संभावना
मेघा मित्तल
मेघा मित्तल की कविताएँ बेशक अनगढ हैं लेकिन ये अपने स्वत:स्फूर्त उद्वेग और भीतरी ऊर्जा से आश्वस्त करती हैं। वे स्वयं को, दूसरों को और चीजों को निस्पृह भाव और आलोचनात्मक ढंग से देखती हैं। छात्र- युवा आन्दोलनों से संलग्नता ने उनमें अभिव्यक्ति के लिए खास तरह की बैचेनी पैदा की है जिसे व्यक्त करने के लिए वे अपनी शैली तलाश रही हैं ।
बातें
इन महानगरों की सड़कों पर चलते हुए
हम अक्सर बातें करते हैं
“अरे! यह गाड़ी कितनी सुंदर है,
इस गाड़ी का रंग अच्छा है,
कुछ साल बाद हम यह गाड़ी खरीदेंगे,
नहीं, यह गाड़ी बड़ी नहीं है,
इस बाईक को कैसे चलाते हैं,
हमारी बाईक भी बढ़िया चलती है,”
अगर यही सफर हम किसी गांव की
कच्ची मिट्टी भरे रास्ते पर करते
तो शायद बातें कुछ ऐसी होती
“देखो, यह पेड़ कितना सुंदर है,
अरे, यहां आम आ गए,
रघु चाचा खेत में कितनी मेहनत कर रहें हैं,
हां, चलो पोखर चलते हैं,
कुछ ही दूर पर पक्की सड़क है,
वो काकी आज दिन में ही घर लौट रही है”
कहानी- सी हूं !
मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी ने दो पंक्तियों में पढ़ दी,
और कोई किताबें ढूंढ़ता है,
लिखने के लिए।
मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी को लगी आसान बहुत
और कोई तरीके ढूंढ़ता है,
समझने के लिए।
मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी ने पानी से मिटायी
और कोई रंग ढूंढ़ता है,
सजाने के लिए।
मैं एक कहानी सी हूँ
जो किसी ने दुनिया को सुनायी
और कोई मुझे ही ढूंढ़ता है,
सुनाने के लिए।
सुनो !
सुनो!
तुम सिगरेट पीना छोड़ दो
तुम्हारे नथनों और होंठों से
निकलता धुंआ देख मुझे खौफ़ आता है
ख़ौफ़ कि कहीं किसी दिन मुझे भी
अपनी दो उंगलिओं के बीच पकड़कर,
होठों में दबाकर
लाइटर से आग न लगा दो
और कश दर कश मुझे धुएं में न उड़ा दो
मैं सुलग जाऊंगी
तुम हर कश के साथ मेरे वजूद को
मिटाते चले जाओगे
मैं धीरे धीरे जलती जाऊंगी
और बुझती जाऊंगी
और राख होकर तुम्हारे ही कदमों में गिरती जाऊंगी
तुम मेरे एक एक हिस्से को राख होने के बाद
झटककर जमीन पर गिराते जाओगे
पहलों पहल मेरे गेसुओं में आग लगेगी
जो जंगल में चिंगारी की तरह फैलती जाएगी
तुम जैसे ही पहला कश लोगे
तो मेरी रोती हुई आंखों से न सिर्फ आंसू सूखेंगें
वो आंखें भी जल जाएंगी
और अभी तो मैं तुम्हें बोल कर
रस्में, वो कसमें याद दिला ही रही होंगी
की अगला काश छीन लेगा मुझसे
मेरी आवाज और अल्फ़ाज़
इसी तरह तुम फिर मेरे कन्धे
मेरी छाती, मेरी नसें सब जला दोगे
और जब मेरे दिल का कश भरने लगोगे न
तो थोड़ी धसक सी होगी
थोड़ी जलन सी होगी
अब ये जो इतना दर्द मुझे देने के बाद हल्का सा तुम्हें होगा
उसके बाद तुम बुझा कर फेंक दोगे
मेरे पैरों के हिस्से को
तुम्हें लगेगा कि मैं इनसे दोबारा अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊंगी
मगर नहीं
मैं कुचली जाऊंगी
पहले तुमसे
फिर आने जाने वाले न जाने कितने राहगीरों से
सुनो!
इसलिए मैं कहती हूं कि तुम सिगरेट पीना छोड़ दो
तुम्हारे नथनों से और होंठों से
निकलता धुंआ देख मुझे ख़ौफ़ आता है
की कहीं किसी दिन मुझे भी तुम
राख न बना दो
वो राख जिसे तुम पछतावा होने पर
समेट कर
मेरी अस्थियों का कलश भी न बना पाओगे
जिसे तुम गंगा में बहा दो
मैं मौसम में धुंआ बनकर तुम्हारे इर्द गिर्द तो होंगी
मगर मुझे चूमकर, मुझपे हाथ रखकर तुम यह नहीं
कह पाओगे कि हां, हवा का यह कण मेरा है
मुझे अपने आगोश में भरकर
मेरे माथे को चूमकर
तुम ये न कह पाओगे
की मैं तुम्हारे दिल में बस्ती हूं
सुनो,
इसीलिए मैं कहती हूं
कि तुम सिगरेट पीना छोड़ दो
स्त्रियाँ बनाम स्त्रियाँ
सभी स्त्रियां नहीं होती
एक दूसरे की सहेलियां
जैसे सभी पुरुष होते हैं
एक दूसरे के यार
मां बनी स्त्री सिखाती है
बेटी बन आई स्त्री को
झाडू, बर्तन, सिलाई
और घर परिवार की चुगलियां
चुप रहना, मार सहना
घर में रहना
और
पति को ईश्वर कहना
वो नहीं बताती उसे
सेक्स की आजादी,
बराबरी का अधिकार,
खुद का कारोबार।
मां बनी स्त्री
बेटी बन आई स्त्री को
नहीं बनाती
आत्मनिर्भर।
सास बनी स्त्री
देती है
बहू बनी स्त्री को ताने
कसती है फब्तियां
निकालती है खामियां
वो नहीं सिखा पाती उसे
स्त्री होने से पहले
इंसान होना।
वो नहीं दे पाती उसे
वो आजादी
जो वो खुद अपने लिए चाहती थी
जब बहू बनी थी वो
सास बनी स्त्री
बहू होना भूल जाती है
और सास बन
वही सब करती है
जो उसने देखा था
अपनी सास को करते हुए।
बेटी बनी कुछ स्त्रियां
बुनती तो हैं सपने
चाहती हैं वो उड़ना
निकलना स्त्रियों के जंजाल से
बदलना स्त्रियों के व्यवहार को
वो चाहती हैं
पढ़ाई कर स्त्री से
कुछ ज्यादा होना
कुछ स्त्रियां बन जाती हैं
डॉक्टर, मिनिस्टर, साईंटिस्ट
और कुछ बनी रह जाती हैं केवल
बहू,
मां,
सास।
स्त्री, संभालते हुए
समाज के नियमों को
खुद को खत्म कर देती हैं,
एक दूसरे के खिलाफ
खड़े होकर।
आजादी का गीत
खुले आसमान को देखती हूं
तो एक ही शब्द
दिमाग़ में आता है
"आज़ादी"
किसको? किससे?
मालूम नहीं
शायद जो मजदूर है
उसकी मजदूरी से आज़ादी
ग़रीब को गरीबी से आज़ादी
अमीर को दिखावे से आज़ादी
जो उड़ सकता है
उसको चलने की आज़ादी
जो चल रहा है
उसे दौड़ने की आज़ादी
जो चुप है, उसे बोलने की आज़ादी
बोलने वाले को, अपने मन का
बोलने की आज़ादी
जो पेड़ है, उसे पेड़ न बने रहने की आज़ादी
ज़मीन को नदी
और
नदी को ज़मीन हो जाने की आज़ादी
जो कैद है, उसे रिहा होने की आज़ादी
जो भटक रहा है, उसे घर आने की आज़ादी
जो आदेश दे रहा है
उन्हें न मानने की आज़ादी
मिट्टी में लेट कर बच्चा हो जाने की आज़ादी
जो किसी के इंतज़ार में है
उसे मिल आने की आज़ादी
जो सपने बुन रहा है
उसे आसमान छूने की आज़ादी
नौकरी पर जाते जाते
न जाने की आज़ादी
भागकर पुराने दोस्तों से
गले मिल आने की आज़ादी
पेट भरने के लिए दिन रात की घिसन से आज़ादी
किसी सुबह में चादर तान कर
सोने की आज़ादी
किसी ओर का बोझ
अपने कंधे पर न ढोने की आज़ादी
अपने ख्यालों को खुल के बताने की
आज़ादी
जो नामुमकिन सी है
उन्हीं बातों को कर दिखाने की आज़ादी
अपने दुखों को भूल जाने की आज़ादी
डर के पार जाने की आज़ादी
अपनी बात रखी जाने की आज़ादी
कही बात सुने जाने की आज़ादी
एक आज़ाद मुल्क से
भाग जाने की आज़ादी
दूर कहीं एक नया मुल्क
बसाने की आज़ादी
"आज़ादी"
आज़ादी के नाम पर
बहता खून रोकने की आज़ादी
और मुझे कहीं भी
यह कविता ख़तम कर देने की आज़ादी।
हरियाणा के रोहतक में रहने वाली मेघा मित्तल ने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली कालेज आफ आर्ट्स एंड कामर्स से पत्रकारिता की पढाई की है। छात्र- युवा संघर्षों में सक्रियता के साथ उन्वान सांस्कृतिक समूह बनाया जिसने फेसबुक पर अपने लाइव कार्यक्रमों की श्रृंखला से अलहदा पहचान कायम की है। इसी के साथ मेघा आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए कापी-राइटिंग व एंकरिंग करती रही हैं। वे हिन्दी के साथ अंग्रेजी में भी कविताएँ लिखती हैं।
संपर्क : (M) 8221870341
Email : meghamittal666@gmail.com
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