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निराशा के कर्त्तव्य और स्वप्न- चित्र

 निराशा के कर्त्तव्य और स्वप्न- चित्र


हिन्दी साहित्य के विमर्श-क्षेत्र में अज्ञेय और रामविलास शर्मा का अवसान एक युगान्तर था। इसी के साथ विमर्श की लगभग दो ध्रुवीय दुनिया भी विखंडित हो गयी। यद्यपि अपने आखिरी दिनों में जन- वृत्त के लिहाज से ये दोनों ही विभूतियाँ करीबन वानप्रस्थ हो गयीं थीं। उनके बाद हिन्दी साहित्य के पब्लिक स्फियर में जो त्रिमूर्ति लंबे समय छायी रही, उनमें हैं- नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी। इनकी हैसियत समूचे वितान में सम्मानित, विवादास्पद और विचारोत्तेजक बनी रही। अब इनमें से अशोक वाजपेयी रह गये हैं। हालांकि उनके शिखर कद को स्वीकारने में बहुतों को असहमति हो सकती है। उनमें अन्तर्विरोध भी अपेक्षाकृत ज्यादा देखे गये हैं। इस प्रसंग में सिर्फ दो तथ्यों का उल्लेख किया जा सकता है। देश भर में घूमकर भाषण देने में हिन्दी से शायद नामवर जी के बाद उनका दूसरा नंबर है। यदि नामवर जी के व्याख्यान और साक्षात्कार, राजेन्द्र यादव के व्याख्यान और संपादकीय ( साक्षात्कार उनके कम हैं ) के कुल योग से भी अशोक वाजपेयी के व्याख्यान, संपादकीय और स्तंभ- लेखन को जोड लें तो आप इन्हें भी उनके आसपास ही पायेंगे। अभी हम सिर्फ मात्रा की बात कर रहे हैं, भार का मूल्यांकन तो आप सब करेंगे।


अशोक वाजपेयी  देश के दीर्घकालिक स्तंभकारों में शुमार हैं। पहले जनसत्ता में और बाद में एक बेवसाइट पर आने वाला उनका साप्ताहिक स्तंभ " कभी- कभार " अपने शीर्षक के विपरीत बहुत नियमित रहा है। इसके बारे में खुद उनका कहना है : १९९७ में एक दैनिक अखबार के आग्रह पर मैं ने नियमित स्तंभ लिखना स्वीकार किया, कभी- कभार शीर्षक से जो हर सप्ताह अबाध ढंग से प्रकाशित होने के २१ वर्ष पूरे कर चुका है। इसके मंतव्य के बारे में वे बताते हैं, इस स्तंभ में मैं ने एक लेखक के रूप में उसके समय, समाज और पडोस में जो हो रहा है उसे हिसाब में लेने और उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का स्पेस बनाया। इसी स्पेस में मैं ने साहित्य, कलाओं, पुस्तकों, आयोजनों और प्रवृत्तियों आदि के अलावा संस्कृति, राजनीति और समाज पर सीधे टिप्पणियां लिखीं। स्तंभों में बिखरी इस सामग्री से तीन संचयन वाग्देवी प्रकाशन ( बीकानेर ) से आये हैं। इनके शीर्षक हैं- समय के सामने, समय के इर्द- गिर्द और अपने समय में। संचयनों का कोई क्रम नहीं है, जैसे मुख्य शीर्षक में समय कामन है , वैसे ही तीनों के उप- शीर्षक में समाज, राजनीति, संस्कृति दर्ज है। तीनों संचयनों की भूमिका भी एकरूप है। अशोक वाजपेयी के शब्दों में, ये संचयन इस बात का प्रबल साक्ष्य हैं कि पिछले दो दशकों में एक लेखक के रूप में इन क्षेत्रों में जो हो रहा है उन पर लिखता, विचार करता रहा हूं।



इनमें से एक संचयन स्तंभ की शुरूआत से २००९ के बीच की टिप्पणियों से है जबकि बाकी दो संचयन बाद की टीपों से संयोजित हैं। जाहिर है कि संस्कृति उनकी चिंता का मुख्य केन्द्र है जिसमें वे विगत शताब्दी के अंतिम छोर से ही गिरावट लक्षित कर रहे हैं जो आगे जाकर और विरूपित होने लगती है। संचयनों में विषयों की जबरदस्त विविधता है और इनमें शामिल टिप्पणियों की प्रासंगिकता बरकरार है। इसमें दूसरे लेखकों के अन्याय से त्रस्त किसी लेखक की हास्यास्पद विडम्बना है तो निर्मल वर्मा के लेखन और उनके राजनीतिक रुझान में दिखती दरार पर विचार भी। इसमें यौनिकता को लेकर राजेन्द्र यादव, अनामिका, त्रिपुरारी शर्मा और सिद्धार्थ वरदराजन द्वारा तैयार की गयी एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट पर चर्चा है जो शायद ही हमारी जानकारी में आयी हो। मातृ- भाषाओं के संकट पर वे एक नितांत नया कोण प्रस्तुत करते हैं कि ऐसी माताओं की संख्या घट रही है जो अपनी भाषा या बोली में रची- बसी हों और अपनी संतान को ये धरोहर सौंपना चाहें। गुजरात दंगों के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देकर सबसे गरीबों के लिए कार्यरत हर्ष मंदर के एक सर्वेक्षण पर चिंता है जिसके अनुसार भारत में लगभग बीस करोड़ लोग रोज भूखे सोते हैं। उल्लेखनीय है कि ये आंकड़े डेढ दशक पुराने हैं लेकिन लगता तो यही है कि उस प्रतिशत में शायद कोई गिरावट नहीं आयी है।


हालांकि ऐसी सूची के बहुत लंबी होने का डर है तो मैं अब सिर्फ कुछ ऐसे प्रसंगों को ही ले रहा हूं जिनसे आप उक्त संचयनों में शामिल विमर्श का कुछ अनुमान कर सकें हालांकि अशोक वाजपेयी के स्तंभ को उन्हें पसंद करने वाले और उनसे शत्रु- भाव रखने वाले समान रूप से पढते रहे हैं। लेकिन यह भी सही है कि जब ऐसी बिखरी सामग्री संयोजित होकर आती है तो उसके लेखक का विजन और आशय ज्यादा स्पष्टता से उभरते हैं। नर्मदा आन्दोलन के प्रसंग में वे पहले तो लेखकों की इस जन- आन्दोलन से दूरी की शिकायत करते हैं। फिर मेधा पाटेकर और अरुन्धती राय को हिम्मत के दो नाम कहकर विभूषित करते हैं। किन्तु इस टिप्पणी में सबसे खास अरुंधति के उस तर्क का उल्लेख है जो उन्होंने एक साक्षात्कार में  दिया था और जो एक प्रश्न के ही रूप में है:

आप  दो लाख लोगों की जीविका बेहतर करने के लिए बीस लाख लोगों की जीविका नहीं छीन सकते। सोचिये क्या हो अगर सरकार भारत के सबसे धनी दो लाख लोगों की दौलत छीनकर उसे बीस लाख गरीब लोगों में बांट दे? हम तब समाजवादी चोरी और लोकतंत्र की मृत्यु के बारे में बहुत कुछ सुनेंगे।


संचयनों की टिप्पणियों से आप अशोक वाजपेयी के सोच और मान्यताओं को बहुत साफ तौर पर देख सकते हैं जो यत्र- तत्र- सर्वत्र विन्यस्त हैं। भारत की बहुसांस्कृतिक अधिरचना पर वे भिखू पारेख के हवाले से लिखते हैं कि यहां सदैव हर विचार के प्रतिलोम का सह- अस्तित्व रहा है। इस संदर्भ में पहचानों की बहुलता के महत्व का स्वीकार भी बहुत जरूरी है। अध्यात्म को धर्म से स्वतंत्र करने की पैरोकारी वे एक अर्से से करते रहे हैं। उनका मानना है कि साहित्य और कलाएं अध्यात्म की जगह और कई बार शरण्य रहे हैं। जैसा कि हमने कहा कि एक संचयन इस शताब्दी के पहले दशक की टिप्पणियों से है। उस समय संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी। सांस्कृतिक संस्थानों का अध:पतन उसी दौर में किस कदर बढ गया था, इसे लेकर अनेक टिप्पणियां हैं। साहित्य की स्थिति से भी वे आश्वस्त नहीं हैं। अगर सामाजिक संवाद और समावेशिता में बाधाएं और विपथगामिता आयी है तो साहित्य में भी कमोबेश यही होता रहा है। बल्कि वे कहते हैं , समाज या तो साहित्य की आवाज सुन नहीं पाता या कि अनसुनी करता है। यहीं वे निराशा के कर्तव्य सोचने की सामूहिक अपील करते हैं।


एक किस्म की साफगोई उनकी शैली का ही हिस्सा है। नंदीग्राम प्रकरण में उन्होंने लिखा है : विचार और मानवता में से यदि चुनाव का अवसर आये तो मानवता को चुनना अधिक साहित्योचित कर्म है, कि प्रतिबद्धता और साहस के बीच चुनाव करना हो तो साहस चुनना अधिक लेखिकोचित गुण है। इसी तरह लिबरल हिन्दू- मुस्लिमों की निष्क्रियता पर उनकी टिप्पणी है : कम से कम भारतीय परिस्थिति में, हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही समाज अपने उग्र, असहिष्णु और बहुलता- विरोधी तत्वों और शक्तियों का मुखर विरोध करने से बचते हैं। विश्व- विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों की बदहाली का विवरण देते हुए कहते हैं : हिन्दी में इतनी सारी बेहतरीन और विचारोत्तेजक, सृजन- संपन्न पत्रिकाएं लेखक- बंधु अपने साधनों से निकाल रहे हैं पर हमारे जाने किसी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से शायद ही कोई कायदे की पत्रिका निकलती हो। उन्होंने पिछले दशक में ही साम्प्रदायिक, विचारधारात्मक, जातिगत और आर्थिक ध्रुवीकरण की तेज होती प्रक्रिया को अपनी चिंता के दायरे में ले लिया था।


हाल के दशक में हालात और भयावह होते गये हैं। लेकिन उनसे पलायन अथवा उनकी अनदेखी किये बिना वे न केवल इनका विश्लेषण करते हैं बल्कि इनके प्रतिकार में क्या किया जा सकता है, यह भी सुझाते हैं। यह दिलचस्प और प्रीतिकर है कि उनके विमर्श में प्रतिरोध और जन- आन्दोलन पदों की आवृत्ति और  प्राथमिकता बढती गयी है। इसे वे कई बार निराशा के कर्तव्य का नाम देते हैं जिसका कभी ऐसे ही कठिन हालातों में राम मनोहर लोहिया ने आह्वान किया था। और भी खास यह है कि ऐसे कठिन दौर में भी वे कहींं से सृजन और संघर्ष की रचनात्मक पहल का विचार खोज लाते हैं। एक टिप्पणी में उन्होंने कहा भी है, ... पर अपनी अधेड आंखें सपने देखना बंद नहीं करतीं। यह एक स्वप्न- चित्र सही। दमकते भारत और अंधेरे भारत के बीच कहीं नहीं पर स्थित।... किसी टिप्पणी में उन्होंने एक नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार को उद्धृत किया है, जो अदृश्य को देख सकते हैं वही उसे संभव भी बना सकते हैं। अशोक जी से हमें क्यों नहीं यह भरोसा अर्जित करना चाहिए ?



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