भाषान्तर
(1)
राजद्रोह
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मैं नहीं करता प्रेम अपने देश से
इसकी महिमा
निराकार, अमूर्त्त है
लेकिन (यह सुनने में ठीक नहीं लगता इसलिये)
मैं दे सकता हूं अपना जीवन
इसके दस स्थानों,
कुछ लोगों,
बन्दरगाहों, देवदार के वनों,
क़िलों, किसी उजाड़ शहर,
बेरंग, विशालाकार,
इतिहास की इसकी कुछ आकृतियों,
पर्वतों
(–और तीन-चार नदियों) के लिये।
(2)
कवि का प्यार
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कविता की केवल एक ही वास्तविकता है : पीड़ा।
बोदलेयर ने इसकी पुष्टि की।
ओविड भी संस्तुति दे ही सकता है
ऐसे वक्तव्यों को।
और यह, एक तरह से गारंटी देती है
किसी ऐसी कला के
संकटग्रस्त उत्तर-जीवन की भी
जिसे इने-गिने लोगों ने पढ़ा हो
और प्रत्यक्षत: तिरस्कृत किया हो
अधिकांश लोगों ने
अन्तश्चेतना का एक विकार मान कर,
एक पुरावशेष,
उस ज़माने का जो बहुत-बहुत प्राचीन है
हमारे ज़माने से,
विज्ञान का दावा है जिसके बारे में
कि सम्मोहन पर उसका एकाधिकार अन्तहीन है।
(3)
झींगुर
––––––
(कविता का एक मोर्चा और दृष्टान्त)
मैं पुन: ग्रहण करता हूं
अर्थसंकेत झींगुरों से :
उनका कोलाहल निराशाजनक है,
उनके डैनों की अकुलाहट
निष्प्रयोजन सर्वथा।
यदि अब भी नहीं है उसमें कूट सन्देश
जिसे वे पहुंचाना चाहते हों एक-दूसरे तक
तो (झींगुरों के लिये) रात
रात नहीं हो सकती।
(4)
एक कुत्ते की ज़िन्दगी
––––––––––––
हम घृणा करते हैं कुत्तों से,
क्योंकि वे होने देते हैं प्रशिक्षित स्वयं को
आज्ञापालन के लिये।
कुत्ता संज्ञा में हम ही भरते हैं विद्वेष
एक-दूसरे का निरादर करने के लिये,
और घृणास्पद मानी जाती है कोई मौत
अगर वह मौत किसी कुत्ते-सी हो।
जबकि कुत्ते देख और सुन सकते हैं
वह भी जिसे हम देख-सुन नहीं पाते,
भाषा के बिना भी
(क्योंकि हम ऐसा मानते हैं)
उनके पास एक प्रतिभा है,
जो हममें शर्तिया नहीं है।
और कोई शक नहीं कि
वे सोचते और समझते भी हैं
इसलिये
सम्भव है कि घृणा करते हों वे भी हमसे
कोई स्वामी ढूंढने की हमारी आकांक्षा के लिये,
किसी ताक़तवर के प्रति हमारी वफ़ादारी के लिये भी।
(5)
कचरागाड़ी में
––––––––
सब कुछ चला जाता है कचरागाड़ी में :
बेकार वस्तुएं, प्लास्टिक के बरतन,
जीवन के भग्नावशेष, त्यक्त कृतज्ञताएं
ज्ञापित की गयीं किसी कालखंड की मृत्यु पर जो,
क़ाग़ज़ात, पत्र जो लिखे नहीं जायेंगे
अब कभी भी दोबारा,
और तस्वीरें बीते कल की।
हमारा सब कुछ इसीलिये बना है,
एक दिन कचरे में मिल जाने के लिये।
(6)
बुनियाद
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जब भी बसाया जाता है कोई शहर
तो सबसे पहले स्थापित करते हैं वे
सत्ता के मकाम :
राजमहल, व्यापारिक संस्थान
बाज़ार, गिरजाघर, सैन्यागार
अदालत, जेल और यातनाघर।
इसके बाद ही व्यवस्थित करते हैं वे
वेश्यालय, कब्रिस्तान और बूचड़ख़ाना।
(7)
शिष्टाचार
––––––
कितना दयालु है यह आदमख़ोर,
अपने खूंख़्वार पंजों से
तहस-नहस कर डालता है मेरे चेहरे को।
विदीर्ण कर मेरे गले को
मेरी लाश से कहता है वह, "माफ़ करना।"
(8)
दुनिया का अंत
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दुनिया का अंत होने में
वाकई बहुत लंबा वक़्त लगता है,
तमाम चीज़ें होती रहती हैं
बद से बदतरीन
पर समाप्त ही नहीं होतीं वे।
(9)
हवा के परामर्शदाता
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जब भी सोचता हूं कि महत्वपूर्ण हूं मैं
एक मक्खी चली आती है कहती हुई,
"कुछ भी नहीं हो तुम।"
(10)
राख़
–––––
राख़ नहीं करती किसी से क्षमा-याचना
बस घुल जाती है वह अनस्तित्व में,
एकाकार हो जाती है गहन उदासी के साथ।
राख़ धुआं है जिसे छू सकते हो तुम,
आग ख़ुद एक सन्ताप है।
हमारी यह हवा जो प्रज्ज्वलित हुई थी कभी,
अब नहीं धधकेगी वह कभी फिर से।
(11)
बीते हुए दिन हमारे
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मैं अंकित करता हूं
यहां-वहां उड़ती रेत पर
न लौटने का कोई शब्द।
एक दूसरा शब्द
उत्कीर्ण किया था जिसे पत्थर पर मैंने
उस पर जम गयी है काई।
समय के साथ कितने ही अवयवों ने
डाल दिया है आवरण उस पर।
और अब मुझे मालूम ही नहीं
कि उसका आशय क्या होगा
जब मैं पढ़ूंगा इसे दोबारा।
(12)
दीमकें
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और दीमकों से उनके स्वामी ने कहा :
नीचे गिरा दो उस घर को।
और वे लगातार जुटी हैं इस काम में
जाने कितनी ही पीढ़ियों से,
सूराख़ें बनातीं, अन्तहीन खुदाई में तल्लीन।
किसी दुष्टात्मा की तरह
निर्दोषिता का स्वांग किये,
पीले मुख वाली चीटियां,
विवेकहीन, गुमनाम दास,
किये जा रही हैं अपना काम
दायित्व समझ कर,
फ़र्श के नीचे
किसी वाहवाही या शाबासी की अपेक्षा किये बिना ही :
उनमें से हर एक सन्तुष्ट भी है,
अपना बेहद मामूली पारिश्रमिक लेकर।
(13)
मार्ग में
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समय कहीं नहीं जाता :
वह यहीं रहता है
हम गुज़र जाते हैं।
केवल हम ही हो जाते हैं अतीत।
प्रवासी पक्षी आते हैं जैसे
हमारे सिरों के ऊपर
और धीरे-धीरे
ओझल हो जाते हैं नज़रों से
सुदूर किसी छोर की तरफ़।
(14)
कवियों का जीवन
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कविता में कोई सुखद अंत नहीं है,
कवि समाप्त हो जाते हैं
अपना पागलपन जीते हुए।
वे बंटे हुए हैं मवेशियों की तरह खेमों में
(यही तो हुआ दारियो के साथ भी)।
वे पत्थर हो गये हैं, चुक गये हैं
समुद्र की तरफ़ ढकेलते हुए ख़ुद को,
या सायनाइड दबा कर अपने मुंह में।
कुछ अन्य मर गये
शराब, नशीली दवाओं और ग़रीबी से।
कुछ और भी वाहियात : प्राधिकृत कवि
किसी मक़बरे के चिड़चिड़े निवासी
काम पूरा करने के लिये प्रतिबद्ध।
(अंग्रेज़ी से अनुवाद– राजेश चन्द्र।)
जोस इमिलिओ पाचेको
जन्म- 30 जून 1939
निधन- 26 जनवरी 2014
जन्म स्थान - मैक्सिको सिटी, मैक्सिको
प्रमुख कृतियाँ :
रात में हालात (1963), बाक़ी बची आग (1966), मुझसे मत पूछो कि समय कैसा चल रहा है (1970), जाकर आप वापस नहीं आएँगे (1973), तब से (1979), समुद्र (1983), पृथ्वी पर एक नज़र (1987), मेरी यादों का शहर (1990), गुपचुप चाँद (1996), पिछली सदी (2000) और अन्धेरे की उम्र (2009) आदि कुल अट्ठारह कविता संग्रह। इनके अलावा ढेरों कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं।
विविध :
लातिनी अमरीका के सबसे महत्वपूर्ण समकालीन कवि के रूप में प्रतिष्ठित। विश्व सेरवान्तेस काव्य पुरस्कार (2009) ।
राजेश चन्द्र
विगत 27 वर्षों से कविता, रंगकर्म, समीक्षा, संपादन, पत्रकारिता और अनुवाद के क्षेत्र में निरन्तर सक्रिय। विभिन्न मानवाधिकार संगठनों एवं जनान्दोलनों के साथ जुड़ाव। रंगमंच पर केन्द्रित एकमात्र गैर-सांस्थानिक पत्रिका
समकालीन रंगमंच का 2013 से संपादन-प्रकाशन।
संपर्क : 9599346329.
मीमांसा के ब्लॉग पर बहुत स्तरीय और पठनीय साहित्य प्रकाशित हो रही है।
जवाब देंहटाएंबेहद अच्छी कविताओं का अच्छा अनुवाद।
बहुत संदर कविताओं का सुंदर अनुवाद .
जवाब देंहटाएंसुन्दर अनुवाद
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं
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