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कविताएँँ- देवेश पथ सारिया

संभावना

विषय नया हो या पुराना देवेश हर बार नई ज़मीन तलाशते हैं ।
                                         सवाई सिंह शेखावत
पिछले कुछ वर्षों में हिंदी कविता में जिन युवा कवियों ने बड़ी तेजी से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है-उनमें राजगढ़ (अलवर) से अनुज देवेश पथसारिया का नाम महत्वपूर्ण है।देवेश सम्प्रति ताइवान में खगोलशास्त्र में पोस्ट डॉक्टरल फेलो हैं।हिंदी की तमाम नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में अनेक बार प्रकाशित होने के अतिरिक्त उनकी कविताएँ डिज़िटल मीडिया के सभी चर्चित ब्लॉग्स पर शाया होती और प्रशंसा बटोरती रही हैं।देवेश के कवि की सबसे बड़ी खूबी यह है उनकी कविताएँ पढ़ते हुए आपको किन्ही ख़ास नई-पुरानी या फिर चर्चा में रहीं समकालीन कविताओं की याद नहीं आती।अपने विषय और प्रस्तुतिगत कौशल में वे सर्वथा अभिनव हैं।नया हो अथवा पुराना किसी भी विषय पर कविताएँ लिखते हुए वे हर बार अपने लिए नई ज़मीन तलाशते हैं।
अब यदि इन्ही कविताओं की बात की जाए तो 'उस शाम की बात' शीर्षक कविता में वे ट्रेफ़िक सिग्नल पॉइंट जैसी आकस्मिक जगह में युवा लड़कियों से संवाद में बरती जाने वाली सतर्कताओं,उससे जुड़े नैतिक विवेक,आदमी की नीयतगत साफ़गोई और उससे भी बढ़कर ट्रेफ़िक की रेल-पेल में खाना डिलीवर करने वाले एक अदना स्कूटर सवार की चिंता करते हुए वे जिस तरह सड़क किनारे पड़ी अनहाइजिनिक बर्फ़ के हवाले से हथेली की गर्म छुअन को बचा लेने जैसे सवेंदनशील मुद्दे की बात करते हैं, वह सब मिलकर इस कविता को अलग पहचान देते हैं।इसी तरह 'गोलमेज़ सम्मेलन' जैसे देश की आज़ादी से जुड़े ऐतिहासिक महत्व के मुद्दे का तार्किकता के समकालीन बीहड़ परिदृश्य में वे जिस तटस्थता से इस कविता में जायज़ा लेते हैं-उससे समूचे तामझाम के बाद अंत में मात्र एक सवाल बच रहता है जो जीवन-वार्ता के किसी वास्तविक अथवा आभासी बिंदु पर एकाग्र नहीं हो पाता।

देवेश अपनी कविताओं में किसी ख़ास शब्दावली के इस्तेमाल के तलबगीर नही हैं।उनके लिए कथ्य की सक्षम बयानी व जीवन का घमासान महत्वपूर्ण है। जैसे 'पवित्र हलाल' शीर्षक कविता में वे प्राचीन शब्दों के नए मायने और नए सन्दर्भ खोजते हैं। 'जिबह' और 'झटके' के बीच 'कत्ल' के समकालीन क्रूर इतिहास में जाते हैं वे पाते हैं कि हरे दरख़्तों को एक झटके में ज़मीदोज़ करती हुई क्रूर रवायत के लिए इनदिनों क्या जिबह क्या झटका क्या कत्ल जैसे सभी पवित्र हैं,हलाल हैं और जायज़ भी।यह भी गौरतलब है कि राजनीति के समकालीन घोर वैमनस्य में हास्य के परिदृश्य को टटोलते हुए जब वे उसके यथार्थ में जाते हैं तो पाते हैं कि 'बिच्छू का डंक उतारने के मंत्र में/वे जोड़ देते हैं /चुटकी लेते हुए/विरोधी खेमे के नेता का नाम।इस तरह उनका हास्य न केवल समकालिक होता है बल्कि मंत्रों की गलतियाँ भी चिरंजीवी हो जाती हैं।जो मिलकर आज समकालीन राजनीति का नरक रचते हैं।

जीवन की तमाम चमत्कार भरी फरेब और धौंस को खारिज़ करते हुए देवेश आज भी जीवन स्पंदन के बारे में यह ज़रूरी सवाल उठाना नहीं भूलते कि-
'क्या इस ग्रह पर जीवन का स्पंदन/मनुष्य तक ही सीमित है'?इसी तरह उनकी संवेदना के धरातल पर आज भी अज़नबी लोग फ़ुर्सत निकाल कर रंगों और बच्चों की हसरत भरी दौड़ को बचाना नहीं भूलते।अपनी 'काफ़िर' शीर्षक कविता में 'काफ़िर हूँ मैं/हराम/तुम्हारे लिए' का जवाब वे किसी तुर्शी से नहीं बल्कि ठीक पुराने संत या फ़कीर की तरह देते हैं कि-'तुम क्या हो/यह तय करने का हक़/सिर्फ़ अल्लाह की जात को है!

उस शाम की बात 

ट्रैफिक सिग्नल पर 
बत्ती हरी होने का इंतज़ार करती 
लड़कियों के समूह से मैंने बात की 
एक समूह से बतियाना 
हमेशा ज्यादा सुरक्षित है
बजाय एक अकेली लड़की के
(यक़ीनन आपकी नीयत साफ़ हो) 

पेंच बस इतना है 
कि आप अलग से नहीं बता सकते
उनमें से अपनी पसंदीदा लड़की को
कि वह ख़ास है सबसे 
तो कोई सिलसिला आगे नहीं बढ़ता
चलिए, फिलहाल यह बात महत्वपूर्ण नहीं

बत्ती हरी हो जाने पर 
मैं नहीं था 
जेब्रा क्रॉसिंग पार करने वाला 
सबसे तेज़ आदमी 
उनमें से कुछ लोग
रोज़ लम्बी दूरी दौड़ते थे
उनके पुट्ठे एथलेटिक थे
मैं पैदल काफी चलता था
भिन्न थे,
हमारे व्यायाम के संस्कार

उस सड़क पर 
सिर्फ इसलिए मैं बेहतर इंसान नहीं था
क्योंकि मुझे हुई थी चिंता 
खाना डिलीवर करने वाले 
उस जल्दबाज़ स्कूटर वाले की
जो पैदल चलते लोगों से 
टकराते-टकराते बचा था 

सड़क के दूसरी तरफ 
पड़ी हुई थी बहुत सारी बर्फ 
शायद‌ की गई थी सफाई 
किसी दुकान के बड़े फ्रिज की 

लावारिस होकर सार्वजनिक हो गई
यह बर्फ हाइजीनिक नहीं थी
और वायरस फैलने के दिनों में 
ऐसी कोई चीज़ छूना, तौबा-तौबा 

मैंने उस पिघलती ठंड को
मुहैया कराई
हथेली की गर्म छुअन

आप पूछेंगे-
यह भी कोई बात हुई?

बस यही 
उस शाम की बात थी
छुअन भर। 


गोलमेज सम्मेलन

पहले द्वारा दागे गए सवाल में
रह गया था एक अधूरापन

प्रत्युत्तर नहीं दिया था
दूसरे ने
बल्कि बचा हुआ अंश जोड़
पूरा कर दिया था सवाल को

पूर्णता की शक्ल में
वह अब एक
अप्रभावी, अनुत्तरित सवाल था

लम्बे समय से प्रतीक्षित
एक ज़रूरी संवाद
हुआ संपन्न
एक गोल मेज़ के गिर्द

सारे तामझाम का
हासिल था-
एक सवाल
जो किसी
वास्तविक या आभासी बिंदु पर
एकाग्र न होता था


पवित्र / हलाल 

उनमें से कुछ लोग
धीरे-धीरे 'जिबह' करने वाली
कुल्हाड़ी ले आए

दूसरे लोग साथ लाए
अत्याधुनिक मशीनें
जो एक तरफ से घुसकर
चीरते हुए पार निकलती थीं
'झटके' में जमींदोज करती हुई

बात भेड़ों की नहीं
पेड़ों की थी
क्या जिबह,  झटका क्या
क़त्ल के सभी रास्ते
पवित्र थे, हलाल थे

 उनका वैमनस्य

बिच्छू का डंक उतारने के मंत्र में
वे जोड़ देते हैं
चुटकी लेते हुए
विरोधी खेमे के नेता का नाम
बिच्छू के प्रतीक के तौर पर

हास्य समकालिक होता है
और मंत्रों की गलतियां चिरंजीवी

उनका वैमनस्य
भाषा में जड़ें जमा रहा है
प्रदूषित करता हुआ
भविष्य के होठों को


स्पंदन

विकिरण केे महा विस्फोट से
जीवन को बचाने को
सिनेमाई महानायक ने बदल दी
खलनायक द्वारा प्रत्यारोपित बम की दिशा
फोड़ दिया बम को समुद्र की गहराई में

क्या नायक ने समुद्र के बारे में सोचा?
मछलियों के बारे में? 
क्या इस ग्रह पर जीवन का स्पंदन
मनुष्य तक सीमित है?
पटकथा में भी ?

 मिलते रहें अजनबी

रेंगते हुए कैटरपिलर को 
पहचानता था वह
जिसने मेरा रास्ता रोककर बताया
कि इसी से तितली बनती है 

मुझे पता थी अटकल
पत्तियों और डंडियों की सहायता से
कैटरपिलर को बिना चोट पहुंचाए
फुटपाथ से दूर 
महफूज़ ठौर सरका देने की

फुटपाथ पर दो अजनबियों ने
फुर्सत निकालकर बचाया
रंगो और बच्चों की हसरत भरी दौड़ को

इसी तरह मिलते रहें अजनबी 
बचाते रहें दो टूक खुशियाँ 

 काफिर

"काफिर हूं मैं
हराम
तुम्हारे लिए"

"तुम क्या हो
यह तय करने का हक़
सिर्फ‌ अल्लाह की जात को है"

देवेश पथ सारिया
मूलत: कवि देवेश अनुवाद एवं कथेतर-गद्य लेखन में भी रुचि रखते हैं । सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं ,समाचार पत्रों एवं वेब पोर्टल पर रचनाएं प्रकाशित ।
सम्प्रति:  ताइवान में खगोल शास्त्र में पोस्ट डाक्टरल शोधार्थी।  मूल रूप से राजस्थान के राजगढ़ (अलवर) से सम्बन्ध।  
फ़ोन: +886978064930 
ईमेल: deveshpath@gmail.com 





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