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संकट में संस्कृति - सुचेता सिंह

विगत शताब्दी के आखिर में शुरू वैश्वीकरण की प्रक्रिया के प्रतिफलन में सांस्कृतिक संकट की चर्चा आरम्भ हुई थी। दशकवार इस विमर्श में संस्कृति की जटिलताओं का समावेश होता गया है। अभूतपूर्व यह है कि यह एवं वैश्विक परिघटना है। मीमांसा में अध्येता सुचेता सिंह इस पर हमारे देश के संदर्भ में लिख रही हैं।

संस्कृति जीवन का अभिन्न अंग है। संस्कृृति का विकास मानव सभ्यता के साथ-साथ हुआ है। मुख्यतः संस्कृति मानव-मन में आधार-भूत सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि यह सामाजिक-आर्थिक आधार की ऊपरी संरचना का एक भाग है। किसी भी देश या क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुसार इसमें परिवर्तन होते रहे हैं।


आजकल हम मानव-मूल्यों के क्षय होने की मानवीय अनुभूति, प्रेम व सम्मान के कम होने की तथा भौतिकवाद की बातें करते हैं। ये सब आज के सांस्कृतिक संकट का हिस्सा हैं। 90 के दशक के शुरू में भारतीय अर्थ-व्यवस्था के निजीकरण व उदारीकरण के बाद यह संकट तीव्र हुआ है। इसका मतलब यह नहीं है कि इस दशक से पहले और आजादी से पहले सांस्कृतिक संकट नहीं था । संकट था-लेकिन, इस दशक से पहले यह इतना तीव्र नहीं था और आजादी से पहले यह भिन्न प्रकार का था। आजादी से पहले हमारी संस्कृति में गुलामी की झलक थी, हमने केवल आदेशों की पालना करना ही सीखा था। सामाजिक- आर्थिक वास्तविकता जानने की सामूहिक दायित्व की, नेतृत्व देने की हम में बुरी तरह कमी थी।
आजादी के बाद देश की जनता को बहुत आशाएँ थी परन्तु
आशाएँ ही रह गई । देश के अग्रगामी नेताओं ने उस वर्ग (बड़े पूजीपति व जरमींदार) के लिए काम किया जो कल तक अंग्रेजी प्रशासन को सहायता दे रहा था। यद्यपि अंग्रेज चले गये परन्तु वे एक ऐसा वर्ग छोड़ गये जो भारतीय जनता का शोषण चालू रखे। ऐसे नेता और ऐसी मांगी हुई आजादी से आप और क्या आशा कर सकते हैं। देश की जनता के असली नेताओं (हिन्दुस्तान सोशिलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी) को अलग-थलग रखा गया। अंग्रेजों ने एक गूढ़ साजिश के तहत जनता को इन असली नेताओं से अलग रखते हुए, उसका (जनता का) रूझान ऐसी पार्टी (इण्डियन नेशनल कांग्रेस) की तरफ मोड़ दिया जिसके पास भविष्य के लिए कोई ठोस कार्य-योजना नहीं थी। यद्यपि भारत में साम्यवादी पार्टी का उदय 1920 में हुआ, परन्तु इसके नेतागण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) की सार्वभौमिकता को भारत की विशेष परिस्थितियों के हिसाब से ढ़ाल नहीं पाये। इसके लिए भगतसिंह ने कहा था, "समाजवाद का मतलब...शासन शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद है, इसके लिए मजदूरों और किसानों को संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिए लार्ड रीडिंग या इर्विन की जगह तेज बहादुर या पुरूषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फर्क नहीं पड़ सकेगा।" भारत के वामपंथी मार्क्सवाद को यहां की परिस्थितियों से जोड़ने में विफल रहे भारत के परिप्रेक्ष्य साम्यवादियों की इस तरह की विफलता ने कई प्रकार के साम्यवादियों को जन्म दिया है। इनमें अधिकतर संशोधनवादी (Revisionist) साम्यवादी हैं। आज के हिन्दुस्तान में असली साम्यवादी बिरले ही हैं।
यद्यपि हिन्दुस्तान सोशिलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी में 'साम्यवादी' शब्द नहीं है, परन्तु इनसे सम्बन्धित लोग वास्तव में भारतीय परिप्रेक्ष्य में साम्यवादी थे। उन्हें उस समय के हिन्दुस्तान के हालात की जानकारी थी और वे मार्क्सवादी (द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद) के ज्ञान से भी परिचित थे। शहीद भगत सिंह ने लिखा था, "भारत की वर्तमान लड़ाई ज्यादातर मध्य श्रेणी के बलबूते पर लड़ी जा रही है जिनका लक्ष्य बहुत सीमित है।कांग्रेस से दुकानदारों और पूंजीपतियों के जरिए इंग्लैंड तक देश के करोड़ों मजदूर और किसान का ताल्लुक है। उनका उद्धार इतने से नहीं हो सकता। यदि देश की लड़ाई लड़नी हो तो मजदूरों, किसानों और सामान्य जनता को आगे लाना होगा, इन्हें लड़ाई के लिए संगठित करना होगा, नेता उन्हें अभी तक आगे लाने के लिए कुछ नहीं करते, न ही कर सकते हैं। इन किसानों को विदेशी हुकूमत के भूमिपतियों और पूंजीपतियों के जुए से उद्धार पाना है,परन्तु कांग्रेस का उद्देश्य यह नहीं है।"
शहीद भगत सिंह के अनुसार, "क्रान्ति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। इस उद्देश्य के लिए हम पहले सरकार की ताकत को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। इस समय शासन की मशीन धनियों के हाथ में है। सामान्य जनता के हितों की रक्षा के लिए तथा अपने आदर्शो को क्रियात्मक रूप देने के लिए-अर्थात समाज का नये सिरे से संगठन कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुसार करने के लिए हम सरकारी मशीन अपने हाथों में लेना चाहते हैं। हम इसी उद्देश्य के लिए लड़ रहे हैं परन्तु, इसके लिए हमें साधारण जनता को शिक्षित करना चाहिए ।"
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के बारे में उन्होने लिखा था,"कांग्रेस और इस दल के लक्ष्य में यही भेद है कि राजनीतिक क्रान्ति से शासन शक्ति अंग्रेजों के हाथों से निकलकर हिन्दुस्तानियों के हाथों में आ जाएगी।" शहीद भगतसिंह की कलम के इन उद्धृत अंशों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे और उनके साथी वास्तव में साम्यवादी थे। को अगर सन् 1920 के दशक की भारतीय साम्यवादी पार्टी के नेता गलतियाँ न करते और समान विचार-धारा वाली अन्य पार्टियों (जैसे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी) से ताल-मेल रखते तो शायद भारत को असली आजादी मिल जाती और वो ही असली क्रान्ति होती।
आइये, अब आज के सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक दृष्टि डालें।
शिक्षा
शिक्षा का दिन-प्रतिदिन के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। शिक्षा का उद्देश्य हर बच्चे को एक उत्तरदायी नागरिक बनाना है। लेकिन आज ऐसे कितने नागरिक है जो अपना दायित्व समझते हैं? ऐसे नागरिक विरले ही है क्योंकि आज शिक्षा एक व्यापार है और विद्यार्थी उसका उत्पाद, जिसकी बाजार में एक कीमत है। आज की शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है- मानवीय जिन्दगी से इसका कोई लेन-देन नहीं। बहु राष्ट्रीय कम्पनियां व नव-साम्राज्यवादी देशों ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को इतना खोखला कर दिया है कि इन्सान आर्थिक लाभ व ऐश्वर्य की चीजों को ही सब कुछ मानने लगा है। ऐसी.स्थिति में मानवीय सम्बन्धों के विकास के लिए जगह ही नहीं रहती क्योंकि सब कुछ तो पैसा है। आखिरकार विद्यार्थी अलग-थलग पड़ जाता है और उसके न चाहते हुए भी उसके अन्दर एक ऐसा व्यक्तित्व जन्म ले लेता है जिसकी मानवीयता मर चुकी है। और जो जिन्दा है तो सिर्फ पैसा व ऐश्वर्य की चीजें इकट्ठा करने के लिए । मानवीय सम्बन्ध फीके पड़ जाते हैं और पैसा ही सब कुछ दिखने लगता है। यही कारण है। कि परिवार टूट रहे हैं, अपराध बढ़ रहे हैं और जिन्दगी केवल एक व्यक्तिगत मामला बन कर रह गई है- हर कोई लड़ रहा है सिर्फ अपने लिए।
एक स्वच्छ व स्वस्थ संस्कृति के विकास के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना जरूरी है। इसका अर्थ यह नही है कि सभी वैज्ञानिक बन जायें।यह जीवन के प्रति दृष्टिकोण का प्रश्न है। आज जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अपेक्षा 'लकीर का फकीर' वाली मानसिकता अधिक लोकप्रिय है। जिन्दगी में हर इन्सान सुखी होना चाहता है।लेकिन सुखी होना एक एहसास है, एक अनुभूति है, जो मानवीय सम्बन्धों से उत्पन्न होती है । मानवीय सम्बन्ध हमारे में तभी मधुर होते हैं, जब हमारी ऊर्जा, हमारे प्रयत्न, आस-पास के लोगों के हित को समर्पित हों। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में कोई समर्पण की भावना ही नहीं है। अगर है तो सिर्फ 'आर्थिक' 'समर्पण', हर कोई पूज रहा है पैसे को। पैसे से रिश्ता जोड़कर इन्सान खुश नहीं रह सकता क्योंकि उसकी भावनाओं को, उसके अन्तरमन को इन्सान ही समझ सकता है, पैसा नहीं। इन्सान तभी सुखी होगा जब मानवीय गुणों का, कर्तव्य परायणता का, सच्चाई का महत्व पैसे से ज्यादा होगा, जो कि समाजवादी/साम्यवादी व्यवस्था में ही सम्भव है।
विज्ञान
आज विज्ञान बड़े पूंजीपतियों की मुठ्ठी में बन्द है। बहुराष्ट्रीय
कम्पनियाँ, वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में बढ़चढ़कर पैसा लगा रही हैं ताकि अधिक से अधिक क्षेत्रों में नवीनतम तकनीक का पेटेन्ट प्राप्त कर सकें। सारी दुनिया में विज्ञान के बड़े पूजीपति वर्ग ने हड़प लिये हैं। जिस गति से विज्ञान काक् विकास हुआ है, उससे साधारण जनता को उतना ही फायदा नहीं हुआ है। बड़े पूंजीपति वर्ग ने विज्ञान का उपयोग अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए किया और इसे जनता को शोषण करने का यन्त्र बना दिया। आज विज्ञान को बड़े पूंजीपतियों के शिकंजे से छुड़ाने की जरुरत है।
आधुनिक भारत में विज्ञान का सृजन नाम-मात्र ही हुआ है। पिछले पाँच दशकों में वैज्ञानिक अनुसंधान के नाम पर जो हुआ है वह पश्चिमी देशों की लगभग नकल है। आज भी
हम विकसित देशों से ऐसी तकनीकी खरीद रहे हैं जो हमारी स्थानीय जरूरतों से मेल नहीं खाती। हम अपनी स्थानीय जरूरतों के अनुसार अपनी तकनीकी स्वयं क्यों नहीं विकसित करते?
विगत में पोखरण में किये गये नाभिकीय परीक्षण देश के वैज्ञानिकों के लिए एक महान् उपलब्धि हैं। लेकिन विडम्बना देखिये-हमारा देश मानवीय प्रतिभा व प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होते हुए भी-हम उपभोक्ता वस्तुओं के निर्यात से लेकर भारी-भरकम इन्जिनियरिंग तक के क्षेत्रों में विदेशी कम्पनियों को निमन्त्रण दे रहे हैं। कृषि, जैव तकनीकी और आर्युविज्ञान के क्षेत्रों में भी यही स्थिति है। पिछले 50 वर्षों में देश की वैज्ञानिक जनशक्ति व प्राकृतिक संसाधनों के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या हुआ है?
विज्ञान के विकास से लोगों के चिन्तन में बदलाव आता है। लोगों का दृष्टिकोण अधिक युक्तिसंगत हो जाता है और वे सामाजिक विषमताओं पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। यही कारण है कि विकासशील देशों में, जिनमें भारत भी एक है, वैज्ञानिक विकास की लहर इतनी ऊँची नहीं उठ पाई है। आखिरकार विज्ञान और समाज का विकास आपस में गुंथा हुआ है।
भ्रष्टाचार
आजकल भ्रष्टाचार एक बहुचर्चित विषय है। हर व्यक्ति, हर गुट सिद्धान्त रूप में इसकी भर्त्सना करता है परन्तु वास्तविकता के धरातल पर हम देखते हैं कि यह बढ़ता ही जा रहा है। यही है पूंजीवादी व्यवस्था की विडम्बना। जिस समाज में पैसा ही सर्वोपरि हो. जहाँ पैसे ने जिन्दगी के अवयवों जैसे सद्चरित्रता, सरलता,सच्चाई, परिश्रम, त्याग को ग्रहण लगा दिया हो, वहाँ भ्रष्टाचार रहेगा, चाहे सत्ताशीन बुर्जुआ बुद्धिजीवी हैं? आए दिन भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नये से नया फार्मूला निकालते हों। ऐसा इस अनुमान के कारण होता है कि पैसा जिन्दगी से अधिक दिखावे महत्त्वपूर्ण है। लोगों को एक भ्रान्ति हो जाती है कि उनका जीवन सुखमय इसलिए है क्योंकि उनके पास पैसा है। वे अपना सारा ध्यान,सारी ऊर्जा पैसा जोड़ने में लगा देते हैं और जिन्दगी को भूल जाते हैं। जिन्दगी की जिन्दादिली मर जाती है और उस पर पैसे का प्रभुत्व हो जाता है।
बेरी स्क्वार्ज, जो स.रा. अमेरिका के वाल्टीमोर महाविद्यालय में मनोविज्ञान के प्राध्यापक हैं, के अनुसार बच्चों और वयस्कों को यदि उन कार्यो के लिए पैसे दिये जायें जो वे खुद मजे से करते हैं तो वे उन्हीं कार्यो को नापसन्द करते हैं अगर उनको (बच्चों व वयस्कों को) पैसा देना बन्द कर दिया जाये। बच्चे खेलना पसन्द करते हैं । लेकिन,एक बार उनको खेलने के लिए पैसा मिलना शुरू हो जाये तो वे अपने मजे के लिए खेलना बन्द कर देते हैं। स्क्वार्ज का सिद्धान्त यह है कि आर्थिक पहलू की ओर आवश्यकता से अधिक ध्यान देने से जिन्दगी की वो छोटी-छोटी चीजें खत्म हो जाती हैं जो वास्तव में जिन्दगी को जिंदादिल बनाती हैं। आर्थिक रूप में पुरस्कृत करने से जिन्दगी की ऐसी ही कुछ चीजें जैसे बन्धुत्व, प्यार- मोहब्बत, स्वाभिमान, सदचरित्रता,ज्ञानप्राप्ति में प्रसन्नता का अनुभव, निपुणता का आनन्द इत्यादि धीरे-धीरे क्षरित हो जाती हैं। हम इन्सान हैं।हमारा उद्देश्य अधिक से अधिक धन इकट्रा करना नहीं बल्कि अच्छे से बनना है। तभी हम जिन्दगी की गूढ़ता को समझ सकेंगे।
स्त्रीऔर सौन्दर्य
जिस तरह से पैसे ने जिन्दगी के हर पहलू को विकृत किया है, उससे सुंदरता अछूती कैसे रह सकती है? आज सुन्दरता भी व्यवसाय का हिस्सा बन गई है। पूंजीवादी व्यवस्था में आन्तरिक तत्व की अपेक्षा बाहरी आवरण पर अधिक जोर दिया जाता है। प्रत्येक वस्तु का उत्पादन बाजार में ऊँची कीमत लेने के लिए किया जाता है ना कि देश के लोगों इस्तेमाल के लिए। सारा प्रयास उत्पाद की बिक्री पर होता है, ना कि उसकी उपयोगिता पर। इस प्रकार पूंजीपतियों ने ऊँची कीमत लेने के लिए सुन्दरता को भी अल्पकालिक और क्षण भंगुर बना दिया है। सौंदर्य की इस बुर्जुआ धारणा की संकीर्णता ने स्त्री सजीवता को नष्ट किया है। पुरुष-प्रधान समाज में अपना 'प्रभाव' छोड़ने के लिए उसने
सौन्दर्य तो अन्तरात्मा से प्रतिबिम्बित होता है। स्त्री को अपना किया है। पुरुष-प्रधान समाज में अपना 'प्रभाव' छोड़ने के लिए कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन अपना लिये हैं। क्या सौन्दर्य इतना सस्ता सौन्दर्य तो अन्तरात्मा से प्रतिबिम्बित होता है। स्त्री को अपनका अन्तरमन ढूंढना होगा, अपना अन्तरमन गढ़ना होगा, तभी उसका सौन्दर्य विश्व को प्रकाशमय कर सकेगा।
तथाकथित सौन्दर्य प्रतियोगिताएँ, क्या स्त्री की आत्मा पर प्रहार नहीं हैं? इनमें मानसिक चेतना बढ़ती है या तामसिक उन्माद-स्वयं स्पष्ट है।एक ऐसी महिला जिसका ज्ञान सिर्फ किताबी है, जो खुद को एक दिखावे की चीज समझती है, जिसकी देश और समाज की समस्याओं में कोई वास्तविक रुचि नही है, वह सबसे सुन्दर स्त्री कैसे हो सकती है? वह तो स्त्री ही नहीं है। वह भारत के करोड़ों गरीबों के लिए सुन्दर नही हो सकती। वह 'सुन्दर' है तो उन नव-साम्राज्यवादियों के लिए जो सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के द्वारा भारत में अपना बाजार बना रहे हैं और हमारी सदियों पुरानी संस्कृति, जहाँ मन का तन पर नियन्त्रण होता है,को निशाना बना रहे हैं। हमें जागरूक होना होगा और न सिर्फ हमें अपनी संस्कृति को बचाना है बल्कि उसका विकास भी करना है।
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद
मनुष्य के आचार-विचार उसके परिवेश के अनुसार विकसित होते हैं।एक बच्चा बड़ा होकर कैसा व्यक्ति बनेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका विकास किस तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में हुआ है नव-साम्राज्यवादी देशों के शासक वर्ग ने इस तथ्य का भरपूर प्रयोग किया है। सन् 1947 में साम्राज्यवादियों ने देश की सत्ता उच्च वर्ग को सौंप दी ताकि सामन्ती मानसिकता वाली संस्कृति कायम रहे तथा जनता का शोषण चालू रहे और उन्हें यानी साम्राज्यवादियों को लाभ मिलता रहे ।
आजकल नव-साम्राज्यावादी शक्तियाँ हमारे देश में ऐसी संस्कृति फैला रही हैं जिसका केन्द्र बिन्दु व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करना और उसका उपभोग करना है। विभिन्न संचार माध्यमों में ऐश्वर्य एवं विलासिता की वस्तुओं के विज्ञापनों की भरमार है जिससे कि मानव मन पर विशेषकर नई पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वे ये सोचते हैं कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य मेश्वर्य की वस्तुओं का उपभोग करना है और सदाचार व चरित्र की बातें तो बेकार होती हैं। इस प्रकार एक व्यक्ति की सफलता उसके जीवन के भौतिक- स्तर व उसकी धन-दौलत से आँकी जाती है। लेकिन पैसे के इस जंगल राज में कुछ ही 'धन-दौलत वाले' बन पाये हैं।'ये वन-दालत वाले' भी अपने अन्दर 'कुछ' कमी महसूस करते हैं, और आध्यात्मिक 'गुरुओं' के पीछे घूमते रहते हैं।
आखिर वो क्या है जिसकी कमी ये 'धन-दौलत वाले' महसूस करते हैं? इसे हम एक प्रकार का आध्यात्मिक शून्य कह सकते हैं।ऐसा उनकी इस गलत धारणा के कारण होता है कि यह उनकी अपनी जिन्दगी है और जो कुछ वे करते हैं, वे अपने लिए करते हैं। यद्यपि वे अपनी 'सफलता' की डींग मारते रहते हैं लेकिन उन 'सफलताओं' को दिल से मानने वाले कम ही होते हैं। ये 'सफल' लोग अपने आप को बहुत कुछ मानने हैं लेकिन वास्तव में अधिकतर लोग उन्हें इतना कुछ नहीं मानते क्योंकि इन 'सफल' लोगों ने पैसा इकट्ठा करने के अतिरिक्त और किया ही क्या है? अधिकतर लोग, चाहे वे इन 'सफल' लोगों के सामने उनकी ('सफल' लोगों की) हाँ में हाँ मिलाते हों, दिल से उनको ( 'सफल' लोगों को) इतना कुछ नहीं मानते। कुछ समय पश्चात्
यही निरर्थकता उनके 'सफल' आध्यात्मिक शून्य को जन्म देती है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे मानवीय सम्बन्धों की जरूरत होती है, उसे बहुत-कुछ बाँटना होता है, चाहे उसकी उपलब्धियाँ हों या उसकी विफलताएँ । मानव-मूल्य यहीं से शुरू होते हैं। मानव-मूल्यों का बोध उसी समाज में होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिकरण व प्रतिभा का विकास समाज की भलाई के लिए करता है ना कि दूसरों का शोषण करने के लिए या उनको हानि पहुँचाने के लिए । सही अर्थों में समाजवाद और मानववाद ही मानव-मूल्यों के रक्षक साबित होंगे।


भारतीय सभ्यता और संस्कृति
भारत दुनिया के उन गिने-चुने क्षेत्रों में से है जहाँ मानव सभ्यता का उदय बहुत पहले हुआ। यद्यपि आधुनिक मानव सभ्यता के विकास में हर देश और क्षेत्र का योगदान रहा है, परन्तु भारत का योगदान भी कम नहीं। प्राचीन भारत क्या जादू था ! जब भारत की आश्चर्य-जनक प्रसिद्धि और वैभव ने सिकन्दर को पूर्व की ओर आकर्षित किया था, इंग्लैड और फ्रान्स मुश्किल से लौह युग तक पॅहुचे थे। भारत के लिए नये व्यापार मार्ग ढूंढने के फलस्वरूप ही अमेरिका की खोज हुई। अरब लोगों ने भी गणित व आयुर्विज्ञान के क्षेत्रों में बहुत-सी जानकारी भारतीय स्रोतों से प्राप्त की। सूती कपड़ा और चीनी-दैनिक जीवन में भारत के विशेष योगदान हैं। बौद्ध धर्म, जो अपने समयानुसार एक प्रगतिशील विचारधारा थी, का उदय भारत में हुआ। बीजगणित भारत का एक विशेष आविष्कार रहा है। सामन्ती और पूर्व-सामन्ती भारत में अपार धन-सम्पति थी जो सीधे आधुनिक पूंजी में परिवर्तित नहीं हो सकी। इसका अधिकतर हिस्सा 18 वीं व 19 वीं शताब्दियों में अग्रेजों ने हड़प लिया। इस धन-सम्पति के इंग्लैड पँहुचने पर ही उस देश मेंऔद्योगिक क्रान्ति आई ।
हाँ यान्त्रिक उत्पादन के साथ जुड़ने के बाद ही यह धन-सम्पदा आधुनिक पूंजी में परिवर्तित हुई। हमारा इतिहास गौरवमय है, हमारा देश प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है और मानव प्रतिभा की भी कोई कमी नही है, तब भी हमारे चारों तरफ गरीबी, भुखमरी, बीमारियाँ,निरक्षरता, अज्ञानता, शोषण, बेरोजगारी, हिंसा, अपराध और नैतिक पतन क्यों है?
इस प्रश्न का उत्तर वहीं है जहाँ से हमने शुरूआत की थी- आजादी के मायने से। क्या राजनैतिक आजादी ही सब कुछ है? जिस आजादी का आर्थिक आधार ना हो, वह कैसी आजादी? आज भारत में एक भी ऐसी तकनीकी/औद्योगिक परियोजना नहीं है जिसमें रूस, अमेरिका, यूरोप या जापान की सहायता न ली गई हो।
 पूंजीवादी व्यवस्था में कोई भी देश कोई भी आर्थिक सहायता थाली में परोसकर नहीं देता। तथाकथित सहायता के चलते रहने से ही नव-साम्राज्यवादी शक्तियों ने विकासशील देशो के विज्ञान, उद्योग,कृषि तथा अर्थव्यवस्था को पंगु बना दिया है ताकि उनके (नव साम्राज्यवादी शक्तियों के) उत्पादों के लिए विकासशील देशों में बाजार कायम रहें और उन्हें लाभ मिलता रहे। दूसरी तरफ, देश के बड़े औधौगिक प्रयावों ने स्वदेशी तकनीक, उद्योग व अनुसन्धान को कभी प्राथमिकता नहीं दी तथा अनुसन्धान व विकास के मामले में विदेशी कम्पनियों पर ही निर्भर रहे। चूँकि विदेशी कम्पनियों के पास अधिक पूंजी होती है, ये धराने लाभ प्राप्त करने के क्षेत्र में भी विदेशी कम्पनियों से मात खाते रहे । जिस देश की अर्थव्यवस्था पर वहाँ के लोगों का वहाँ की जनता का अधिपत्य ना हो, क्या हम उसे आजाद देश कह सकते हैं? नहीं। आज भी भारत आर्थिक रूप से आजाद नहीं है- तथा कथित विकसित देशों (नव साम्राज्यवादी शक्तियों) ने भारत को एक अर्ध-उपनिवेश बना दिया है-अर्थात् कहने को तो भारत एक 'स्वतन्त्र' देश है लेकिन वास्तव में है एक उपनिवेश ही, जिसकी अर्थ-व्यवस्था में बाहरी शक्तियों का प्रभाव अधिक है।
राजनैतिक रूप से क्या भारत एक लोकतान्त्रिक देश है? एक मजबूत आर्थिक आधार के बिना लोकतन्त्र पनप ही नहीं सकता। आज भारतमें लोकतन्त्र है तो सिर्फ पैसे वालों के लिए, आम जनता के लिए नहीं । आज का भारत एक पूंजी केन्द्रित (पैसे वाले का) लोकतंत्र है । जाहिर है कि संस्कृति राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं की परिणति और निर्मिति है इसलिए उसके संकट पर विचार करते हुए हमें इसे समग्रता में देखना होगा । इसलिए संस्कृति में किसी भी रूपान्तरण की आकांक्षा हमें व्यापक समाज परिवर्तन की प्रक्रिया से सम्बद्ध करती और उसंघर्ष की ऐतिहासिक अनिवार्यता का बोध कराती है।
सुचेता सिंह ( 1976 ) ने एम फिल (2009) और पीएचडी ( 2016) समाजशास्त्र में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से की। वे जयपुर के विकास अध्ययन संस्थान में भी काम कर चुकी हैं। उन्होंने देश- विदेश के अकादमिक संस्थानों में पत्र प्रस्तुत किये हैं तथा कई लेख प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। वर्तमान में पंजाब विश्वविद्यालय के सोशल एक्सक्लूजन एंड इंक्ल्युजन स्टडी सेन्टर में कार्यरत।
संपर्क : 9855554010





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स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो