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दि एक्ट आफ किलिंग

सिने -संवाद
मीमांसा पर सिने संवाद कि इस कड़ी में  मनीष आजाद  बात कर रहे हैं ,2012 में आयी ऑस्कर नामांकित फिल्म  'दि एक्ट ऑफ़ किलिंग' की । यह फिल्म इंडोनेशिया में हुए 1965-66 के भीषण जनसंहार के पीछे के स्थानीय एवं अंतरराष्ट्रीय कारको को सामने लाती है , जिसे लगभग अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में विस्मृत कर दिया गया है । फिल्म 55 साल पहले हुए इस जनसंहार के वर्तमान पर अच्छादित आतंक के बादलों को भी रेखांकित करने का साहस करती है ।
‘दि एक्ट आफ किलिंग’ [The Act of Killing]
                                                                                                                                    - मनीष आज़ाद 
आज से ठीक 55 साल पहले इण्डोनेशिया में एक भीषण कत्लेआम हुआ था। 1965-66 में हुए इस भीषण कत्लेआम में करीब 10 लाख लोग मारे गये थे। यह जनसंहार मुख्यतः केद्रित था, ‘इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी’ अर्थात पीकेआई के खिलाफ। उस वक़्त 'पीकेआई' चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी थी. लेकिन इसकी जद में मजदूर यूनियन के सदस्य और बुद्धिजीवी लोग भी थे। बल्कि यो कहे कि इसकी जद में वे सभी लोग थे जो सत्ता से किसी न किसी रुप में अपनी असहमति रखते थे। इस जनसंहार को अंजाम दिया था- सुहार्तो के नेतृत्व वाली इण्डोनेशिया की सेना ने। और बाहर से सहयोग किया था- ‘सीआईए’ (अमरीकी गुप्तचर संस्था) और ‘एमआइ6′ (ब्रिटिश गुप्तचर संस्था) ने। 

इस भीषण जनसंहार का कारण बहुत साफ था। इण्डोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णो उस वक्त वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ‘पीकेआई’ के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर सामंतवाद विरोधी भूमि-सुधार की तैयारी कर रहे थे और देश की अर्थव्यवस्था को अपने पैरो पर खड़ा कर रहे थे। इसी क्रम में इण्डोनेशिया ने अपने आपको साम्राज्यवादी संस्था ‘IMF’ और ‘WORLD BANK’ से अलग कर लिया था। यह बात न ही वहां के प्रतिक्रियावादियों को पसन्द आ रही थी और न ही साम्राज्यवादियों विशेषकर अमेरिका को। यह दौर ‘शीत युद्ध’ का दौर था और सुकर्णो का झुकाव जाहिर है रुस और चीन की तरफ था।
यह तथ्य भी गौर तलब है कि 1966 में तख्तापलट और भीषण कत्लेआम के बाद जब सुहार्तो ने शासन की बागडोर संभाली तो तुरन्त ही इण्डोनेशिया पुनः IMF और WORLD BANK का सदस्य बन गया और उसे तुरन्त ही आईएमएफ से एक बड़ा लोन मिल गया।
तब से लेकर आज तक इण्डोनेशिया की मुख्यधारा की मीडिया और अमरीका और दूसरे यूरोपियन देशों की मीडिया के लिए यह एक वर्जित विषय रहा है। इण्डोनेशिया की इतिहास की किताबों में भी इस पर बहुत कम सामग्री है। वहां की किताबों में इस पूरे अभियान को ‘शुद्धीकरण’ का नाम दिया गया है और इसमें मरने वालों की संख्या महज 85000 बतायी गयी है।
लेकिन 2012 में आयी आस्कर नामांकित फिल्म ‘दि एक्ट आफ किलिंग’ ने इसी वर्जित क्षेत्र में प्रवेश किया है। और विशेषकर यूरोपियन दर्शकों को यह बताने की कोशिश की है कि नाजियों द्वारा किये गए यहूदियों के जनसंहार के अलावा भी ऐसे कई जनसंहार है जो अभी हमारी स्मृति का हिस्सा नही बने हैं।
फिल्म के निर्देशक ‘जोसुआ ओपनहाइमर’ इस फिल्म के लिए पहले उन लोगो के पास गये जो इस जनसंहार के पीडि़त है। अर्थात जिनके परिवार का कोई ना कोई व्यक्ति उस कत्लेआम में मारा गया है। उनसे बात करते हुए उन्होने पाया कि इतने सालों बाद भी वह डर और आतंक कायम है। प्रभावित क्षेत्रों के हर गांव में सेना की टुकड़ी अब भी बनी हुई है जो हर आने जाने वालों पर नज़र रखती है। इसलिए सबने अपने गम और गुस्से का इजहार तो किया लेकिन कोई भी कैमरे पर आने को तैयार नही था। फिर फिल्म कैसे बनेगी? फिर उन्ही पीडि़त लोगों में से कुछ ने इसका 'क्लू' भी दिया। उन्होने फिल्मकार को बताया कि घटना को अंजाम देने वाले लोगो में विशेषकर ‘डेथ स्क्वैड’ के लोग आज भी खुलेआम घूम रहे हैं और उन्हे नेशनल हीरो का दर्जा मिला हुआ है। और उनमें से कुछ किसी फिल्म में काम करने को व्याकुल हैं। यदि उन्हे कैमरे पर आकर अपने पिछले कामों का कच्चा चिट्ठा देने का प्रस्ताव दिया जाय तो शायद वे तैयार हो जाये, क्योकि उन्हे किसी का डर नही और अपने किये का पछतावा भी नही।
इस भीषण जनसंहार को अंजाम देने वालो से मिलना और उनसे इस विषय पर बात करना फिल्म के निर्देशक जोसुआ ओपनहाइमर के लिए बेहद खतरनाक था। लेकिन जोसुआ ओपनहाइमर ने इस खतरे को मोल लिया। और एक के बाद एक उस समय के कई ‘डेथ स्क्वैड’ सदस्यों से मिले और उनमें से कइयों ने कैमरे के सामने बकायदा एक्टिंग करके बताया कि उन्होने कैसे लोगो को मारा है। इसके लिए उन्होंने  मेकअप-कास्ट्यूम आदि का भी सहारा लिए। दृश्य में जान डालने के लिए आपस में ही पीड़ित की भूमिका भी निभायी। दरअसल यह एक तरह से ‘फिल्म के अन्दर एक फिल्म’ है। इसके कुछ वर्णन बहुत ही डिस्टर्ब करने वाले हैं।
फिल्म के मुख्य चरित्र ‘अनवर कांगो’ (जो उस वक्त ‘डेथ स्क्वैड’ का लीडर था और जिसने अपने हाथो से हजारो लोगो को मारा था) बताता है कि परंपरागत तरीके से मारने पर बहुत खून बहता था। इससे बाद में काफी सफाई करनी पड़ती थी। इससे हम कम लोगो को मार पाते थे। फिर हमने एक ऐसी तकनीक निकाली जिससे खून एकदम नही बहता था और मारने में समय भी कम लगता था। इसके बाद हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को मार सके। फिर वह फिल्मकार को अपने घर की छत पर ले गया और बकायदा एक्टिंग करके बताया कि इसी छत पर उसने पतले तार की अलगनी बनाकर कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगो को मारा है।
फिल्म के प्रत्येक दृश्य के शूट को ये लोग देखते थे और अपनी और दूसरे की एक्टिंग पर बकायदा कमेन्ट करते थे। लेकिन किसी ने भी अपने किये पर पछतावा व्यक्त नही किया। लेकिन फिल्म का अंत आते आते अनवर कांगो अपने द्वारा अभिनीत दृश्यों को देखकर विचलित हो जाता है और उसे अहसास होता है उसने गलत किया। उसने निर्दोष लोगो को मारा है और किसी के हाथ की कठपुतली बन गया था। उसे अपने किये का पछतावा होता है और वह कैमरे के सामने ही रोने लगता है।

 कुछ समीक्षकों ने इस दृश्य को फिल्म का सबसे सशक्त दृश्य माना है तो कुछ का कहना है कि इतने जघन्य कृत्यों को अंजाम देने वाले एक व्यक्ति के पछतावे को दिखाकर इसने दर्शकों के अन्दर पनप रहे गुस्से पर पानी का छींटा डालने का प्रयास किया है, यानी भाव का विरेचन करा दिया है। इससे फिल्म की धार कमजोर हो जाती है। उनके अनुसार इस हिस्से को हटा देना चाहिए था। खैर इसका फैसला मै आप पर छोड़ता हूं। लेकिन अनवर कांगो का पछतावा कला के एक बुनियादी सिद्धांत की तरफ इशारा करता है कि किसी भी कला की प्रक्रिया अपने भागीदार में कुछ न कुछ बदलाव जरुर करती है। अक्सर यह बदलाव इतना बारीक होता है कि इसे रेखांकित करना मुश्किल होता है। लेकिन कभी कभी यह बदलाव बहुत बुनियादी होता है जैसा कि अनवर कांगो के मामले में हुआ।
खैर फिल्म काफी सशक्त है और डिस्टर्ब करने वाली है। फिल्म का कमजोर पहलू यह है कि इस जघन्य जनसंहार की पीछे की मुख्य ताकत और उसकी राजनीति पर से यह पर्दा नही उठाती। इसलिए जिन्हे इसका संदर्भ नही पता वे इस फिल्म को उसके सही परिप्रेक्ष्य में नही रख पायेंगे।
सच तो यह है कि लगभग सभी ताकतवर सत्ताओं के अपने अपने जनसंहार हैं। यह अन्तर्राष्ट्रीय समीकरणों पर निर्भर करता है कि किस पर चर्चा होगी और किस पर चुप्पी बरती जायेगी।
इस फिल्म की सफलता से प्रभावित होकर जोसुआ ओपनहाइमर इसी विषय पर एक दूसरी फिल्म भी बनाई है- ‘Look of Silence’. इसे भी काफी अच्छा रेस्पॉन्स मिला।
◆ मनीष आजाद
( चित्र - मनीष अबीर के साथ )
मनीष लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। पिछले दिनों इनकी लिखी जेल डायरी चर्चा में रही है। प्रतिरोध के साहित्य और सिनेमा का आधिकारिक अध्ययन है। मीमांसा के लिए सिनेमा पर लिख रहे हैं।



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