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रंगमंच
समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -2
                                        राघवेन्द्र रावत 


अंग्रेजों के आने के साथ साथ ही पाश्चात्य संस्कृति और साहित्य का प्रभाव भारतीय जनमानस पर पड़ने लगा था | जैसे जैसे औपनिवेशिक काल में औद्योगिक विकास होता गया मध्य वर्ग का उदय हुआ | जिसके पास ऊँचाइयाँ छूने के सपने थे तो असफलता से नीचे जाने का डर भी था | धार्मिक नगरों के रूप में बनारस, उज्जैन हरिद्वार आदि विकसित हुए वहीँ औद्योगिक नगरों के रूप में बम्बई, कलकत्ता, मद्रास. भिलाई और जमशेदपुर जैसे नगर विकसित होते गए | इन नगरों में गाँव से मजदूर जीविकोपार्जन की तलाश में विस्थापित हुए | वहां उनके लिए जीविका के साथ साथ अपनी संस्कृति, बोली और घर की तलाश एक अहम् मुद्दा बन कर उभर रही थी | 
यूरोप में नार्वे के प्रसिद्ध नाटककार हेनरिक इब्सन के नाटकों में यही मध्य वर्ग दिखाया जाने लगा | इब्सन के नाटकों में यथार्थवाद की अवधारणा का उदय हो चुका था | उनके नाटक ‘अ डॉल्स हाउस(1879)’,’घोस्ट्स’ (1881) तथा ‘एन एनिमी ऑफ़ द पीपल’ (1882),जॉन गेब्रियल बोर्कमन (1897 ) बहुत सराहे गए | यथार्थवाद की नई सोच से नाट्य लेखन में बड़ा परिवर्तन आया जो विश्व के अन्य देशों में बाद में परिलक्षित हुआ | इनके साथ साथ टॉम वाटटन (द एइदर डाउन कुइल्ट ) , लोइस पार्कर (द हैप्पी लाइफ) और मिस मार्था (अ बेचलर्स रोमांस ) के हास्य नाटक भी इंगलैंड में देखे जा रहे थे |पहले उल्लेख किया जा चुका है कि तब भारतीय रंगमंच पर राजा महाराजा और मिथकीय चरित्र नाटकों में नायक हुआ करते थे ,लेकिन इनके नाटकों में आम आदमी नायक रूप में प्रकट होता है | घर और व्यक्ति की अस्मिता के प्रश्न केंद्र में आ गए | इसका असर यहाँ के बाद के नाटकों और साहित्य पर भी देखा जा सकता है | 

यह कालखंड बंगाल में पुनर्जागरण काल भी था | राजाराम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती और रामकृष्ण परमहंस के विचारों का भारतीय समाज पर असर हो रहा था और सामाजिक उद्धार, धार्मिक पाखंडों का विरोध तथा नवोन्मेष सांस्कृतिक चेतना को जगाने का काम जारी था | 
 भारत रत्न भार्गव लिखते हैं कि “रंगमंच के लिहाज से देखें तो उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरम्भ में एक ओर भारतेन्दु हरिश्चंद्र और गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर अपने नाटकों तथा निबंधों से नाट्य शास्त्रीय परम्पराओं को पुनः प्रतिष्ठित कर रहे थे, तो दूसरी ओर गहन चिंतन और मनन से भारतीय शास्त्रीय रंगमंच और एशियाई रंगमंच के अंतर्संबंधों की पड़ताल कर रहे थे | लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही कि गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर जैसी अनन्य प्रतिभा के शास्त्रीय रंगमंच सम्बन्धी विचारों को बंग समाज के बुद्धिजीवियों ने सिरे से नकार दिया |” जबकि रवीन्द्रनाथ मानव को समाज ,धर्म ,राज्य और सत्ता से बंधा हुआ नहीं बल्कि मुक्त देखना चाहते थे | टैगोर मनुष्य को बाह्य दबावों से मुक्ति की कामना के साथ- साथ उसे खुद से भी , अपने आत्म से भी मुक्त देखना चाहते थे | मानव मुक्ति के इस प्रश्न को टैगोर अपने नाटक “ राजा “(द  किंग ऑफ़ डार्क चैम्बर ) में उठाते हैं जो एक बौद्ध जातक कथा पर आधारित था | इस नाटक में भारतीय शास्त्रीय सिद्धांतों को भी महत्त्व दिया गया है |

भारतेन्दु से पहले लोक नाट्य परम्परा एवं पारसी थिएटर मौजूद था | बंगाल में जात्रा (यात्रा), महाराष्ट्र में तमाशा ,गुजरात में भवई ,उत्तर प्रदेश में नौटंकी, स्वांग तथा ,मध्य प्रदेश में माच ,राजस्थान में ख्याल ,पंजाब में नक़ल ,बिहार में बिदेसिया, आंध्र प्रदेश का कुचिपुड़ी ,वीथिनाटक , इत्यादि लोक नाट्य रूप सक्रिय थे | इसके अतिरिक्त कर्नाटक में यक्ष गान ,असम में अंकिया ,छत्तीसगढ़ में नाचा ,बुंदेलखंड में राई ,केरल में कुडिआटटम , उत्तर प्रदेश में रास लीला और सम्पूर्ण उत्तर भारत में रामलीला और नौटंकी जैसे अर्ध शास्त्रीय नाट्य रूप सामान्य ग्रामीण जन मानस की आस्था और धार्मिक मान्यताओं के दम पर फल फूल रहे थे | हरेक लोक नाट्य की प्रकृति अपने स्थानीय लोक तत्व को लिए हुए और एक दूसरे से अपनी निजता को कायम रखते हुए पारंपरिक रूप में अत्यंत जीवंत है, लेकिन सबका मूल स्वभाव एक ही है |  महाराष्ट्र ,बंगाल ,गुजरात और उत्तर प्रदेश की लोक नाट्य शैलियाँ आज भी व्यावसायिक तौर पर लोक में स्थापित हैं | पूना में आज भी तमाशा नियमित रूप से व्यावसायिक ढंग से होता है | मराठी रंगमंच का दर्शक अन्य जरूरी कामों की तरह नाटक देखने के लिए भी एक निश्चित राशि बचा कर रखता है | आज उत्तर भारत के लोगों में इसी ‘सांस्कृतिक जरूरत’ के बोध को जागृत करने की आवश्यकता है | तमाशा का मुख्य आकर्षण लावणी नृत्य में घुंघरुओं की तीव्र गति से छनछनाहट और पैरों का संचालन और उसके साथ गायन दर्शकों को आनंदित कर देता है | जयपुर में होने वाला तमाशा महाराष्ट्र के तमाशा लोक नाट्य से भिन्न है जिस पर आगे राजस्थान के सन्दर्भ में चर्चा करूँगा |

 उत्तर प्रदेश की नौटंकी राजस्थान और मध्य प्रदेश तक लोकप्रिय रही है | नौटंकी आवेगपूर्ण , सहज संप्रेषित भाषा और अपने गतिशील उत्तेजनापूर्ण शिल्प होने के कारण लोक में बहुत लोकप्रिय रही है |नौटंकी अभिनय प्रधान न होकर नृत्य और छंद युक्त कथानकों की प्रभावशाली गायन शैली दर्शकों को झूमने पर मजबूर कर देती है | नगाड़े की मधुर और बुलंद टंकार दर्शकों के मन को आल्हादित करने वाले रस की निष्पत्ति होती है | नौटंकी में हास्य भंगिमाएं ,शाइरी और स्वतः स्फूर्त संवाद मेहनतकश, किसान, और कस्बाई दर्शकों को अलग लोक में ले जाने में कामयाब होते हैं | बदलते वक़्त के साथ नगाड़े ,हारमोनियम और कारनेट जैसे साजों की जगह अब ढोलक ,हारमोनियम और बेन्जो ने ले ली है | नौटंकी का गत्यात्मक शिल्प इसे बचाए रखने में कामयाब रहा है | यही कारण है कि आज भी पूरी पूरी रात बैठ कर दर्शक नौटंकी का आनंद लेते हैं | उत्तर भारत में लगने वाले देशज मेलों की नौटंकी लोक नाट्य को अनुप्राणित करने में अहम् भूमिका रही है| वर्तमान समय में जब मेले ही भीड़ को तरस गए हों ऐसे में नौटंकी भी व्यावसायिकता की कसौटी पर डगमगा गई तो इसमें असामान्य कुछ भी नहीं है | शास्त्रीय गायन की तरह नौटंकी भी घरानों में पली बढ़ी | कानपुर ,लखनऊ हाथरस ,वृदावन और कामां अखाड़े के ,गिर्राज प्रसाद ,मनोहर गुरु ,गोकुल कोरिया ,घस्सो, मक्खन स्वामी, गुलाब बाई आदि के घरानों ने इस लोक नाट्य को जीवित रखा है | मनोहरलाल और गुलाब बाई की नौटंकी ‘सुल्ताना डाकू ‘ लोक में बहुत प्रसिद्ध रही है | आज गुलाब बाई की बेटियां इस कला को आगे बढाने में लगी हैं | भारतेन्दु हरिश्चंद्र की ‘चन्द्रावली’ नाटिका, अमानत की ‘इन्दरसभा ‘ रासलीला नाट्य शैली पर ही आधारित है |

 पिछले बीस -तीस वर्षों में यह सुखद अनुभव रहा है कि आधुनिक नाटकों में लोक नाट्यों का प्रयोग बढ़ा है और सफल भी रहा है, वह हमारी सांस्कृतिक अभिरुचि को समृधि करने में कामयाब रहा है | सर्वेश्वर दयाल के नाटक ‘बकरी’ ,बंसी कौल की प्रस्तुति ‘आला अफसर ‘,मणि मधुकर का ‘दुलारी बाई ‘ आदि अनेकों उदाहरण इसके हैं | इसके अतिरिक्त मेहस्नम ने ‘अँधा युग’ , ब .व् .कारंत ने ‘अंधेर नगरी’(खुले मैदान में प्रस्तुति ) तथा ‘वरंमवन’ में यक्ष गान, हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ी नाचा“ (चरण दास चोर),भानु भारती ने गवरी (पशु गायत्री ),विजय तेंदुलकर ने तमाशा (सरी गसरी ),बादल सरकार ने जात्रा (जुलूस ), शांता गाँधी ने भवई शैली (जसमा ओडन ), तारा प्रकाश जोशी ने नाटक कालबेलिया नृत्य (दूधां) आदि बहुतेरे प्रयोग लोक नाट्य शैलियों के हुए हैं |
 लोक में नाटक जिन्दा था लेकिन शहरी दर्शकों के मनोरंजन के लिए कोई रंगमंच की परम्परा दिखाई नहीं दे रही थी | भास् ,कालिदास ,हर्षवर्धन विशाख दत्त ,भवभूति ,और शूद्रक के पौराणिक ,ऐतिहासिक ,और मिथकीय कथानकों पर आधारित नाटकों से लोगों का मोह भंग हो रहा था | दूसरी ओर अंग्रेजी रंगमंच की प्रतिक्रिया में व्यावसायिक रंगमंच जन्म ले रहा था | व्यावसायिक रंगमंच पारसी थिएटर कंपनियों के द्वारा विकसित हो रहा था | पारसी नाटक कंपनियां भारतीय कथानकों को लेकर नाटक कर रही थी|पूरे भारत वर्ष के गाँव - गाँव जाकर ये नाटक कंपनियां नाट्य प्रदर्शन करती थीं जिसमें नसरवान जी खान शाह द्वारा लिखित नाटक ‘गोपीचंद’ ,शाकुंतल ,चन्द्रावली ,पदमावती आदि खेले गए | पारसी थिएटर में भारतीय स्वभाव और भारतीय परिवेश है जो नाटक को पाश्चत्य शैली में ढालते हुए भी नयी संरचना प्रस्तुत करने का प्रयास भारतीय हिंदी रंगमंच के लिए करता है | आगा हश्र कश्मीरी के नाटक ‘रुस्तम सोहराब’ ,’यहूदी की लड़की’ ,’सीता वनवास’ ,राधेश्याम कथा वाचक के ‘भक्त प्रहलाद’ ,वीर अभिमन्यु और नारायण प्रसाद बेताब के ‘महाभारत’ जैसे नाटक खूब पसंद किये जाते रहे | देवेन्द्र राज अंकुर तो उपरोक्त सभी नाटकों को चर्चित आधुनिक भारतीय नाटकों के समकक्ष मानते हैं | आगा हश्र शेक्सपीयर के नाटक करने वाली नाटक मंडली से जुड़े, अभिनय किया और सम्पूर्ण प्रक्रिया का अध्ययन करने के बाद उन्होंने शेक्सपीयर के दुखांत नाटकों का न केवल रूपांतरण किया बल्कि उन्हें भारतीय परिवेश में परिवर्तित भी किया | 

इस सब के बावजूद पारसी थिएटर को उपेक्षा का भाव झेलना पड़ा | कहते हैं  ‘अभिज्ञानशाकुन्तल’ नाटक पर आधारित नाट्य प्रस्तुति  में कमर मटकाते दुष्यंत को देख कर स्वंय भारतेन्दु और कई नाटककार रंगशाला छोड़ कर चले गए थे | यधपि पारसी थिएटर पर विदेशी नाटक ,अश्लीलता, शुद्ध व्यावसायिकता और फूहड़ हास्य जैसे आरोप कई बार लगे, यहाँ तक कि भारतेन्दु ने भी पारसी थिएटर को नकारा, लेकिन फिर भी समसामयिक विषयों पर टिप्पणियां और लोक कलाकारों द्वारा लोक संगीत की प्रस्तुति, काव्य के मनोरंजक तत्वों ,महिला कलाकारों की उपस्थिति और भावपूर्ण अभिनय के कारण, पारसी थिएटर आगे वर्षों तक जीवित रहा | अमानत की ‘इन्दरसभा ‘ (1853) को रंगमचीय कय्तुक ,श्रृंगार और घटिया सामिग्रीयुक्त भ्रष्ट नाटक कह कर वर्षों तक नाकारा गया , यहाँ तक कि उर्दू भाषा के उपयोग की वजह से हिंदी साहित्य का नाटक तक नहीं माना गया |

  पारसी नाटक कंपनियों ने हिंदी और उर्दू के नाटकों के प्रदर्शनों से रंगमंच की एक निरंतरता कायम की | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तो कई नाटकों में उर्दू भाषा का अधिक प्रयोग होने के कारण अच्छे नहीं माने जिनमें लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘रणधीर ‘ और ‘प्रेम मोहिनी’ भी थे | इन नाटकों के अंत दुखांत थे और तब भारतीय रूपक क्षेत्र में दुखांत नाटकों की कोई परंपरा नहीं थी | 29 जनवरी ,1913 को पारसी अल्फ्रेड नाटक कंपनी द्वारा दिल्ली के संगम थिएटर में नारायण प्रसाद बेताब के नाटक  ‘महाभारत’ का मंचन तीन -चार दिन तक चला और उसे रंगमंच के लोगों में नया प्रयोग और क्रांतिकारी कदम माना गया | गिरीश रस्तोगी कहती हैं कि “स्वंय भारतेन्दु और प्रसाद भी पारसी रंगमंच के प्रभाव से बच नहीं पाए | दोनों की अभिनय शैली ,रंग शैली ,गीत संगीत, पात्रों के प्रवेश -प्रस्थान में उसके प्रभाव देखे जा सकते हैं |” कहना होगा कि हिंदी रंगमंच के विकास में पारसी थिएटर की भूमिका रेखांकित करने योग्य है | 
प्रसिद्ध रंग निर्देशक एवं नाटककार रंजीत कपूर ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि “आजादी से थोडा पहले ही उनके पिता ने ड्रामा कंपनी बनाई थी, जो मुंशी दिल् नकवी का ‘लैला मजनूँ’ ,शील वध ,आगा हश्र का ‘एक किस्सा छोटा सा’, ‘आँख का नशा’ आदि नाटक किया करते थे | उनकी कंपनी बनने से पहले कोलकाता की ‘मून लाइट’ कंपनी बंद हुई थी जिसके कलाकार उनकी कंपनी में आ गए | जैसे ही सिनेमा आया तो पारसी कंपनियों के कलाकार फिल्मों की ओर रुख करने लगे | फिल्म वालों ने पारसी थिएटर कंपनी के कलाकारों को इसलिए तरजीह दी क्योंकि उन पर ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी, महिला कलाकार पार्श्व गायन तथा नृत्य प्रस्तुतियों में चली गयीं , दूसरे जन सामान्य को एक नया माध्यम मनोरंजन का मिल गया था जिसका कुछ विपरीत प्रभाव पारसी रंग मंच पर पड़ा |” लेकिन फिर भी ग्रामीण दर्शकों की बदौलत पारसी कंपनियां सातवें दशक तक अस्तित्व में रहीं | वहीँ लोक नाट्य परम्परा निरंतर आज भी जीवित है |सिनेमा से थिएटर को इतना नुक्सान नहीं हुआ जितना दूसरे दूसरे कारणों से हुआ |
 देवेन्द्र राज अंकुर और रणवीर सिंह दोनों ही पारसी थिएटर के प्रति आलोचकों और नाटककारों के उपेक्षा भाव को ठीक नहीं मानते | रणवीर सिंह कहते हैं कि पारसी थिएटर की भाषा हिन्दुस्तानी थी और उसकी आत्मा भारतीय अतः आधुनिक भारतीय रंगमंच में स्वाभाविक रूप से उसके नाट्य तत्व आये हैं इसलिए पारसी थिएटर को जोड़ते हुए ही भारतीय रंगमंच की परम्परा बनती है | देवेन्द्र राज अंकुर लिखते हैं कि “पारसी थिएटर के जितने भी नाटकों से हमारा परिचय है ,उनमें से कौन सा सस्ता ,हल्का और अश्लील है वरन यदि गहराई से उनका अध्ययन किया जाए तो वे भी जटिल ,संश्लिस्ट और सार्वकालिक प्रश्नों से जूझते नज़र आते हैं |” पारसी रंगमंच में अभिनेता से नृत्य ,गीत संगीत के ज्ञान के साथ साथ ऊर्जावान होना आदि की अनिवार्यता आज के आधुनिक रंगमंच की भी जरूरत बन चुके हैं | 

आज रंगकर्मी एक ओर आर्थिक संघर्ष से जूझते नज़र आते हैं तो दूसरी ओर दर्शकों की कमी भी अखरती है ऐसे में पारसी थिएटर को देखा जाए तो न तो कभी दर्शकों की कमी रहती थी न ही आर्थिक अभाव होता था ऐसे में पारसी थिएटर के माडल को भारतीय रंगमंच की परम्परा के रूप में विकसित करने पर विचार किये जाने में हर्ज़ ही क्या है | अगर हम आधुनिक भारतीय नाट्य परम्परा की खोज करें तो पाएंगे कि पारसी थिएटर में वे सभी तत्व मौजूद हैं जो विश्व के किसी भी आधुनिक रंगमंच में हैं और साथ ही यह भारतीय नाट्य शास्त्रीय परम्पराओं का अनुशीलन करता है भले ही परिवर्तित रूप में ही क्यों न हो जिसकी कमोबेश छूट भरत का नाट्य शास्त्र देता भी है |
इसी के बरक्स कुछ नाट्य चिन्तक निरंतर भारतीय नाट्य शास्त्रीय परम्परा को पुनर्स्थापित करने की वकालत भी उस समय कर रहे थे | 
जैसा मैंने पहले कहा भारतेन्दुकालीन युग से हिंदी रंगमंच का आधुनिक काल माना जाता है, जहाँ से हमें वैज्ञानिक चेतना का प्रादुर्भाव दिखाई पड़ता है | यहीं से अव्यावसायिक रंगमंच की शुरुआत भी मानी जाती है |
आधुनिकता के संदर्भ में नन्द किशोर आचार्य का यह कथन भी मुझे प्रासंगिक लगता है कि “ आधुनिकता मूलतः एक ऐसी दृष्टि है जो मानवीय अनुभव और विवेक को केंद्र में रखती है | मानवीय अनुभव और विवेक को केंद्र में रखने का निहितार्थ है मानवीय स्वातंत्र्य को केंद्र में रखना | मानवीय स्वातंत्र्य, अनुभूति और विवेक के केंद्र में आ जाने से परंपरा- पोषित विश्वासों के प्रति हमारे नज़रिये में एक बुनियादी बदलाव आ जाता है |” यह बहस तलब बात हो सकती है किन्तु हम इसी अवधारणा को आगे लेकर चलें तो पाएंगे जिस नवीन चेतना का बीज हमें माइकल मधुसूदन के “समिष्ठा” से भारतीय रंगमंच में पड़ा वह    भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ नई युगीन चेतना हमें पुनः हिंदी रंगमंच में अंकुरित होती दिखाई देती है |
 भारतेन्दु शास्त्रीय परम्परा ,लोक नाट्य और पश्चिमी नाट्य दृष्टि ,तीनों को महत्त्व देते थे | उनका राजनीतिक ,सांस्कृतिक और वैचारिक दृष्टिकोण इतना स्पष्ट था कि वे अपने नाटक में वर्तमान अवरोधों के ध्वंस और परिवर्तन की प्रक्रिया को पूरी शिद्दत से दर्शाने में सफल होते हैं |भारतेन्दु नाट्य विधा की सामाजिकता,  सामूहिकता और राजनीतिक चेतना का बेहतरीन इस्तेमाल करते हैं | सामाजिक और राजनीतिक उदासी और जड़ता को तोड़ते हैं ,इसके श्रेष्ठ उदाहरण उनके नाटक ‘अंधेर नगरी ‘ और ‘भारत दुर्दशा’ बन पड़े हैं | ‘अंधेर नगरी ‘ का हर दृश्य प्रतीकात्मक होने के साथ साथ यथार्थबोध लिए भी है और समसामयिकता लिए भी है | ब्रितानी राज्य के सख्त ‘ड्रामेटिक परफॉरमेंस  एक्ट ‘ के बाबजूद वे अपने नाटक में मानवीय यंत्रणा और आक्रोश को नाटकीय कौशल से व्यक्त करने में सफल रहते हैं | नाटक ‘अंधेर नगरी’ लोभ , अमानवीयता, अंध व्यवस्था और अंधी न्याय व्यवस्था पर सटीक प्रहार करता है | भारतेन्दु मूल्यहीनता और विभिन्न अंतर विरोधों को सहज संप्रेषित करते हैं | इस नाटक का शिल्प की  गत्यात्मकता इसे आधुनिक सन्दर्भों के प्रयोग की छूट देती है | गिरीश रस्तोगी भारतेन्दु को ‘बदरंग दृश्य ‘ का बेहद जिंदादिल नाटककार कहती हैं |  भारतेन्दु के नाटक ‘ वैदिक हिंसा हिंसा न भवति प्रहसन’ (१८७३०,’विषस्य विषमोषधम’ ,’प्रेम जोगिनी’,नाटिका (1875 ) आदि बहुत सफलतापूर्वक मंचित किये गए | ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ में वे धर्म और उपासना के नाम पर प्रचलित अनेक अनाचारों  को गंभीर अपराध दिखाते हुए राजा शिव प्रसाद को लक्ष्य करके चाटुकार और आत्मकेंद्रित रहने वालों पर प्रहार करते हैं | उन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी के नाटकों का अनुवाद भी किया ,जिसमें शेक्सपीयर के नाटक ‘ मर्चेंट ऑफ़ वेनिस ‘ का अनुवाद ‘दुर्लभ बन्धु ‘(1880) नाम से किया जो भारतीय परिवेश और भाव का नाटक लिए है |

भारतेन्दु के बाद जयशंकर प्रसाद अपने नाटकों में भारतीयता और आधुनिकता का संतुलित प्रयोग लेकर आते हैं | उनके नाटकों में भारतीय नाट्य शास्त्रीय परम्परा को स्थापित करने की ललक के साथ मानवीय द्वन्द और युग संघर्ष और जीवन तत्व का सार को प्रस्तुत करने का प्रयास दिखाई देता है | ‘स्कन्द गुप्त ‘ ‘चन्द्रगुप्त ‘ और ध्रुवस्वामिनी ‘ से अतीत की स्मृति के साथ साथ सांस्कृतिक पुनर्जागरण की कोशिश कह सकते हैं | प्रसाद का समय दरअसल संस्कृति मूल्यों ,धर्मं और राजनीति सब में संक्रमण का समय था इसलिए  प्रसाद के नाटक महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि इनमें इतिहास के उस काल खंड को विवेचित किया गया है जिसमें मूल्यहीनता, उत्थान और पतन को सृजनात्मक कौशल के साथ दर्शाया गया है | प्रसाद के नाटकों में जहाँ एक ओर बहिर्द्वंद और अंतर्द्वंद दोनों हैं तो दूसरी ओर दुखांत और सुखांत भी का मिश्रित रूप भी रूपायित किया गया है | 
बहुतेरे लोगो ने प्रसाद के नाटकों को आधुनिक शैली में लिखे न जाने के कारण समकालीन नाटक नहीं माना ,इस बारे में गिरीश रस्तोगी ने लिखा है कि “ यथार्थवादी शैली में लिखने से ही कोई समकालीन नहीं हो जाता और न जन चेतना से सीधे जुड़ने से ही कोई प्रतिबद्ध साहित्यकार कहलाता है |प्रसाद उच्चतर मूल्यों के रचनाकार हैं पर उनके नाटकों में जहाँ भव्य भारतवर्ष ,अखंड एकता का स्वर है वहीँ जर्जर हो बिखरती स्थितियां , आतंरिक द्वन्द ,विघटन ,अकेले होते जाने की मनोभूमि का जो आरम्भ हो गया , वही भिन्न विकसित रूप में मोहन राकेश या अन्य नए नाटककरों में दिखाई दिया | अक्सर प्रसाद के नाटकों के मंचन में आने वाली समस्याओं की चर्चा होती रही है जिसके बारे में ब.व्.कारंत कहते हैं कि प्रसाद के नाटक संस्कार चाहते हैं ,संवेदनशीलता और परम्परा से जुड़ाव और भाव दृष्टि चाहते हैं | निसंदेह प्रसाद के नाटकों की महाकाव्यात्मकता के लिए परंपरागत थिएटर की जगह नए विशिष्ट रंगस्थाप्त्य की आवश्यकता होगी |प्रसाद के नाटकों में परिष्कृत भाषा ,काव्यात्मक संवेदना और अन्तर्निहित सौन्दर्य अतिरिक्त रंग अनुभव दृष्टि की मांग करता करते हैं | अव्यावसायिक रंगमंच प्रसाद के नाटकों के मंचन की इस कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया है | 
क्रमशः ……….

राघवेन्द्र रावत 
 रंगमंच पर लंबे समय से सक्रिय राघवेंद्र रावत के दो कविता संग्रह 'अंजुरी भर रेत ' तथा 'एक चिट्ठी कि आस ' में प्रकाशित हो चुके हैं 










टिप्पणियाँ

  1. नाट्य परंपरा पर महत्वपूर्ण आलेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  2. मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें अंजुरी भर रेत (काव्य संग्रह २००७ ), एक चिठठी की आस में (काव्य संग्रह २०११ ), अपने समय का आज संपादन : राजस्थान की समकालीन कविता(२०२१) तथा मारक लहरों के बीच : कोरोना काल की डायरी (२०२२ ) हैं | अंजुरी भर रेत को राजस्थान साहित्य अकादमी का सुमनेश जोशी पुरस्कार भी मिल चुका है |

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    उत्तर
    1. उपरोक्त विवरण मैं स्वयं राघवेन्द्र रावत साझा कर रहा हूँ अनाम नहीं है ,कृपया नाम भी दुरुस्त करने का श्रम करें | राघवेन्द्र रावत

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दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अला...

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्त...

'ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर' [ Blood of the Condor]

सिने -संवाद                                                                            ' ब्लड ऑफ़ दी कॉनडोर'  [ Blood of the Condor]                                          मनीष आजाद 1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना।  लेकिन...

चौकन्नी स्त्रियाँ - रजनी मोरवाल

कहानी-कहानीकार महिला संघर्षों का कोलाज - रजनी मोरवाल का कथा संसार                               चरण सिंह पथिक राजस्थान ही नहीं वरन समूची हिंदी पट्टी में पिछले एक दशक में जिस तेजी से अपनी कहानियों के वैशिष्ट्य के कारण कथा जगत में जो-जो नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं , उनमें रजनी मोरवाल का नाम प्रमुख है । रजनी मोरवाल ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'कुछ तो बाकी है' से कथा जगत के इस जटिल प्रदेश में अपनी कहानियों के बलबूते अपनी अलग पहचान कायम की है । किसी भी रचनाकार के लिए अपने लेखन को शुरुआती जुनून के जैसा बरकरार रखना , एक चुनौती होता है ।  ऐसे में अगर आप महिला हैं तो और भी कठिनाइयां आपके सामने होती हैं । जिनसें कदम-कदम पर आपको जूझना होता है । रजनी मोरवाल ने इन चुनौतियों की परवाह ना करते हुए अपना लेखन निरंतर जारी रखा । 'नमकसार' संग्रह की कहानियाँ तथा उसके बाद का उपन्यास 'गली हसनपुरा' रजनी के रचना वैशिष्ट्य की गवाही देता है । 'नमकसार' कहानी पर एक सफल नाटक का मंचन भी हो चुका है । दरअसल रजनी मोरवाल के यहां किरदारों और विष...