पत्रिकाएँँ
पहल का प्रकाशन 1973 के उत्तरार्ध में आरंभ हुआ था । चार दशकों से हिंदी साहित्य की साहित्यिक पत्रिकाओं के संसार में पहल का नाम महत्वपूर्ण है । पहल ने कुछ महत्वपूर्ण विशेषांक निकाले हैं यथा समकालीन कवितांक, कहानी अंक , चीन का समकालीन साहित्य ,इतिहास अंक आदि । ज्ञानरंजन अपनी संपादकीय टिप्पणी में कहते हैं -'देश में आदमी की दलेल और दुर्गति का ठिकाना नहीं है । हम इससे परे नहीं हैं । कहानीकारों ने अपना सर्वोत्तम लिखकर हमें भेजा । ये कहानियां मात्र छुटपुट प्रयास नहीं है बल्कि समय का संपूर्ण कथानक है । इसमें कई कहानियां ऐसी हैं जिनमें उपन्यास के लक्षण है ।वे एक संदिग्ध और हत्यारे संसार में प्रवेश करती हैं । उनमें प्रतिरोध ,आलोचना, व्यंग्य है और औपन्यासिक ढांचा है । ये कहानियां उपन्यास को छूकर लौटती हैं और समय के पार जाती है । हमें भरोसा है कि इन्हें 2020 में रेखांकित किया जाएगा ।'
'कारोबारी विकास और विकास का कारोबार ' युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र का कहानी अंक का पहला विमर्श है । यह इक्कीसवीं सदी की हिंदी कहानी के बहाने कारोबारी विकास के गर्भ से उपजे उन विचारणीय बिंदुओं को तलाशने की कोशिश में लिखा गया है जिनका संबंध हमारे समकाल से है । यह लेख 21वीं सदी की उन कहानियों की पड़ताल करता है ; जिनमें बाजारीकरण की प्रक्रिया को समझने और उसके मूल में काम कर रही शक्तियों की मंशा को चिन्हित करने का प्रयास किया गया हैं । वैश्वीकरण के बाद ग्लोबल और स्थानीय शक्तियों का 'बाजार' के साथ बदलता रिश्ता किन त्रासद परिस्थितियों को जन्म देता है यह आलेख उस पर विस्तार से बात करता है ।
'इस महादेश के वैज्ञानिक विकास के लिए प्रस्तुत प्रगतिशील रचनाओं की अनिवार्य पुस्तक' के अपने दावे के अनुसार पाठकों में वैज्ञानिक अभिरुचि एवं समझ के विस्तार के लिए डॉ स्कंद शुक्ल का लेख ' महामारी , मानव और मशीन : यह राह कहाँ जाती है ? ' महत्वपूर्ण है ।
'लातिन अमेरिका डायरी मोटरसाइकिल पर जीवन -'अर्नेस्टो' के साथ !' में जितेंद्र भाटिया अविस्मरणीय यात्रा वृतांत के साथ-साथ एक संवेदनशील व्यक्ति के युगनायक बनने की कहानी को आधुनिक संदर्भ में पाठक के साथ साझा करते हैं ।
'प्लेन और कवारंटेन' राजेंद्र सिंह बेदी की यह पुरानी कहानी आज के संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो उठी है । इस दुर्लभ और गुमी हुई कहानी को पुनः पाठकों तक पहुंचाना पहल के इस अंक की एक उपलब्धि है । इस अंक में तीन लंबी कहानियां है मनोज रूपड़ा की 'दहन' , एस आर हरनोट की 'एक नदी तड़फती है' और गौरीनाथ की 'हिंदू' । तीनों ही कहानियां जैसा संपादकीय में कहा गया है , औपन्यासिक विन्यास को छूकर निकल जाती है और आज के समय की भयावहता को अतीत की सुरंग से जोड़ती हैं ।
इन तीन लंबी कहानियों के साथ-साथ दस अन्य कहानियां है , जो अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ-साथ वर्तमान समय की त्रासदी की चित्कार दर्ज करती हैं । 'कहानी में ऐसे पात्रों का वातावरण हमेशा बना रहता है जो समाज से बहिष्कृत हैं और समाज के सीमांतों पर भटकते रहते हैं ।' फ्रैंक ओ कोन्नोर का यह वाक्य इन सभी कहानियों की पृष्ठभूमि में गूंजता रहता है ।
मीमांसा के लिए पहल के इस कहानी अंक पर त्वरित टिप्पणी की है लेखक एवं पत्रकार कुमार मुकुल ने ।
एक चिथड़ा समय की कहानियां मुकम्मल क्यों हों – कुमार मुकुल
‘पहल’ के कहानी अंक 122 को पढते लगा कि वे मुकम्मल नहीं हैं, फिर सोचा कि यह समय ही कहां मुकम्म्ल है, फिर यह चीजों को मुकम्म्ल शक्लें क्यों लेने देगा भला! यह समय जो हमें जड़ें जमाने के पहले ही उखाड़ दे रहा। अगर ‘हत्यारों की कहानी का कोई शीर्षक नहीं होता’ तो फिर हत्यारे समय की कहानियां ही क्यों मुकम्मल हों ! इस संकलन की अधिकांश कहानियों में बिखराव है और ये इस बिखरे समय का दस्तवेज हैं, जिनमें इस चिथड़ा समय की धजिज्यां दर्ज हैं।
मनोज रूपड़ा की लंबी कहानी ‘दहन’ में एक अराजक माहौल का चित्रण है, एक युवक के अराजक विकास की कहानी है यह। यह विकास उसके अंतरमन को नये ढंग से गढ़ता है, जिसमें समय की क्रूरता उसके छुपे चेहरे की तरह पैबस्त है। कहानी के आरंभ में लगता है कि एक बिल्ली के बच्चे का भोलापन मनुष्यों के एक परिवार को और मानवीय और भोला बनाएगा। पर होता कुछ और है। मनुष्यों के भीतर अपने अपने समय से मिली और पैबस्त होती जाती क्रूरता उस बिल्ली को तो नहीं ही बख्श्ती उस परिवार और उसके परिवेश का भी विनाश कर डालती है। यह नया समय है, इस आत्मघाती होते जाते समय को कहानी अपने भीतर समेटने की कोशिश करती है।
गौरीनाथ की कहानी ‘हिंदू’ परंपरागत ग्रामीण भारतीय परिवार की कहानी है जो जब गांव से महानगर की जमीन पर आता है तो गांव के भोले कहे जाने वाले लोग उसके साथ भाले सा व्यवहार आरंभ कर देते हैं और भाई के साथ भाई महाभारतीय व्यवहार शुरू कर देता है जो सहज हिंदू व्यवहार है। कहानी का शीर्षक हिंदू बस चौंकाता है। कहानी अपने हिंदू समय के सहज परिणामों को दर्शाने की कोशिश करती है। इस कहानी का आरंभ और अंत कुछ फिल्मी किस्म की तेजी लिए हुए है जबकि कहानी के बीच का हिस्सा मंथर भारतीय ढंग से आगे बढता है।
सुभाष पंत की कहानी हिंदू बनेगा या मुसलमान बनेगा, वाले इंसान की विडंबना को दर्शाती है, कि नये भारत में अब पुराने इंसान के लिए सांस लेना कितना और कैसा दूभर होता जा रहा है। वह अपनी व्यथा कहे तो किससे कहे कि यह समय अब हिंदू व मुसलमान में बंट सा गया है। इंसानों का समय अब शायद कहानियों के हवाले कर दिया गया है, देखें वहां भी वह बचता है कि फना हो जाता है।
मनोज रूपड़ा की कहानी ‘दहन’ की तरह मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी भी इस आभासी कलिकाल में विकसित हो रहे एक युवा की और अपने समय की क्रूरताओं द्वारा गढ़े जा रहे नये इंसान की कहानी है। जिसे अपने समय की चोटें धीरे-धीरे आदमी से एक हथियार में बदलती जा रही हैं। एक ऐसा हथियार जो दिखता तो आदमी है पर जिसका इंसानी मस्तिष्क सिकुड़ता हुआ काले धब्बे सा बचा रह गया है। जिसकी परछाइयां उसे अपने वर्तमान में दफ्न होने को मजबूर करती हैं।
एस आर हरनोट की लंबी कहानी ‘एक नदी तड़फती है’ एक बिखरी कहानी है जिसमें नदी व नदी सी संघर्षशील स्त्री से लेकर वर्तमान कोरोना काल तक की पदचापें हैं। इसका स्त्री चरित्र आंरभ में मेधा पाटकर सा लगता है। कहानी के मध्य में मिथकों से ली गयी कथा पैबस्त है। यह कथा कम डायरी ज्यादा लग रही।
हरियश राय की कहानी ‘महफिल’ में मौजूदा निजाम में लंगा गायकों की नरक होती जिंदगी का विवरण है। कहानी पढ सवाल उठता है कि लोकतंत्र में ऐसी महफिलों की जगह क्योंकर हो, सवाल यह भी है कि अगर ये महफिलें ना हों तो ये गायक किस दिशा का रूख करें कि उनका दाना-पानी चल सके। कहानी में जिस तरह से लंगा गायक का भुक्खड़पन उभारा गया है वह उन्हें शर्मिंदा करता सा लगता है। हालांकि कथाकार उसके प्रति दया का व्यवहार दिखाने वाला पात्र उसके साथ दिखाता है पर कहानी जिस तरह लंगा समाज के प्रतिनिधि की दयनीयता दिखाता है उस मुकाबले उसके शोषकों की गलाजत को उभार नहीं पाता।
एक कहावत है – माले मु्फ्त दिले बेरहम। इसका जो भी अर्थ हो पर शंकर की कहानी ‘एक बटा एक’ बतलाती है कि मुफ्त का माल बड़ी बेरहमी से हमारा दिल तोड़ता है। हमारी मुफ्तखोरी की मानसिकता को बढ़ावा देता बाजार कैसे हमारा दोहन करता है हमारी जेबें तराशता है यही इस कहानी का थीम है। जिसमें आधुनिकता का बट्टा अलग से लगता जाता है।
हरि भटनागर की कहानी ‘छाया’ अपने कथ्य से लेकर प्रस्तुति तक इस कहानी अंक की बाकी कहानियों से अलग है। उसका वर्ग अलग है। यूं विषय ऐसा है कि किसी भी वर्ग में अपनी छाया वह छोड़ता नहीं। पर हाशिये पर टिके श्रमिक वर्ग में उसकी झुर्रियां अलग से दिखती हैं।
कैलाश वनवासी की कहानी में गेट जैसी कठिन परीक्षा में असफलता के बाद पिता-पुत्र के अंतरद्वंद्व व परस्पर के दबावों का मार्मिक चित्रण है। कहानी दिखाती है कि किसी तरह बेटे को परीक्षा में असफलता के दबाव से मुक्त करने की कोशिश करता पिता खुद सामाजिक व्यवस्था के दबाव में घिरता चला जाता है। यह एक यथार्थवादी कहानी है जिसमें जीवन है अपने त्रास व पीड़ा के साथ अभिव्यक्त हुआ है।
प्रज्ञा की कहानी ‘बुरा आदमी’ व्यक्ति के मनोविज्ञान की पड़ताल करती रोचक कहानी है जो बताती है कि बुरे और अच्छे आदमी के बीच की दरार बहुत पतली होती है, मनुष्यता और पशुता की बारीक फांक की तरह।
नवनीत नीरव की कहानी ‘दुश्मन’ एक पर्यटन रपट सी है। पर्यटन के दौरान पर्यटकों को जंगल में अपने पथ-प्रदर्शक की त्रासद जीवन गाथा सुनने को मिलती है। जिस एडवेंचर की खोज में वे जंगल की सैर को आए थे वह तो कुछ खास नहीं मिलता पर उसके गाइड की जीवन गाथा साक्षात एडवेंचर साबित होती है। कैसी विडंबना है कि आदमी पशु जीवन में एडवेंचर खोजता है पर आर्थिक और जातिगत विषमताएं आदमी आदमी के बीच की फांक में न जाने कितने एडवेंचर छुपाए रखती हैं।
शहादत की कहानी ‘आबादगारी’ दहेज की विडंबना को दर्शाती बताती है कि हिंदू समाज की तरह मुसलमान समाज को भी इसने उसी तरह ग्रस रखा है। युग चाहे मोबाइल हो पर स्त्रियों के लिए उसकी आग राममोहन राय के जमाने वाली ही है।
प्रदीप जिलवाने की कहानी ‘भ्रम’ एक जादुई किस्से के बहाने जल-प्रदूषण के यथार्थ को सामने रखने की कोशिश करती है। यूं जल प्रदूषण के खिलाफ इस देश में कई बुजुर्ग अपनी जान दे चुके हैं जिन्हें हम बाबा आदि कह-मान कर भी बिसरा देते हैं। इन बाबाओं की कहानी को जानने कहने की कोशिश भी होनी चाहिए।
इस अंक की कहानियों से गुजरते लगा कि जैसे अब पहले की तुलना में कहानी लिखना आसान हो गया है और वह एक रपट की तरह आंखन देखी में सीमित होती जा रही है। कुल मिलाकर पहल के इस कहानी अंक की उपलब्धि जिलवाने की कहानी की जलपरी की तरह है जो दिमाग में चाहे जो रूप लिये हो पर अंत में हमें मिलती वह प्रदूषण और समय की विक्रितियों की मारी एक अधेड़ व बदसूरत स्त्री के रूप में ही है।
कुमार मुकुल
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