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कविता की जरूरत

 कविता की जरूरत


असुंवन जल सींच सींच

प्रेमबेलि बोई,

अब तो बेलि फैल गई

होवे सो होई।


यह मीरा के एक पद का छंद है। मुझे किसी क्षण सहसा स्मरण हो आया। बार- बार स्मृति में उभरता रहा। यह कविता है। एक आत्यंतिक अनुभूति की समूर्त अभिव्यक्ति। एक जीवंत बिम्ब और निर्भय वक्तव्य- होवे सो होई। क्या यह सिर्फ भक्ति- भाव है। नहीं, यह सामंती पतनशीलता और जकड़न का तीव्र प्रतिकार है। असुंवन जल सींच -सींच, वेदना का आर्तराग। शताब्दी गुजर गयी, इतिहास का गर्द- गुबार बार-बार उठा और बैठ गया। मीरा की प्रेम- बेलि अभी तक हरी- भरी है, सदाबहार है।


लेकिन प्रश्न यह है कि कोई कविता मैं क्यों पढता हूं? यदि कविता में मेरी किंचित दखलंदाजी न हो तो भी क्या मैं कविता पढूंगा? इस तरह यह प्रश्न देखेंगे तो हमें बहुत काम की बात नहीं मिलेगी। रचनाकार चूंकि सृजन का सोच- विचार कर चुनाव करते हैं, अतः कविताएँ पढना एक तो उनके अध्ययन का हिस्सा है, दूसरे उनकी उत्सुकता का विषय। मसलन, अपने रचनाकार का विकास करने के लिए वे अपने पूर्ववर्तियों और क्लासिकों का अध्ययन करते हैं। उत्सुकतावश समकालीनों का और प्रायः राय- मशविरा देने के लिए नये रचनाकारों का।


यहाँ सृजन की दुनिया के सदस्य से इतर हमें अपनी निजी रुचियों में झांकना होगा। हमारी रुचि की कविताएँ और पसंद के कवि। क्या यह सिर्फ रुचि और पसंद का शौकिया मामला है या जरूरत? नहीं, इतना सरल- सीधा प्रश्न नहीं है। हमारे भीतर कोई कोना रीतता है और वह कविता की मांग करता है। कोई कविता हमारे सामने आती है और सहसा अंतर में प्रवेश कर अपनी कोई जगह बना लेती है। मुझे याद आता है, मेरी मां की मृत्यु हो गयी थी। मौहल्ले- पडौस की औरतें उन्हें अंतिम- संस्कार के लिए तैयार करने लगीं। मैं कठोर ह्रदय एक तरफ चुपचाप बैठा था। परिवार के सब लोग रो रहे थे। पर पता नहीं क्यों मुझे रोना नहीं आ रहा था। शायद लोगों का इस बात पर ध्यान भी जा रहा था। इससे मुझे और असजता हो रही थी। औरतों ने मां के शव को नहलाते हुए एक गीत गाना शुरू किया- तू तो गयी री सखी माटी के मोल री। अब एक यही बोल याद रह गया है। इसमें कहा है, तूने जीवन में जद्दोजहद कर इतना कुछ जुटाया। क्या नहीं था तेरे पास, फिर भी हे सखी, तू माटी के मोल चली गयी। ये बोल मुझे भीतर तक हिला गये और मैं फूट- फूटकर रोने लगा। यह मेरे तब तक के जीवन में सुना सर्वश्रेष्ठ गीत था।


"और तभी से मेरी ग्रामीण स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों में रुचि उत्पन्न हुई। पता चला शोक और कई बार धार्मिक अवसरों पर स्त्रियाँ ऐसे गीत गाती हैं। राजस्थान के बहुत बड़े क्षेत्र में इन्हें निरगुन कहा जाता है। मतलब सिर्फ कबीर और कुछ संतों तक ही निर्गुण काव्य सीमित नहीं है। काश, इन गीतों का संचयन कर सांस्कृतिक अध्ययन हो पाता। "


बहरहाल, हम कविताएँ पढते हैं लेकिन सिर्फ वे ही नहीं हैं जो कुछ पत्र- पत्रिकाओं में छपती हैं। हमारे देश का बहुलांश इस प्रिंट ( और अब सोशल) मीडिया की परिधि से परे है। इस बहुलांश जनता का भी एक बड़ा हिस्सा निरक्षर है। इसलिए पत्र -पत्रिकाओं (और सोशल मीडिया) में छपने वाली कविताओं के आधार पर दिये गये निष्कर्षों से इस देश की जनता की काव्य- अभिरुचि और कविता के प्रयोजन की बहुत दरिद्र और निराशाजनक तसवीर सामने आयेगी। जबकि कविता इस देश के सुदूर अंचलों में बसी मेहनतकश जनता के जीवन और संवाद में रची- बसी है। वहाँ लोक- सृजन की समृद्ध धारा बहती रही है ( जो अब क्षीण होने लगी है।)। इसलिए पढी जाने वाली मुद्रित कविता के बारे में कोई सार्थक सोच- विचार करना है तो हमें लोक- सृजन को बराबर ध्यान में रखना होगा। फिर यह प्रश्न बेमानी है कि कोई कविता मैं क्यों पढता हूं। पढता ही नहीं क्योंकि पढना आता ही नहीं। मैं तो सुनता हूं- अवधूत जीवन की गति न्यारी !     

      


कविता से मेरी अपेक्षाएं क्या हैं ? एक समीक्षक के नाते नहीं, एक लेखक के रूप में नहीं और एक सुधी पाठक के रूप में भी नहीं।‌ सुधी पाठक वह व्यक्ति है जो प्रायः रचनाकारों के संसर्ग में रहता है, उन्ही जैसी भाषा बोलता है किन्तु दुर्योग से खुद रचनाकार न हो सका है। यह पहले जमाने का सह्रदय नहीं है जिसके मन में कवि- लेखक होने की कोई प्रच्छन्न अथवा दमित आकांक्षा नहीं होती  थी, जो सिर्फ रचनाओं का निर्मल आस्वादन करता था। बहरहाल, मैं एक साधारण मनुष्य के रूप में कविता की अपेक्षाएं टटोलना चाहता हूँ। आषाढ की किसी दोपहर को कुछ खेतिहर इकट्ठा होते हैं। अपने दुख- दर्द की बात करते हैं। बढते कष्ट और मुक्ति की कोई राह नहीं। यही है जीवन- जूझना ही होगा। फिर एक खेतिहर के मुंह से इसी अभिप्राय के बोल फूट पडते हैं। यह कबीर, तुलसी या किसी और कवि की पंक्ति हैं। फिर खेतिहरों की संवाद- भाषा बदल जाती है। आधा गद्य और आधा पद्य। पद्य इनका नहीं है- हमारे संत कवियों का है। लोक कवियों का है। लेकिन हमारे इन मेहनतकशों की श्रमरत जिंदगी और भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्ति दे रहा है। दोपहर खत्म हुई और खेतिहर पुनः उत्साह से अपने कठिन काम में जुट गए।


देहाती जिंदगी से एक और उदाहरण। हमारे अपने गाँव में तो कोई कवि नहीं था। एक आशु- कवि जरूर थे पर उसकी बात फिर कभी। आसपास के गाँव में तीन कवि थे। एक बगधारी गाँव के बुद्धा ठाकुर थे जिनकी बारहमासी और बाढ पर लिखी कविता बहुत मशहूर थी। बांसी के घनश्याम निडर अपने हास्य और छंद की खास विधा सपरी के कारण लोकप्रिय थे। तीसरे अंधियारी के भंवरस्वरूप भंवर थे। इन कवियों की बाकायदा राजनीतिक संबद्धताएं थी। बुद्धा ठाकुर और भंवर जी कांग्रेसी थे, जबकि निडर सोशलिस्ट थे। ब्रज भाषा अकादमी बनी तो उसने वरिष्ठ कवियों पर मोनोग्राफ निकालना तय किया। तब तक बुद्धा ठाकुर और निडर तो गुजर चुके थे, भंवर जी पर मोनोग्राफ के लिए मुझसे आग्रह किया गया। इस सिलसिले में मैं कई दिन उनसे संपर्क में रहा।


भंवर जी स्वतंत्रता सेनानी रहे, चूंकि गांधीवादी थे तो समाज- सुधारक भी। आज जैसी कि सच्चे गांधीवादियों की स्थिति है कि उन पर बहुत से लोग हंसते हैं, ये बनना शुरू हो गयी थी। भंवर अपने गाँव से कभी- कभार आसपास के गाँव में यूं ही घूमने निकलते। मैं भी उनके साथ हो लेता। एक बार खेतों के बीच पगडंडी से गुजर रहे थे। कुछ औरतें एक जगह इकट्ठी थीं। उन्होंने काका भंवर को आवाज देकर बुला लिया। वे हंस- हंस कर उनसे महतरानी वाली कविता सुनाने का आग्रह कर रही थीं। उन्होंने सुनाना शुरू किया-

नांय घर में टपकाऊ पानी

सबकै हा- हा खाय

कुआं पर खडी महतरानी...


दृश्य यह है कि एक मेहतर ( वाल्मीकि समुदाय की) स्त्री कुंए पर खडी सभी स्त्री- पुरुषों से अपनी मटकी भर देने के लिए आग्रह कर रही है। ( गाँव में तब मेहतरों के लिए अलग कुआं नहीं था। और वे सामान्य कुंए पर चढकर पानी भर नहीं सकते थे।) पुरुष उसे डांट- डपट रहे हैं कि उसके सुअर उनकी खेती को नुकसान पहुंचाते हैं। कुछ लोग हर गंगे कहते नहा रहे हैं लेकिन महतरानी की ओर उनका ध्यान नहीं है जिसके घर में एक बूंद पानी नहीं है। अंत में एक बुढिया को उस पर दया आ जाती है। महतरानी पानी लेकर घर पहुंचती है तो उसका पति उसे गुस्से से डांटता है कि इतनी देरी क्यों लगायी, किस यार से बात कर रही थी।


कविता सुनाकर भंवर स्वरूप तो सहज हो गये। लेकिन उन औरतों के चेहरे पर विवश उदासी की छाया घिरी थी। एक- दो औरतों की तो आंखों में आसूं छलछला आये थे। हम वहाँ से चल दिये।


इस बार एक अलग गाँव था। एक छप्पर में कुछ लोग बैठे थे। वे पहले तो भंवर जी से हंसी- मजाक करते रहे। उनमें से कुछ ने मांग की- वो लुक्का काका वाली कविता सुनाओ। भंवरजी ने यह कुंडली सुनाना शुरू कर दिया- जब से भयो लुक्का काका सरपंच है। कुंडली का सार है कि जब से लुक्का काका सरपंच हुआ है, वह शराब पीने लगा है, मुर्गा खाता है, गुण्डों की जमात लगाये रखता है और प्रपंचों में लगा रहता है। कविता के बाद लोग मुझे उस सरपंच के निदंनीय प्रसंग सुनाने लगे जिन पर यह कविता आधारित थी।


इन कविताओं का एक परिणाम तो यह था कि गाँव वालों ने अपनी ओर से हरिजनों ( तब यह शब्द प्रचलन में था।) के लिए अलग से कुआं बनवा दिया और लुक्का काका अगली बार पंचायत चुनाव हार गए। लेकिन मैं यहां इन कविताओं को लोगों की अपेक्षाओं से जोडना चाहूँगा। क्या भंवर स्वरूप से लोगों को इन्हीं कविताओं की अपेक्षा थी। यदि भंवर स्वरूप लोगों से उनकी अपेक्षाएं पूछकर कविताएँ लिखते तो लोग उनसे टर्र कविता जैसी हास्य रचनाएँ लिखाते रहते। किंतु यह लोगों की वास्तविक अपेक्षाएं नहीं थीं। भंवर स्वरूप ने उक्त कविताएँ लिखीं और लोगों ने इनको अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप पाया। वस्तुतः ये लोगों की दमित अपेक्षाएं थीं, जो पहले उभर नहीं पायीं। कवि ने इन्हें पहचाना और उन्हें अभिव्यक्ति दी। भले ही हालात बदल गये हों। ये कविताएँ मेहतरानी और लुक्का काका जैसे चरित्रों को उम्र प्रदान करती हैं जो कल तक हमारे समाज का सच थे।


वैसे आज तो यह सोचना ही मुश्किल लगता है कि कोई  भंवर स्वरूप अपने गाँव में रहता हुआ वहाँ के किसी लुक्का काका पर ऐसी कविता लिखे , वहीं लोगों को सुनाए और सुरक्षित रह पायेगा ।

कविता से मेरी अपेक्षाएं क्या हैं ? एक समीक्षक के नाते नहीं, एक लेखक के रूप में नहीं और एक सुधी पाठक के रूप में भी नहीं।‌ सुधी पाठक वह व्यक्ति है जो प्रायः रचनाकारों के संसर्ग में रहता है, उन्ही जैसी भाषा बोलता है किन्तु दुर्योग से खुद रचनाकार न हो सका है। यह पहले जमाने का सह्रदय नहीं है जिसके मन में कवि- लेखक होने की कोई प्रच्छन्न अथवा दमित आकांक्षा नहीं होती  थी, जो सिर्फ रचनाओं का निर्मल आस्वादन करता था। बहरहाल, मैं एक साधारण मनुष्य के रूप में कविता की अपेक्षाएं टटोलना चाहता हूँ। आषाढ की किसी दोपहर को कुछ खेतिहर इकट्ठा होते हैं। अपने दुख- दर्द की बात करते हैं। बढते कष्ट और मुक्ति की कोई राह नहीं। यही है जीवन- जूझना ही होगा। फिर एक खेतिहर के मुंह से इसी अभिप्राय के बोल फूट पडते हैं। यह कबीर, तुलसी या किसी और कवि की पंक्ति हैं। फिर खेतिहरों की संवाद- भाषा बदल जाती है। आधा गद्य और आधा पद्य। पद्य इनका नहीं है- हमारे संत कवियों का है। लोक कवियों का है। लेकिन हमारे इन मेहनतकशों की श्रमरत जिंदगी और भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्ति दे रहा है। दोपहर खत्म हुई और खेतिहर पुनः उत्साह से अपने कठिन काम में जुट गए।


देहाती जिंदगी से एक और उदाहरण। हमारे अपने गाँव में तो कोई कवि नहीं था। एक आशु- कवि जरूर थे पर उसकी बात फिर कभी। आसपास के गाँव में तीन कवि थे। एक बगधारी गाँव के बुद्धा ठाकुर थे जिनकी बारहमासी और बाढ पर लिखी कविता बहुत मशहूर थी। बांसी के घनश्याम निडर अपने हास्य और छंद की खास विधा सपरी के कारण लोकप्रिय थे। तीसरे अंधियारी के भंवरस्वरूप भंवर थे। इन कवियों की बाकायदा राजनीतिक संबद्धताएं थी। बुद्धा ठाकुर और भंवर जी कांग्रेसी थे, जबकि निडर सोशलिस्ट थे। ब्रज भाषा अकादमी बनी तो उसने वरिष्ठ कवियों पर मोनोग्राफ निकालना तय किया। तब तक बुद्धा ठाकुर और निडर तो गुजर चुके थे, भंवर जी पर मोनोग्राफ के लिए मुझसे आग्रह किया गया। इस सिलसिले में मैं कई दिन उनसे संपर्क में रहा।


भंवर जी स्वतंत्रता सेनानी रहे, चूंकि गांधीवादी थे तो समाज- सुधारक भी। आज जैसी कि सच्चे गांधीवादियों की स्थिति है कि उन पर बहुत से लोग हंसते हैं, ये बनना शुरू हो गयी थी। भंवर अपने गाँव से कभी- कभार आसपास के गाँव में यूं ही घूमने निकलते। मैं भी उनके साथ हो लेता। एक बार खेतों के बीच पगडंडी से गुजर रहे थे। कुछ औरतें एक जगह इकट्ठी थीं। उन्होंने काका भंवर को आवाज देकर बुला लिया। वे हंस- हंस कर उनसे महतरानी वाली कविता सुनाने का आग्रह कर रही थीं। उन्होंने सुनाना शुरू किया-

नांय घर में टपकाऊ पानी

सबकै हा- हा खाय

कुआं पर खडी महतरानी...


दृश्य यह है कि एक मेहतर ( वाल्मीकि समुदाय की) स्त्री कुंए पर खडी सभी स्त्री- पुरुषों से अपनी मटकी भर देने के लिए आग्रह कर रही है। ( गाँव में तब मेहतरों के लिए अलग कुआं नहीं था। और वे सामान्य कुंए पर चढकर पानी भर नहीं सकते थे।) पुरुष उसे डांट- डपट रहे हैं कि उसके सुअर उनकी खेती को नुकसान पहुंचाते हैं। कुछ लोग हर गंगे कहते नहा रहे हैं लेकिन महतरानी की ओर उनका ध्यान नहीं है जिसके घर में एक बूंद पानी नहीं है। अंत में एक बुढिया को उस पर दया आ जाती है। महतरानी पानी लेकर घर पहुंचती है तो उसका पति उसे गुस्से से डांटता है कि इतनी देरी क्यों लगायी, किस यार से बात कर रही थी।


कविता सुनाकर भंवर स्वरूप तो सहज हो गये। लेकिन उन औरतों के चेहरे पर विवश उदासी की छाया घिरी थी। एक- दो औरतों की तो आंखों में आसूं छलछला आये थे। हम वहाँ से चल दिये।


इस बार एक अलग गाँव था। एक छप्पर में कुछ लोग बैठे थे। वे पहले तो भंवर जी से हंसी- मजाक करते रहे। उनमें से कुछ ने मांग की- वो लुक्का काका वाली कविता सुनाओ। भंवरजी ने यह कुंडली सुनाना शुरू कर दिया- जब से भयो लुक्का काका सरपंच है। कुंडली का सार है कि जब से लुक्का काका सरपंच हुआ है, वह शराब पीने लगा है, मुर्गा खाता है, गुण्डों की जमात लगाये रखता है और प्रपंचों में लगा रहता है। कविता के बाद लोग मुझे उस सरपंच के निदंनीय प्रसंग सुनाने लगे जिन पर यह कविता आधारित थी।


इन कविताओं का एक परिणाम तो यह था कि गाँव वालों ने अपनी ओर से हरिजनों ( तब यह शब्द प्रचलन में था।) के लिए अलग से कुआं बनवा दिया और लुक्का काका अगली बार पंचायत चुनाव हार गए। लेकिन मैं यहां इन कविताओं को लोगों की अपेक्षाओं से जोडना चाहूँगा। क्या भंवर स्वरूप से लोगों को इन्हीं कविताओं की अपेक्षा थी। यदि भंवर स्वरूप लोगों से उनकी अपेक्षाएं पूछकर कविताएँ लिखते तो लोग उनसे टर्र कविता जैसी हास्य रचनाएँ लिखाते रहते। किंतु यह लोगों की वास्तविक अपेक्षाएं नहीं थीं। भंवर स्वरूप ने उक्त कविताएँ लिखीं और लोगों ने इनको अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप पाया। वस्तुतः ये लोगों की दमित अपेक्षाएं थीं, जो पहले उभर नहीं पायीं। कवि ने इन्हें पहचाना और उन्हें अभिव्यक्ति दी। भले ही हालात बदल गये हों। ये कविताएँ मेहतरानी और लुक्का काका जैसे चरित्रों को उम्र प्रदान करती हैं जो कल तक हमारे समाज का सच थे।


वैसे आज तो यह सोचना ही मुश्किल लगता है कि कोई  भंवर स्वरूप अपने गाँव में रहता हुआ वहाँ के किसी लुक्का काका पर ऐसी कविता लिखे , वहीं लोगों को सुनाए और सुरक्षित रह पायेगा।


हमारे समाज के अनेक संस्तर हैं। मैं ने पीछे ग्रामीण कृषक जीवन से दो उदाहरण दिये। ऐसे ही हम श्रमिक जीवन में कविता को घुला- मिला पा सकते हैं। वहाँ शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध की परिचित कविता का कोई न कोई अंश हमें आसानी से मिल जायेगा। हालांकि कामगारों का अपना सृजन भी इसमें समाहित होता है। फिर मध्यवर्ग का एक हिस्सा है जो अपने को अपसंस्कृति और मूल्य- क्षरण की आंधियों से बचाये है। यह निराला और मुक्तिबोध की कविता से परिचित है तो क्लासिकों को अपने सौंदर्य- जगत में संजाये है। मुझे नहीं लगता कि लोक- मानस के सौंदर्य- जगत में रिक्तता है। कहीं- कहीं रुग्णता हो सकती है। लेकिन इसके पीछे उन लोगों की सांस्कृतिक विपन्नता है जो घटिया सिनेमाई गीत और मंचीय कविता की कुछ पतनशील चीजों से तोष प्राप्त करते हैं।


तमाम मूल्यवान कलाओं की भांति कविता गंभीर चुनौतियां झेल रही है। पुनरुत्पादनवादियों की धूर्ततापूर्ण व्याख्याएं , सत्ता और धनिकों के प्रचार माध्यम गंभीर सृजन को हाशियाकृत कर रहे हैं। लेकिन घटियापन खरपतवार की तरह नष्ट हो जाता है। अंततः दुनिया बुरे नहीं भले मनुष्यों के भरोसे चल रही है। श्रेष्ठ कला मूल्यों की संवाहक है- वे मूल्य जो मनुष्यता को प्रतिष्ठित करते हैं। ये मूल्य हर जगह द्वंद्व उपस्थित कर देते हैं। सिनेमाई दुनिया में ही द्वंद्व देखें तो पायेंगे कि तीन दशक पुराना एक गीत तमाम घटिया गीतों की काई छिटका देता है। कविता इस जटिल समाज के हर मोर्चे पर लड़ाई लड रही है, सच को सच बनाये रखने की लड़ाई, हमारे बाहर- भीतर की लड़ाई। कविता का प्रयोजन अथवा कविता की जरूरत को लेकर बार- बार प्रश्न किये जाते हैं। ये प्रश्न सदैव शंकालु या हताश लोगों की ओर से नहीं होते। यदि ऐसे लोग ये प्रश्न उठाते हैं तो उन्हें कोई तर्क आश्वस्त नहीं कर सकते। मैं इस प्रश्न पर एक प्रतिप्रश्न के जरिए विचार करना चाहूँगा। क्या कविता- रहित जीवन की कल्पना की जा सकती है?


कविता को इसकी प्रक्रिया से अलग कर नहीं देखा जा सकता। कविता एक प्रतिफल है। वह मनुष्य की सृजनशीलता, कल्पना -शक्ति, रागात्मकता और संवाद- क्षमता की अभिव्यक्ति भी है। जो मनुष्य को जीव- जगत में श्रेष्ठतर बनाता है, वह सब कलाओं में प्रतिबिंबित होता है। मनुष्य समाज से कविता की अनुपस्थिति का अर्थ है- इन सब मूल्यवान चीजों का निःशेष हो जाना। और ऐसा दरिद्र और अंधेरा समाज हम में क्या उम्मीद जगा सकता है। यह अत्यंत प्रीतिकर सच है कि दुनिया में ऐसा समाज कहीं नहीं है, जहां कविता को निर्वासित कर दिया गया हो। क्या मनुष्यता को मनुष्य से निर्वासित किया जा सकता है? कविता मानव- जीवन की आवयविक अविभाज्यता है।


इसके बहुतेरे प्रमाण हैं। जार्ज थाम्पसन ने आदि- कबीलों का गहरा अध्ययन कर वहाँ कविता की जीवंत उपस्थिति का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। जब से संवाद जन्मा, तभी से  कविता। भाषा का प्रयाण पद्य से गद्य की ओर है। जीवन की जटिलता ने कविता को जटिल रूप दिया। लेकिन यह संश्लिष्टता है, शिल्प का सौंदर्य है जिसमें संवाद- सलिला प्रवाहित है। कौन जानता है कविता कब जन्मी?


एक बच्चे की किलकारी सुनी मैं ने

और टूट गयी मेरी उदासी

आज से जुड़ी है स्मृति

कल से सम्बद्ध हैं स्वप्न

आदिम स्वर शब्दों से ज्यादा प्राचीन हैं

अक्षरों से पुराने हैं चित्र

संवाद से जन्मी है भाषा

संवेगों से संवाद!

                                                        

      



कविता सिर्फ भाषा- अभिव्यक्ति नहीं है। भाषा कविता का माध्यम है। लेकिन वह भाषा के नियमों में बंधी नहीं। यह सहज और ऊर्जस्व अभिव्यक्ति है, जिसमें भाषा के अनुशासन का पालन करना संभव नहीं रह पाता। कविता व्याकरण का निषेध करती है। एक नया व्याकरण बना छंद- शास्त्र और शैली को नियोजित करने का अलंकार- शास्त्र जीवन में सतत् गतिमान हैं। वे अपना बंध तोडते रहते हैं। मनुष्य मुक्ति के नये मार्ग तलाश करता है। निराला ने कविता को नया शिल्प- विधान देते हुए घोषणा की : मनुष्य की मुक्ति की तरह ही कविता की मुक्ति होती है। कविता के लिए सरल- रेखीय वाक्य- विन्यास में किया गया विचलन विशेष अर्थ रखता है। कहा कहों कछु कहवे की नाहिं- यह सामान्य वाक्य विचलन नहीं, यह शब्दों के तीव्र बलाघात और अर्थ की लाक्षणिकता का मामला है। कविता वह कहती है जो व्याकरण की भाषा नहीं कहती। जहाँ गद्य की गति नहीं, निश्चय ही गद्य का अपना महत्व है। कविता नये भाषिक संधान के द्वार खोलती है, वह भाषा के कलेवर को व्यापक बनाती है और उसे प्रवाह देकर और निथारती है। शायद यही वजह है कि कोई कंप्यूटर कविता नहीं लिख सकता। कला सृजन यांत्रिक कार्य नहीं, हालांकि यंत्र उसमें मददगार हो सकते हैं। यह सिर्फ मस्तिष्क का कार्य भी नहीं, यहां मन सक्रिय है। कंप्यूटर में मन नहीं, उसका संवेदन रागात्मक नहीं, उसमें भाव- आवेग नहीं, इसलिए कविता मनुष्य का उपक्रम है। इसीलिए कविता का भविष्य है, जिसके नये क्षितिज खुल रहे हैं।


क्या कोई चीज कविता का विकल्प हो सकती है या कविता किसी चीज का विकल्प हो सकती है? मैं समझता हूँ, इस तरह विकल्पों के रूप में चीजों को देखना इनकी स्वतंत्र भूमिका को कम करके आंकना है। जैसा कि हमने पूर्व में देखा- हमारे जीवन में कविता की अहम् जगह है। यह सहज- स्वाभाविक है। तब हमारे हर सृजनशील प्रयास- वह श्रम हो, संघर्ष हो अथवा निर्माण, कविता उसमें मददगार साबित होगी। लेकिन कविता किसी का विकल्प नहीं हो सकती, न कोई और चीज कविता का विकल्प अथवा स्थानापन्न। यही कविता की स्वायत्तता है।


एक कविता मेरे  लिए क्या मायने रखती है ? मैं अपने रोजमर्रा के जीवन में खटता बार- बार अपने प्रिय कवियों की ओर लौटता हूं। यह मेरा संलाप है- न एकालाप न प्रलाप। कहते हैं कि काव्य- सृजन से कवि निरंतर अपना भी परिष्कार करता है। कविता पढकर मैं कुछ हल्का हो गया, या कुछ ताजे हवा के झौंके- सा सुखद लगा। मेरा मैल धुला, निष्कलुष हो गया। मेरी चेतना को और संबल मिला। 


एक कवि अपने क्लासिकों की ओर लौटता है। वह अपनी कविता की ओर लौटता है और हर बार कुछ और बदल जाता है। वह उस जन- समाज से संवाद करता है जो उस काव्य को जी रहा है। कवि त्रिलोचन कहते हैं-

ध्वनिग्राहक हूँ मैं, समाज में उठने वाली

ध्वनियाँ पकड लिया करता हूं,

और- 

लडता हुआ समाज, नयी आशा अभिलाषा

नये चित्र के साथ नयी देता हूँ भाषा

यह कवि- कर्म, यह सृजन उसकी जीवन- शैली का हिस्सा बन जाता है।


यह लडता हुआ समाज है- यह परिवर्तन की लड़ाई है, एक बेहतर समाज के निर्माण का संघर्ष नयी आशा- अभिलाषाएं हैं। कवि नये चित्र नयी भाषा में प्रस्तुत कर रहा है। कविता का सृजन इस नयेपन से जुड़ा है- अभिव्यक्ति, शिल्प और भाषा का नयापन। कविता वह कहती है जो अभी तक कहा नहीं गया। कविता हमें वह दिखाती है, जो हमारे भीतर था, हमारे आसपास था या हमसे बहुत परे था। लेकिन जिसे हमने अनदेखा कर दिया। वह हमारी प्रतीति बदल देती है।     




समय की क्रूरता हमें अकेला कर देती है। भीड भरे समाज की भागमभाग और आपदाओं के झंझावात हमें निरीह बना देते हैं। कविता हमारी दुनिया को बड़ा बनाती है। हमारा अकेलापन तोडती है। हम दूसरों के दुख और वेदना में साझा करते हैं। कविता उत्पीडितों में एका करने में मदद करती है। यह भावनात्मक एका है। यह मनुष्यता के धागे का नाजुक-सा बंधन है।


मनुष्य उन प्राणियों में से है जो स्वप्न देखते हैं। स्वप्न नया रचने, नयी सृष्टि करने की प्रेरणा है। हमारी खुली आंखों के सपने हैं, भले ही ये बार- बार टूट जाते हों। कविता हमारे इन स्वप्नों को जिंदा रखती है, इन्हें मरने नहीं देती। ये स्वप्न जो हमारे जीने का संबल हैं।


हमारे पास अनेकानेक स्मृतियाँ हैं। एक इतिहास है स्मृतियों का- कटु और मधुर स्मृतियाँ । हम इन्हें संजोए रखना चाहते हैं, इन्हें विलग नहीं होने देना चाहते। कविता इन स्मृतियों को उम्र प्रदान करती है।


हमारा आज का समय परिवर्तन के तीव्र दौर से गुजर रहा है। यह सारा परिवर्तन सकारात्मक नहीं, बहुत सारा अनचाहा भी है। अन्तर्राष्ट्रीय महाशक्तियां गरीब देशों पर अपनी प्रभु- सत्ताएं लाद रही हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का आदर्श इस वैश्वीकरण ने ले लिया है। कार्पोरेट पूंजी को खुली छूट है और बाजारीकरण का अश्वमेधी घोडा छुट्टा घूम रहा है। हमारे समय के लव- कुश निरस्त्र हैं और वाल्मीकि संशयग्रस्त। बाजार व्यवस्था की ठंडी और अदृश्य क्रूरता अमानवीयकरण की प्रक्रिया को तेज कर देती है। इसके समक्ष लगता है, क्रौंच- वध की वेदना से फूटा श्लोक अरण्यरोदन है। यहाँ प्रतिरोध तो संगठित मानव- समूह को ही करना है। लेकिन प्रतिरोध करने वाली शक्तियाँ असंगठित और क्षीण हैं। हताशा के ऐसे समय में क्या कविता भी मनुष्य का साथ छोड देगी ?


बाजार की व्यवस्था कविता ही नहीं सभी कलाओं को पण्य वस्तु में बदल देना चाहती है। नव- धनाड्यों का ऐसा वर्ग अवतरित हो रहा है जो कला को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में कैद कर अपने आनंद की वस्तु बना लेना चाहता है। जो कैनवासों से अपने ड्राइंग रूम और गलियारों की दीवारें सजा लेना चाहता है। जो कविता की पुस्तकों से सिर्फ अपने रैक की शोभा बढाता रहा है। लेकिन क्या कविता ऐसा यांत्रिक उत्पाद है, ऐसी पण्य वस्तु है?


नहीं। लेकिन चुनौतियां नयी और भयावह हैं। आज का मनुष्य भीतर से रीतता जा रहा है। एक मूल्यहीन समाज, जो एक मरणधर्मा संस्कृति को ढोता रह सके, बनाने की साजिश है। कविता को इस रिक्तता, मनुष्य के नि:शेष होते आभ्यन्तर को आपूरित करना है, अदृश्य लड़ाई से जूझने में कलाओं पर हमें ज्यादा आश्रित होना है। मीडिया ने दूर- अंचलों में दखल कर हमारे लोक- सृजन पर भी आक्रमण कर दिया है। अब सिर्फ प्रतिक्रिया से काम नहीं चलने वाला, अन्त: क्रिया की जरूरत है।


हमारे गरीब देश में मेला लग रहा है। तमाम रंग- बिरंगी वस्तुओं से अंटी चमचमाती रोशनी में नहाई दुकानों, माल्स की कतार है, विक्रेताओं के विज्ञापन चौतरफ शोर कर रहे हैं। गरीब देश की नब्बे प्रतिशत विपन्न जनता इस नुमाइश में इधर से उधर घूमती है- अचंभित और उत्सुक, लेकिन कोई भी चीज तो उनके काम की नहीं, वह इन्हें खरीद कर भी क्या करें ! सब बेकार की चमक- दमक है, माया है। इस देश का गरीब जन इन वस्तुओं की व्यर्थता पर हंसता है। कविता है- जो निरर्थक नहीं है, जिसकी कोई कीमत नहीं चुकानी और हमारा यह जन किसी कवि की कोई कविता गुनगुनाने लगता है।

टिप्पणियाँ

  1. आज पहली बार इस पेज से जुड़ रहा हूँ । यहाँ जानने - सीखने के लिए बहुत कुछ है !

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उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत