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बिजौलिया: जमीनी हालात

डायरी

बिजौलिया: जमीनी हालात

सरिता अरोड़ा



हम बूंदी जिले के तालेडा विकास खण्ड के डाबी क्षेत्र में एक समूह को अकादमिक सहयोग देने के सिलसिले में जाते रहते थे। इसके लिए पहले बूंदी से आना-जाना रहता था। फिर बिजौलिया में रुकने लगे। यह क्रम विगत दो-तीन वर्ष चलता रहा। इस दौरान हमने बिजौलिया के इर्द-गिर्द के जमीनी हालात देखने और वहां की समस्याओं को समझने की कोशिश की। बिजौलिया में महान नेता विजयसिंह पथिक की अगुवाई में स्वातंत्रय-संघर्ष के दौरान ख्यात किसान-आन्दोलन हुआ था। हमारी यह भी उत्सुकता थी कि अपने निकट इतिहास के प्रति लोगों के नजरिये को जाना जाये। वर्तमान में डाबी की तरह बिजौलिया भी खनन-क्षेत्र है। हमने पता करने की कोशिश की कि इससे स्थानीय लोगों की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जिंदगी पर क्या फर्क पडा है। साथ ही वे पारिस्थिकीय परिवर्तन को कैसे देख रहे हैं। यहां फील्ड डायरी के कुछ अंश प्रस्तुत हैंः

 20.01.2011 

मण्डौल बांध बूंदी रोड पर स्थित है। यह करीबन एक किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। यह अरावली की उपत्यका में स्थित एक खूबसूरत जगह है। बांध का परास क्षेत्र पहाडियों से विपरीत दिशा में तीन किलोमीटर में विस्तारित है। इस तरफ चारागाह क्षेत्र में चट्टानों की एक श्रृंखला है।  इसे राॅक गार्डन की तरह विकसित किया जा सकता है जो इस क्षेत्र में पिकनिक स्पाॅट की कमी को पूरा कर सकता है। मेनाल प्रपात को जाने वाले पर्यटक भी यहां आ सकते है। इस क्षेत्र में ऐसी कोई सार्वजनिक जगह नहीं है जहां परिवार के लोग सुकून के लिए आ सकें। बांध के सामने फैली प्राकृतिक चट्टानों की इस अद्भुत श्रृंखला के समक्ष भी भू-माफियाओं के अतिक्रमण का खतरा मंडरा रहा है। 

मण्डौल बांध का पानी स्वच्छ और पारदर्शी है। इसी से बिजौलिया के लिए पेयजल की आपूति होती है। बांध से एक छोटी नहर के जरिये भगवतपुरा पंचायत के गांवों में सिंचाई के लिए भी पानी छोडा जाता है।

मण्डौल गांव बांध के तट पर बसा है। यह मीणा और भील आदिवासियों की छोटी-सी बसाहट है। गांव में घरों की हालात देखकर ही इनकी आर्थिकी का अंदाजा लगाया जा सकता है। बांध के किनारे पर ही मण्डौल का राजकीय प्राथमिक विद्यालय है। हमने इस स्कूल का अवलोकन किया। ये एकल शिक्षक स्कूल है। हम पहुॅचे तब 18 बच्चे शिक्षक के आने और स्कूल के खुलने के प्रतीक्षा कर रहे थे। 11 लडके और 7 लडकियों में से कुछ बाहर खेल रहे थे। अभी पूर्वान्ह 10:45 am  हुए थे लेकिन शिक्षक नहीं आया था। बांध के सामने की तरफ बूंदी रोड से एक किलोमीटर अंदर लक्ष्मी खेडा गांव है। बूंदी रोड से अंदर की तरफ जो सडक जाती है वहां चाय की दूकान है। दूकान पर हमारी मुलाकात लक्ष्मी खेडा गांव के पन्नालाल धाकड (48) और छीतरमल से   होती है। वे बताते हैं कि इस क्षेत्र में धाकड समुदाय बहुसंख्यक है। धाकडों के यहां 72 गांव हैं। धाकड अन्य पिछडा वर्ग में आते हैं। पथिक जी के आन्दोलन में भी इन लोगों की मुख्य भूमिका थी। 

राजस्थान में देखा गया है कि जिस क्षेत्र में जो जाति समुदाय बहुसंख्यक है वही वर्चस्वशाली भी है। लेकिन धाकड समुदाय इसका अपवाद लगता है। ये अभी भी शिक्षा में पिछडे हुए हैं इसलिए इनका प्रशासन या उच्च सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। लक्ष्मी खेडा भी धाकडों का गांव है जहां तीन परिवार रैगर (दलित) समुदाय के हैं। गांव में सरकारी उच्च प्राथमिक स्कूल है। यदि कोई बच्चा इससे आगे पढ़ना चाहे तो उसके सामने यही विकल्प है कि वह बिजौलिया पढने जाये। लक्ष्मी खेडा से बिजौलिया की दूरी तीन किलोमीटर है।

भगवतपुरा गांव की आबादी ग्वाल, बंजारों, भील और बलाई समुदायों का सुदंर संयोजन है। खेराडिया गांव की आबादी भी मिश्रित  है। यहां गुर्जर, दरोगा और राजपूत जाति समुदाय हैं। जबकि देवरी की नून में केवल धाकड समुदाय के लोग हैं।

मंदाकिनी मंदिर बिजौलिया की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर है। यह केन्द्रीय पुरातत्व विभाग की ओर से 1956 से संरक्षित सम्पदाओं में  अधिसूचित है। लेकिन मंदाकिनी राजस्थान के पर्यटन मानचित्र पर नहीं है। इसे मेनाल प्रपात के पर्यटन मार्ग में सम्मिलित करना चाहिए।
गोविन्द सागर एक कृत्रिम बांध है जो बिजौलिया के उत्तर की ओर भीलवाडा रोड पर स्थित है। इसके एक तरफ विंध्यवासिनी माता का प्राचीन मंदिर है। बिजौलिया की राजमाता बिजासनी (विंध्ववासिनी) माता की भक्त थीं इसलिए उन्होने यह मंदिर स्थापित करवाया। राजमाता ने ही अकाल राहत कार्यों के रूप में गोविन्द सागर बांध बनवाया। बिजौलिया के विद्वान बैजनाथ शांडिल्य बताते हैं कि ये बांध विक्रमी संवत 1996 में बनवाया। अकाल के कारण जब लोग यहां से पलापन करने लगे तो राजमाता ने अपने गहने बेचकर राहत कार्य शुरु कराये और यह बांध बना। इसने बिजौलियाॅं की न केवल बाढ से सुरक्षा की है बल्कि इसके कारण बिजौलिया के कुएं-बावडियों का जल-स्तर भीषण गर्मियों में भी ऊपर रहता है और लोगों को पीने का पानी उपलब्ध हो जाता है। 
वर्तमान में गोविन्द सागर बांध प्रशासन की ओर से पूरी तरह उपेक्षित है। बांध के तट पर ही हिन्दुओं का श्मशान और मुस्लिमों का कब्रिस्तान है। बांध का पानी बुरी तरह प्रदूषित है। लेकिन जैसा कि कहा गया, इस बांध की बिजौलिया के पारिस्थिकी संतुलन में अहम् भूमिका है। बिजौलिया उत्तर-पश्चिमी ढाल में बसा है, इसके चलते तेज वर्षा होने पर पानी बहकर इधर ही आता था। बांध ने इस पानी को  रोक   दिया है। इसके चलते बिजौलिया का जल-स्तर ऊपर आ गया है और हरियाली  बढ़ गयी है। नजदीक ही स्थित रानी जी के बाग की खूबसूरत हरियाली के पीछे बांध की नमी है। बिजौलिया के बुजुर्ग दलपत सिंह (पूर्व सरपंच), किशन सिंह और राधेश्याम गोविन्द सागर को बिजौलिया के कुएं-बावडियों के लिए वरदान मानते हैं। 

यदि हम जनगणना के आंकडे और दूसरी सरकारी रिपोर्ट देखें तो बिजौलिया कलां में शिक्षा और विकास के आंकडे बेहतर नजर आयेंगे। लेकिन जमीनी हकीकत इन आंकडों से काफी भिन्न है। असल में बिजौलिया एक कस्बे के रूप तेजी से विकसित हो रहा है। यहां खनन क्षेत्र में बाहर से आने वाले विपन्न समुदायों की तादाद बढ़ती जा रही है। बिजौलिया के चारों तरफ हम ऐसी वंचित बस्तियों का फैलाव देख सकते हैं। इनमें से अधिकांश परिवारों के पास राशन कार्ड और बी.पी.एल.कार्ड नहीं हैं। इसके चलते ये लेाग गरीबों के लिए संचालित सरकारी योजनाओं के अन्तर्गत भी नहीं आते हैं। यहां तक कि इनकी बस्तियां भी तकनीकी रूप से अतिक्रमण ही हैं। ये बिजौलिया के बढ़ते शहरीकरण की मलिन बस्तियां हैं।

इन्दिरा नगर ऐसी ही एक कच्ची बस्ती है। यहां रैगर, लुहार और बावरी समुदाय के परिवार एक दशक से अधिक समय से रह रहे हैं। इस बस्ती से एक भी बच्चा स्कूल नहीं जा रहा है। इनमें से किसी को जमीन का आवासीय पट्टा नहीं मिला है। 

बिजौलिया के इर्द-गिर्द बसे अधिकांश गांवों में विभिन्न जाति समुदायों की आबादी है। मसलन बिजौलिया से पांच किलोमीटर दूर बसे केशव विलास गांव में राजपूत, भील, तेली, मीणा और किराड समुदाय हैं। जवादा गांव में रैगर, मीणा और धाकड समुदाय हैं। कुछ गांव इसके अपवाद भी हैं। कालबेलिया समुदाय का रामपुरिया ऐसा ही गांव है। कालबेलिया पारंपरिक रूप से सांप दिखाने के काम करने वाला घूमंतू समुदाय है। संगीत और नृत्य के हिसाब से इस समुदाय की समृद्ध परंपरा रही है। इस समय कालबेलिया समुदाय एक मुश्किल दौर से गुजर रहा है। रामपुरिया में इस समुदाय के लोग घास-फूंस की झोपंडियों में रह रहे हैं। यहां एक सरकारी प्राथमिक स्कूल है लेकिन शिक्षक की अनुपस्थिति के चलते यह बंद है। कालबेलिया समुदाय के वृद्व जन भीख मांगते हैं जबकि युवक युवतियों ने खान मजदूरी को अपना लिया है। हमने गायत्री  नगर, विक्रमपुरा, बनी, मानपुरा और थडोरा गांव का भी भ्रमण किया। थडोरा गांव में गोपाल जी (35) और जगदीश जी (34) से बात की। थडोरा ग्राम पंचायत है जिसमें एक सरकारी सैकन्डरी स्कूल है।

 02.02.2011

अगली बार पहले हम विक्रमपुरा गये। इस गांव में धाकड, गुर्जर, रैगर, भील और बरगी जातियों के करीबन सौ परिवार हैं। यहां हमने जैराम धाकड, रामलाल भील और पन्नालाल रैगर से बात की। इन्होने हमें गांव में सरकारी उच्च प्राथमिक विद्यालय, आंगनबाडी केन्द्र, उप स्वास्थ्य केन्द्र और सहकारी समिति की स्थिति के बारे में बताया। उन्होने इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली केा लेकर अपने गुस्से का इजहार किया। गांव के लोगों के पास खेती के लिए जोत की भूमि बहुत कम है इसलिए अधिकांश लोग कृषि और खान मजदूरी पर निर्भर हैं। खानों में मिलने  वाला काम स्थायी नहीं हैं। नरेगा में भी इन्हे पर्याप्त कार्य दिवसों का काम नहीं मिलता है। गायत्री  नगर और लक्ष्मणपुरा विक्रमपुरा पंचायत में ही आने वाले छोटे गांव हैं।  जिनमे क्रमशः 40 और 60 परिवार रहते हैं। कामा विक्रमपुरा पंचायत का अपेक्षाकृत एक वडा गांव है। इसमें भील, गुर्जर, रैगर, बलाई, ब्राहमण और बैरागी जाति समुदायों के करीबन 120 परिवार हैं। यहां के राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय के छह शिक्षकों में एक महिला है। आंगनबाडी केन्द्र भी इसी स्कूल परिसर में स्थित है। इस स्कूल में 300 बच्चों का नामांकन है। हमारे वहां रहने तक (10:50 पूर्वान्ह) सिर्फ एक शिक्षक स्कूल पहुॅचा था।

हम उमाजी का खेडा गांव गये। बिजौलिया किसान आन्दोलन के इतिहास में इस गांव की महत्त्वपूर्ण जगह है। यह गांव विजय सिंह पथिक का मुख्यालय था। वैसे यह आदिवासी नेता माणिक्य लाल वर्मा का मूल गांव है। इस बडे गांव में धाकड, किराड, अहीर, भील और पुरोहित समुदाय के लोग रहते हैं। यहां हमने गांव की बाहरी सडक के दोनों तरफ स्थित दो सरकारी स्कूलों का अवलोकन किया। इनमें से एक सरकारी प्राथमिक स्कूल पास के उदयपुरिया गांव से सम्बद्ध है। यह एकल शिक्षक विद्यालय है। शिक्षक लीला पारासर बच्चों के साथ शिक्षण में सक्रिय थी। पोषाहार बनाने वाली कार्यकर्ता  भी उन्हे शैक्षणिक कार्यो में सहयोग कर रही थी। संयोग से दोनों ही स्कूलों में 42-42 बच्चे उपस्थित थे। उमा जी का खेडा में एक सरकारी माध्यमिक स्कूल है जिसमें दो-तीन किलोमीटर तक की दूरी से लडकियां भी पढ़ने आती है। शिक्षकों ने बातचीत में बताया कि अभी बहुत से बच्चे स्कूल से बाहर हैं या पढाई बीच में छोड कर खानों के काम में लग जाते हैं।

हम फिर से रामपुरिया कालबेलिया बस्ती में गये। रामपुरिया वस्तुत तीन बस्तियों में विभाजित हैः भैरों जी की पठारी (8 परिवार), किशनपुरिया (40 परिवार) और रामपुरिया (10 परिवार)। इनमें से केवल 8 परिवार बी.पी.एल. में चयनित हैं। इन्हे भी बी.पी.एल. के अन्तर्गत किसी सुविधा का शायद ही कोई लाभ मिला है। यहां कोई आंगनबाडी केन्द्र भी नहीं है। इनके पास राशन कार्ड हैं जिनसे इन्हे कभी-कभार केरोसीन तेल ही मिल पाता है। एक कालबेलिया महिला मोतिया बाई ने हमें बताया कि वे लोग पिछले 40 सालों से वोट डालते आ रहे हैं लेकिन उन्हे अभी तक कोई नागरिक अधिकार हासिल नहीं हैं। यहां लगे हैण्ड पंप में पानी नहीं आता है। हमने फिर से पाया कि स्कूल में शिक्षक अभी भी अनुपस्थित था और दो बच्चे वीणा (7) और चांद (6) दोपहर के भोजन की प्रतीक्षा में स्कूल के बाहर खडे थे। पता चलाकि इस स्कूल में 40 बच्चे नामांकित हैं।

कालबेलिया समुदाय के पारंपरिक मुखिया कान्हानाथ, कालूनाथ और चितानाथ निष्क्रिय हैं। जुझारू महिला मोतिया बाई ही अब वास्तव में कालबेलिया समुदाय का नेतृत्व कर रही है। कुछ कालबेलिया परिवारों के पास नरेगा के जाॅब कार्ड हैं लेकिन इन्हे मनरेगा में 50 दिन के लिए भी काम नहीं मिला है। हमने बिजौलिया के सरपंच चांदमल जैन से बात की। उन्होने क्षेत्र में विकास कार्यों को लेकर अपने प्रयासों के बारे में बताया। उनके सचिव ने हमें इनसे सम्बन्धित आंकडे प्रस्तुत किये। सरपंच ने हमें अपनी समस्याएं बताईं और कहां कि प्रशासन ने इस क्षेत्र को पूरी तरह से उपेक्षित कर रखा है। खनन कार्य ने क्षेत्र में कई नयी समस्याएं पैदा की हैं। लेकिन इन समस्याओं को निपटाने के लिए पंचायत के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। हम सरकार से लगातार यहां एक सरकारी काॅलेज खोलने की मांग कर रहे हैं। इसके लिए हमने पर्याप्त भूमि का आवंटन भी कर रखा है। बिजौलिया में एक बडे अस्पताल की भी जरूरत है।

हमने उन्हे सुझाव दिया कि बिजौलिया के शहरीकरण और आबादी को देखते हुए यहां नगरपालिका के लिए मांग क्यों नहीं उठायी जाती है। इसका सरपंच व सचिव दोनों ने विरोध किया। उनका कहना था कि ग्राम पंचायत को नगरपालिका से ज्यादा बजट मिलता है। हालांकि वे इससे सहमत थे कि उन्हे कस्बे के विस्तार के मद्देनजर नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त बजट का आवंटन नहीं किया जाता है। ऐसे में सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत के संरक्षण की तो बात ही बेमानी है। बिजौलिया के एक प्रमुख बुद्विजीवी विजयनाथ सनाढ्य ने हमें यहां के इतिहास, पारिस्थिकी और मौजूदा चुनौतियों पर विस्तार से जानकारी दी। उनका मत था कि हमें बिजौलिया की पुनप्रतिष्ठा और विकास के लिए एक और जन आन्दोलन की आवश्यकता है। यही शायद इस चर्चा का निष्कर्ष था।

26.02.2011
इस बार हमने अमेरिकी नृतत्त्वशास्त्री एन.गोल्ड के साथ इस क्षेत्र का भ्रमण किया। एन.गोल्ड न्यूयार्क में एथिका की रहने वाली हैं और साराकास विश्वविद्यालय में नृत्वत्वशास्त्र की प्रोफेसर हैं। वे फुलब्राइट फैलोशिप के अन्तर्गत भीलवाडा के इस क्षेत्र की पारिस्थिकी और संस्कृति का अध्ययन कर रही हैं । जहाजपुर के रहने वाले सरकारी शिक्षक भोजूराम एन.गोल्ड को शोध में सहायता कर रहे हैं। वे भी हमारे साथ मौजूद थे। हम लोगों ने साथ में मंदाकिनी, मंदिर गोविन्द सागर और मण्डौल बांध, रानी का बाग और बिजौलिया किले का भ्रमण किया। एन.गोल्ड ने कस्बे की पारिस्थिकी प्रणाली की सराहना करते हुए इसके क्षरण में चिंता जाहिर की। उन्होने  बताया कि इससे गंभीर पर्यावरण असंतुलन पैदा हो सकता है। एन ने इन्दिरा नगर और कालबेलिया बस्ती को भी देखा और मोतिया बाई से मिलीं। उनके साथ हमने बिजौलिया और भगवतपुरा के सरपंच से मिलकर प्राकृतिकं चट्टानों के संरक्षण पर लम्बी बात की। हालांकि दोनों जन प्रतिनिधि अपनी हताशा ही जाहिर कर रहे थे।
बूंदी की तरह बिजौलिया में भी लघु चित्रकला की समृद्ध परंपरा रही है। लेकिन किसी तरह के सहयोग और समर्थन के अभाव में यह मूल्यवान कला भी पृष्ठभूमि में जा रही है। बिजौलिया की  गलियों में मिनियेचर कला के स्टुडियों में काम करते कलाकारों koकी उदासी और चिंता हमारे पर भी तारी होकर रह जाती है। 

(सरिता अरोडा समान्तर में कार्यरत हैं। इन यात्राओं में राजाराम
 भादू और कभी-कभी बूंदी के रामसिंह भी उनके साथ रहे।) 

सरिता अरोड़ा
सरिता अरोड़ा समाजशास्त्र में परास्नातक हैं। इन्होंने एक दशक से अधिक समय समान्तर में किशोरी सशक्तिकरण, प्रशिक्षण, संदर्भ- सामग्री निर्माण और प्रलेखन कार्य किया है। अभी बंगलौर के एक संस्थान के कार्यों का स्थानीय समन्वयन कर रही हैं। मीमांसा की मोडरेटर हैं।
संपर्क :8619725711
ईमेल arorasarita466@gmail.com







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शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत

कविताएं - सुभाष सिंगाठिया

सुभाष सिंगाठिया ने शिक्षा में ‘हिन्दी साहित्यिक पत्राकारिता और स्त्री विमर्श’ पर लघु शोघ व ‘हिन्दी स्त्री-कविता में स्त्री-स्वरः एक विमर्श’ पर स्वतंत्र शोध किया। इनकी रचनाओं के दिल्ली दूरदर्शन, जयपुर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर प्रसारण हुये हैं। सुभाष ने वर्षो ‘प्रशान्त ज्योति’ के साहित्यिक परिशिष्ट का संपादन किया। अभी तक साहित्यिक पाक्षिक ‘पूर्वकथन’ के संपादन में संलग्न हैं। सम्पर्क: 15 नागपाल कॉलोनी, गली नं. 1, श्रीगंगानगर- 335001 मो.: 9829099479  प्रसि( आलोचक स्व. शुकदेव सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कविता मूलतः और अंततः भाषा होती है। कवि सुभाष सिंगाठिया की कविता पढ़ते हुए यह बात बरबस याद आ गयी। हांलाकि शुकदेव सिंह ने अपनी बात को खोलते हुए इसी साक्षात्कार में कविता में विन्यस्त संवेदना, विचार, सौंदर्यशास्त्र आदि की भी बात की थी किंतु उनकी कही ये पंक्ति आज भी मेरे जेहन में कांेधती हैं। सोचता हूं कविता को अंततः और मूलतः भाषा मानना कविता की आलोचकीय दृष्टि के चलते कहां तक न्याय संगत है? सुभाष सिंगाठिया की कविताओं में भाषा अपनी व्यावहारिकता में अंशिक सघन, गूढ़ और संस्कारित नज