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अलवर में फिल्म समारोह

मौजूदा समय का मुम्बइया सिनेमा देश के जमीनी यथार्थ से पूरी तरह कट चुका है। अब यह भारत ही नहीं इंडिया का सिनेमा भी नहीं रहा। जबकि विडम्बना यह है कि जो लोग बेहतर फिल्में बनाते हैं उन्हें बाजार बहिष्कृत कर देता है। ऐसे में सार्थक फिल्मों को सही दर्शकों तक पहुँचाने के लिए जन हस्तक्षेप जरुरी हो जाता है।

सार्थक सिनेमा को लोकप्रिय बनाने के लिए अमन दिल्ली और समान्तर जयपुर ने मिलकर एक प्रयास शुरु किया है। अलवर में फिल्म समारोह इसी उपक्रम का हिस्सा था। अलवर में इस समारोह का आगाज ‘मई दिवस’ (1 मई 2010) को श्रमिक समस्या और विस्थापन से जुडी फिल्मों व उन पर विमर्श से हुआ। ऐसे समय में यह उपक्रम और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब मजदूर और किसानों के मुद्दे कहीं पृष्ठभूमि में जा रहे हैं।

इस फिल्म समारोह की शुरुआत पहली मई 2010 को सुबह दस बजे अलवर के सामान्य चिकित्सालय स्थित आई.एम.ए. हॉल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी.) दिल्ली के स्कॉलर और रंगकर्मी दौलत वैद्य ने दीप प्रज्वलित कर की। कार्यक्रम की शुरुआत में अमन पब्लिक चेरिटेबिल ट्रस्ट के निदेशक जमाल किदवई ने कहा कि कुछ ऐसी फिल्में हैं जिनका समाज पर गहरा असर होता है। ये फिल्म समाज को नयी दिशा देने की कोशिश करती हैं। लेकिन बाजार में इनको स्थान नहीं मिल पाता है। ऐसी ही फिल्मों को समाज के लोगों के सामने लाने के लिए यह आयोजन किया गया है।

कार्यक्रम में पत्रकार ईशमधु तलवार ने कहा कि ये फिल्में समाज के एक ऐसे वर्ग से जुडी हैं जो देश की आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस वर्ग की समस्याओं को उठाना भी समाज का दायित्व है। श्रमिक दिवस पर ऐसी समस्याओं को उठाना कार्यक्रम को सार्थकता प्रदान करता है।

कार्यक्रम में पहले दिन सुबह गोविन्द निहलानी के निर्देशन में बनी ‘आघात’ फिल्म दिखायी गयी। इसके बाद फिल्म पर संवाद में प्रो. शचि आर्य, वीरेन्द्र विद्रोही और मुंशी खां ने अपने विचार व्यक्त किये। चर्चा का संचालन प्रेमचंद गांधी ने किया। इसके बाद शाम को अमर कंवर की डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म ‘आजादी’ और ‘माफलिमाली’ प्रदर्शित की गयीं। इन फिल्मों ने विस्थापन और पर्यापरण के विनाश का वस्तुपरक चित्राण किया है। इन पर चर्चा में जगदीश शर्मा, हरिशंकर गोयल और जयप्रकाश कर्दम ने हिस्सा लिया। चर्चा को शंभु गुप्त ने संयोजित किया।

अगले दिन शबनम बिरमानी की फिल्म ‘हद-अनहद’ प्रदर्शित की गयी। कबीर पर केन्द्रित इस शोधपरक फिल्म ने साझी संस्कृति और देशज सोच पर एक विचारोत्तेजक चर्चा को आधार प्रदान किया। समापन के अवसर पर समान्तर की ओर से राजाराम भादू ने कहा कि यह कार्यक्रम हमारे लिए एक प्रयोग था। हमें लगता है कि आगे इसे विशेष वर्ग के दर्शकों जैसे- किसान, मजदूर या युवाओं-छात्रों पर केन्द्रित करके आयोजित करना चाहिए। (मीमांसा)

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