सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सारिका पारीक 'जुवि' की कविताएँ

संभावना
सारिका पारीक 'जुवि' की कविताएँ रहस्य के एक अपरिभाषित आवरण से ढंकी रहती हैं। इनमें अन्तर्मन पर पडी यथार्थ की प्रतिच्छाया और प्रति- छवियां हैं। उन्हे समझ सकना थोडा मुश्किल होता है लेकिन उसी से जुवि की कविताओं के पाठ का रास्ता खुलता है।
इन कविताओं में दि ब्लडी कर्स का अभिशप्त अंधेरा है। कैसी विडम्बना है कि जुवि जैसी युवा कवि की कविताओं में मृत्यु की छाया जहां- तहां डोलती रहती है। यह अलग बात है कि इसी के कन्ट्रास्ट में वहाँ जीवन दीप्तिमान है। कविता और सृजन के प्रति जुवि का दृढ विश्वास चकित करता है और इससे उपजे बिम्ब एक ऊष्म और आवेशित प्रतीति से हमें आच्छादित कर देते हैं।


मैं मसखरा बनना चाहती थी
-----------------------------------

शीर्षाशन पर पहुँचकर
आइने में जब अपना  
बालिश्त जितना ही प्रतिबिंब देखा
एक सेकंड को विचार आया
नदियों का अस्तित्व सागर है
आंखों का खारा पानी कहां जाता होगा ?
शुभ अश्लेषा नक्षत्र में 
क्यों न आंखों को उसका पानी लौटा दिया जाएं
तेरा तुझ को अर्पण वाली तर्ज़ पर 
निस्सारता जब चरम शिखर पर हो
ऐसी ही अंट - शंट बिंब प्रज्वलित होते है
और प्रस्फुटित होता है 
व्यंग , ठहाका , अट्टहास.......
चूंकि विकृतियों में लिप्त मनुष्य के लिए
हँसना  अनैसर्गिक क्रिया था
मैं मसखरा बनना चाहती थी
अडूहल के फूलों से सुसज्जित स्यंदन पर तुरही बजाती
किसी शातिर मसखरे की माफ़िक
मेरे ठहाकों को गुरुत्वाकर्षण का वरदान मिल जाएं तो ?
आंतरिक समुचें दुख  मुंह से फेन बनकर बह निकलें
रजनी किंकरी बन द्वार पर गीत गुनगुनाती रहें
अफलातूनी अकल्पनीय अव्यवस्थित कल्पनाएं
चेतना लौटने के बाद
किसी अमर्त्य बीजक के खुरों से 
उड़ती विचारों की गर्द  भर ही  है ........

( सभी चित्र- अमित कल्ला )

मुझे मृत्यु भोज चाहिए
----------------------------

पहली बार मरने की जब सोची थी
सारूप्य
पहली बार लिखनें की भी सोची होंगी
दोनों ही विकल्प समदर्शी थे
जीने के लिए लिखना श्रेयस्कर था
जीवन का एकमात्र मूलमंत्र 
अलभ्यता सर्वश्रेष्ठ मानी गई
और कमतर दुत्कार दिया गया
इस भेड़चाल की शुरुआत किसने की ?
चींटी के मरने पर शोक नहीं हुआ करते
गधे बोझ ढोते ढोते कब दफना दिए गए किसी ने नहीं देखा
सिंधु घाटी सभ्यता में चींटियों की प्रार्थना सभाएं
गधों के मृत्यु भोज की कहीं व्याख्या नहीं
किंतु मुझे मृत्यु भोज और प्रार्थनाएं दोनों ही चाहिए
क्योंकि कविताएं ही वो चकमक पत्थर  थी
जिसनें गीली लकड़ियों को बुझने नहीं दिया
जिनकी कोई वृति नहीं थी
शोक सभा में उनकी कविताएं पढ़ी जाएंगी ....

एक नई उड़ान
-----------------

सबसे ज़्यादा
कविताएं
नींद न आने पर लिखी जाती होंगी
बगैर कोई आडम्बर के
तारों में लिपटी
प्रथम मिलन की रात्रि सी
लजाती सकुचाती
अबोल भावनाएं
रात्रि का वह अंतिम पहर
जब  मंदिरों के द्वार पर लटका
मनौतियों के सिंदूर से लीपा - पुता ताला
स्वयं के अस्तित्व की गणना कर रहा होता है
कितना धर्म शेष रह गया हैं ?
सामने फुटपाथ की दीवारों पर एक बच्चा
पक्के पेंट से रंगता
देश की प्रगति का कोई नया नारा
इन सारे मसलों  में खोया
दड़बे पर पड़ा
कनस्तर सा
सफेद पन्नों पर  अपनी वैमनस्यता
सिंचन करता
आत्मउन्नति हेतु
कलम से उड़ेल देना चाहता है
जो भोगा है उसने
निरुद्वेग हो
शेष निद्रा को आत्मसमर्पण कर
अचिर अवस्था में
अपने शब्दों से
चरम सूख को प्राप्त
कल्पना करता है
कुछ नए  संकल्पों का समाज
तिरोहित होती मानवता को
सबल होने की
अपने शब्दों को देने
एक नई उड़ान ...



मैं केवल लिख सकती हूं
----------------------------

दिमाग रिक्त
उंगलियां जड़ होने लगी है
ऊपर देखती हूं 
किसी बड़े सल्लुलोइड स्क्रीन पर
तुम नज़र आते हो
मेरे होंठ
तुम्हारें होठों पर 
तब तक 
समर्पित रहते है
जब तक उन्हें
किसी एंटीक फ्रेम में 
मड़ न लिया जाएं
हाथ की 
जकड़ हल्की न हो
जब तक मैं कलम न उठा लूं
कुछ लिखनें न लगूं
मैं केवल तुम्हें देख सकती हूं
सफेद पर्दे पर
तुम्हारा हँसना
और मुझे हँसाना
बाकी सारी दुनिया
खाली हो चुकी है
केवल हमारी आवाज़ें 
एक दूसरे से टकराकर
परस्पर मिल रही है
आंखें बंद है
मैं केवल लिख रही हूं
मेरे रोज़नामचों के किस्सों में
अब एक ही रील
अनवरत घूमती जा रही है
मैं खुश हूं
तुम्हारी ज़मीन पर
एक सुरक्षित सुखद अनुभव कर पाती हूं
मेरे अधखुले तितर बितर पंख
तुम्हें समेटना चाहते है
लिखना चाहते है
एक अपूर्ण पूरक प्रेम
जिसकी संतुष्टि 
मात्र तुमको सोचने में है
क्योंकि
तुम वेदना से उपजा 
समग्र निरंजन 
शाश्वत 
केवल प्रेम भाव भर  हो .....


दो ग़ज़ ज़मीन
----------------

प्रायश्चित 
हर बार चूक गया
आत्मा के प्रारब्ध में विद्रूपता की लकीरें हो तो
मिट्टी अनगढ़ ही धरी रह जाती है
भाव रिक्त कच्चे घड़े की भांति
उन पर चस्पाई हुई  गंदी झूठी उंगलियों के दाग़
एल्युमीनियम के तारों से हज़ार बार घिस चुकने के बाद भी
अरे ! और मैली हो गई
कोई ठौर नहीं
भौचकी सी
अधिरोपित चेतना के विदीर्ण स्वर
आह ! रक्षा देव
" कोरी चुनरिया आत्मा मोरी"
कोरापन अब मुक्ति की अच्च्युत अभिलाषा में
मांग रहा हाथ फैलाए
दो गज जमीन और मुट्ठी भर फूल


मेरी सबसे उदास कविताएं
----------------------

" द ब्लडी कर्स "
अंधेर घुप्प कमरें में
आवाज़े तैरती है
इनका कोई अर्थ नहीं
काली कथाओं की 
उज्ज्वल उदासियां
जिनकी दैविक संवेदनाओं के पास
कोई भाषा नहीं
वो रो सकती है
या लिख सकती है
मेरी कविताओं ने सारे आंसू चुरा कर
किसी निशाचर को
सस्ते दामों पर बेच दिए
रोना भूलकर कोई कब तक जिंदा रह पाएगा
घृणित कलुषित कविताओं का पोथा
जिनका कोई मैटर नहीं
अब मोटी दुखद डायरी बनती जा रही है
आस्थाओं का अडिग आधारस्तंभ
जो हमेशा दुख की हथेली पर पनपा
और फलता फूलता गया
इस श्वेत आत्मा को
विखंडित कर
खंडों में प्रेषित नहीं किया जा सकता
किताबें बिकने के लिए लिखी गई
लेकिन आत्मओं के विदीर्ण स्वर कौन पढ़ेगा ?
घातक सपनों की मेरी सबसे उदास कविताएं....


सपनों की श्रंद्धाजलि
---------------------
कभी पंखा देखा है ?
चारों पंख हाथ मिलाएं
अपना जड़त्वीय मान भंग नहीं होने देते
अपनी आवृत्ति के भीतर
स्वछंद विचरण करता
मानों चक्की चला रहा हो
देह का नमकीन पसीना
सुखाने का भरसक प्रयास
किंतु पेट की जठराग्नि 
शांत नहीं हो पा रही
बच्चियां गोल गोल रानी खेल रही है
घेरदार चुन्नटों से भरा फ्रॉक
घूम रहा अपनी खिंची भूरी पर
रेखा से बाहर निकली
और आउट .....
अर्थात सारांश यही था
किंतु
चलते पंखे के बीच औचक गौरैया का आना
चक्की में गेहूं के साथ घुन

घूमती गुड़िया को परे ढकेल देना
सब प्रारब्ध था ?
कितना दुखद था
प्रारब्ध के नाम पर
सपनों को श्रद्धांजलि देना...

सारिका पारीक ' जुवि'


रामगढ राजस्थान में जन्मी सारिका पारीक 'जुवि ' वर्तमान में मुंबई में रहती हैंं । प्रमुख पत्रिकाओं ,वेब पोर्टल एवं समाचार पत्रों में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित हुई है । ' सीप के मोती ' नामक काव्य संकलन भी प्रकाशित हो चुका है ।



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी