सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण 
हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।

    लेखक जी तुम क्या लिखते हो 

                                          सोनू चौधरी
 
हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा।
बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है। मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना ।

मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो अब तक ज़ारी है । ये मन प्रेमचंद,शरतचन्द्र,महाश्वेता देवी ,महादेवी ,मैथलीशरण गुप्त ,दिनकर ,कबीर,शिवानी ,कृष्णा सोबती ,घनानंद ,धूमिल ,पाश ,श्रीकांत वर्मा ,रघुवीर सहाय ,त्रिलोचन ,असद जैदी ,अज्ञेय ,मुक्तिबोध,परसाई,मंटो ,विनोबा भावे,रवींद्रनाथ टैगोर,कुसुमाग्रज,नागार्जुन ,रांगेय राघव,कन्हैयालाल सेठिया,हजारी प्रसाद दिवेदी,शैलेन्द्र मटियानी, रामचंद्र शुक्ल ,चेखव ,ब्रेख्त ,पाब्लो ,काफ्का और भी न जाने कितने महत्वपूर्ण नामों की सारी रचनाओं को खोज-खोज कर जज्ब करना चाहता है ।जैसे प्यासा जल की खोज में जंगल -पर्वत-घाटी पार करता जाता है। ये मन आज अपने सामने दिख रहे दिग्गजों को भी पढ़ना चाहता है । ये यात्रा ज़ारी है। कहा भी गया है न कि मण भर अच्छा साहित्य पढ़ना कण भर लिखने के लिए जरूरी है । शायद तभी पुस्तकालय मेरे लिए किसी मन्दिर से कम नहीं रहे।
आईये शुरू से बताती हूँ कि साहित्यिक नींव की मिट्टी कहाँ से मिली .... 
  
11 बरस की अबोध उम्र अल्हड़पन की बलैयां लेने की उम्र होती है !!
सब आपके कद और चोटी की लम्बाई से आपको बड़ा मान रहे होते हैं पर यकीनन आप उतने बड़े भी नही होते ! 
रैक के सबसे ऊपर पड़ी किताबों और पत्रिकाओं को लेने की जुगत में दो बार स्टूल से गिर चुके होते हो और अगले दिन थोड़ा लंगड़ा कर चलने के बावजूद किसी की पुचकार नहीं मिलती और ध्यान दिलाने पर याद दिलाया जाता है कि ध्यान से हर काम करो क्योंकि अब आप उतने छोटे भी नहीं रहे।
तीसरी बार स्टूल पर चढ़ते ही पीछे से बड़ा भाई आकर धौल जमाते ही पूछता है क्या चाहिए ? आप संतुलन सम्भालते हुए अपने से दस साल बड़े भाई के सामने याचक दृष्टि से बोलते हो 'धर्मयुग '

भाई हँसते हुए आपको धर्मयुग पकड़ाते हुए कहता है नीचे मेज पर नंदन, ट्विंकल पढ़ ।
बड़ों की मैगजीन क्यों पढ़ रही है ? 
अच्छा जी, जब मचलो किसी नन्हीं जिद पर तो मैं बड़ी और धर्मयुग पढना हो तो छोटी ! ,पर ये बड़े छोटे भाई- बहन किसी देवदूत से कम नहीं होते  ,ऐन मौके पर श्वेत-श्याम जिन्दगी को रंगबिरंगी कर देते हैं।
मैं नीचे फर्श पर अपनी फ्राक फैला कर बैठी हूँ और मेरी छोटी सी गोद में बड़ी सी धर्मयुग हैं .धर्मयुग ही क्यों कादम्बिनी और मनोरमा भी अपने बड़े आकार के साथ उस दशक में लोकप्रिय थी । 
यह 1980 का युग था ये धर्म युग था ऐसा नही कह सकती क्योंकि 1980 कई उलट पुलट घटनाओं का गवाह था ।
मैं अखबार पढ़ती थी और किशोरवय की विद्रोही उम्र के करीब यह पहेली बूझती थी कि लड़ाई प्यार से ज्यादा जरूरी है और प्यार पाने के लिए भी ,माँ की गोद की उम्र नही थी पर लाड़ लड़ाने की तो थी ।अपने से 5 साल की छोटी बहन (जिसे दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार करती हूँ )को माँ और स्नेहिल बड़ी बहन के पास देखते ही लड़ने दौड़ पड़ती.पर जल्द ही उसकी प्यारी शरारतों में खो जाती ।
अख़बारों में ही नहीं धर्मयुग में खबरों के विश्लेषण आते थे पर अल्हड़पन में कुछ हेडलाइन ,डब्बू जी,कविता,गीत और चित्रांकन ही धर्मयुग की ओर खींचता था।कभी कभी  माँ का अस्फुट स्वर सुनाई देता जब वे धारावाहिक कहानी पढ़ने में इतनी तन्मय हो जाती कि पात्रों के साथ जुड़ कर बोलने लगती .या फिर हम खिलंदड़ इतना शोर मचाते कि उन्हें बोल बोल कर उस रोचक कहानी को पूरा करना होता ,तब उस रात मेरा उनसे यही आग्रह रहता कि वे वो ही कहानी सुनाएँ पर वे मुझे नन्हीं मान टाल जाती और कोई बच्चों की कहानी सुनाती। उन्हें क्या पता कि मैं भी बिना पल्ले पड़े कहानी को पढ़ चुकी होती थी।फणीश्वर नाथ रेणु ,महाश्वेता देवी पर आये आलेखों पर बड़ा भाई और बहन चर्चा करते ,कुछ राजनैतिक मसलों पर भी परिवार में संवाद होता .इन सब अनौपचारिक वार्तालापों ने मुझ पर बहुत असर डाला .परिवार में हिंदी को विशेष प्रोत्साहन मेरे भीतर हिंदी में अत्यधिक रूचि उपजने का एक मुख्य कारण बना .पर इसके पीछे भी एक रोचक किस्सा था. 

मेरा जन्म शिवालिक पहाड़ियों से आच्छादित हनुमानगढ़ में हुआ .यह राजस्थान के उत्तर में बहने वाली घग्गर नदी के किनारों पर बसा एक छोटा सा ऐतिहासिक कस्बा था जो गंगानगर से अलग होकर 1994 में एक स्वतंत्र जिला बना. सदियों पहले यहाँ सरस्वती नदी बहती थी और यह जगह भटनेर कहलाती थी .भटनेर का विख्यात किला जैसलमेर के भाटी राजा भूपत सिंह ने बड़ी खूबसूरती से बनवाया था पर बीकानेर के राजा सूरत सिंह ने मंगलवार के दिन इसे जीत कर इसका नाम रखा हनुमानगढ़ ! 5000 वर्ष पुरानी सिन्धु घाटी सभ्यता का केंद्र कालीबंगा,पीलीबंगा  रंगमहल ,गोगामेड़ी ,भद्रकाली का मन्दिर हनुमानगढ़ की मंत्रमुग्ध कर देने वाली विरासतें हैं जिन पर मुझे गर्व है .यहाँ एक मीठे पानी की झील है तलवाड़ा ,कहते हैं यहाँ पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी का युद्ध हुआ था .
  तो हुआ यूं कि मेरे जन्म से कुछ समय पूर्व ही पिता का स्थानान्तरण जयपुर से हनुमानगढ़ हुआ.अंग्रेजी स्कूल में पढ़े मेरे भाई-बहन के लिए इस कस्बे का हिंदी माध्यम का स्कूल किसी युद्धक्षेत्र से कम न था तब परिवार में यह निर्णय लिया गया कि हिंदी के नये वाक्यों और शब्दों को अधिक से अधिक पढ़ा-सुना-बोला जाए.हमारे घर में हिंदी का सम्मान और भाषा की शुद्धता पर शुरू से ही आग्रह था क्योंकि पिता और माँ दोनों को पढ़ने लिखने का शौक था। कुल मिला कर हिंदी की ये नींव मजबूत इमारत बना गयी। .धर्मयुग का हर अंक घर भर में पढ़ा सहेजा जाता रहा ,जो बाद में काल कलवित हो गया .बहुत वर्षों तक पुराने अंकों को पुनःपुनः चाव से पढ़ा जाता . 11 से 16 बरस की उम्र को धर्मयुग के पंख लगे थे .धर्मवीर भारती की रचनाएँ और सम्पादकीय को पढ़ना गजब था। गुनाहों के देवता घर घर पहुंच गाए थे। .कादम्बिनी या मनोरमा में महादेवी वर्मा और शिवानी की कहानियाँ भी अगले कई बरस पढ़ी मैने । दिन पंख लगा कर उड़ते थे ।बड़े साहित्यिक नामों को जानना और पढ़ना बेहद सुखद था । बाद में मक्सिम गोर्की को पढ़ना किसी अथाह नदी में डुबकी लगाने जैसा था । मेरा बचपन और माँ उपन्यास को कितनी ही बार पढ़ा, रूस और लेनिन को तब गोर्की के माध्यम से ही जाना।
मुझसे कुछ टूटी फूटी कहानी  कविताएँ अपनी नन्हीं बहन पर रोब जमाने के लिए बननी शुरू हो गयी थी ।
1980 का साल बड़े घटनाक्रमों का साक्षी बना .संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत ,इंदिरा गांधी का इस दुखद घड़ी में अपने जज्बातों पर काबू, जहाँ विमान गिरा था उस जगह पर इंदिरा जी का कुछ खोजना भी फोटो सहित धर्मयुग में सलेटी बॉक्स में छपा था , धुंधली सी याद है मुझे। 
टेलीविजन नेटवर्क का प्रसारण ,प्रेमचंद के निर्मला उपन्यास का दूरदर्शन पर रूपांतरण,शकुंतला देवी का कैलकुलेटर से तेज दिमाग जिन्होंने 13 अंकों को अल्प समय में गुणा करने की परीक्षा में सफल होकर विश्व भर में उसी साल अपना लोहा मनवाया । मदर टेरेसा के सेवा कार्य   ,पृथ्वी की कक्षा में रोहिणी उपग्रह (उस समय लगता था सबकी कक्षा लगती है ) 
ये सब 1980 के साल की कभी न भूलने वाली घटनाएँ थी पर मेरे व्यक्तित्व पर असर डालने वाली ,मुझे लिखने के लिए प्रेरित करने वाली पहली रचना थी एक गीत जो इसी 1980 के बरस धर्मयुग में छपा .मैने उसे इतनी बार पढ़ा कि यह आधा अधूरा याद में दर्ज हो गया।इस गीत की पहली पंक्ति "लेखकजी तुम क्या लिखते हो" कहते हुए मैं सारे घर में दौड़ लगाती, रुक कर चिड़ियों को देखती और लिखती --
देखो कितना सुंदर गाती  
ची ची चिड़िया पंख फैलाती
जब देखो तब माँ भी
फुर्र फुर्र कह के इन्हें उड़ाती 
कौन देगा दाना पानी की इनको मीठी सौगात
कौन बनेगा साथी इनका ,कौन करेगा बात
ये अल्हड़ बीज थे लेखन के ।
1981 में आई बाढ़ धर्मयुग और कई सारी पत्रिकाओं के कुछ सहेजे अंक अपने साथ ले गयी पर छोड़ गयी वे अमिट यादें ...लेखक जी तुम क्या लिखते हो   
अभी हाल ही में समालोचन के एक अंक में इस गीत को आदरणीय कृष्ण कल्पित सर के लेख के साथ पूरा पढ़ने पर न जाने कितने बरस पुरानी  आस की तृप्ति हुई और उस वक्त की एक -एक घटना जेहन में तिर गयी। 

लेखकजी तुम क्या लिखते हो
हम मिट्टी के घर लिखते हैं
धरती पर बादल लिखते हैं
बादल में पानी लिखते हैं
मीरा के इकतारे पर हम
कबिरा की बानी लिखते हैं

सिंहासन की दीवारों पर
हम बाग़ी अक्षर लिखते हैं

काग़ज़ के सादे लिबास पर
स्याही की बूँदों का उत्सव
ठहर गया लोहू में जैसे
कोई खारा-खारा अनुभव

फूलों पर ख़ुशबू के लेखे
बंदूकों में डर लिखते हैं !


शुक्रिया आदरणीय कृष्ण कल्पित सर मेरे लेखन बीज के लिए !! इसे संयोग ही कहूंगी कि अब आपकी किताब कविता रहस्य मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक है । और अब तीव्र उत्कंठा है कि हिंदनामा पढूं !
जब भी लिखने बैठती हूँ , यही पहला कालजयी सवाल मेरे मन में कौंधता है
              “लेखक जी तुम क्या लिखते हो”

सोनू चौधरी 
राजस्थान के हनुमानगढ़ में जन्म।सूचना शिक्षा एवं संचार विशेषज्ञ  के रूप में सहायक निदेशक के पद पर जमीनी स्तर पर जुड़ कर कार्य करने का अनुभव।,विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं ,आकाशवाणी ,दूरदर्शन में विविध विधाओं में प्रकाशन,प्रसारण।वर्तमान में कविता,प्रोज,कहानी,शोध आदि में सक्रिय।


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर लिखा । सोनू चौधरी और मीमांसा को धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सोनू चौधरी जी बहुत सुंदर लिखा आपने। वही समय होता है जब बहुत सारा अंत: में समा जाता है। शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य