीवन के प्रश्नों को प्रतिरोध की व्यापक चेतना से जोडने का कलात्मक उपक्रम है।

फूलन देवी पर एक पत्रकार माला सेन ने लंबे समय तक शोध किया। उन्होंने एक ओर फूलन से लंबे साक्षात्कार लेकर उसका जीवन वृत्त तैयार किया, वहीं उस क्षेत्र में भारत भ्रमण व स्थानीय लोगों से संवाद करके इसकी प्रामाणिकता को पुष्ट किया। यह भी उल्लेखनीय है कि फूलन पर लिखी माला सेन की पुस्तक बैंडिट क्वीन फिल्म से पहले ही बेस्ट सेलर का दर्जा हासिल कर चुकी थी। मुझे लगता है कि अगर यह किताब नहीं होती तो यह फिल्म भी संभव नहीं होती। कहना जरूरी है कि यह किताब अंग्रेजी में लिखी गयी। 

हिन्दी में मनमोहन कुमार तमन्ना ने जरूर चंबल के डाकुओं पर यथार्थवादी नजरिये से लिखने की कोशिश की थी। दुर्भाग्य से उनकी पुस्तकें पाकेट बुक प्रकाशनों से छपीं, हालांकि उन्हें अच्छी व्यावसायिक सफलता मिली थी। यहाँ प्रसंगवश उल्लेख जरूरी है कि पाकेट बुक प्रकाशनों से डाकुओं पर उपन्यास आते रहे थे। असल में ये पुराने फुटपाथी बाजार का नया रूप ही तो था। इनमें कुशवाहा कान्त से लेकर रामकुमार भ्रमर तक कई लेखकों ने दस्यु कथाएं लिखी थी। लेकिन तमन्ना के उपन्यास काफी भिन्न थे। उनमें चंबल के बीहड, डांग क्षेत्र, हिंसा के अंधेरे पक्ष और वहां के वाशिन्दों का पिछडापन वर्णित था। जहाँ तक मुझे याद है ,उनके मोहरसिंह- माधोसिंह की पृष्ठभूमि पर लिखे उपन्यास पर फिल्म भी बनी। लेकिन वहाँ सब काफी कुछ फिल्मी हो गया था।

दस्यु जीवन पर ही कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित कथाकार पुन्नीसिंह के उपन्यास वह जो घाटी ने कहा " का जिक्र भी जरूरी है। यह चंबल घाटी के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के डांग क्षेत्र में दो दस्यु गैंगों के मध्य चली आ रही रंजिश और निर्मम हिंसा की दास्तान है जिसे कथाकार ने ठेठ यथार्थवादी शैली में निस्संगता से वर्णित किया है। अफसोस है कि इस उपन्यास पर वांछित चर्चा नहीं हुई ।

डांग उपन्यास की रचना के पीछे हरिराम मीणा का लंबा शोध और श्रम है। यह राजस्थान की चंबल की घाटी में फैले डांग क्षेत्र के पिछडेपन और उपेक्षा की कथा है जिसके सीमान्त उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से जुड़े हैं। इस तरह राजस्थान का यह अंचल भौगोलिक रूप से ही सीमान्त नहीं है बल्कि हाशिये के अर्थ में भी सीमान्त है। इसीलिये यहाँ सामन्ती मूल्य- संरचना आज भी प्रचलन में है।

डांग में का ताना- बाना मिथक कथाओं, किंवदंतियों और इतिवृत्तों को वर्तमान के रूबरू रखकर बुना गया है। इस लिहाज से यह डांग के वर्तमान का एक अभिनव आख्यान है। उपन्यास स्थानीय जीवन में व्याप्त उन असंगतियों, शक्ति- संरचनाओं और वर्चस्व के जन- विरोधी रूपों को उद्घाटित करता है जो दस्यु उन्मूलन में नहीं बल्कि दस्युओं के बने रहने में अपने निहित स्वार्थ देखते हैं। इस उपन्यास का वितान और कथा- भाषा आपको एक ऐसे यथार्थ से साक्षात्कार कराती है जो सच में अभी तक करीबन अन-उदघाटित रहा है। इसमें पात्रों की बाह्य और आभ्यंतर दुनिया को पूरी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। डेढ सौ पृष्ठ के इस उपन्यास की पठनीयता ऐसी है कि इसे बीच में छोडना मुश्किल है। मेरे लिए तो यह इसलिए भी अहम है कि मेरे गाँव के पडौस की गाथा है।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य