संस्मरण
हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।
लेखक जी तुम क्या लिखते हो
सोनू चौधरी
हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा।
बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है। मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना ।
मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो अब तक ज़ारी है । ये मन प्रेमचंद,शरतचन्द्र,महाश्वेता देवी ,महादेवी ,मैथलीशरण गुप्त ,दिनकर ,कबीर,शिवानी ,कृष्णा सोबती ,घनानंद ,धूमिल ,पाश ,श्रीकांत वर्मा ,रघुवीर सहाय ,त्रिलोचन ,असद जैदी ,अज्ञेय ,मुक्तिबोध,परसाई,मंटो ,विनोबा भावे,रवींद्रनाथ टैगोर,कुसुमाग्रज,नागार्जुन ,रांगेय राघव,कन्हैयालाल सेठिया,हजारी प्रसाद दिवेदी,शैलेन्द्र मटियानी, रामचंद्र शुक्ल ,चेखव ,ब्रेख्त ,पाब्लो ,काफ्का और भी न जाने कितने महत्वपूर्ण नामों की सारी रचनाओं को खोज-खोज कर जज्ब करना चाहता है ।जैसे प्यासा जल की खोज में जंगल -पर्वत-घाटी पार करता जाता है। ये मन आज अपने सामने दिख रहे दिग्गजों को भी पढ़ना चाहता है । ये यात्रा ज़ारी है। कहा भी गया है न कि मण भर अच्छा साहित्य पढ़ना कण भर लिखने के लिए जरूरी है । शायद तभी पुस्तकालय मेरे लिए किसी मन्दिर से कम नहीं रहे।
आईये शुरू से बताती हूँ कि साहित्यिक नींव की मिट्टी कहाँ से मिली ....
11 बरस की अबोध उम्र अल्हड़पन की बलैयां लेने की उम्र होती है !!
सब आपके कद और चोटी की लम्बाई से आपको बड़ा मान रहे होते हैं पर यकीनन आप उतने बड़े भी नही होते !
रैक के सबसे ऊपर पड़ी किताबों और पत्रिकाओं को लेने की जुगत में दो बार स्टूल से गिर चुके होते हो और अगले दिन थोड़ा लंगड़ा कर चलने के बावजूद किसी की पुचकार नहीं मिलती और ध्यान दिलाने पर याद दिलाया जाता है कि ध्यान से हर काम करो क्योंकि अब आप उतने छोटे भी नहीं रहे।
तीसरी बार स्टूल पर चढ़ते ही पीछे से बड़ा भाई आकर धौल जमाते ही पूछता है क्या चाहिए ? आप संतुलन सम्भालते हुए अपने से दस साल बड़े भाई के सामने याचक दृष्टि से बोलते हो 'धर्मयुग '
भाई हँसते हुए आपको धर्मयुग पकड़ाते हुए कहता है नीचे मेज पर नंदन, ट्विंकल पढ़ ।
बड़ों की मैगजीन क्यों पढ़ रही है ?
अच्छा जी, जब मचलो किसी नन्हीं जिद पर तो मैं बड़ी और धर्मयुग पढना हो तो छोटी ! ,पर ये बड़े छोटे भाई- बहन किसी देवदूत से कम नहीं होते ,ऐन मौके पर श्वेत-श्याम जिन्दगी को रंगबिरंगी कर देते हैं।
मैं नीचे फर्श पर अपनी फ्राक फैला कर बैठी हूँ और मेरी छोटी सी गोद में बड़ी सी धर्मयुग हैं .धर्मयुग ही क्यों कादम्बिनी और मनोरमा भी अपने बड़े आकार के साथ उस दशक में लोकप्रिय थी ।
यह 1980 का युग था ये धर्म युग था ऐसा नही कह सकती क्योंकि 1980 कई उलट पुलट घटनाओं का गवाह था ।
मैं अखबार पढ़ती थी और किशोरवय की विद्रोही उम्र के करीब यह पहेली बूझती थी कि लड़ाई प्यार से ज्यादा जरूरी है और प्यार पाने के लिए भी ,माँ की गोद की उम्र नही थी पर लाड़ लड़ाने की तो थी ।अपने से 5 साल की छोटी बहन (जिसे दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार करती हूँ )को माँ और स्नेहिल बड़ी बहन के पास देखते ही लड़ने दौड़ पड़ती.पर जल्द ही उसकी प्यारी शरारतों में खो जाती ।
अख़बारों में ही नहीं धर्मयुग में खबरों के विश्लेषण आते थे पर अल्हड़पन में कुछ हेडलाइन ,डब्बू जी,कविता,गीत और चित्रांकन ही धर्मयुग की ओर खींचता था।कभी कभी माँ का अस्फुट स्वर सुनाई देता जब वे धारावाहिक कहानी पढ़ने में इतनी तन्मय हो जाती कि पात्रों के साथ जुड़ कर बोलने लगती .या फिर हम खिलंदड़ इतना शोर मचाते कि उन्हें बोल बोल कर उस रोचक कहानी को पूरा करना होता ,तब उस रात मेरा उनसे यही आग्रह रहता कि वे वो ही कहानी सुनाएँ पर वे मुझे नन्हीं मान टाल जाती और कोई बच्चों की कहानी सुनाती। उन्हें क्या पता कि मैं भी बिना पल्ले पड़े कहानी को पढ़ चुकी होती थी।फणीश्वर नाथ रेणु ,महाश्वेता देवी पर आये आलेखों पर बड़ा भाई और बहन चर्चा करते ,कुछ राजनैतिक मसलों पर भी परिवार में संवाद होता .इन सब अनौपचारिक वार्तालापों ने मुझ पर बहुत असर डाला .परिवार में हिंदी को विशेष प्रोत्साहन मेरे भीतर हिंदी में अत्यधिक रूचि उपजने का एक मुख्य कारण बना .पर इसके पीछे भी एक रोचक किस्सा था.
अख़बारों में ही नहीं धर्मयुग में खबरों के विश्लेषण आते थे पर अल्हड़पन में कुछ हेडलाइन ,डब्बू जी,कविता,गीत और चित्रांकन ही धर्मयुग की ओर खींचता था।कभी कभी माँ का अस्फुट स्वर सुनाई देता जब वे धारावाहिक कहानी पढ़ने में इतनी तन्मय हो जाती कि पात्रों के साथ जुड़ कर बोलने लगती .या फिर हम खिलंदड़ इतना शोर मचाते कि उन्हें बोल बोल कर उस रोचक कहानी को पूरा करना होता ,तब उस रात मेरा उनसे यही आग्रह रहता कि वे वो ही कहानी सुनाएँ पर वे मुझे नन्हीं मान टाल जाती और कोई बच्चों की कहानी सुनाती। उन्हें क्या पता कि मैं भी बिना पल्ले पड़े कहानी को पढ़ चुकी होती थी।फणीश्वर नाथ रेणु ,महाश्वेता देवी पर आये आलेखों पर बड़ा भाई और बहन चर्चा करते ,कुछ राजनैतिक मसलों पर भी परिवार में संवाद होता .इन सब अनौपचारिक वार्तालापों ने मुझ पर बहुत असर डाला .परिवार में हिंदी को विशेष प्रोत्साहन मेरे भीतर हिंदी में अत्यधिक रूचि उपजने का एक मुख्य कारण बना .पर इसके पीछे भी एक रोचक किस्सा था.
मेरा जन्म शिवालिक पहाड़ियों से आच्छादित हनुमानगढ़ में हुआ .यह राजस्थान के उत्तर में बहने वाली घग्गर नदी के किनारों पर बसा एक छोटा सा ऐतिहासिक कस्बा था जो गंगानगर से अलग होकर 1994 में एक स्वतंत्र जिला बना. सदियों पहले यहाँ सरस्वती नदी बहती थी और यह जगह भटनेर कहलाती थी .भटनेर का विख्यात किला जैसलमेर के भाटी राजा भूपत सिंह ने बड़ी खूबसूरती से बनवाया था पर बीकानेर के राजा सूरत सिंह ने मंगलवार के दिन इसे जीत कर इसका नाम रखा हनुमानगढ़ ! 5000 वर्ष पुरानी सिन्धु घाटी सभ्यता का केंद्र कालीबंगा,पीलीबंगा रंगमहल ,गोगामेड़ी ,भद्रकाली का मन्दिर हनुमानगढ़ की मंत्रमुग्ध कर देने वाली विरासतें हैं जिन पर मुझे गर्व है .यहाँ एक मीठे पानी की झील है तलवाड़ा ,कहते हैं यहाँ पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी का युद्ध हुआ था .
तो हुआ यूं कि मेरे जन्म से कुछ समय पूर्व ही पिता का स्थानान्तरण जयपुर से हनुमानगढ़ हुआ.अंग्रेजी स्कूल में पढ़े मेरे भाई-बहन के लिए इस कस्बे का हिंदी माध्यम का स्कूल किसी युद्धक्षेत्र से कम न था तब परिवार में यह निर्णय लिया गया कि हिंदी के नये वाक्यों और शब्दों को अधिक से अधिक पढ़ा-सुना-बोला जाए.हमारे घर में हिंदी का सम्मान और भाषा की शुद्धता पर शुरू से ही आग्रह था क्योंकि पिता और माँ दोनों को पढ़ने लिखने का शौक था। कुल मिला कर हिंदी की ये नींव मजबूत इमारत बना गयी। .धर्मयुग का हर अंक घर भर में पढ़ा सहेजा जाता रहा ,जो बाद में काल कलवित हो गया .बहुत वर्षों तक पुराने अंकों को पुनःपुनः चाव से पढ़ा जाता . 11 से 16 बरस की उम्र को धर्मयुग के पंख लगे थे .धर्मवीर भारती की रचनाएँ और सम्पादकीय को पढ़ना गजब था। गुनाहों के देवता घर घर पहुंच गाए थे। .कादम्बिनी या मनोरमा में महादेवी वर्मा और शिवानी की कहानियाँ भी अगले कई बरस पढ़ी मैने । दिन पंख लगा कर उड़ते थे ।बड़े साहित्यिक नामों को जानना और पढ़ना बेहद सुखद था । बाद में मक्सिम गोर्की को पढ़ना किसी अथाह नदी में डुबकी लगाने जैसा था । मेरा बचपन और माँ उपन्यास को कितनी ही बार पढ़ा, रूस और लेनिन को तब गोर्की के माध्यम से ही जाना।
मुझसे कुछ टूटी फूटी कहानी कविताएँ अपनी नन्हीं बहन पर रोब जमाने के लिए बननी शुरू हो गयी थी ।
1980 का साल बड़े घटनाक्रमों का साक्षी बना .संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत ,इंदिरा गांधी का इस दुखद घड़ी में अपने जज्बातों पर काबू, जहाँ विमान गिरा था उस जगह पर इंदिरा जी का कुछ खोजना भी फोटो सहित धर्मयुग में सलेटी बॉक्स में छपा था , धुंधली सी याद है मुझे।
टेलीविजन नेटवर्क का प्रसारण ,प्रेमचंद के निर्मला उपन्यास का दूरदर्शन पर रूपांतरण,शकुंतला देवी का कैलकुलेटर से तेज दिमाग जिन्होंने 13 अंकों को अल्प समय में गुणा करने की परीक्षा में सफल होकर विश्व भर में उसी साल अपना लोहा मनवाया । मदर टेरेसा के सेवा कार्य ,पृथ्वी की कक्षा में रोहिणी उपग्रह (उस समय लगता था सबकी कक्षा लगती है )
ये सब 1980 के साल की कभी न भूलने वाली घटनाएँ थी पर मेरे व्यक्तित्व पर असर डालने वाली ,मुझे लिखने के लिए प्रेरित करने वाली पहली रचना थी एक गीत जो इसी 1980 के बरस धर्मयुग में छपा .मैने उसे इतनी बार पढ़ा कि यह आधा अधूरा याद में दर्ज हो गया।इस गीत की पहली पंक्ति "लेखकजी तुम क्या लिखते हो" कहते हुए मैं सारे घर में दौड़ लगाती, रुक कर चिड़ियों को देखती और लिखती --
देखो कितना सुंदर गाती
ची ची चिड़िया पंख फैलाती
जब देखो तब माँ भी
फुर्र फुर्र कह के इन्हें उड़ाती
कौन देगा दाना पानी की इनको मीठी सौगात
कौन बनेगा साथी इनका ,कौन करेगा बात
ये अल्हड़ बीज थे लेखन के ।
1981 में आई बाढ़ धर्मयुग और कई सारी पत्रिकाओं के कुछ सहेजे अंक अपने साथ ले गयी पर छोड़ गयी वे अमिट यादें ...लेखक जी तुम क्या लिखते हो
अभी हाल ही में समालोचन के एक अंक में इस गीत को आदरणीय कृष्ण कल्पित सर के लेख के साथ पूरा पढ़ने पर न जाने कितने बरस पुरानी आस की तृप्ति हुई और उस वक्त की एक -एक घटना जेहन में तिर गयी।
लेखकजी तुम क्या लिखते हो
हम मिट्टी के घर लिखते हैं
धरती पर बादल लिखते हैं
बादल में पानी लिखते हैं
मीरा के इकतारे पर हम
कबिरा की बानी लिखते हैं
सिंहासन की दीवारों पर
हम बाग़ी अक्षर लिखते हैं
काग़ज़ के सादे लिबास पर
स्याही की बूँदों का उत्सव
ठहर गया लोहू में जैसे
कोई खारा-खारा अनुभव
फूलों पर ख़ुशबू के लेखे
बंदूकों में डर लिखते हैं !
शुक्रिया आदरणीय कृष्ण कल्पित सर मेरे लेखन बीज के लिए !! इसे संयोग ही कहूंगी कि अब आपकी किताब कविता रहस्य मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक है । और अब तीव्र उत्कंठा है कि हिंदनामा पढूं !
जब भी लिखने बैठती हूँ , यही पहला कालजयी सवाल मेरे मन में कौंधता है
“लेखक जी तुम क्या लिखते हो”
राजस्थान के हनुमानगढ़ में जन्म।सूचना शिक्षा एवं संचार विशेषज्ञ के रूप में सहायक निदेशक के पद पर जमीनी स्तर पर जुड़ कर कार्य करने का अनुभव।,विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं ,आकाशवाणी ,दूरदर्शन में विविध विधाओं में प्रकाशन,प्रसारण।वर्तमान में कविता,प्रोज,कहानी,शोध आदि में सक्रिय।
बहुत सुंदर लिखा । सोनू चौधरी और मीमांसा को धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंसोनू चौधरी जी बहुत सुंदर लिखा आपने। वही समय होता है जब बहुत सारा अंत: में समा जाता है। शुभकामनाएं।
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