सम्भावना
आस्था दीपाली की पंक्तियाँ हैं एक कविता हूँ मैं अधूरी सी। जाहिर हैं कि उन्हें अपने अधूरेपन का अहसास हैं और इसकी स्वाभाविकता का भी! उनकी कविता में केवल शहरी दुनिया का ही प्रतिबिंबित नहीं हैं बल्कि खुद को खोजने की एक अनवरत प्रक्रिया हैं। स्त्री की तमाम जद्दोजहद के बावजूद वे उसे वसंत संबोधिता करती है। मंदिर में प्रार्थना करने वाले से प्रार्थना करते भिक्षुकों के माध्यम से वे एक दारुण सत्य को सामने लाती है।
महा-आपदा के दिनों में कार्मिकों के पलायन पर आस्था ने अपनी ही तरह द्रष्टिपात किया है। लाकडाउन में परिवार का बिम्ब बहुत आत्मीय है। बुरे दिनों में सबका ख्याल रखती मां है। प्रेम को आस्था एंटीडोट की तरह प्रतिपादित करती है तो वारिस में संगीत सुनती है
महा-आपदा के दिनों में कार्मिकों के पलायन पर आस्था ने अपनी ही तरह द्रष्टिपात किया है। लाकडाउन में परिवार का बिम्ब बहुत आत्मीय है। बुरे दिनों में सबका ख्याल रखती मां है। प्रेम को आस्था एंटीडोट की तरह प्रतिपादित करती है तो वारिस में संगीत सुनती है
1. मैं
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एक पहेली हूँ मैं
अनसुलझी सी,
एक कविता हूँ मैं
अधूरी सी,
एक कहानी हूँ मैं
अनकही सी,
एक किताब हूँ मैं
बरसों पुरानी,
जिसके पन्ने
कुछ भरे कुछ खाली
कुछ अधूरी पंक्तियों से भरे
विचारों में उलझे
नए विषयों और
सही शब्दों की तलाश में
बिखरे पड़े है बेहिसाब...!
उम्मीद है,
कि एक दिन ऐसा आएगा
जब दिल के अक्षरों को
दिमाग के विचारों के साथ
शब्दों के माध्यम से
उकेरा जाएगा
उसकी पूर्ण पंक्तियों
और
सही अर्थों के साथ
ज़िन्दगी के पन्नों पर...!
2. स्त्री होती है वसंत
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स्त्री होती है वसंत
फूटती रहती है उनमें
नई उम्मीदों के मोजर,
शीत सा मौन सहते हुए भी
देती है हमेशा
अपनी ममता और करुणा की गरमाहट ,
संशय और क्रोध की धुंध को
अपने विश्वास से छांटते हुए
निकाल ही लेती है,
संभावनाओं का सूरज
और फिर छाने लगता है
उनके प्रेम का वासंती फूल
चंहुओर...
3. आईना
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आईना तो देखा होगा तुमने
हाँ! शायद अपने बाह्य स्वरूप को देखा होगा ,
हुलिया तो ठीक किया ही होगा
बालों को भी अच्छे से संवारा होगा तुमने
फिर कुछ देर तक...
अपने चेहरे को भी निहारा होगा तुमने
अपने वस्त्र को ठीक करते हुए
स्वयं पे इतराये भी होंगे तुम
पर उस अंतर्मन का क्या
जो तुम्हारे अंदर समाया है
तुमने सोचा कभी कि...
एक आईना वहाँ भी लगा दूँ
जो सब मोह माया से परे
एक कोने में छुपा पड़ा है
उसको भी पहचान लूँ
क्या अंतरात्मा की बात कभी मानी तुमने?
जो झूठ से परे
सच्चाई की मिसाल बन
आज भी तुम्हारे रोम रोम में विद्यमान है?
मगर नहीं..
तुमने किसी की बात नहीं मानी..
स्वीकारा वही
जो मन फुसलाने वाली बातें है
जिसे सुन दिल खुश हो जाए
जिससे भ्रमित रहे दिलो दिमाग
पर क्या तुमने अपने आप को जान लिया?
ज़िन्दगी के इस मकड़जाल से निकल
खुद को क्या पहचान लिया..?
कलयुग के इस काल में
दूसरों की तारीफ़ों से
अत्यन्त सुख तो पा लिया होगा तुमने
पर..क्या यही है जीवन का असली सुख?
क्या यही है ज़िन्दगी की सार्थकता?
क्या यही है जीवन जीने का मकसद?
क्या यही हो तुम
जो तुम आईने में देख रहे हो
अगर हाँ..
तो कुछ रह गया है आईने के पीछे
ज़रा एक बार फिर झाँक कर देखो
शायद अभी नादाँ हो तुम...।।
4. भगवान
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प्रतिदिन सुबह
मंदिर की ओर जाते है लोग
लेकर हाथों में पूजा की थाल
मन मे श्रद्धा विश्वास
बजाते हैं घंटी
चढ़ाते हैं चढ़ावा
दिखाते है अगरबत्ती,
और करते है...
अपनी-अपनी प्रार्थनाएं,
सुख की, समृद्धि की, धन प्राप्ति की,
रोजगार की, परीक्षाओं में सफल होने की
और निकलते निकलते डाल देते है,
दान पात्र में पैसे,
वहीं मंदिर के बाहर...
बैठे रहते है...बेजान, सहमे से,
कुछ असहाय लोग
जिनके लिए मंदिर से निकलते लोग ही हैं भगवान
वे उन्हीं से करते है प्रार्थनाएँ
और मांगते हैं
रोटी ..
5. लॉकडाउन में सीखना
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लॉक डाउन में
दादा जी सिखा रहे हैं
घर के भी लोगों को योग
पापा सिखा रहे हैं बच्चों को
खेल के कई नियम
और पढ़ाई करने के नए तरीके
भईया सिखा रहे छोटों को
रंगों से दुनिया रंगीन करने का जादू
और साथ ही संगीत के स्वरों का रहस्य
माँ सिखा रही दीदी को
पकवान बनाने के गुर
और दादी सबसे छुपकर
सिखा रही है माँ को फिर से
पैसों का जोड़ घटाव
और बता रही है
कैसे रखा जाए
बुरे दिनों में सबका ख्याल..
6. लॉकडाउन में लोग
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अजीब ढीठ लोग हैं
बसों में भरकर
बोरियों सा लदकर
केमिकल की बौछार से सेनेटाईज़्ड होते
लाठी की मार सहते,
उठक बैठक करते
बढ़े चले जा रहे हैं
समय के पहिये के साथ
काल की आँख में आँख डाले
जैसे तैसे कदम दर कदम
अपने घर परिवार, गाँव की ओर
क्योंकि
बंद हो गए हैं कल कारखाने
उठ गईं हैं उनकी दुकानें, गुमटियाँ
फल- सब्ज़ी की रेड़ियाँ
भूख से बिलबिलाते लोग
आखिर कैसे तोड़े निवाले
जब बंद हो गए उनकी
रोजी रोटी के सारे साधन
जब कर दी गईं सड़के सुनसान
जब हो गया पूरा देश लॉकडाउन
जब हो गए घरों में बंद सभी
अपनी अपनी उम्मीदों और
आशाओं के दीप लिये
जब इनके परिश्रम की थकन
विचलित नही कर रही किसी को
इनकी भूखे पेट की चीत्कार
दस्तक नही दे पा रही किसी के हृदय में
तब ये हठी लोग चल पड़े हैं
कांधे पे रिश्तों को उठाये
सर पे कफ़न बांधे
एक संकल्प मन मे लिये
रिश्तों की गर्माहट लिये
प्रेम का एंटीडोट लिये
अपनी मिट्टी को गले लगाने
क्योंकि
ठहरना मृत्यु है और
संघर्ष ही जीवन है इनके लिये..
7. बारिश की बूँदे
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जब चेहरे को छूती है
हाथों को चूमती है
सूखी मिट्टी पे
जब अपनी बूँदे बरसाती है
सौंधी खुशबू आती है
ना जाने कौन सी भाषा बोलती है
जो मन को छू जाती है
कुछ को ये बारिश
सिर्फ पानी ही लगता है
मगर मेरे लिए ये बूँदें
एक प्यारी सी धुन बन जाती है
उसी धुन पे मेरा मन मयूर
जब मगन हो के नाच उठता है
तो जीवन एक प्यारा सा संगीत
एक खूबसूरत सा चलचित्र बन जाता है
जिसमें मैं होती हूँ, तुम होते हो
और होता है ये मदमाता गुनगुनाता सावन...!!
8.जल्दी आ जाया करो मेरे पास
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जल्दी आ जाया करो मेरे पास
अब मन नही लगता है कुछ ख़ास
याद आते है वो पल
जिसमें हम होते है
और होती है खुशियों की सौगात..
अब जल्दी आ जाया करो मेरे पास
एक तुम ही हो मेरी दोस्त,
जिससे बाँटती हूँ अपने जज़्बात
अब गैरों पे कहाँ रहा भरोसा
अब सच्चा सा लगता है अपना रिश्ता
जानती हूँ कभी कभी करती हूँ बकवास
मगर क्या करूँ
एक तुम ही तो हो मेरे लिए खास
बस यादों में है हमारे खुशियों के पल
अब सब्र को नहीं है मेरे पास देने के लिए ज़वाब
अब जल्दी आ जाया करो मेरे पास
दूर जाने से लगता है डर
आँखो में आंसू को भर
कह देती हूँ अलविदा
कि तुम आ जाया करोगी मेरे पास
बार बार हर बार
दिलाती हूँ यही एहसास
ज़्यादा दूर नही हो बस
फ़ोन मिलाने तक की है दूरी
मगर दिल मानता नहीं
चाहिए उसको तुम्हारा आँचल
जिसमे छुप के सोना
आज भी लगता है अनोखा...
बच्चों की तरह ज़िद करना
और तुम्हारा मान जाना
खलता है बार बार
क्योंकि नहीं है कोई और
जिससे करती हूँ बातें हज़ार
जो समझ सके मेरे ख्यालात
कहने को तो बातें है अनंत
लेकिन ज़्यादा नहीं बचे है अल्फ़ाज़
बस यही कहना है हर बार
की अब मन नहीं लगता है कुछ ख़ास
अब देर न करो माँ
जल्दी आ जाया करो मेरे पास...
9. मेरी पूरी दुनिया
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ना तुम होते
और
ना मैं फर्क कर पाता चाँद में
क्योंकि
जो तुम्हारे चेहरे में
शीतलता और ठहराव है
वो चाँद में कहाँ
न तुम होते
और
न मैं फर्क कर पाता सूर्य में
क्योंकि
जो ओज तुम्हारे व्यक्तित्व में है
वो सूर्य में कहाँ
न तुम होते
और
ना मैं फ़र्क कर पाता फूल में
क्योंकि
जो कोमलता हृदय में है
वो फूल में कहाँ
न तुम होते
ना मैं फ़र्क कर पाता
आसमान में
क्योंकि जिस तरह
मेरे दुख को
कर लेती हो समाहित
अपने अंदर
और
भर देती हो मेरे अंतश को
प्रेम की बारिश से
वो आसमान में कहाँ
इसलिए तो
तुममे ही दिखते है मुझे
मेरी पूरी दुनिया
बदलते हुए स्वरूप के साथ
मैंने पहचान लिया है
कौन है मेरे लिए
चकोर चाँद
और कौन है मेरे लिए
तपता सूरज..
आस्था दीपाली
आस्था दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कालेज फोर विमेन से हिन्दी आनर्स की स्नातक हैं। हिन्दुस्तान, अमर उजाला, जागरण जैसे अखबारों के साथ चलते-चलते, अनंतिम व काफिला आदि पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ छपी हैं। अनुवाद में आस्था ने स्कोलिस्टिक इंडिया में इंट्रशिप की है। वे लेखन के साथ संगीत, नृत्य और पेंन्टिंग में भी सक्रिय है। दूरदर्शन व अनेक मंचो पर प्रस्तुतियों के साथ कई पुरस्कार सम्मानों ने इनकी उपलब्धियों को रेखांकित किया है।
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