सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

लोक-सृजन में कला- सौंदर्य -सुभाष सिंगाठिया

आलेख
लोक- जीवन में कला स्वत: स्फूर्त रूप में यत्र- तत्र बिखरी रहती है। वह इतनी सहज व्याप्त है कि उसकी कलात्मकता और सौंदर्य पर प्रायः हमारा ध्यान नहीं जाता। अक्सर उसके परिष्कृत रूप ही हमारे विमर्श में आते हैं। लोक- सृजन में निहित कला और सौंदर्य को अपने लेख में सुभाष सिंगाठिया ने बड़ी सूक्ष्मता से रेखांकित किया है।
 

                          

साहित्य और कला- सौंदर्य बोध से भरपूर अपनी खूबसूरती को समेटे हुए ये दोनों बेहद महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील घटक किसी भी समाज के यथार्थ से लबरेज ऐसे सजीव और जीवंत चेहरे हैं जो उसके साँस्कृतिक और कलात्मक अस्तित्व को सहेजे हुए रहते हैं- आवरण रहित बहुआयामी चेहरे। एस्थेटिक सेंस से लबालब  इन चेहरों को लोक कला में ढूँढें तो ये जीवन के और अधिक नजदीक महसूस होते हैं- जीवन की गहन अनुभूति लिए हुए। जिनमें जीवन, जीवन-संघर्ष, जीवन-आनंद और जीवन-उत्सव के व्यापक आयाम निहित हैं, यानि लोक-कला लोक-जीवन और लोक-मानस के ही सदृश है और इसका मूल उद्देश्य या लक्ष्य अंततः लोकहित ही होता है।

मैंने कहीं पढ़ा था कि- "शब्द जहाँ अपनी अभिव्यक्ति का सामर्थ्य खो देते हैं, ठीक वहीं से रंग और रेखाएँ बोलना शुरू होती हैं।" जब हम किसी बहुआयामी चित्र को देखते हैं, विशेषकर प्रतीकात्मक चित्रों को तो यह बात अक्षरशः सही साबित होती है, क्योंकि ये चित्र साक्षात् बतियाते हुए, संवाद करते हुए नजर आते हैं। यहाँ पर चित्रकार की सूक्ष्म दृष्टि और उसकी व्यूह रचना अपनी विशेष भूमिका निभा रही होती है, जो कि एक बिंदु से शुरू होकर क्षितिज के उस पार तक संपूर्ण ब्रह्मांड को देख पाने में सक्षम है। यह स्वभाव अकेले चित्रकला का ही नहीं बल्कि हर तरह की कला का होता है। गौरतलब है कि इस कला को एक आम घरेलू औरत की कशीदाकारी और उसके चौका पूरने से लेकर दुनिया के नामी-गिरामी चित्रकारों की तूलिका में से धरती, आकाश और प्रकृति के अनेकानेक घटकों को सृजित होते  हुए देखा जा सकता है- लोक से सतरंगी-इंद्रधनुषी-जुगलबंदी करते हुए। 

लोक की यही खूबसूरती और खासियत है कि प्रकृति और प्रकृति से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़ी चीजों के बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती- बेल, फूल, वृक्ष, पशु-पक्षियों आदि का चित्रण लोकगीतों से लेकर लोक कला से संबद्ध चित्रों और अन्य कलाओं में होता है, जो यह बताता है कि लोक की जीवंतता प्रकृति और प्राणी मात्र पर आश्रित हैं और कोई भी कला इन्हीं घटकों के अवलंबन से सृजित होती है- और स्वयं लोक भी। घरों में विभिन्न अवसरों पर बनाए जाने वाले भित्ति चित्रों के रूप में माँडणा और फर्श पर अल्पना और रंगोली लोककला से सृजित चित्र होते हैं, जिनकी पृष्ठभूमि में लोक से जुड़ी कोई ना कोई कथा-कहानी होती है। ये चित्र बिलकुल साधारण, सादा और प्राकृतिक रूप से बनाए जाते हैं-  बिना किसी जोड़-तोड़ या मिलावट के।  इन चित्रों में भले ही लालित्य ना हों, बावजूद इसके लोक की सौंधी खुशबू उन्हें बेहद आकर्षक और मनभावक बना देती है जो कि लोक और उसकी कला की ही तासीर है। खुशी के विशेष अवसरों पर  घरों के प्रवेश द्वार पर दाएँ-बाएँ गोबर से बनाए जाने वाले माँडणा और हिरमच (गहरा महरून रंग)  से बनाए जाने वाले साँखिया (स्वास्तिक चिह्न) लोक कला की बेहतरीन बानगी है। घर में प्रवेश करते समय उन पर नजर पड़ते ही उनकी सकारात्मक वाईब्रेशन से मन उल्लास से भर जाता है। यह लोक कला का ही प्रभाव या मनोविज्ञान है जो यह बताता है कि वह सामाजिक और साँस्कृतिक सरोकारों से भरपूर है और उसके संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर वह अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहता।
हालांकि विश्वभर की कलाएँ कभी इस आरोपण से मुक्त नहीं रह पाईं कि उनमें लोक नदारद रहता है और इसके साथ-साथ  उन पर कभी विदेशी प्रभाव का आरोप लगता आया है तो कभी दरबारी होने का, बावजूद इसके प्रामाणिक पुष्टि के आधार पर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि कला का मूल ओरिजन लोक ही है- वह लोक जो साँस्कृतिक वैक्यूम को शिद्दत से भर सकने में सक्षम है। परिवार-समाज में समय-समय पर होने वाले  विवाह सरीखे महत्वपूर्ण अवसरों, पारिवारिक संस्कारों, त्योहारों, पर्वों पर अर्चना-आराधना में  कला से जुड़े अद्भुत उत्कृष्ट चित्रों का समावेश- कहीं पटचित्रों के माध्यम से फूल-पत्तियों का अंकन, कहीं भित्ति चित्रों से साँस्कृतिक विकास को दर्शाता हुआ अलंकरण- माँडणा आदि, तो कहीं प्रेम प्रतीक के रूप में देहचित्र के माध्यम से मोर, पपीहा, तोता आदि का चित्रण। शुभ-शकुन वाले अवसरों पर लड़कियों और महिलाओं के हाथों और पैरों पर लगाई जाने वाली मेहंदी भी देहचित्रण का एक उदाहरण है। 

दरअसल यही वह ठेठ लोक है, जो जन्म से मृत्यु तक आजीवन किसी न किसी रूप में हमारे साथ रहता है, जिसमें ना तो दरबारी कला का कोई  प्रभाव या दबाव है और ना ही विदेशी कला से कोई आयातित अंश- यहाँ तक कि मितांश भी नहीं। उल्लेखनीय है कि ये लोक-कला के चित्र-प्रतीक जिस भी परिवेश में मौजूद रहते हैं अपने आसपास ताज़गी, उल्लास और खुशियों का संचार करने में सक्षम हैं- और यकीनन जब ऐसा घटता है तब यह भावनाओं से ओतप्रोत लोक कला का सामाजिक और साँस्कृतिक सरोकार बोल रहा होता हैं- जिसे दिल की अतल गहराइयों तक बखूबी महसूसा जा सकता है। प्रकृति का छोटे से छोटा हिस्सा- बेल, फूल, वृक्ष और प्राणी मात्र लोक के आलंबन हैं और लोक के बिना प्रकृति भी अधूरी-अधूरी-सी लगती है। लोक कला के संपर्क में आते ही ये तमाम घटक जैसे महक उठते हैं।  लोक कला खुद भी प्रकृति के संपर्क में आने से निखर-निखर जाती है । यहाँ यह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोक कला और प्रकृति परस्पर पूरक हैं। बल्कि यह कहा जा सकता है कि  इसी पूरकता में ही समाज का साँस्कृतिक और कलात्मक विकास संभव है- जो एक-दूसरे  की महक से ही गतिमान रहते हैं ।


लोक जीवन के मर्म को समझने वाले विद्वान आचार्य डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि- "लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली वह समुची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियों नहीं हैं । ये लोग नगर में परिष्कृत, रुचि-संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त  होते हैं और परिष्कृत रुचि  वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ होती हैं उनको उत्पन्न करते हैं।"

इसी तरह भारतीय लोक को लेकर डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल कहते हैं- "कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए  भू-भाग पर पनपता हुआ मानव समाज भारतीय लोक है। भारतीय लोक हमारे सुदीर्घ  इतिहास का अमृत फल है। जो कुछ हमने सोचा, किया और सहा, उसका प्रकट रूप हमारा लोकजीवन है।  लोक राष्ट्र की अमूल्य निधि है। हमारे समाज में जो भी सुंदर तेजस्वी तत्व है,  वह लोक में कहीं न कहीं सुरक्षित है। हमारी कृषि, अर्थशास्त्र, ज्ञान, साहित्य, कला के नाना रूप, भाषाएँ  और शब्दों के भंडार,  जीवन के आनंदमय  पर्व-उत्सव, नृत्य, संगीत, कथा, वार्ताएँ, आचार विचार सभी कुछ भारतीय लोक में ओत-प्रोत है।"

लोक पर इन विद्वानों के दृष्टिकोण से एक बात पूरी तरह से स्पष्ट और पुष्ट हो जाती है कि लोक हमारे जीवन और समाज का आधार है। साँस्कृतिक और सौंदर्य-चेतना से युक्त  मजबूत आधार स्तंभ जिस पर यह समाज ना सिर्फ खड़ा है बल्कि बिना लोक के इस समाज और जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि हमारे जीवन में, हमारे आस-पास जो कुछ भी सुंदर है, तेजस्वी है, कलात्मक है, साहित्यिक है, प्राकृतिक है, साँस्कृतिक है, वास्तविक है वह सब कहीं न कहीं, किसी ना किसी रूप में लोक में सुरक्षित है। लोक कथाएँ, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक साहित्य, लोक नाट्य, लोक समाज इसके जीवंत उदाहरण हैं- इनमें लोक रूप और लोक समाज बसे और बचे हुए(संरक्षित) हैं। दरअसल इन कलाओं में कल्पना के लिए कोई जगह नहीं होती और ना ही यह सब मनोविनोद के लिए होते हैं  बल्कि इनमें जीवन से जुड़ी सच्चाई, संवेदना और जीवन की बारीकियाँ छिपी होती हैं, जिन पर जीवन आधारित होता है और इसी 'आधार' में लोक और इसकी कलाओं की महती भूमिका और संवेदना होती है-  बशर्ते कि  जीवन की अंतरंगता से जुड़ी इस कला में बसी संवेदना को उसी गहराई से अनुभूता जा सके।

करीबन 25 साल से सक्रिय पत्रकारिता। लगभग 10 साल तक श्रीगंगानगर से निकलने वाले' दैनिक  प्रशांत ज्योति' के रविवारीय का साहित्य संपादन।  पिछले 8 साल से साहित्यिक और वैचारिक पत्रिका ' पूर्वकथन' का संपादन।

हंस, समयांतर, मीमांसा, अभिव्यक्ति,  समय माजरा,  युद्धरत आम आदमी, नवभारत जैसे स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर रचनाओं का प्रकाशन और दिल्ली दूरदर्शन, जयपुर दूरदर्शन और आकाशवाणी से प्रसारण। 

जनवादी लेखक संघ श्रीगंगानगर का जिला महासचिव,  प्रदेश कार्यकारिणी में संयुक्त सचिव और राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य।

संप्रति स्वतंत्र लेखन और भगवती गर्ल्स कॉलेज, लालगढ़ जाटान् में हिंदी साहित्य विभाग में अध्यापन।
संपर्क - 9829099479

टिप्पणियाँ

  1. लोक जीवन में कलायें अपनी अंतरंगता के रूप में विद्यमान रहती हैं | जिन लोगों ने बैलों द्वारा चड़स से पानी सींचने वाले गूणिये के दूहे सुने हैं वे समझ सकते हैं कि वहाँ कविता श्रम सौन्दर्य से एकरस हो जाती है | इसी प्रकार विवाहोत्सव या अन्य त्यौहारों के अवसर पर लिपे हुये आँगन में माँडणे, द्वार पर चित्रांकन या अहोई अष्टमी और दीवाली पूजन के कलात्मक चित्र सहजता से उकेरे जाते हैं | सुभाष सिंगाठिया ने पूरी तन्मयता से यह टिप्पणी लिखी है, उन्हें बधाई और मीमांसा को साधुवाद कि यह पढ़ने का अवसर दिया |

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो