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चित्र के झरोखों से झाँकतीं कथाएँ

कला
चित्र के झरोखों से झाँकतीं कथाएँ 
                                                  दीप्ति वि. कुशवाह 
मनुष्य से आज के सुसंस्कृत मनुष्य तक की यात्रा के साथ चित्र परंपराओं की एक यात्रा समानांतर रूप से चलती है। इस समानांतर यात्रा में मानव विकास के विविध सोपानों को पढ़ा जा सकता है। इसमें मानव मन की क्रमिक गूँज-अनुगूँज को भी सुना जा सकता है क्योंकि चित्रों में मनुष्य की तीन मूल इच्छाएँ-  सिसृक्षा, रिरंसा एवं युयुत्सा भी परिलक्षित होती हैं।

लिखित भाषा जब अस्तित्व में नहीं आई थी, मनुष्य ने चित्रों के माध्यम से मनोभावों को अभिव्यक्त किया। भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक अनेक चित्रशैलियों के प्रमाण मिलते हैं। कुछ शैलियों ने जनजातीय-अंचलों में अपने मूल रूप को काफी हद तक अछूता रखा है, जैसे, गुजरात के राठवाओं में “पिथोरो”, उड़ीसा की साओरा जनजाति में “इटेलान” लोककला। 

ठाणे (महाराष्ट्र) की वारली में बदलाव की बयार घुली और इसके त्रिकोण की हद विदेशों तक जा पहुँची। भीलवाड़ा (राजस्थान) की “फड़” ने भी आधुनिकता का स्पर्श पाकर समय पर अपनी पकड़ मज़बूत की, परन्तु, ऐसा नहीं हुआ है, इसी की बहन “चित्रकथी” के साथ। चित्रों के माध्यम से कथा की प्रस्तुति- इस वाक्यांश को चित्रकला का परिचय मानें तो ये दोनों कला-शैलियाँ एक जगह खड़ी दिखाई देती हैं। 
समय के साथ कदमताल में पिछड़ रही “चित्रकथी” कभी महाराष्ट्र के कोंकण अंचल की सांस्कृतिक-धार्मिक-पारंपरिक पहचान हुआ करती थी। चित्रकथी कलाकार चित्र दिखाकर रामायण और महाभारत की कथाएँ तथा पुराणों में वर्णित प्रसंगों को कथा में गूँथ कर सुनाया करते थे। नंदीपुराण, विष्णुपुराण, काशी खंड एवं धार्मिक पुस्तकें भी स्त्रोत थे, चित्र-कथाओं के।
रात-रात भर आयोजन चलते थे। राजे-महाराजे प्रश्रय देते थे। चित्रकथी का वह भरापूरा काल भूत हुआ। चित्रकथी की प्राचीन मौखिक परम्परा क्षीण हो गई है। बहुत पुराने चित्रकथी-चित्रों को संग्रहालयों की आलमारी में इतिहास का हिस्सा बने देखा जा सकता है। सिकुड़ते प्रभाव वाले वर्तमान में अब जागरूक कलानुरागियों के द्वारा, इस परम्परा को बचाने के लिए आवाज़ उठाने की आवश्यकता पड़ने लगी है। असर भी हुआ है, सचेत कलाकार प्रयासों में जुट गए हैं। 
चित्रकथी को “पैठण चित्रकला” भी कहा जाता है। वही पैठण (जिला औरंगाबाद) जो आज पैठणी साड़ियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। पैठणी साड़ियों का महाराष्ट्र में वही स्थान है जो उत्तर भारतीयों में बनारसी साड़ियों का। प्राचीन काल में पैठण कला और साहित्य के बड़े केंद्र के रूप में अपनी पहचान रखता था। उस काल में पैठण के मंदिरों की दीवालों पर भी चित्रकथी शैली की चित्रकला अंकित की गई। चित्रकथी कला का प्रसार उत्तरी कर्नाटक और इससे संलग्न आंध्रप्रदेश तक था। इसके कलाकार घुमंतू हुआ करते थे। सिर पर बाँस के बक्से लेकर पैदल यात्राएँ किया करते थे। नवरात्रि के नौ दिन, गणेशस्थापना के दस दिन, तुलसी-विवाह पर और ऐसे ही धार्मिक महत्व के अवसरों पर चित्रकथी के कार्यक्रम हुआ करते थे। इन्हें “जागर” कहा जाता था। पूरा समूह कई-कई दिनों या महीनों के लिए किसी गाँव में टिक जाया करता था। उनके रहने और खानेपीने की व्यवस्था गाँव वाले मिलजुल कर करते थे। तत्कालीन समाज में साक्षरता का प्रतिशत कम था। देवी-देवताओं के बारे में जानने के लिए लोगों में कौतूहल हुआ करता था। चित्रकथी उनके लिए धर्मग्रंथों से परिचित होने का अवसर उपलब्ध कराती थी। 
विस्मृति की कगार पर पहुँची इस लोककला में, सचित्र पौराणिक कथा सुनाने का आधार मुख्यत: गायन और कथन हैं। यथायोग्य अभिनय और संवाद भी इसमें सम्मिलित किया जाता है। दृष्टान्तों को सरल कविता का रूप देना भी कला का एक अंग है। कहानी का सार छंदों में ढल कर अधिक कुशलता से सम्प्रेषित होता है। इन विधाओं के सम्मिश्रण से प्रस्तुति में स्वाभाविकता, बल्कि कहें, अतिशयोक्ति लाई जाती है। मराठी में चित्रकथी के लिए कहा जाता है, “पोथी सांगणे।” चित्रों का आकार प्राय: 12x18 इंच का मिलता है, अधिकतम दो फीट। चित्र बनाने के लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया गया। लाल, काली मिट्टी, हल्दी की गाँठें, चुकंदर और पत्तियों से रंग लिए गए। धीरे-धीरे वह समय आया जब चित्रों के मुद्रण ने हाथ की चित्रकारी को च्युत कर दिया।  
“दे पायाची जोड मोरया दे पायाची जोड
तुजविण कवणा शरण मी जावू नाम तुझे बहु गोड”
श्रीगणेश की इस वंदना से चित्रकथी-आयोजन का प्रारम्भ होता है। इसके पश्चात सरस्वती की अर्चना होती है। कथाकथन के दौरान एक बार में, तीन या चार कलाकार भाग लेते हैं। प्रमुख कलाकार घुटनों पर बैठता है। वह अपनी गोदी से टिका कर एक आयताकार पीठिका रखता है। उसके दाहिने हाथ की ओर चित्रपट्ट रखे होते हैं। इनमें से एक-एक चित्र पीठिका पर रख कर वह लय के साथ प्रसंग को श्रोताओं के सम्मुख प्रस्तुत करता है। एक कथाचित्र के पीछे दूसरा चिपका होता है। इसलिए सामने की ओर की कथा समाप्त होने पर पीछे की कथा का प्रस्तुतिकरण प्रारम्भ होता है। एक कथा के लिए 15-20-30 तक चित्र होते हैं। सहायक वाद्ययंत्र बजाते चलते हैं। इन वाद्यों के नाम हैं – हुडुक (डमरू), ताल और इकटारी। कहीं-कहीं वाद्यों में अंतर के भी प्रमाण मिलते हैं। कुछ स्त्रोतों से ज्ञात हुआ कि मुख्य कलाकार दाहिने हाथ से चित्र बदलने का काम करता है और बाएँ हाथ से मंजीरी बजाता है। कलाकार मिथकों के प्रयोग से समकालीन विषयों का निरूपण भी करता है, यह तथ्य लोककलाओं की शाश्वत सुन्दरताओं में से एक है। 
पांडवराज युधिष्ठिर द्वारा कराया गया अश्वमेध यज्ञ, अर्जुन की अपने ही पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा हार, सीताहरण, शिवपूजन के लिए भस्म होने वाली भीलनी की गाथा, हरिश्चंद्र-तारामती, ऋद्धि-सिद्धि के साथ गणेश का अवतरण, सरस्वती का अवतार-आगमन और उनके उपदेश, द्रौपदी-वस्त्रहरण चित्रकथी के प्रमुख विषय रहे हैं। भाष्य में शुद्ध मराठी, स्थानीय बोली, संस्कृत के शब्दों का प्रयोग होता है। 

सोमेश्वर रचित ‘मानसोल्लास’ नामक ग्रंथ में चित्रकथीची का उल्लेख मिलता है- “वर्णकै: सह यो वक्ति स चित्रकथको वर: गायका यव्र गायन्ति विना तालैर्अनोहरम्”, अर्थात, “वर्णक यानि चित्रों की सहायता से जो कथाकथन करता है, वह श्रेष्ठ चित्रकथक होता है।” 

चित्रकथी-लोककला के दो प्रकार हैं – पैठण शैली और पिंगुळी शैली। औरंगाबाद जिले के पैठण में प्रचलित शैली को पैठणी चित्रकथी और सिंधुदुर्ग जिले के तालुका कुडाळ/ पिंगुळी क्षेत्र में पिंगुळी शैली मिलती है। जानकारों के अनुसार, दोनों शैलियों में अनेक भिन्नताएँ हैं। पिंगुळी चित्रकथी की परम्परा सिंधुदुर्ग जिले के “ठाकर” समुदाय में मिलती है। प्राय: उनके सरनेम जाधव, मोरे, पवार, सालुंखे होते हैं। ये सरनेम देवताओं के नामों से लिए गए हैं। तुलजापुर की भवानी, जेजुरी के खंडोबा, रत्नागिरी के ज्योतिबा, कोल्हापुर की महालक्ष्मी को चित्रकथी कला के देव-देवियाँ माना जाता है। यह मान्यता चित्रकथी को आध्यात्मिकता प्रदान करती है। इसीलिए जनमानस इस लोकांकन विधा से आस्था के साथ जुड़ता है।
चित्रों के माध्यम से कथावाचन के लिए जितनी प्रसिद्धि राजस्थान की फड़-चित्रकला के हिस्से में आई, उसके मुकाबले, चित्रकथी लगभग गुमनाम सी है। उपलब्ध चित्रों की सामग्री, कागज की प्रकृति और उन पर उपस्थित चिन्ह इंगित करते हैं कि इनका निर्माणकाल अठारहवीं शताब्दी के अंत से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ का रहा होगा। वैसे इतिहासकार कहते हैं कि सोलहवीं शताब्दी के आसपास मिलीं जैन पांडुलिपियों में इसी शैली का चित्रण मिला है। दक्षिण भारत के कुछ मंदिरों में भी चित्रकथी शैली से प्रभावित चित्रांकन मिलता है। विशेषज्ञों के अनुसार भारतीय लघुचित्रकला, दक्षिण-भारतीय चर्म-छायापुतली कला और स्थानीय चित्रकला के मिलेजुले प्रभाव से चित्रकथी का जन्म हुआ है। पुरुष-आकृतियों के साथ स्त्रियों का बहुतायत में रेखांकन बताता है कि स्त्रियों को लेकर तत्कालीन वातावरण उदार था। यद्यपि चित्रकथी व्यवसाय में स्त्रियों का सहभाग लगभग नहीं रहा। आँखों का पैटर्न चित्रकथी को अन्य चित्र-विधाओं से अलग करता है। बड़ी-बड़ी, गोलाई ली हुईं और आँखों के अंदर पुतली का अंकन स्पष्टता से होता है। पुरुष और स्त्री दोनों भरे-भरे शरीर वाले हैं। स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष भी नख-शिख आभूषणों से सज्जित हैं। आकृतियों की लयात्मकता विशेष रूप से दर्शनीय है। हर आकृति की पतली रेखाओं, बिन्दुओं, बूटियों से मनोहारी सज्जा की जाती है। नुकीली नासिका, प्रशस्त मस्तक, कमनीय अंगुलियाँ चित्रकथी के नयनाभिराम आयाम हैं। अधिकांश चित्र क्षैतिज हैं। चेहरे और पैर का पार्श्व रेखाटन, शेष शरीर सामने की ओर से बनाया जाता है। यह महत्वपूर्ण विशिष्टता है, चित्रकथी शैली की। यह विविधवर्णी चित्रशैली है। लाल, पीला, हरा, गुलाबी रंग मुख्य हैं और शुद्धता से इस्तेमाल किए जाते हैं। कलाकारों को अपनी इच्छानुसार रंगप्रयोग की स्वतंत्रता होती है। प्राय: पृष्ठभूमि सादी-समतल होती है। चित्रकथी की मानवाकृतियों का, कर्नाटक की छाया-कठपुतलियों से साम्य स्पष्ट देखा जा सकता है।       

पुणे के राजा दिनकर केळकर संग्रहालय में चित्रकथी-पेंटिंग्स का बड़ा संग्रह उपलब्ध है। देश के अधिकांश संग्रहालयों में चित्रकथी-पेंटिंग्स नहीं हैं। एक तरह से कहा जा सकता है कि इस लोककला की ओर बाह्य जगत का ध्यान कम गया है। अलबत्ता कुछ चित्र ब्रिटिश संग्रहालय, विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय, लंदन में संग्रहित हैं।

चित्रकथी कला को राज्य की अनुशंसा प्राप्त थी तो कलाकारों की वेशभूषा में भी ठाठ थी। वे बंडी या कुरते पर जैकेट और सिर पर फेंटा लगाते थे। राजे-महाराजे गए, लोगों की अभिरुचि बदली और चित्रकथी कला के बुरे दिन आने लगे। बाद में कलाकार जीवनयापन के लिए, चित्रों के माध्यम से भाग्य भी बताया करते थे। 
चित्रकथी-समुदाय के कलाकारों को तरह-तरह की गुड़िया या चर्मपुतलियाँ  बनाने में भी महारत हासिल थी। चर्मपुतलियों (जैसे कठपुतलियों) का खेल, जिसे कहते “चामड्याच्या जायती।” दूसरी, “कळसूत्री बाहुल्या” (हाथ से डोरियों की सहायता से चलाई जाने वाली गुड़िया), ये खेल उनकी आजीविका के  दूसरे क्रमांक के स्त्रोत थे। पुतलियाँ बकरे के चमड़े से बनाई जातीं थीं। मराठी में गुड़िया को कहते हैं “बाहुली” तो वे कहलाए, “बाहुलेकर।” छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में गाँव-गाँव घुमक्कड़ी करने वाले हस्तशिल्पियों और चित्रकारों से गुप्तचरी का काम भी लिया गया और भूमि-संपत्ति आदि देकर पुरस्कृत किया गया। तब इन्हें “लाकी” कहा गया। लाकी को स्थानीय कृषक धान दिया करते थे। 

चित्रकथी की वर्तमान स्थिति की बात करें तो पैठण परम्परा लुप्तप्राय है। नया समाज लोककलाओं के मोह से मुक्त है। भाग्य बाँचने का काम पंडितों के पास चला गया। चित्रकथी कलाकारों के परिवार समाज के हाशिये पर हैं। गाँव-गाँव भटकती पीढ़ियाँ शिक्षा के प्रकाश से वंचित रहीं। महाराष्ट्र सरकार के दस्तावेजों में चित्रकथी समाज खानाबदोश समाज के रूप में पंजीकृत है। उत्तर महाराष्ट्र के नासिक, जलगाँव, धुले, नंदुरबार जिलों में और पुणे जिले के कुछ हिस्सों में चित्रकथी समुदाय पाया जाता है। 
महाराष्ट्र में लगभग अस्सी चित्रकथी-चित्र उपलब्ध होने की सूचना है। कोंकण के सिंधुदुर्ग जिले के ग्रामों में संकीर्तन का एक रूप चित्रकथी से उद्भूत है। यूँ कोंकण अंचल अनेक लोककलाओं से समृद्ध है। श्रीहरि विष्णु के दस अवतारों के प्रदर्शन पर आधारित कला “दशावतार” को यहाँ बहुत लोकप्रियता हासिल है।

प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मणि कौल ने 1976 में “चित्रकथी” नामक एक लघु-चित्रपट का निर्माण किया था। कहा जाता है, जिस परिसर में शूटिंग हुई, चित्रकथी की चित्रकारी स्वयं मणि कौल ने की थी।

पिंगुळी चित्रकथी फिर उजाले में आ रही है। कुडाळ के पास पिंगुळी में रहने वाले युवा अपनी विरासत और उसके महत्व को लेकर सजग हो रहे हैं। चित्रकथी के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में लोक कलाकार गणपत सखाराम मसगे और वसंत गंगावणे के नाम रेखांकित किए जाते हैं। गणपत सखाराम मसगे को अपने प्रयासों के लिए 'संगीत नाटक अकादमी' का पुरस्कार मिला है। वसंत गंगावणे की ख्याति देश के साथ विदेशों में जा पहुँची है। परशुराम गंगावणे भी चित्रकथी की पुनर्प्रतिष्ठा के प्रति समर्पित हैं। विशेष कहानियों के चित्रों को सेट कहा जाता है। गणपत सखाराम मसगे के पास पंद्रह सेट्स उपलब्ध हैं। इन दोनों ने पिंगुळी चित्रकथी की मौखिक परंपरा को बचाए रखा है। इनके प्रयासों से नये कलाकार तैयार हो रहे हैं। अब चित्रकथी-चित्रकारी और प्रस्तुतिकरण को वीडियो के माध्यम से संरक्षित किया जा रहा है, दस्तावेजीकरण हो रहा है। ठाकर कलाकारों ने 'ठाकर आदिवासी कला अंगण' नामक एक कला संग्रहालय की स्थापना भी की है जहाँ चित्रकथी के शोज़ होते हैं और इच्छुकों को चित्रकारी से लेकर प्रस्तुतिकरण तक का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।
प्रयास स्तुत्य हैं पर हमें याद रखना होगा, किसी भी कला का पौधा तभी लहलहाता है जब उसे हमारी अनुरक्ति का खाद-पानी मिलता है। परम्परा को जीवनी-शक्ति मिलती है, लोक से। संग्रहालयों में रखकर उसे सुरक्षित किया जा सकता है पर तब उसका संवर्धन-परिवर्धन नहीं होगा। वह ठहर जाएगी। मुरझा जाएगी। समय के साथ चलने-बदलने से ही उसकी आयु बढ़ती है।

दीप्ति वि. कुशवाह 
कविता संग्रह – “आशाएँ हैं आयुध” (महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी से प्रथम पुरस्कार) ।
कविता (अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित), लोककला विषयक लेखन, चित्रांकन, अनुवाद ।
 संस्कृति विभाग, भारत सरकार की सीनियर फेलोशिप (हस्तकला), अनेक प्रदर्शनियाँ
संपर्क – ए- 204, पंचायतन, आर. पी. टी. एस. मार्ग, लक्ष्मीनगर, नागपुर (प)., 440022, महाराष्ट्र 
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ई मेल – deepti.dbimpressions@gmail.com 




 







   
  




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रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत