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अबोली की डायरी- जुवि शर्मा

डायरी

अबोली की डायरी- जुवि शर्मा

किसी ने कहा है, जो अदृश्य को देख सकते हैं वही उसे संभव भी बना सकते हैं। जुवि ने अपनी डायरी में अवसाद की दारुण यातना को अभिव्यक्त किया है। सृजन के लिए अवसाद का पुनरावलोकन भी कम विषादकारी नहीं रहा होगा। सृजन ने उनके आत्मसंघर्ष में अन्त: शक्ति का काम किया है। इस क्रम में जुवि ने अपने अस्तित्व की तलाश भी की है। हिन्दी की डायरी विधा में एक और नवोन्मेष।                 - राजाराम भादू


27 जून 1993

सेवंथ ' बी ' ढूंढ़ते ढूंढते गीला स्कर्ट पानी टपकाता और गीले चमड़े के जूते पच - पच करते चरमराने लगे थे , रिपटने के डर से मैं बेबी स्टेप्स चल रही थी । क्लास मिलते ही किताबें निकालकर , बैग पंखे के नीचे सुखने छोड़ दिया  और फटाफट अपनी मेज़ चुन ली । बारिश से व्यथा यह थी कि कपड़ें बचाए या किताबें ; वो भी जब किताबें दो साल पुरानी जुगाड़ की हुई हो , मैंने किताबों को प्राथमिकता दी   ।

माँ , " बरसाती जूते खरीदने पड़ेंगे , चमड़े के जूते भीग भीग कर सड़ जाएंगे और इनमें पानी भर जाता है , फिर इनकी चु  - चु से मुझे शर्म आती हैं "

ठीक  हैं , रविवार तक काम चलाओ तब तक पैसे भी जुटा लुंगी ।

माँ एक छतरी भी चाहिए ।

एक चीज़ मिल सकती हैं , बस में स्कूल जाती हो छतरी की क्या जरूरत ? थोड़ा बच लो बरसात से । रोज़ थोड़े पानी बरसेगा। 

आदमी की सभ्यता उसके जूतों से निश्चित होती है ,अंततः मेरा चुनाव भी सभ्यता के हित में गया ।

 
दिन ठेलते ठेलते रविवार भी समक्ष आ गया था , लेकिन पैसा बड़ी चीज़ है । पैसों का जोगाड़ दिन क्या कब महीना भी ठेल दे हम सोच भी नहीं सकते ।  पर्याप्त धन को भी ज़रूरी आवश्कताओं की श्रेणी में आना चाहिए । 

कॉपियों की बाई तरफ़ अब जुलाई भी दस्तक दे चुका था , गीले तालु दर्द करने लगते थे । बेंच के नीचे पैर से पैर रगड़कर मैं तालुओं को गर्म करने की तकनीक ईजाद कर चुकी थी ।

इस रविवार पैसें और दिन दोनों हाथ में थे । शीशे में सजी जूतों से भरी दुकान ।

उफ़्फ़ ; भुखे को लड्डू और  नंगे पैरों को जुते एक से लगते हैं । आखिरकार माँ के पर्स के अनुसार मन मारकर सस्ते से बरसाती जुते मुझे पसंद आ गए । पैसे देने की बारी आई तो बीस रुपए कम निकलें , क्योंकि घर जाने के लिए भी पैसे चाहिए थे । अंततः हम बिना जूते ही घर आ गए  ।

अति सर्वत्र वर्जयेत के सिद्धांत पर मेरी इच्छा भी मर चुकी थी । माँ भी कुछ उदास सी लगी तो ऊंचे स्वर मैंने कहा 

" छोड़ो जूते वुते अब बारिश वैसे भी जाने को है , साल भर पड़े पड़े उन पर जाले ही पड़ते । माँ मुझे सर्दियों में कार्डिगन ले देना , पिछली सर्दी बड़ी मुश्किल से निकली थी । और अब तो स्कूल भी मॉर्निंग शिफ्ट हो गया है ।

मैं जानती हूं कि कुछ महीनें बाद फिर इतिहास दोहराया जाएगा  , फिर ना जाने कितने रुपये कम पड़ जाएं ?



9 नवंबर 1995
 
मेरी तीन महीनें की फ़ीस हो चुकी है , डिफॉल्टर्स की लिस्ट में मेरा नाम पहले  नंबर पर आता हैं | दीपिका मैडम एक बार रोज़ आती है अपनी लिस्ट के साथ |  सेकंड रो लास्ट बेंच  , यह मेरा दूसरा नाम भी कहा जा सकता है | पापा कलकत्ते से कई महीनों से नहीं आएं | मम्मी दिन भर रोती रहती है , कह रही थी इस बार पापा आएंगे तो मेरी फ़ीस पहले पे करेंगे | पापा हमेशा सुबह छ बजें आ जाते थे , बैग में भरे उनके गंदे कपडों की गन्ध से ही अमूमन हमारी आंख खुलती थी | छोटे घरों की यही खासियत होती है यहां दुखों को गंध और मिठाइयों की  खुशबू को सुख कहा जाता हैं | मम्मी चाय  बनाते बनाते  लगभग सारा ब्यौरा ले लेती थी | कितना काम हुआ ? कितना पेमेंट आया ? वापसी कब होगी ?

अब कुछ दिन रुकोगे ?

यह मध्ययमवर्गीय इंसानों के सवाल है , इनमें कुछ ख़ास नहीं | 

स्कूल , फीस , बीमारी , शादी , बच्चा और ? और कुछ नहीं फिर अंतिम सवाल तय होता है  ....फिर कब जाना हैं ?  दूध वाले के चार महीनें के पैसे उधारी पड़े है |

 हम तीनों ओली दीदी , मैं और अंबर चुपचाप पापा के सामने बैठे थे | 


" कैसे चल रही है पढ़ाई " ? 


हम तीनों ने एक साथ हाँ में गर्दन हिलाई | दीदी ने हां क्यों कहा पता नहीं ?


अरे सुन रही  हो ; अंबर इतना दुबला कैसा लग रहा हैं  ? दूध वालें को कह कर दूध क्यों नहीं बढ़ा देती ?  


अंबर मेरे घुटने पर सिर टिकाएं सुनकर  मुस्कुरा रहा था | 

हां हां .... क्यों नहीं , मैं दूध दो किलों किए देती हूं , सारा इन्हीं के पेट में जाता है | मलाई से किस - किस तरह घी निकलता है  ।  लेकिन दूधवाला मेरे मायके वाला तो हैं नहीं   , समझें ना ?

 
पापा हमेशा जवाब मुस्कुरा कर ही देते ,  आज भी वही किया " दे दूंगा कोई खाकर थोड़े ही भागें जा रहा हूँ "

 
जैसे ही सब शांत हुए मुझे लगा अब बोलने का  मेरा नंबर आ गया है |

पापा मेरी तीन महीनें की फ़ीस हो गई है , मैडम बहुत सुनाती हैं |  बोर्ड परीक्षा का फॉर्म भरना है , जब तक फीस नहीं भर देंगे स्कूल वालें  प्री बोर्ड की परीक्षाओं में नहीं बैठने देंगे  |

पापा कभी किसी चीज़ के लिए मना नहीं करते थे | हर मांग पर उनका उत्तर हाँ , ठीक , हो जाएगा ...ही होता था | आज भी वही हुआ |

" अच्छा अच्छा सोमवार को ले जाना "


मैं एक फिर बोली ,  पापा परसों मैं असेंबली में  बेहोश हो गई थी | पापा से पहले माँ ने मेरी बात का खंडन  किया ।


" तो सब्ज़ी खाया करों ,  इसे रोज़ शीरा , पकवान , मालपुए ही चाहिए | हमारें पास रोटी है , खाना हैं खाओ | कौन निहाल करेगी | पुट्ठे पर हाथ फेर के चली जानी ससुराल , क्या जरूरत थी इतनी बड़ी स्कूल में डालने की | लड़कें लात भी मारें तो सुरग मिलता है | 


मम्मी का यह पूरा संवाद शब्द दर शब्द याद है मुझे , मम्मी बोलती रही उसी तरह | मुझे ऐसे शब्दों को सुनकर कोई भाव नहीं उपजता क्योकिं मुझे अब सारी लाइनें कंठस्थ हो चुकी है | मैं उठकर जा चुकी थी , पापा कभी कुछ बोलतें नहीं | उन्होंने माँ को कभी किसी बात के लिए नहीं टोका , उनके किसी फ़ैसले पर कभी हस्तक्षेप नहीं किया  । उनके गुस्से को भी हँसते हुए धुंए में उड़ा दिया करते | 


पापा के आने पर उनके दोस्तों का जमावड़ा लगा रहता था | पापा से मिलने आज शाम वर्मा अंकल आएं , उनके हाथ में एक डायरी थी जो उन्हें कंपनी से मिला करती थी या वो उठा लाया करते थे , मुझे नहीं पता लेकिन उस डायरी से  मेरी नज़र बिल्कुल हट नहीं रही थी |  


मैं चाय के साथ नमस्ते करने गई ; नमस्ते अंकल


" नमस्ते अबोली , कैसी चल रही पढ़ाई ? "


उतने में पापा बोल पड़ें ;  यार वर्मा अपनी अबोली लिखती बहुत अच्छा है , अबके समाज में दिवाली समारोह में इसका काव्य पाठ करवा दों यार ।

पापा का बोलने का था और अंकल एकदम से प्रसन्न मुद्रा में बोलें " अरे वाह ! बेटा खूब लिख और लें यह  डायरी , मुझे ऑफिस से मिलती रहती है | 


मैनें थैंक्यू बोलकर जैसे तारों को छूने हाथ बढ़ा दिए थे  , उसके चिकने मुलायम पन्नें । डायरी की खुशबू मैं जितनी बार लिखने खोलती उतनी बार सूंघती ।


कॉपियों के पीछें लिखी वो सारी अधकचरी कविताएं अब इसमे लिखूंगी | डायरी को तीन भाग में विभाजित किया , पहला कविता , दूसरा पार्ट डायरी और आखरी वाले में अख़बारों और पत्रिकाओं में जो अच्छा पढ़ती लिख लिया करती | 


अब मेरे पास विकल्प थे , अपनी बात लिखनें को डायरी थी |  सुनता वैसे भी कोई नहीं मुझे , काश मैं मर सकती  ,लोग  मरते कैसे होंगे ? कमरा भी एक है और पंखा भी एक | 

 
नहीं  नहीं....

फिर ओली दीदी से शादी कौन करेगा ? अमू की  पढ़ाई खराब हो जाएगी

मेरे मरने के बाद का खर्च कैसे करेंगे पापा ? फिर कैसे सब ठीक होगा ? 


17 मार्च 2008 

मैंने सबसे ज़्यादा सच्चे लोग मेंटल हॉस्पिटल में देखें , यहां बीमारों की लंबी कतारें हैं लेकिन बीमार कोई दिख नहीं रहा । बीमार मैं भी कहाँ दिख रही थी  ? मन के अदृश्य दाग कोई क्यों नहीं देख पाता ?  कोई अन्यमनस्क सा मौन बस रो रहा है । कोई किसी को पकड़े इस तरह बैठा है , जैसे जानता हो कि हाथ छूटने के बाद उसका लौटना असंभव है । कोई अपलक उस आसमान को घुर रहा है , जिसे अस्पताल की ईंट और सीमेंट वाली दीवारों ने ढांक रखा है । किसी को चलते पंखें में किसी षड्यंत्र की बू आ रही है । कितना निर्मल मन होगा उनका जो किसी के जाने से , किसी के छूने से अपना मानसिक  संतुलन खो बैठे ।

किंतु सभी मरीजों में केवल एक चीज़ सामान्य है , सभी को एक गहरी नींद की आवश्यकता है । कुछ क्षण की मृत्यु , अचिर निद्रा । दुनिया के दो भाग होने चाहिए थे , एक व्यवहारिक और दूसरा संवेदनशील  । उन सारे पुरुषों को एक घृणित  सूची में रखा जाएं जिन्होंने छूकर इस दुनिया को गलीच बना दिया । जिन पुरुषों ने स्त्रियों को स्पर्श सुख से घृणा करने पर बाध्य कर दिया वे पूरी मानव सभ्यता पर कलंक सिद्ध होंगे ।


12 नवंबर 2011

दीपावली बीत चुकी हैं , दियों पर बीतें प्रकाश की  कालिख अपने उजालों की स्मृतियों में बौराई सी खोई  हुई हैं । मौसम अब बहुत अच्छा है  , मुम्बई वालों के लिए कुछ ही महीने अच्छे होते हैं | पिछले दो महीनों से  डॉक्टर नैनेश ताँबें का इलाज चल रहा है , फिर वही शरू से बताओं क्या हुआ था ? कौन किया था ? कितना और कब तक होता रहा ? डॉक्टर तांबे की दवाइयां से कोई फर्क नहीं हैं , बस वही नींद की गोलियां और दिमाग दिनभर सुन्न पड़ा रहता हैं |

डॉक्टर मुझे उदाहरण के तौर पर समझा रहे थे कि अपना दिमाग किस तरह व्यस्त रखा जाए । 

अबोली आप अपने बच्चों के पीछे रहे ठीक वैसे ही व्यस्त रहें जिस तरह कुतिया अपने नवजात शिशुओं को पलक झपकने जितना भी नहीं छोड़ती । मैं आपको जानबूझ कर किसी जानवर का उदाहरण दे रहा हूं , जिम जाइये , वॉक करिये । 

मैंने जिम भी जॉइन कर लिया लेकिन यहां भी कई दिक्कतें होनी शुरू हो गई , ट्रेनर मुझे बीस काउंट्स तक एक मशीन पर एक्सरसाइज सीखा कर जाते । ट्रेनर बीस से शुरू करते फिर किसी और क्लाइंट को देखने चले जाते लेकिन अचानक  मैं गिनती भूल जाती । दस के पहले क्या आता था ? एक दिन बैठे बैठे गिनती भूल जाओं , अपना फोन नंबर भूल जाना , घर का पता लिखना भूल जाना , अपने नाम की स्पेलिंग भूल जाना ...ऐसी पीडाएं खून सोख लेती है , लोगों के सामने हँसी का पात्र बनना बेहद दुखदाई होता है । 
इसी भूल भूलैया में कई बार वर्कआउट डबल कभी ट्रिपल हो जाने से घुटने में जानलेवा दर्द होने लगा है । जब उठना बैठना मुश्किल हो गया तो हड्डी के डॉक्टर के पास जाना पड़ा , घुटने में अंदरूनी चोट हैं । मैं फिर से बेडरेस्ट पर हूँ ।


17 फरवरी 2012 

मुझे सबसे अच्छा आंख बन्द करना लगता हैं , अव्वल तो  इस क्रिया में थोड़ी सी मरने की  प्रैक्टिस हो जाती हैं । दूजे आँख बन्द करते ही मैं इस दुनिया को छोड़कर काशी की दुनिया में प्रवेश कर जाती हूँ | कुछ मिनटों में दूसरी दुनिया में छलांग लगा देना अब तक किसी ने नहीं सीखा होगा । 
मुझे दुनिया बदलना आ गया है ।


2 अप्रैल 2015

कुछ दिन पहले अखबार में एक खबर पढ़ी की एक पंडित जी ने एक पन्द्रह साल से बिस्तर पर पढ़ें बीमार व्यक्ति की ऐसी कुछ  पूजा करवाई की वो खुद ही परलोक सिधार गया | यही सोचकर हमारे पुराने परिचित ज्योतिषाचार्य श्री सुरेद्र भारद्वाज के पास गई कि जितना चाहें पैसे से ले लेवे  लेकिन मेरी भी ऐसी पूजा करवा दें ताकि मैं भी अपने आप मर जाऊं | मेरी बात सुनकर  पंडितजी ने मेरी कुंडली देखी ।

अबोली बिटिया तुम गहरे अवसाद में हो लेकिन आत्महत्या की सूचना भी मत क्योंकि तुम्हें  यश की प्राप्ति लिखी हैं | उस सूर्योदय को देखने के लिए संघर्ष करों , कभी चींटी को देखा हैं मरते दमतक कभी हार नहीं मानती | बिटिया तुम्हें सुख वाले दिन भी देखने हैं । तुम हिम्मत कैसे हार सकती हो , अपने बच्चों की तरफ देखों । 

मैं दक्षिणा देकर चुपचाप घर आ गई । मेरे लिए पंडित जी भी कुछ न कर सकें  , कुंडली मे यश किस बाबत प्राप्त होगा ? नालायक सन्तानें अपयश ही  भोगती हैं ।


7 अप्रैल 2016 

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।

अब किंतु प्रेम हाट में मिलने वाला ही भाव है । काशी कहता है , यह तुम्हारा पागलपन है । तुम अति कर देती हो । सुख की कभी अति नहीं होती और दुख हमेशा ही अपने अधिक लगते हैं ।  मैं कविताएं लिखती काशी को भेजती , कभी मन होता तो तारीफ कर देता वरना कुछ नहीं | व्योमेश मुझे कविताओं की बारीकियां सिखाते , निराला और प्रेमचन्द के किससे सुनाते | एक बात का सुकून था कि इतनी बड़ी दुनिया में एक मित्र मेरा भी है | व्योमेश और मैं कई बार घण्टों फोन पर आध्यात्मिक , साहित्यिक , सामाजिक चर्चा करते  लेकिन मेरे साथ जो दिक्कत थी मैं व्योमेश को बता नहीं सकती । मुझे हमेशा से ही अपनी बौद्धिक संपदा बढ़ाने का पागलपन रहा ।  मैंने  किताब मंगवाई बच्चन की क्या भूलू क्या याद करूँ लेकिन पहला पन्ना पढ़ने के बाद जैसे दूसरा पन्ना बिल्कुल भूल जाती | फिर से पढ़ना शुरू करती इस तरह आधी किताब कई बार खत्म होती और फिर शुरू होती | लेकिन हार नहीं मानी , कितनी ही किताबें पूरी पढ़ने के बाद पढ़ी हुई सारी स्मृतियां दिमाग से तुरन्त क्षीण हो जाया करती किंतु मैं फिर से पढ़ती । पेन से नोट्स बनाती जाती की दूसरे पन्ने तक किताब याद रहें । कविताएं मन मे उपजती लेकिन ऐसे हल्के शब्दों की  स्पेलिंग बिल्कुल दिमाग से गायब | कई बार अबोली का  अबोलि हो जाता । 

इतनी मात्रा की अशुद्धियां ,  प्राइमरी क्लास की हिंदी के शब्द भी गलत हो जाया करते | शर्मिंदा हो जाती तो कह देती टाइपो एरर हुआ हैं , व्योमेश कुछ नहीं बोलते | 

अब दिनभर दिमाग मे कविताएं और किताबें चल रही थी । 

फ़्रिज में अनार कब के रखी थे दिमाग से बिल्कुल निकल गया था , विजय कल रात पानी पीने फ्रिज खोले और सारी अनार उठाकर बाहर के कमरे  में फेंक दी | सफेद फर्श अपमान के लहू से लाल हो गया था  , रात ग्यारह बजे तक रोती रही और फ़र्श पोछते पोछते निश्चय किया कि अब कभी नहीं लिखूंगी | 
पैसे मिलेंगे कविता लिखने के ? दिन भर किताब लेकर घूम रही हो , बड़ी आई साहित्यकार | विजय एक एक अनार फर्श पर फोड़ रहे थे , , आज के बाद तुम लोगों को अब  कभी  अनार के दर्शन नहीं होंगे  |

कविताओं से पेट भरता है क्या ?
आभासी दुनिया में जी रही हो
कल्पनाओं में कलम घसीटतें
केवल स्वयं की स्तुति हेतु
समाज के मनोचित्त को छल रहे हो
अपनी सम्मोहित लेखन प्रक्रिया से
साहित्य के परिरक्षण से 
देश की मौद्रिक मूल्य की वृद्धि होगी ?
नहीं....
मैं सड़क पर पड़ा लावारिस आवंछित पशु नहीं
आप उदर पूर्ति करते है
मैं मानस पूर्ति ।।

अब यही होता है , मैं रो नहीं पाती और ना ही जबाब देती हूं । अब केवल लिख सकती हूं ।

जुवि शर्मा

सम्पर्क- (M) 7977426363
रामगढ राजस्थान में जन्मी जुवि शर्मा वर्तमान में मुंबई में रहती हैंं । प्रमुख पत्रिकाओं ,वेब पोर्टल एवं समाचार पत्रों में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित हुई है । ' सीप के मोती ' नामक काव्य संकलन भी प्रकाशित हो चुका है ।

टिप्पणियाँ

  1. खुबसूरत.... पर दुखी कर देने वाली....

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  2. चित्त की गहराइयों में अंकित सम्बेदनाए आपकी लेखनी से जब आकार लेती है तो अनुभूत होता है कि भाषा शिल्प की योगिनी अपने अबूझ गहरे अनुभवों की चित्रावली बिखेर रही है ।लेखन में ऐसा शब्द शिल्प सूक्ष्मदर्शी दृष्टि ,अनुभूत करने की योग्यता , गहन बोध से ही उपजता है..........आपका लेखन मन के विकास की चरम अवस्था है, बुध्दि ओर मन के मेल से उपजा शब्द सामर्थ्य आगे अलौकिक अनुभूति के जगत में ले जाएगा ....... सर्वोत्तम सिद्ध होगा।

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  3. Excellent write up Juvi.... I felt as if d draft is just u telling yourself d story....

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वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी