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'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद
                                         
                                
'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]

                                        मनीष आजाद


1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे।
साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना। 

लेकिन इसी दशक में एक और कला आन्दोलन की भी नींव पड़ी जिसकी चर्चा आमतौर पर कम होती है। वह है-‘थर्ड सिनेमा’ की धारा। सरल शब्दों में कहें तो यह धारा ‘फ्रैन्ज फैनन’ की मशहूर किताब The Wretched of the Earth से प्रेरणा लेती है। यानी यह धारा महज यथार्थ के ‘सही’ चित्रण तक ही अपने को सीमित नही रखती (जैसा कि नवयथार्थ की योरोपियन धारा में था) बल्कि इस यथार्थ को बदलने में अपनी भूमिका भी निभाने का प्रयास करती है। 
Third Cinema in the Third World
 नामक अपनी महत्वपूर्ण किताब में ‘Teshome Gabriel’ लिखते हैं-

‘‘क्रान्तिकारी सिनेमा का काम सिर्फ निन्दा करना नहीं है या सिर्फ यथार्थ को प्रतिबिम्बित करना भर नही है बल्कि इसे एक्शन का आहृवान करने वाला होना चाहिए।’’

इसके अतिरिक्त यह फिल्म मेकिंग के यूरोपियन तरीके को भी नकारती है। ‘Imperfect Cinema’ का रिश्ता भी यहीं से हैं।
1969 में दक्षिण अमरीकी देश ‘बोलिविया’ में एक ऐसी ही फिल्म का निर्माण हुआ जो आज थर्ड सिनेमा की प्रतिनिधि फिल्म कही जाती है। यह फिल्म थी Blood of the Condor
जिसके निर्देशक थे Jorge Sanjines जो जीवन भर ऐसी ही फिल्मों के प्रति समर्पित रहे।


फिल्म में बोलिविया की एक जनजाति को दिखाया गया है। यहां एक अमरीकन ‘पीस संगठन’ काम करता है जो इन जनजातियों का मुफ्त इलाज करता है। और इस बहाने जनजाति की महिलाओं की बिना उनकी जानकारी के नसबन्दी कर देता है। हालांकि यह एक सत्य घटना है और फिल्म के प्रदर्शन के बाद जनता के आन्दोलन के दबाव में इसे अपना बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ा। लेकिन फिल्म में यह एक रूपक के रूप में भी आता है कि कैसे साम्राज्यवाद देशज संस्कृति को मार रहा है। 

गांव के मुखिया को जब इसकी जानकारी लगती है तो वह इसका विरोध करता है। उसके इस विरोध के कारण स्थानीय पुलिस आफिसर उसे गोली मार देता है। मुखिया की पत्नी घायलावस्था में उसे लेकर शहर आती है जहां मुखिया का छोटा भाई रहता है। छोटा भाई वहां अपनी संस्कृति व रहन सहन छोड़कर योरोपियन तरीके से रहने का प्रयास कर रहा होता है। छोटा भाई अपने भाई को अस्पताल में भर्ती कराता है। डाॅक्टर कहते हैं कि उसे तुरन्त ब्लड देना होगा। लेकिन ब्लड खरीदने के लिए उसके पास पैसे नही है। ब्लड का इन्तजाम करने के लिए वह यहां से वहां भटकता है। 

पैसे के लिए वह चोरी करने की भी सोचता है। यह दृश्य ‘बाइसिकिल थीफ’ की याद दिलाता है। इसी प्रक्रिया में वह एक बड़े डाॅक्टर से मिलने का प्रयास करता है। लेकिन वह अमेरिकन डेलिगेशन के साथ व्यस्त हैं। यह दृश्य प्रेमचन्द की मशहूर कहानी ‘मंत्र’ की याद ताजा कर देता है।

दरअसल किसी भी कलाकृति की यह सामर्थ्य होती है कि वह आपकी स्मृति को कुरेदती रहती है और इस बहाने आपसे कहती है कि वह कोई अलग थलग चीज नही है बल्कि जनता की एक समृद्ध परम्परा का ही हिस्सा है। 
बहरहाल इस बहाने फिल्म पूरे बोलिवियाई समाज का कच्चा चिट्ठा सामने रखती है और साम्राज्यवादी-पूंजीवादी संस्कृति और जनता की संस्कृति के बीच एक तनाव पैदा करने में सफल रहती है। 
फिल्म के अन्त में छोटा भाई अपना यूरोपियन परिधान छोड़कर देशज परिधान में आ जाता है और बड़े भाई की पत्नी के साथ अपने गांव लौट आता है। यह प्रतीक है एक बड़े परिवर्तन का-‘व्यक्तित्वान्तरण’ का। 
इस वक्त का बैकग्राउण्ड संगीत काफी प्रभावशाली है। फिल्म के अन्त में कई बन्दूकें स्क्रीन पर freeze-framed के रूप में उभर आती हैं। यह स्पष्ट संकेत है बगावत का।
शुरू में फिल्म को बोलिवियाई सरकार ने प्रतिबन्धित कर दिया। लेकिन जन दबाव में इसे रिलीज करना पड़ा। इस फिल्म का असर इतना जबर्दस्त था कि सम्बन्धित अमरीकी ‘पीस कार्प’ को बोलिविया से अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा।
योरोपियन फिल्म कला के विपरीत इसमें ‘क्लोज अप’ का इस्तेमाल काफी कम किया गया है। ‘लांग साट्स’ का प्रयोग अधिक है, ताकि सामाजिक सन्दर्भो को अच्छी तरह समेटा जा सके। लेकिन जब इस फिल्म को बोलिविया की उस जनजाति को दिखाया गया, जिसपर यह बनायी गयी है तो ‘फ्लैश बैक’ के माध्यम से वर्तमान व अतीत को साथ साथ (Interpolation) बयां करने की तकनीक के कारण उन्हे इसे समझने में दिक्कत आयी। बाद में निर्देशक Jorge Sanjines को यह समझ में आया कि वास्तव में कहानी बयां करने की यह सिनेमाई तकनीक भी योरोपियन है। फलस्वरूप अपनी बाद की फिल्मों में Jorge Sanjines ने कहानी बयां करने की यह तकनीक पूरी तरह से छोड़ दी।

अपने देश में भी इस कैटेगरी में फिल्में बनी हैं। लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। यहां का ‘समानान्तर सिनेमा’ अपनी प्रेरणा यूरोपियन नवयथार्थवाद से लेता रहा है, थर्ड सिनेमा से नहीं। ‘निशान्त’, ‘मिर्च मसाला’ जैसी फिल्में जरूर थर्ड सिनेमा की कैटेगरी में आ सकती हैं।

मनीष आजाद
( चित्र - मनीष अबीर के साथ )
मनीष लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। पिछले दिनों इनकी लिखी जेल डायरी चर्चा में रही है। प्रतिरोध के साहित्य और सिनेमा का आधिकारिक अध्ययन है। मीमांसा के लिए सिनेमा पर लिख रहे हैं।

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