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शिक्षा का अधिकार: एक आकलन


शिक्षा का अधिकार: एक आकलन

अम्बरीश राय




शिक्षा का अधिकार मंच (RTE Forum)शिक्षा में प्रणालीगत सुधार की नीयत से शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय करीबन 10 हजार संस्थाओं-संगठनों सामूहिक राष्ट्रीय नेटवर्क हैं- जिसमें शिक्षकों और शिक्षाविदों के संगठन भी शामिल हैं। भारत की संघीय संरचना के मद्देनजर राज्यों के मंच साझा अभियान की दिशा में मिलकर राष्ट्रीय मंच के तौर पर कार्य करते हैं। देश के 14 राज्यों में राज्य स्तर के मंच सक्रिय हैं जिनमें दिल्ली, उत्तराखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, उडीसा, आंध प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और पण्डिचेरी शामिल हैं। इनके अतिरिक्त आसाम, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के संगठनों /संस्थाओ के राष्ट्रीय फोरम से अनौपचारिक रिश्ते हैं।

राष्ट्रीय मंच का जोर शिक्षा के अधिकार कानून के देश भर में प्रभावी क्रियान्वयन को लेकर रहा है। मंच के सदस्यों ने राज्य सरकार के साथ आलोचनात्मक सम्बद्धता स्थापित की है ताकि शिक्षा को एक राजनीतिक एजेन्डा के तौर पर सामने लाया जा सके। साथ ही सामुदायिक सक्रियता और जागरूकता के लिए राज्य स्तर पर सकारात्मक दिशा में दबाव बनाने का प्रयास किया गया है। मंच के सदस्य प्रति वर्ष इकट्ठा होकर शिक्षा के अधिकार के क्रियान्वयन का राष्ट्रीय स्तर पर आकलन करते हैं। साझा संवाद के 2014 के सम्मेलन में देश के 19 राज्यों के करीब 600 संभागियों ने विमर्श में हिस्सेदारी की। तत्कालीन राजनीतिक माहौल को देखते हुए, इस बार शिक्षा के लिए एक जन अभियान की शुरूआत की गयी। यहां शिक्षा के अधिकार को राष्ट्रीय मंच संयोजक अम्बरीश  राय द्वारा कानून के क्रियान्वयन की ताजा स्थिति पर एक समेकित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
- संपादक


निश्चय ही शिक्षा का अधिकार कानून भारत के इतिहास में एक बडा प्रस्थान बिन्दु था तथापि इसकी कुछ गंभीर सीमाएं हैं। उदाहरण के लिए, यह सिर्फ छह से चौदह  साल तक के बच्चों तक ही सीमित है, छह वर्ष से छोटे और चौदह वर्ष से बडे बच्चे इससे बाहर रह गये हैं। इसी भांति, कानून में यह खुलासा नहीं किया गया कि अधिनियम में किये गये विभिन्न प्रावधानों के लिए जरूरी वित्तीय संसाधनों का स्रोत  क्या होगा। सार्वजनिक शिक्षा की ऐसी राष्ट्रीय  प्रणाली जो शैक्षिक गुणवत्ता को सुनिश्चित करती हो, उसके नियम और मानदण्ड तब तक अधूरे रहेंगे जब तक कि समान स्कूल प्रणाली का गठन नहीं किया जाये जिसके लिए 1968 और 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों ने अनुशंसा की है।

बहरहाल, अभी तक अधिनियम संसद द्वारा निर्धारित किये आवधिक लक्ष्यों (इसकी क्रियान्विति और कानून के मापदण्डों के अनुसार स्कूलों के सुधार को अर्जित करने में असफल रहा है।) अधिनियम के अनुसार अब आखिरी अवधि 2015 है जब तक सभी शिक्षकों को व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान कर दिया जाना हैं। ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम की प्रत्याशा में स्कूलों और वृहद् शैक्षिक ढ़ांचे में जो आमूलचूल रूपान्तरण होना था, वह अभी तक नहीं हुआ है। इस लिहाज से वैधानिक और संवैधानिक प्रतिबद्धिता के लिहाज से खुद राज्य की यह व्यापक असफलता चिंतनीय है। सरकार द्वारा जब 2013 तक के लिए निर्धारित लक्ष्य अर्जित नहीं किये गये तो 2015 तक के लिए निर्धारित लक्ष्य भी खतरे में पडे दिखते हैं।

बेशक विभिन्न राज्यों में (राज्यों की विशिष्ट बाधाओं के संदर्भ में) शिक्षा के अधिकार के अन्तर्गत मापदण्डों की शत-प्रतिशत उपलब्धि की स्थिति का स्तर अलग-अलग है। जबकि देश के सभी हिस्सों के समूचे शैक्षिक ढांचे में एक संकट समान रूप से मौजूद है। वर्तमान में किसी भी राज्य ने शिक्षा के अधिकार कानून के समग्र क्रियान्वयन के प्रति प्रतिबद्धिता का ठोस इजहार नहीं किया है।

शिक्षा का अधिकार मंच के इस बार के राष्ट्रीय साझा संवाद का जोर यह देखने पर था कि अधिनियम के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए राज्यों में किस हद तक आवश्यक संस्थागत तंत्र विकसित किया गया है। जबकि अधिनियम की आखिरी समय सीमा एक साल बाद समाप्त हो रही है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम में बच्चों  के  पडौस में सम्पूर्ण संरचना के  साथ  विद्यालयों की स्थापना, छात्र-शिक्षक अनुपात और अधिनियम की अनुसूची में वर्णित सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए तीन साल की अवधि (2013) निर्धारित की गयी थी। जबकि शिक्षकों को चयन और प्रशिक्षण के लिए पांच साल का समय (2015) प्रदान किया गया था।

शिक्षा का अधिकार मंच द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संवाद में प्रस्तुत प्रतिवेदन सरकारी सूचनाओं, शोध-अध्ययनों, मंच की राज्य इकाइयों द्वारा तैयार रिपोटों, क्षेत्र कार्य के दौरान प्राप्त अनुभवों और अखबार की खबरों जैसी स्रोत  सामग्री से तैयार किया गया था। इसके बावजूद किसी खुले और ठोस सूचना स्रोत  के बिना देश भर में अधिनियम के क्रियान्वयन की स्थिति का आकलन करना बहुत मुश्किल है।

शिक्षा का अधिकार मंच के कार्रवाई पक्षों की संगति में प्रतिवेदन को निम्न व्यापक मुद्दों पर आधारित किया गया है -

  •  प्रणालीगत विकास और शिकायत निवारण तंत्र
  •  सामुदायिक सहभागिता
  •  शिक्षकों से सम्बद्ध मुद्दे
  •  गुणवत्ता
  •  निजी क्षेत्र
  •  जोखिम और आपात स्थितियों में  बच्चे
  •  सामाजिक समावेशन

रिपोर्टों के अनुसार सभी राज्य और संघ शासित प्रदेश अधिनियम की अधिसूचना जारी कर चुके हैं जबकि 32 राज्य और संघ शासित प्रदेशों ने ही अधिनियम के  प्रावधानों के अनुरूप क्रियान्वयन की निगरानी के लिए निकायों का गठन किया है। विगत चार वर्षाे में हालांकि शिक्षा के बजट में लगातार बढोतरी हुई है लेकिन अभी भी यह 12वीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्यों तक नहीं पहुंच पाया है। बच्चे से जुडे पहलुओं, जैसे-उन्हे भयभीत नहीं करने, शारीरिक दण्ड नहीं देने, बोर्ड परीक्षा आयोजित न करने, निजी ट्यूशन पर रोक, भर्ती प्रक्रिया और केपीटेशन फीस पर रोक से सम्बन्धित प्रावधानों को अधिसूचित कर दिया गया है। क्रियाकलापों के संचालन और प्रबंधन के लिए देश भर के 88 प्रतिशत स्कूलों में शाला प्रबंध समितियां गठित की जा चुकी हैं। इससे जुडी अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियों में शिक्षक पात्रता परीक्षा (टी.ए.टी.) की संस्थागत प्रणाली विकसित करना, शिक्षक भर्ती के नियमों से संशोधन और प्रारंभिक शिक्षा के लिए 8 वर्षीय अवधि का पाठ्यक्रम शामिल हैं। शिक्षक प्रशिक्षण प्रणाली और अकादमिक समर्थन तंत्र में में सुधारों की पहल की गयी है। इसके बावजूद किसी ने राज्य भी शिक्षा के अधिकार के मापदण्डों को समग्रता से उपलब्ध नहीं किया है। अधिनियम के सभी 10 संकेतकों का पूरी तरह निवर्हन करने  वाले स्कूल केवल 8 प्रतिशत हैं।

प्रणालीगत विकास 

शिक्षा के लिए आवंटित बजट अधिनियम की सुचारु क्रियान्विति के लिए आवश्यक अनुमानित संसाधनों की तुलना में अभी भी बहुत कम है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 2013-2014 में 50 हजार करोड रूपये  की मांग की थी लेकिन इसे 27.248 करोड रूपये ही वास्तव में आवंटित किये गये। विगत वित्तीय वर्ष के दौरान बजट में कटौती कर दी गयी, अगले वर्ष में भी अतिरिक्त कटौती लक्षित की गयी। बजट राशि देर से जारी की जाती है और व्यय किये जाने की रफ्तार भी धीमी रही। एक अध्ययन (पी.एल.आई. एस.ए. 2012) के अनुसार भारत में सर्व शिक्षा अभियान के बजट की विगत वर्ष 70 प्रतिशत की तुलना में 62 प्रतिशत राशि ही खर्च की गयी।

हालांकि अनेक राज्यों में अधिनियम के अन्तर्गत शिकायत निवारण तंत्र की अधिसूचना जारी कर दी गयी है लेकिन एक ऐसे शिकायत निवारण तंत्र की तत्काल आवश्यकता है जो स्थानीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक सक्रिय हो। राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग सहित राज्योें के बाल अधिकार आयोगों की क्षमता पर भी इस वर्ष सवाल खडे हुए हैं। संघर्ष के क्षेत्रों में मुश्किल हालातों की वजह से अधिनियम क्रियान्वित नहीं हो पाता है। अनुशंसा है कि -

  •  शिक्षा पर बजट में बढोतरी (जी.डी.पी. का 6 प्रतिशत तक) करना ताकि शिक्षा के अधिकार कानून की क्रियान्विति के लिए अनुमानित जरूरी राशि का आवंटन सुनिश्चित किया जा सके। 
  •  एक सक्रिय शिकायत निवारण तंत्र के गठन की फोंरी आवश्यकता है।
  •  राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राज्य आयोगों की शक्तियों और क्षमताओं में वृद्धि की आवश्यकता है ताकि ये प्राप्त शिकायतों को तार्किक परिणति तक पहुॅचा सकें।
  •  शिक्षा का अधिकार अधिनियम को लेकर मध्यम स्तर के शिक्षा अधिकारियों के आमुखीकरण की आवश्यकता है ताकि वे इस संदर्भ में बेहतर भूमिका निभा सकें। 

सामुदायिक सहभागिता

इस अधिनियम की सफलता के लिए सामुदायिक सहभागिता की अहम् भूमिका है। स्कूल प्रबंध समितियों को लेकर वास्तविक आंकडे तो मिलते नहीं है। डी.आई.एस.ई. 2012-13 के अनुसार 88.37 प्रतिशत स्कूलों में शाला प्रबंध समितियां हैं। (इनमें दिल्ली में इनके गठन के लिए अधिसूचना ही मार्च, 2013 में जारी की गयी है और 6.93 प्रतिशत स्कूलों में ही शलाा प्रबंध समितियां गठित की गयी हैं। जबकि लक्षद्वीप में इनका शत-प्रतिशत गठन हो गया है।) सचाई यह है कि अधिकतर स्कूलों में शाला प्रबंध समितियां केवल कागजों पर बनी हैं और कार्यशील नहीं हैं। ऐसी स्थिति में वहां स्कूल विकास योजना और उसके क्रियान्वयन में जन सहभागिता की कल्पना ही नहीं की जा सकती और स्थानीय समूहों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो सकती। शाला  प्रबंध समितियों और राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग के मध्य वृहद अन्तराल है। इस प्रक्रिया में स्थानीय स्वशासी निकायों की सम्बद्धता को नकारा गया है। अतः  

  •  शाला प्रबंध समितियों को सुद्वढ करने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध करायें जायें। इनकी क्रियाशीलता पारदर्शी हो और इन्हे आगे लाने के लिए उपयुक्त तंत्र विकसित किया जाये।
  •  स्थानीय स्वशासी निकायों को शाला प्रबंध समीति से सम्बद्ध करने और हर स्तर पर इनके क्षमता वर्धन के लिए कार्य किया जाये।
  •  स्कूलों के संचालन और प्रबंधन में शाला प्रबंध समितियों की सक्रिय सहभागिता के लिए उन्हे सक्षम बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए आदिवासी और अनुसूचित जाति बहुल क्षेत्रों और उत्तर पूर्वी राज्यों में  स्थानीय स्वशासी प्रणाली पर इस संदर्भ में विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

शिक्षकों के मुद्दे

वर्तमान में शिक्षकों के पांच लाख स्वीकृत पद खाली हैं और 6.6 लाख कार्यरत शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाना है। ऐसे 37 प्रतिशत प्राथमिक स्तर के स्कूल हैं जिनमें छात्र-शिक्षक अनुपात राष्ट्रीय मापदण्ड 1:30 के विपरीत है। देश भर में छात्र-शिक्षक अनुपात में भारी विभिन्नता है, अण्डमान-निकोबार द्वीप में ये 1:10 है तो बिहार में 1:53 है। अभी भी देश में करीब 10 प्रतिशत स्कूलों में मात्र एक शिक्षक है जो कि शिक्षा का अधिकार का खुला उल्लंघन है। शिक्षकों को अभी भी गैर-शैक्षणिक कार्यों में लगा दिया जाता है। हालांकि शिक्षक प्रशिक्षण के लिए पहल की गयी है जिसमें शिक्षक प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा अभिदान शामिल है तथापि शिक्षण प्रशिक्षण प्रक्रियाओं में व्यापक बदलाव की जरूरत है। इधर केन्द्रीय शिक्षक पात्रता परीक्षा में एक प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक वृद्धि हो चुकी है।
  •  ये फोंरी तौर पर सुनिश्चित किया जाये कि कोई स्कूल एक शिक्षक का नहीं रहे। प्रधानाध्यपकों के साथ शिक्षकों की नियुक्ति पर विशेष ध्यान दिया जाये ताकि छात्र-शिक्षक अनुपात को अधिनियम की संगति में लाया जा सके। ये भी सुनिश्चित किया जाना है कि सभी शिक्षक प्रशिक्षित हों। 
  •  शिक्षक शिक्षा अभियान को गति और विस्तार देने की आवश्यकता है, साथ ही इसमें सेवा-पूर्व प्रशिक्षण प्रक्रियाओं को भी समाहित किया जाये। 
  •  शिक्षकों की इस पेशे में दीर्घकालिक प्रतिबद्धिता के लिए उनकी कार्य-स्थितियों में  सुधार पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
  •  शिक्षकों को अन्य शिक्षणेतर कार्यों से पूरी तहर मुक्त करने की जरूरत है ताकि वे पूरा ध्यान पढ़ाई पर दे पायें। उन्हे रिकार्ड संधारण और आवश्यक प्रशासनिक कार्यों में सक्षम बनाने के लिए सहयोग देने की जरूरत है। 
  •  शिक्षण विधियों, कक्षा अनुभव को समृद्ध बनाने और बेहतर नतीजे अर्जित करने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण की रूपरेखा, संदर्भ व्यक्तियों की तैयारी, स्तरीय प्रशिक्षण  संदर्भ सामग्री और प्रभावी मूल्यांकन में विशेष निवेश की जरूरत है। गुणवत्ता शिक्षा के लक्ष्य को सर्वांगीण रूप से प्राप्त करने के लिए शिक्षक की भूमिका में  गुणात्मक बदलाव की आवश्यकता है।

सामाजिक समावेशन

स्कूल से बाहर रहे कुल 22 लाख बच्चों में से 2013-14 में केवल 44 प्रतिशत बच्चों को ही स्कूल से जोडा जा सका। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार 31 मार्च 2013 तक कुल 32.19 लाख विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान की गयी थी। इनमें से 27.64 लाख बच्चे स्कूलों में नामांकित हो चुके हैं जिनके लिए 18358 संदर्भ शिक्षकों को नियुक्त किये जाने की आवश्यकता है। अभी भी स्कूलों में भेदभाव की प्रवृति कहीं न कहीं विद्यमान है जबकि केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय इसके विरूद्ध परिपत्र जारी कर चुका है। हिंसाग्रस्त और संघर्ष के क्षेत्रों में बच्चे स्कूल के बाहर रह जाने के लिए मजबूर हैं। अतएव-
  •  प्रत्येक बच्चे के शिक्षा के मूल अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए स्कूल से बाहर रहे बच्चे को सुस्पष्ट रूप से परिभाषित करने, उसके मानचित्रण और सतत् सम्पर्क बनाये रखने की जरूरत है।
  •  शिक्षा तंत्र में भेदभाव के रूपों की पहचान करने और इन्हे समाप्त करने के लिए शिक्षकों को इन पहलुओं पर सचेत करते हुए एक आचार संहिता लागू करने की आवश्यकता है।
  •  भदेभाव और बहिष्करण के मसलों को सम्बोधित करने के लिए जरूरी है कि स्कूल से सम्बद्ध अन्य भागीदारों के साथ वंचित समूहों के प्रतिनिधियों को भी महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में शामिल किया जाये। 
  •  बच्चों के विभिन्न समूहों की समता और समावेशन से सम्बद्ध मांगों को स्कूल विकास योजना में सम्मिलित करने और इनके लिए जरूरी प्रावधान करने की जरूरत है। प्रत्येक बच्चे की शैक्षणिक जरूरतों को शिक्षा का अधिकार पूरी करे- इस अवधारणा से ही समता को सुनिश्चित किया जा सकता है।
  •  सरकार को ऐसी जगहों पर नजर दौडाने की जरूरत है जहां बच्चे बाल श्रम में नहीं लगे होने पर भी स्कूल से बाहर हैं।

शिक्षा में निजी क्षेत्र

निजी स्कूलों की संख्या में निरंतर बढोतरी हो रही हैं। असर 2013 (ग्रामीण भारत) रिपोर्ट के अनुसार निजी स्कूलों में कुल बच्चों का नामांकन त्रिपुरा में 6.6 प्रतिशत से मणिपुर में 70.5 प्रतिशत के बीच है। 

हालांकि कुछ राज्यों में निजी स्कूलों के नियंत्रण के लिए सख्त नियम हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा का अधिकार अधिनियम में तय मापदण्डों के उल्लंघन पर निजी स्कूलों की शिकायतों के लिए कोई तंत्र स्थापित नहीं किया गया है। देश के 25 राज्यों ने निजी स्कूलों में गरीब बच्चों को 25 प्रतिशत आरक्षण बाबत अधिसूचना जारी कर दी थी। इनमें से 16 राज्यों की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2013-14 में वहां 25 प्रतिशत ने इसकी अनुपालना की है। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा राज्यों में व्यय के पुनर्भरण की वित्तीय आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए व्यय वित्त समिति का  गठन किया गया है। कुछ राज्यों में सरकारी स्कूलों के निजी क्षेत्र में हस्तान्तरण की खबरें हैं जिनमें मुम्बई, हरियाणा, उत्तराखंड और दिल्ली शामिल हैं। शोध रपटों में आय और निजी स्कूल के बीच एक सहसम्बन्ध उजागर हुआ है। यदि किसी परिवार की आय बढ जाती है तो वह अपने बच्चे को निजी स्कूल में भेजता है। ऐसे में गरीब  बच्चे सरकारी स्कूलों में ही बने रहते हैं। इस क्रम में निजी स्कूलों का ‘शिक्षा बाजार’ उत्तरोत्तर फैलता जा रहा है जो पिछले वित्त वर्ष में 3.83 लाख करोड रूपये तक पहुॅच चुका है। इस विस्तृत बाजार के नियंत्रण के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत राज्य स्तर पर नियमन तंत्र की अपेक्षा की जाती है। जरूरी है कि-

  •  निजी स्कूलों में शिक्षा का अधिकार अधिनियम के मापदण्डों की अनुपालना के लिए, यथा- समता के लिए 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्रवेश और भर्ती व फीस नियमन आदि को सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नियमन प्रणाली विकसित  की जाये। 
  •  सरकारी स्कूलों के निजी क्षेत्र में हस्तान्तरण पर तुरंत रोक लगायी जाये, साथ ही शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली को सुद्वढ बनाने पर पूरा ध्यान दिया जाये। स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता में बेहतरी के लिए शिक्षक और अभिभावक संगठित रूप से आगे  आयें। 

शिक्षा की गुणवत्ता

निश्चय ही भारत में प्रारंभिक शिक्षा की उपलब्धता (आज ग्रामीण भारत में 95 प्रतिशत आबादी के लिए एक किलोमीटर की परिधि में प्राथमिक स्कूल उपलब्ध है।) में उल्लेखनीय उपलब्धि अर्जित की है, नामांकन के लक्ष्यों की ओर भी बढ़े हैं लेकिन यह सब गुणवत्ता की कीमत पर है। केवल 10 प्रतिशत स्कूल ही शिक्षा का अधिकार अधिनियम के सभी मापदण्डों को पूरा करते हैं। समग्र एवं सतत् मूल्यांकन (सी.सी.ई.) को लेकर समझ स्पष्ट नहीं है और इसकी क्रियान्विति आधी अधूरी है। विशेष शिक्षण के उपक्रम प्रभावी नहीं रहे। पाठ्यपुस्तकों की आपूर्ति विलंब से की जाती है। पाठयक्रम और पाठ्यपुस्तकों में सुधारों की दिशा में अभी कुछ भी नहीं हुआ है।   इसलिए अनुशंसा है कि -

  •  देश भर के सभी स्कूल अधिनियम के मापदण्डों की अनुपालना में अपने आधारभूत ढांचे को विकसित करें और इसमें पिछडे जिलों पर विशेष ध्यान दिया जाये। स्कूलों से सभी मापदण्डों के आधार पर रिपोर्ट मंगवायी जायें।
  •  गुणवत्तापूर्ण शिक्षण प्रक्रियाओं के लिए पाठयपुस्तकों व शिक्षण सामग्री की सत्रारंभ में पहुॅंच सुनिश्चित करना जरूरी है।
  •  समग्र एवं सतत् मूल्यांकन (सी.सी.ई.) को पद्धतियों की समीक्षा जरूरी है। इसे लेकर शिक्षकों की तैयारी अनिवार्य है। इस मूल्यांकन को लेकर एक व्यापक समझ और सर्वसम्मति बनाकर आगे बढना आवश्यक है।
  •  विशेष शिक्षण के लिए आवश्यकता और तरीकों के हिसाब से वित्तीय प्रावधान भिन्न हो सकते हैं। लेकिन राज्य शिक्षा व्यय अथवा सर्वशिक्षा अभियान की गाइड लाइन में ऐसे खर्च के लिए जरूरी और उचित प्रावधान होने चाहिए। 

ऐसा कोई अग्रणी राज्य उभर कर नहीं आया है जिसने शिक्षा का अधिकार अधिनियम के सभी मापदण्डों को अर्जित कर लिया है। किसी भी राज्य की सत्ताधारी पार्टी ने भारतीय बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के संकल्प को मूर्त  रूप देने की कोशिश नहीं दर्शायी है। ऐसे में अभी तक प्राप्त सफलताओं के नींव पर शिक्षा का अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए जमीन तैयार करनी होगी। इसके लिए राष्ट्रीय जन अभियान की जरूरत है। बच्चों को स्कूलों की सार्वजनीन उपलब्धता, ठहराव और गुणवत्ता पूर्व शिक्षा से ही प्रांरभिक शिक्षा का सार्वजनीकरण संभव है जो लिगं, सामाजिक श्रेणी और क्षेत्र की सापेक्षता में है। इस प्रतिवेदन में दी गयी अनुशंसाएं  कुछ जरूरी पहलुओं को इंगित करती हैं जिनकी जमीनी स्तर पर समीक्षा करते रहने की आवश्यकता है। इस जन अभियान में जन समूहों, नागरिक समाज और सरकार के बीच अनवरत् संवाद और सहकार की दरकार है।           







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दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो