कृति -चर्चा
1960 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'पत्थर का लैम्पपोस्ट' से उनकी जो सृजन यात्रा शुरु होती है वह 'टूटती इकाइयां', 'कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा' , 'एक आलोचक की नोटबुक' 'आकाश: एक आपबीती' से होती हुई 'प्रेमी प्रेमिका संवाद' तक पहुंचती है. इसी बीच वे 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियां' शीर्षक से एक अनूदित संकलन भी हमें देते हैं और स्टीफ़ेन ज़्विग की चर्चित कृति 'एक अनजान औरत का ख़त' का अनुवाद भी करते हैं. दिसम्बर 2007 में शरद देवड़ा इस दुनिया से विदा ले लेते हैं.
पुष्पा जी ने शरद जी के व्यक्तिव का आकलन करते हुए बहुत सही लिखा है कि "सुखाड़िया जी से लेकर श्री अशोक गहलोत तक सभी चीफ मिनिस्टर देवड़ाजी के पत्रकारिता में विशिष्ट योगदान पर प्रभावित तो बहुत होते लेकिन किसी ने भी किया कुछ नहीं क्योंकि देवड़ाजी न तो किसी काम को करवाने की टैक्नीक जानते थे और न ही पत्रकारवाला रौब-दाब रखना". (पृ 137) बाद में हरिदेव जोशी उन्हें बुलाकर यह अनुरोध करते हैं कि वे ‘अणिमा’ का प्रकाशन बंद न करें, और यह भरोसा देते हैं कि वे खुद पांच उद्योगपतियों से कहकर ‘अणिमा’ के सारे खर्चा का इंतज़ाम करवा देंगे, लेकिन देवड़ा जी मात्र 'विचार करूंगा' कहकर उनके सहयोग प्रस्ताव को टाल जाते हैं. असल में किसी के आगे याचक बनना शरद जी की खुद्दारी को स्वीकार था ही नहीं. ‘अणिमा’ अपने अस्तित्व के लिए जूझती रहती है. इस जूझने में उन्हें बहुत सारे आघात भी लगते हैं. मसलन यह कि वे ‘अणिमा’ के लिए एक सेकण्ड हैण्ड मुद्रण मशीन खरीद्ना चाहते हैं और बेचने वाला उन्हें धोखा दे कर बड़ा आर्थिक आघात पहुंचाता है. इस किताब में पुष्पा जी यह बताती हैं कि राजनेता, भले ही वे किसी भी दल के क्यों न हों, किसी स्वाभिमानी के काम नहीं आते. हद से हद वे मौखिक सहानुभूति दे सकते हैं. कभी-कभी तो वे इतना भी नहीं करते. लेकिन राजनेताओं की इस भीड़ में पुष्पा जी एक अलग किस्म के राजनेता को भी सामने लाती हैं, जो ज़रूरत पड़ने पर देवड़ा परिवार की मदद करता है, उनका सम्बल बनता है. यह राजनेता है ललित किशोर चतुर्वेदी.
लेकिन पुष्पा जी का अनुरोध अकारथ नहीं जाता. शरद जी अपना ध्यान साहित्य की तरफ मोड़ते हैं. वे फिर से लेखन की तरफ प्रवृत्त होते हैं. बहुत डूब कर वे 'आकाश: एक आपबीती' लिखते हैं, लेकिन उसे भी प्रकाशित करवाना आसान नहीं होता. राजपाल उसे छापने से मना कर देता है. उपन्यास अंतत: राधाकृष्ण से प्रकाशित होता है. मित्रों की इस पर पर अजीब-अजीब प्रतिक्रियाएं मिलती हैं. लेकिन इन प्रतिक्रियाओं से लगभग अप्रभावित शरद जी अपने लेखन में डूबे रहते हैं. उनकी योजना 'आकाश: एक आपबीती' को तीन खण्डों में लिखने की थी. 'आकाश: एक आपबीती' के बाद शरद जी का एक और उपन्यास आता है, 'प्रेमी-प्रेमिका संवाद'. असल में यह उपन्यास क्योंकि अपने समय से बहुत आगे का सृजन था, स्वभावत: हिंदी समाज में इसका वैसा स्वागत नहीं होता है, जैसा अपेक्षित था. और इसी के साथ-साथ शरद जी को प्रकाशकों की दुनिया की धोखा धड़ी से भी दो-चार होना पड़ा. पुष्पा जी ने एक पूरा अध्याय इसी बात पर केंद्रित रखा है, जिसका शीर्षक है – ‘एक प्रकाशक की दुनिया के फरेब’.
शरद देवड़ा: एक अंतर्यात्रा
● डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
1934 में राजस्थान के फतेहपुर (शेखावाटी) कस्बे में जन्मे शरद देवड़ा विलक्षण साहित्यकार थे.वे लगभग सात बरस 'ज्ञानोदय' पत्रिका के सम्पादक रहे और तब उन्होंने इस पत्रिका को जिन ऊंचाइयों तक पहुंचाया उसे अब भी स्मरण किया जाता है. वैसे उनकी सम्पादन यात्रा मात्र 22 वर्ष की उम्र से ही शुरु हो गई थी जब उन्हें मासिक पत्रिका 'सुप्रभात' का सम्पादक बनाया गया था. 'ज्ञानोदय' के सम्पादन दायित्व से मुक्त होने के बाद शरद देवड़ा जी ने लगभग चौथाई सदी 'अणिमा' का सम्पादन किया. इस पत्रिका के स्वरूप में कई बदलाव हुए. एक सम्पादक के रूप में शरद देवड़ा को उनकी संकलित, अनूदित और सम्पादित पुस्तक 'युग चिंतन' से भी बहुत प्रसिद्धि और सराहना मिली. लेकिन उनका अवदान केवल सम्पादन क्षेत्र में ही नहीं था.
1960 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'पत्थर का लैम्पपोस्ट' से उनकी जो सृजन यात्रा शुरु होती है वह 'टूटती इकाइयां', 'कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा' , 'एक आलोचक की नोटबुक' 'आकाश: एक आपबीती' से होती हुई 'प्रेमी प्रेमिका संवाद' तक पहुंचती है. इसी बीच वे 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियां' शीर्षक से एक अनूदित संकलन भी हमें देते हैं और स्टीफ़ेन ज़्विग की चर्चित कृति 'एक अनजान औरत का ख़त' का अनुवाद भी करते हैं. दिसम्बर 2007 में शरद देवड़ा इस दुनिया से विदा ले लेते हैं.
उनके निधन को केवल तेरह बरस हुए हैं और यह देखकर बहुत दुख होता है कि हिंदी समाज इतने प्रखर और प्रतिभाशाली रचनाकार को लगभग भुला चुका है. ऐसे में शरद जी की सहधर्मिणी और सुपरिचित कथाकार व अनुवादक पुष्पा देवड़ा ने 'शरद देवड़ा एक अंतर्यात्रा' लिखकर हिंदी समाज को एक बार फिर शरद देवड़ा के व्यक्तित्व और कृतित्व को स्मरण करने का मौका दिया है. यह एक संयोग ही कहा जाएगा कि ठीक इन्हीं दिनों हिंदी की दो और जानी-मानी रचनाकारों की किताबें आई हैं जिनमें उन्होंने अपने-अपने जीवन साथियों को स्मरण किया है. मेरा इशारा ममता कालिया की 'रवि कथा' और चित्रा मुद्गल की 'तिल भर जगह नहीं' की तरफ है. क्योंकि इन दो किताबों पर इसी स्तम्भ में मेरे मित्र श्री ईश मधु तलवार बहुत बढ़िया तरह से लिख चुके हैं, मैं अपनी बात पुष्पा जी की किताब तक सीमित रखूंगा.
पुष्पा जी की यह किताब न केवल शरद जी के साथ बिताए उनके जीवन का वृत्तांत है, यह किताब एक रचनाकार के सरोकारों और उसके आत्म संघर्षों का भी मार्मिक आख्यान है. और इतना ही नहीं, यहां तत्कालीन साहित्यिक माहौल, मनुष्य की क्षुद्रताएं, स्वार्थ की इंतहा और राजनेताओं का दिखावटी बर्ताव और उनकी निर्ममता जैसी बहुत सारी बातें भी उभर कर सामने आती हैं. कुल मिलाकर शरद जी के साथ बिताई अपनी ज़िंदगी की कहानी कहते-कहते पुष्पा जी जैसे उस पूरे काल खण्ड की भी कहानी सुना देती हैं. किताब में निजी और साहित्यिक की ऐसी सुंदर जुगलबंदी है कि उसे पढ़ते हुए मुंह से बरबस 'वाह' निकल पड़ती है, हालांकि इस 'वाह' के साथ 'आह!' की ध्वनि भी अपने आप चली आती है. असल में यह पुस्तक है ही एक रचनाकार के संघर्ष और उसके त्रासों की करुण कथा लेकिन इसे इतने कौशल के साथ कहा गया है कि 'आह' से 'वाह' को अलग कर पाना कठिन लगता है.
किताब का प्रारम्भ पुष्पा जी शरद जी से अपने विवाह के वर्णन से करती हैं और फिर आहिस्ता-आहिस्ता उनका पूरा फ़ोकस शरद जी पर केंद्रित हो जाता है. जब उनका विवाह होता है वे एक षोड़शी हैं और जब यह किताब प्रकाशित हुई है तब पुष्पा जी लगभग पिचहत्तर वर्ष की हैं. निश्चय ही उन्होंने बहुत श्रम और सलीके से अपने अतीत को, उस अतीत को जो शरद जी से बावस्ता रहा, स्मरण और अंकित किया है. पुष्पा जी प्रारम्भ से ही शरद जी की साहित्यिक अभिरुचियों को देखती और उनके साथ अपना सामंजस्य बिठा लेती हैं. एक किशोरी के रूप में भी उन्हें शरद जी के इस साहित्यानुराग से कोई शिकायत नहीं होती है, यह देखकर आश्चर्य भी होता है और खुशी भी. आहिस्ता-आहिस्ता पुष्पा जी के वृत्तांत में व्यक्ति शरद देवड़ा की बजाय साहित्यकार शरद देवड़ा प्रमुख होते जाते हैं. एक तरह से इस किताब का बहुलांश साहित्यकार शरद देवड़ा पर ही केंद्रित है, मुझे यह बात भी बहुत रोचक और रेखांकनीय लगी कि जीवन में इतना कुछ घटित हो जाने और इतना सह लेने के बाद भी पुष्पा जी के मन में शरद देवड़ा के प्रति शिकायत का कोई भाव नहीं है. क्या उस ज़माने की भारतीय पत्नियां ऐसी ही होती थीं? पढ़ते-पढ़ते मैं यह सोच रहा था कि क्या बाद की पीढ़ी की कोई स्त्री भी अपने शरद देवड़ा जैसे आकण्ठ साहित्य में डूबे, सहज विश्वासी और ज़रूरत से ज़्यादा भले पति के बारे में इतना ही प्रशंसा भाव रख सकेगी?
किताब में पुष्पा जी बहुत ज़्यादा नहीं हैं. लेकिन एक प्रसंग यहां ऐसा है जिसका ज़िक्र मेरी अपनी अभी कही बात के विपरीत भी है. यों तो पुष्पा जी एक पूर्णत: समर्पिता पत्नी के रूप में इस किताब में सामने आती हैं, लेकिन एक समय ऐसा भी आता है जब उनका धैर्य चुक जाता है. हालांकि धैर्य के इस चुक जाने में भी प्रच्छन्न रूप से पति के कुशल क्षेम का भाव उपस्थित है. देवड़ा जी की सदाशयता का हर कोई अनुचित लाभ उठाता है और उसका दंश देवड़ा जी से अधिक पुष्पा जी को झेलना पड़ता है और वे झेलती रहती हैं. लेकिन एक मुकाम पर आकर उन्हें भी यह असहनीय लगने लगता है. "मानसिक उत्पीड़न की भी कोई हद होती है" , वे कहती हैं. तब पुष्पा जी जयपुर का घर छोड़कर अपनी कुलदेवी मां की शरण में झुंझुनू जाने के लिए निकल पड़ती हैं. लेकिन स्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि वे बस में तो बैठती हैं लेकिन बस जयपुर से बाहर निकले उससे पहले ही शरद जी वहां पहुंच जाते हैं. यहां भी शरद जी का मानवीय रूप ही उभरता है. बजाय पुष्पा जी पर कुपित होने के वे आत्मग्लानि से भर उठते हैं और कहते हैं, "दुनिया में विकास का, चेतना का, जागरण तथा नारी चेतना का डंका पीटने वाला शरद देवड़ा एक नारी, अपनी पत्नी की पीड़ा तक तो समझ नहीं पाया. धिक्कार है." (पृ 215)
किताब में शरद देवड़ा के मुख्यत: तीन रूप सामने आते हैं. सम्पादक रूप, लेखक रूप और उनका व्यक्ति रूप. उनके सम्पादक रूप की चर्चा में मुख्यत: यह प्रसंग आता है कि कैसे 'ज्ञानोदय' छोड़ने के बाद उन्हें न चाहते हुए भी, अपनी भलमनसाहत के चलते 'स्निग्धा' पत्रिका के सम्पादन में फंसना पड़ा और फिर उन्होंने 'अणिमा' पत्रिका निकालनी शुरु की. अणिमा पहले कलकत्ता से निकली और फिर वे उसे लेकर जयपुर आ गए. पहले यह साहित्यिक पत्रिका थी, फिर इसका स्वरूप बदला और पहले मासिक, फिर साप्ताहिक और अंत में दैनिक रूप में इसका प्रकाशन हुआ. यह सब पढ़ते हुए हम पाते हैं कि शरद जी न केवल अपने सम्पादन कर्म को बहुत गम्भीरता से लेते थे, उनमें खुद्दारी भी कूट-कूट कर भरी थी. पत्रिका वे निकाल रहे थे, निकालते रहना चाहते थे लेकिन उन्हें यह गवारा नहीं था कि इसके लिए किसी के सामने याचक बन कर जाएं. अनेक मंत्रीगण से उनकी नज़दीकी थी लेकिन ज़रूरत होते हुए भी उन्होंने किसी से विज्ञापन के लिए याचना नहीं की. एक सम्पादक के रूप में शरद जी का रुतबा क्या और कैसा था इसका बहुत सुंदर वर्णन पुष्पा जी ने ‘अणिमा’ के उस बीस सूत्री कार्यक्रम विशेषांक के प्रकाशन व लोकार्पण के संदर्भ में किया है जिसके कारण शिव चरण माथुर की जाती हुई कुर्सी बच गई थी. यह वर्णन करते हुए पुष्पा जी ने बड़े सहज भाव से शरद जी के व्यक्तित्व के एक महत्वपूर्ण पक्ष को भी उजागर कर दिया है. वे लिखती हैं, "श्री शिवचरण माथुर की कुर्सी बचाना उनका मक़सद नहीं था लेकिन प्रधानमंत्री के सामने अपने प्रदेश और उसके मौज़ूदा मुख्यमंत्री को उचित महत्व देना उनके सिद्धांत में शामिल था और यह काम विरोधी मुख्यमंत्री होता तो भी उसे प्रधानमंत्री के सामने उतना ही महत्व देते." (पृ.110) स्वाभाविक है कि शरद जी के इस कृत्य से शिवचरण माथुर ने उपकृत महसूस किया और उनके कहने से शरद जी ने ‘अणिमा’ को चार पन्नों से बढ़ाकर आठ पन्नों का कर दिया. लेकिन आगे की राह आसान नहीं थी. स्थानीय समाचार पत्रों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने अणिमा की प्रतियों को रोकने का प्रयास किया तो हमारी अफसर शाही का जैसा स्वभाव व चरित्र है उसके अनुरूप मुख्यमंत्री के चाहने के बावज़ूद जन सम्पर्क विभाग से ‘अणिमा’ को पर्याप्त विज्ञापन नहीं मिले. और जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, जब देवड़ा जी मुख्यमंत्री से मिलकर अपनी बात कहते हैं तो वे भी पहले वाले उत्साही और उपकृत व्यक्ति की बजाय बदली हुई रंगत वाले राजनेता दिखाई देते हैं. तब शरद जी कहते हैं, "कितने हृदयहीन होते हैं ये राजनेता! झूठ तो इनकी सांस तक में रच-बस जाता है. लेकिन इनकी फितरत जानते-बूझते मैंने क्यों विश्वास किया इनकी ज़बान पर, इनके वादे पर! सिर्फ राजनेता ही क्यों ये उच्च पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी! कितने मंजे हुए, दक्ष खिलाड़ी होते हैं ये! राजनेताओं को तो ये लोग कठपुतलियों की तरह अपनी अंगुलियों के इशारों पर नचाते हैं और राजनेताओं को आभास तक नहीं होने देते. वे इसी भ्रम में रहते हैं कि उनके हुक्म मुताबिक शासन चल रहा है, लेकिन असली शासक तो ये नौकरशाह ही होते हैं." (पृ. 120)
पुष्पा जी ने शरद जी के व्यक्तिव का आकलन करते हुए बहुत सही लिखा है कि "सुखाड़िया जी से लेकर श्री अशोक गहलोत तक सभी चीफ मिनिस्टर देवड़ाजी के पत्रकारिता में विशिष्ट योगदान पर प्रभावित तो बहुत होते लेकिन किसी ने भी किया कुछ नहीं क्योंकि देवड़ाजी न तो किसी काम को करवाने की टैक्नीक जानते थे और न ही पत्रकारवाला रौब-दाब रखना". (पृ 137) बाद में हरिदेव जोशी उन्हें बुलाकर यह अनुरोध करते हैं कि वे ‘अणिमा’ का प्रकाशन बंद न करें, और यह भरोसा देते हैं कि वे खुद पांच उद्योगपतियों से कहकर ‘अणिमा’ के सारे खर्चा का इंतज़ाम करवा देंगे, लेकिन देवड़ा जी मात्र 'विचार करूंगा' कहकर उनके सहयोग प्रस्ताव को टाल जाते हैं. असल में किसी के आगे याचक बनना शरद जी की खुद्दारी को स्वीकार था ही नहीं. ‘अणिमा’ अपने अस्तित्व के लिए जूझती रहती है. इस जूझने में उन्हें बहुत सारे आघात भी लगते हैं. मसलन यह कि वे ‘अणिमा’ के लिए एक सेकण्ड हैण्ड मुद्रण मशीन खरीद्ना चाहते हैं और बेचने वाला उन्हें धोखा दे कर बड़ा आर्थिक आघात पहुंचाता है. इस किताब में पुष्पा जी यह बताती हैं कि राजनेता, भले ही वे किसी भी दल के क्यों न हों, किसी स्वाभिमानी के काम नहीं आते. हद से हद वे मौखिक सहानुभूति दे सकते हैं. कभी-कभी तो वे इतना भी नहीं करते. लेकिन राजनेताओं की इस भीड़ में पुष्पा जी एक अलग किस्म के राजनेता को भी सामने लाती हैं, जो ज़रूरत पड़ने पर देवड़ा परिवार की मदद करता है, उनका सम्बल बनता है. यह राजनेता है ललित किशोर चतुर्वेदी.
अखबार के सम्पादन-प्रकाशन के दौरान उन्हें अखबारों की दुनिया की निर्मम प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है. एक प्रतिस्पर्धी अखबार अपने सभी हॉकरों को बुलाकर बड़े प्रलोभन देकर यह सुनिश्चित करता है कि वे 'अणिमा' का वितरण नहीं करेंगे. यह एक उदाहरण मात्र है. अखबार के संघर्ष शरद जी के स्वास्थ्य को प्रतिकूलत: प्रभावित करते हैं और लगभग दो बरस वे बीमार रहते हैं. उन्हें ठीक करने के बहुत सारे प्रयत्नों के बीच एक दिन पुष्पा जी कह बैठती हैं, "कुछ लिखने में आपका मन लगे तो लगाने की कोशिश कीजिए न." आगे की बात खुद पुष्पा जी के शब्दों में: "बस! लगा, शांत झील में भयंकर उथल-पुथल मच गई. लिखने का नाम लेते ही शांत, आज्ञाकारी बालक सदृश देवड़ाजी तेज़ तिक्त स्वर में चीखते-से बोले, "क्या बकवास कर रही हो? लिखना इतना आसान है क्या? प्रसव-पीड़ा से गुज़रने जैसा भोगने के बाद कोई कृति आकार लेती है, सामने आती है. और उसके लिए भरपूर समय और एकाग्रता की दरकार होती है." (पृ. 123)
लेकिन पुष्पा जी का अनुरोध अकारथ नहीं जाता. शरद जी अपना ध्यान साहित्य की तरफ मोड़ते हैं. वे फिर से लेखन की तरफ प्रवृत्त होते हैं. बहुत डूब कर वे 'आकाश: एक आपबीती' लिखते हैं, लेकिन उसे भी प्रकाशित करवाना आसान नहीं होता. राजपाल उसे छापने से मना कर देता है. उपन्यास अंतत: राधाकृष्ण से प्रकाशित होता है. मित्रों की इस पर पर अजीब-अजीब प्रतिक्रियाएं मिलती हैं. लेकिन इन प्रतिक्रियाओं से लगभग अप्रभावित शरद जी अपने लेखन में डूबे रहते हैं. उनकी योजना 'आकाश: एक आपबीती' को तीन खण्डों में लिखने की थी. 'आकाश: एक आपबीती' के बाद शरद जी का एक और उपन्यास आता है, 'प्रेमी-प्रेमिका संवाद'. असल में यह उपन्यास क्योंकि अपने समय से बहुत आगे का सृजन था, स्वभावत: हिंदी समाज में इसका वैसा स्वागत नहीं होता है, जैसा अपेक्षित था. और इसी के साथ-साथ शरद जी को प्रकाशकों की दुनिया की धोखा धड़ी से भी दो-चार होना पड़ा. पुष्पा जी ने एक पूरा अध्याय इसी बात पर केंद्रित रखा है, जिसका शीर्षक है – ‘एक प्रकाशक की दुनिया के फरेब’.
वैसे फरेब कहां नहीं है? आदमी कहां कहां बचे? फरेब की बात आई है तो व्यक्ति शरद देवड़ा की पीड़ाओं को भी याद कर लेना ज़रूरी लगता है. बेहद भोले-भले शरद देवड़ा अपने भाई के बेटे को गोद लेना चाहते हैं. पुष्पा जी को यह बात रुचती तो नहीं है लेकिन पति का दिल न टूटे, इसलिए वे इसे स्वीकार कर लेती हैं. यही दत्तक पुत्र शरद जी के और पुष्पा जी के भी, जीवन के अनेक त्रासों का कारण बनता है. उसकी अमानवीयता का एक नमूना यह है कि शरद-पुष्पा जी की इकलौती बेटी की शादी के अवसर पर जब शरद जी अपने लिए नए कपड़े सिलवाना चाहते हैं तो यह दत्तक पुत्र कहता है, "बेटी के बाप को नए कपड़ों की क्या ज़रूरत है?" किसे दिखाना है?" वह आहिस्ता-आहिस्ता शरद जी के बैंक खाते से सारी धन राशि निकाल लेता है. लेकिन देवड़ा जी तो जैसे अलग ही मिट्टी के बने थे. कहते हैं, "धन जाना मैं सहन कर सकता हूं, लेकिन भरोसा टूटना बर्दाश्त नहीं होता मुझसे." फिर भी अंतत: उससे उनका मोहभंग होता है. यहीं पुष्पा जी की एक प्रतिक्रिया बहुत महत्वपूर्ण है: "दो साल के अंतराल के बाद ही सही, हमें सम्हालने वाला, नींद से जागकर हमारी फिकर करता, हमरे साथ खड़ा था. लड़के से देवड़ा जी का मोहभंग हो चुका था. घरवालों के रंग भी सामने आ चुके थे." (पृ. 205)
इस पूरी किताब में शरद देवड़ा एक बेहद भले, भोले और सहानुभूतिशील इंसान के रूप में सामने आते हैं. उनकी कोशिश सदा यही रहती है कि उनकी वजह से किसी कोई कोई कष्ट न पहुंचे, भले ही खुद वे किसी के कितने ही आघात सह चुके हों. ऐसा ही एक प्रसंग भरतपुर के उस जगदीश अग्रवाल का आता है जिसने देवड़ा जी को खूब नुकसान पहुंचाया लेकिन जब भरपुर कलक्टर उस पर कोई कार्यवाही करना चाहते हैं तो खुद देवड़ा जी पीछे हट जाते हैं. पुष्पा जी ने शरद जी के लिए ठीक ही लिखा है, "उनकी संवेदनशीलता सिर्फ लेखन तक सीमित न होकर देश, जन्मस्थान, समाज, परिवार और आने वाली पीढ़ी सभी के प्रति, न सिर्फ संवेदनशीलता ही, बल्कि अंत: स्थल से ज़िम्मेदारी मानते रहे. अपने सिवाय सबका ख़्याल रखते रहे. कभी कोई छोटी-सी इच्छा, चाहत मन में पैदा होती भी तो ज़ाहिर नहीं होने देते." (पृ. 221)
पूरी किताब बहुत रोचक है और आप इसे हाथ में लेते हैं तो मन नहीं करता है कि पूरी किए बिना इसे छोड़ दें. मुझे इस किताब का महत्व इस बात में भी लगता है कि आज जब दुनिया में छल-छद्म और फरेब बढ़ता जा रहा है यह किताब एक बहुत सीधे-सरल और दूसरों को तनिक भी कष्ट न पहुंचाने वाले व्यक्ति को हमारे सामने साकार करती है. इतना ही नहीं. यह व्यक्ति एक लेखक भी है और अपने लेखन कर्म के प्रति पूरी तरह समर्पित और ईमानदार है. वह कोई समझौते नहीं करता है. जैसा लिखना चाहता है वैसा ही लिखता है. लिखना उसके लिए मन बहलाव का, वक़्त काटने का साधन न होकर जैसे ज़िंदगी जीने का पर्याय है. ‘अणिमा’ के बुरे दिनों में यह लेखन ही उसके जीने का सहारा बनता है. इस किताब से यह भी पता चलता है कि आज की दुनिया में किसी भले आदमी का बचा और टिका रहना कितना मुश्क़िल है. इस किताब को पढ़ते हुए मुझे बेसाख़्ता भगवती चरण वर्मा की ये दो पंक्तियां याद आती रहीं : "दोस्त एक भी नहीं यहां पर, सौ-सौ दुश्मन जान के/ इस दुनिया में बड़ा कठिन है, चलना सीना तान के."
पुष्पा जी का बहुत बहुत आभार कि उन्होंने हमें शरद देवड़ा जी के जीवन के इतने सारे पक्षों से रू-ब-रू करवाया.
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डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
निदेशालय कॉलेज शिक्षा , राजस्थान में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत्त । कथा आलोचना में विशेष रूचि । अनेक पुस्तकें प्रकाशित । यात्रा वृत्तांत, निबंध, व्यंग्य और वैचारिक लेखन । पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन । विपुल अनुवाद कार्य । यात्रा वृतांत 'आंखन देखी' पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार ।
संपर्क सूत्र: ई-2/211, चित्रकूट, वैशाली नगर के पास, जयपुर- 302 021.
मोबाइल: 90790 62290
ई मेल: dpagrawal24@gmail.com
समीक्षित कृति:
शरद देवड़ा : एक अंतर्यात्रा
पुष्पा देवड़ा
बोधि प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा इण्डस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन, नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर- 302 006.प्रथम संस्करण, 2020. पृ. 259, पेपरबैक. मूल्य: ` 250.00
अग्रवाल साहब ने पूरी पुस्तक को जैसे सार रूप में सामने रखा है प्रशंसनीय है। इस समीक्षा को पढ़ने के बाद हर पाठक इस पुस्तक को पढ़ने के लिए उस्तुक होगा।
जवाब देंहटाएंपुष्पा देवड़ा जी कई बंगला उपन्यासों की अनुवादक रही हैं । उनकी कहानियों की मैं प्रशंसक हूं । तेरह वर्ष के अंतराल के बाद फिर से कलम उठाना, वो भी इस उम्र में, मैं कायल हूँ उनकी।
स्नेह प्रभा परनामी