सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मानिनी का मान : शिवानी

समीक्षा

कविता कैसे हमारे बाहर- भीतर इर्द- गिर्द बिखरी है, बस उसे सृजनात्मक रूप से सहेजने की सामर्थ्य होनी चाहिए- इस बात को समझना है तो नूतन गुप्ता की कविताएँ आपकी मदद कर सकती हैं। कविताओं के भीतर किस विनम्रता और भाव- बोध से उतरना चाहिए और अवगाहन से जो हासिल हो, उसे सहजता से प्रस्तुत करें - यह समीक्षा ऐसा संदेश देती लगती है। शिवानी ने बड़े मनोयोग से इन निन्यानवें कविताओं का पाठ किया है, वह इस प्रक्रिया को उत्सव में बदल देता है।




जिजीविषा की कहानी
कविता की ज़ुबानी"
जो पाया वो पाने की चाहत से कम था! पर और पाने के लिए ज़िन्दगी से चिरौरी न करके, पाए गए को सहेजने में ही लगे रहे! इसीलिए कहा कि "कम है तो अच्छा है!"


जब बात संवेदनाओं की होती है तो उनके कम-ज्यादा होने की मापनी कैसे की जाए!जो एक बात किसी एक के लिए अति संवेदनशील होती है वही किसी दूसरे के लिए बिल्कुल साधारण सी भी हो सकती है! मगर उस साधारण सी बात को कहने का वैशिष्ट्य उसकी संवेदनशीलता को सर्वग्राही बना सकता है! नूतन गुप्ता जी की कविताओं से गुज़रते हुए यही बात सत्यापित होती है!

बिना किसी कठिन शब्दावली और गूढ़ार्थ के,ये कविताएँ पूरी सहजता के साथ सीधे संवाद करती हैं और हृदय के मर्मस्थल तक पहुँचती हैं!

भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी ने ठहर कर सोचने का समय कहाँ दिया। ! मगर उन दिनों की स्मृतियाँ संचित रही हैं हृदय में! और तब हृदय जैसे स्मृतियों का जीवित जीवाश्म हो गया ! स्मृतियों की परतें हृदय पर चढ़ती रहीं! अब,जब फुर्सत मिलने पर उन्हें कुरेदा गया है तो प्रस्फुटित हो उठी हैं कविताएँ…

कविताएँ, जिनमें संघर्ष की गाथा है, कभी न हारने के हौसले का दंभ भी है और न पाए गए सुख की टीस भी है! सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैंने इन कविताओं में पाई वो है तेवर! ज़िन्दगी ने जैसा भी जीवन दिया, उसे सिर उठाकर, आँख में आँख डालकर पूरी बहादुरी से स्वीकार किया! रोने-गिड़गिड़ाने से दूर हैं ये कविताएँ! फिर भी अकड़ी हुई गर्दन में रात के सन्नाटे में उमड़ती पीड़ा भी दर्ज की गई है!

ये कविताएँ हमें एक स्त्री के स्त्री होने की कोमलता को ललकारती हुई सी भी लगती हैं और उसके आत्मविश्वासी कठोर फैसलों को लेकर उत्साहित भी करती हैं! जैसे-


"वो मुझसे

मेरा सूरज 

छीनना चाहता था 

मैंने उसके दिन ही छीन लिए!"

समग्र संघर्ष और उसके प्रति अपने तेवर को दर्शाती ये एक आकार में छोटी-सी कविता अपने संदर्भ में बहुत विस्तार लिए हुए है! समूचे जीवन-संघर्ष की गाथा इसमें छिपी हुई है! दुखों की, बदले की और जीत की अमर गाथा का संक्षिप्तीकरण है ये कविता! नूतन गुप्ता का कहना है कि जब कम शब्दों में कहा जा सकता है तो ज़्यादा शब्द क्यों खर्च करना! और यही उनकी कहन की विशेषता है! कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वे अपनी बात कह कर आगे चल देती हैं और हम समझने के लिए वहीं खड़े रह जाते हैं! सोचते रहते हैं कि साधारण सी दिखाई देने वाली इस कविता में क्या ख़ास है! जैसे इस कविता को ही ले लें-


वो मुझे ले आता था 

शीशे की अलमारी में 

बंद कर देता था 

खुद नहीं पढ़ता था 

तो प्रतिक्रिया तो क्या देता 

किसी को पढ़ने भी नहीं देता था


लगभग तीस चालीस साल तक 

हर बरस मिट्टी झाड़कर 

वापस कैद किया गया मुझे 

अब पढ़ नहीं सकता था वह 

तो बेच देगा मुझे 

ऐसे सुना मैंने 


मेरा कारावास समाप्त हुआ शायद 

मेरा स्वामी बदलेगा या जीवन भी? 

कह नहीं सकती!

यह तो अच्छा है 

कि अस्तित्व समाप्त नहीं होता मेरा 

ना ही मज़मून बदल सकता है 

कहीं भी रहूँ, बनी रहूँगी किताब ही 


इस दौर का सबसे कठिन काम है 

किताब बने रहना!


चाहें तो इसे पुस्तक के संदर्भ में देखें या फिर एक ऐसी स्त्री की पीड़ा के रुप में, जिसके जीवन से सामाजिकता छीन ली गई हो!

शतरंज की बिसात के बहाने से बेबसी की बात है तो नदी के बहाने से जीवन के रीतने को भी दर्ज किया गया है! एक कवितांश देखिए-

एक दिन सूख जाएगी नदी

दिखने लगेगी सुनहरी रेत

तब तक शायद तप तप कर

सोना बन जाए वो लड़की!

बचपन के अभाव, संघर्ष, उम्मीद और दृढ़ संकल्प से लेकर सफलता तक की बात करते हुए वे एक उपजती हुई टीस हम तक पहुँचाती हैं! वे कहती हैं कि

बचपन जूझ पड़ता है

पूरा करने के लिए

पूरे करके ही दम लेता है!

उसकी हिम्मत उसकी ताकत को

नहीं सराहता कोई

बस एक मुहावरा कह देते हैं

लाल गुदड़ी में ही छिपे होते हैं!


58 क्रम पर एक बड़ी मार्मिक कविता है! आजकल के एकल परिवार और छोटे बच्चों के जीवन से संबन्धित इस कविता के बारे में वरिष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद् और समालोचक राजा राम भादू जी का कहना है कि इस कविता का फलक इतना विशाल है कि केवल इस कविता पर ही एक विस्तृत चर्चा हो सकती है! संग्रह में ऐसी कई कविताएँ मौजूद हैं।


अपने जीवन में लिए गए कुछ फैसलों की कठोरता से कालांतर में हमारे जीवन की नमी की छीजत शुरू हो जाती है! पर मिट्टी में दबे बीज की तरह ही कहीं न कहीं कोमल भावनाएँ और संवेदनाएँ संरक्षित रहती हैं। पावस में अँखुआए उस बीज की तरह ही कोमल भावनाएँ जब-तब सिर उठाती हैं और तब उस तड़प और इंतज़ार से बह निकलती है बेबसी की एक शब्द-सरिता! इन कविताओं को व्यक्तिगत कहना उचित नहीं! ये हर उस जीवन की व्यथा है जिसमें परहित में स्वहित का त्याग करते हुए कठोर फैसले लिए गए हैं!

कोई कितना भी सामाजिक सरोकारों को लेकर लेखन करे पर अपने जीवन के सुख-दुख, समाज में नज़दीकी से देखा हुआ और भोगा हुआ यथार्थ भी लेखन में गाहे-बगाहे बराबर परिलक्षित होता है! वस्तुत: कविता अनुभूति के प्रदर्शन या पीड़ा से मुक्ति का ही तो मार्ग है! इसीलिए अकेलापन उनकी लेखनी की स्याही में रचा-बसा है और अलग-अलग रंग से मुखरित हुआ है! कुछ कवितांश यहाँ उद्धृत करना आवश्यक है-

अकेले जैसी होनी चाहिए थी

ठीक वैसी मन गई दीवाली

साथ के लिए कोई दिया जला लेना चाहिए था

जलाया भी था!

अभी तक जल भी रहा है!

उसे अखंड ज्योति की तरह जलने देना चाहिए 

हम लोगों के जीवन के लिए यही 

सर्वाधिक महत्वपूर्ण है!


एक हम ही नहीं यह सजा भुगतने वाले 

कुछ पटबीजने भी थे 

जो भोग रहे थे एक आजीवन सज़ा 

रातों को जागने की 

जब नहीं दिखाई दे राह 

वही काम आते हैं!


पता नहीं मैं कब तक हूँ

तो जब तक हूँ 

तुम मुझसे मेरा हाल तो पूछो 

कैसे गुजरे इतने सारे साल तो पूछो 

पता नहीं मैं कब तक हूँ


साथ रहने और साथ चलने का अंतर 

पटरियों से बेहतर नहीं जानता कोई


मूंगफली के खाली छिलकों की तरह 

हवा में उड़ते हुए समाप्त होती है यात्राएँ 

क्या जीवन का सारा अर्थ उन दानों में था 

जो हम सौंप आए किसी सहयात्री को


बाज़ार, मंदिर, पार्क, क्लब सब नजदीक आ गए 

करीबी रिश्ते कंक्रीट के जंगलों में लापता हो गए


पीछे छूट गई परछाइयों के सहारे 

सफर पूरे नहीं होते!


कब कह पाएगी 

कि संबंधों का निर्वहन 

उस अकेली का दायित्व नहीं होता 

कब कह पाएगी कि 

अकेली देखकर कैसे झपटते हैं अधम


न दिन ने कुछ बताया 

ना रात ने कुछ पूछा 

बदहवास दुपहरी करती रही 

किसी समझौते की कोशिश


इस संग्रह में एक ओर जहाँ निराशा,धोखे और मायूसी की कविताएँ हैं वहीं दूसरी ओर बुलंद हौसले, आत्मविश्वास और आशा की कविताएँ भी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं! अधूरी इच्छाओं को पूरी करने का दिवास्वप्न.. और खुद ही अचकचा कर आँख खोल लेना कि बहुत देर हो चुकी अब! मानिनी का मान है तो उपालंभ भी अपनी जगह खड़ा है! कुछ कविताएँ आगे बढ़ने से रोकती हैं! तिरसठ क्रम की कविता भी ऐसी ही एक कविता है! आपको जकड़ लेगी और मुक्त होने की संभावना भी नहीं छोड़ेगी!



ज़िन्दगी जितनी सुलगती हुई है उतनी ही संघर्ष की आग अभी बाकी है! तेवर अभी सुरक्षित हैं! और यही बात सीखने समझने की है! नूतन गुप्ता जी का मानना है कि जीवन के विपुल अनुभवों को कुछ एक कविताओं में कहाँ समेटा जा सकता है! जहाँ से सोचना शुरू करें वही एक कविता मुस्कुराते हुए स्वागत करती है!


मैं नहीं लिख सकती सिलसिले वार 

मेरे पास तो 

ऊन की एक लच्छी है 

जो बहुत पुरानी होने से 

बीच-बीच से 

जगह-जगह से कट गई है


चाय बनाती हुई स्त्री के बहाने से, सुबह पाँच चालीस की जीप के बहाने से, अभिजात्यता के बहाने से, सड़क किनारे लगे दो पेड़ों के बहाने से, गलियारे में सूखते कपड़ों और गमले में खिलते फूलों के बहाने से भी स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं पर सुंदर कविताएँ हैं जो बरबस ही हमें इन सबके बारे में नये सिरे से सोचने की दृष्टि प्रदान करती हैं! कविता का कर्म ही चीज़ों को एक अलग और बेहतर दृष्टिकोण से देखने-समझने का फलक प्रस्तुत करना है! और इस दृष्टि से इस संग्रह की कविताएं पूर्णतः सफल सिद्ध हो रही हैं।


नूतन गुप्ता जी कविताओं में सहज स्वाभाविक रूप से स्री जीवन की

हताशा-निराशा भी है तो आखिरकार थक कर कठोर निर्णय लेने के भाव भी हैं-

गाँठें खोलने का 

समय रहा नहीं अब 

अब तो बंधन ही खोलना बेहतर होगा!


निन्यानवे कविताओं में से लगभग हर कविता में कुछ पंक्तियाँ आपको ठिठक कर मनन करने पर विवश करती हुई, गहरे तक मन की थाह लेती हुई अचंभित करती हैं। सभी को यहाँ उद्धृत नहीं किया जा सकता पर फिर भी मेरी पसंदीदा कुछ और चुनिंदा पंक्तियाँ साझा करती हूँ.


मेरी मुस्कुराहट ही कौन सी अपनी है 

सबके मुस्कुराने के बाद 

जो बजती है उसे ही पहन पाती हूँ


कौन हो तुम? 

जुलाहे हो 

कुंभकार हो 

कि कोई कवि हो 

जो भी हो महसूस करना है 

तुम्हारा स्पर्श 

कि कोई रंग तो हो 

इस श्वेत श्याम जीवन में


बारिशें 

केवल तुम्हारी छत का 

सरमाया नहीं 

मेरे पास भी है 

एक आँगन छोटा सा!


पता नहीं मन के अंदर 

फूलों की फसल 

बोने का मौसम कौन सा है 

कैसे बोए जाते हैं 

कौन बोता है 

यही तलाश करने 

रोज़ उतर जाती हूँ उस जंगल में 


कहीं रही होगी कुछ नमी 

वहाँ उग आई है काई 

फिसलन बहुत है 

मंजिल से भटकने के 

खतरे भी हैं बहुत!


बोधि प्रकाशन से जनवरी 2020 में आए इस संकलन की कोरोना के कारण चर्चा नहीं हो सकी थी ! पर अब, जब इसे पढ़ रही हूँ तो महसूस कर रही हूँ कि कविता समझने और पसंद करने वाले सभी लोगों को इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए! कविताओं के शीर्षक की बजाय क्रमांक दिए गए हैं जो कि निन्यानवे पर आकर ठहरते हैं! प्रकाशक माया मृग जी का ये नया और नायाब प्रयोग जो कि शीर्षक के साथ संगत कर रहा है, मुझे बहुत पसंद आया। और पसंद आया अनुप्रिया जी का बनाया आवरण चित्र जो कि कविताओं के कलेवर में बिल्कुल सही बैठता है! 

छपाई की कोई गलती नहीं होने से पढ़ने का प्रवाह बराबर बना रहा है! एक सौ बत्तीस पृष्ठ का ये संग्रह पुस्तक प्रेमियों के ताखे में अपनी जगह अवश्य बनाएगा।

शिवानी शर्मा राजस्थान के विभिन्न शहरों में पली-बढ़ी हैं। शैक्षणिक योग्यता बी कॉम, एम बी ए , मॉन्टेसरी डिप्लोमा, जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा है।

शिवानी पिछले लगभग सात वर्षों से 'शिवानी जयपुर' के नाम से लेखन में सक्रिय हैं।इनकी कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथा और समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में न केवल प्रकाशित होते रहते हैं बल्कि राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत भी हुए हैं।
कविता संग्रह "कुछ ख़्वाब कुछ हक़ीक़त" 2016 में प्रकाशित ( राजस्थान साहित्य अकादमी से अनुदानित)
कविता संग्रह "कुछ मत पूछना हम सच कह बैठेंगी" 2020 में किंडल पर प्रकाशित है।

रेडियो कॉम्पीयर के रूप में पिछले तीस वर्षों से सक्रिय हैं और अब दूरदर्शन से भी जुड़ी हुई हैं।

अजमेर पोएट्री क्लब (APC) की संस्थापक सदस्य और सहयोग सेतु (NGO) की अध्यक्ष हैं।
संपर्क - 95091 05005








टिप्पणियाँ

  1. मीमांसा टीम को बहुत बहुत धन्यवाद 🙏💐

    जवाब देंहटाएं
  2. नूतन गुप्ता के कविता संग्रह "कम है तो अच्छा है" की अच्छी तरह थाह लेकर की गई समीक्षा है यह |नूतन जी की कविताओं में जो संतृप्ति,संचेतना और संवेदनायें हैं उन्हें शिवानी ने गहरे से पकड़ा है | इस अच्छी समीक्षात्मक टिप्पणी के लिये शिवानी और मीमांसा को साधुवाद तथा नूतन जी को बहुत बहुत बधाई |

    जवाब देंहटाएं
  3. नूतन गुप्ता दी के काव्य संग्रह 'कम है तो अच्छा है कीं' शिवानी जयपुर द्वारा बहुत ही अच्छी और गहरी समीक्षा के लिए शिवानी को साधुवाद और नूतन दी को बहुत-बहुत बधाई! वास्तव में कम और सरल शब्दों में बहुत कुछ कह देना नूतन दी की कविताओं की विशेषता है।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो