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पेरिस कम्यून पर एक महत्वपूर्ण फिल्म-‘ला कम्यून’


सिने-संवाद
 पेरिस कम्यून पर एक महत्वपूर्ण फिल्म-‘ला कम्यून’

                                                           -मनीष आज़ाद

मशहूर फिल्मकार पीटर वाटकिन ने 1999 में पेरिस कम्यून पर एक फिल्म बनायी-‘ला कम्यून’। साढ़े पांच घण्टे की यह फिल्म इतिहास के किसी कालखण्ड पर बनी अब तक की सबसे विश्वसनीय फिल्मों में से एक है।
पेरिस व आसपास के कस्बों से कुल 220 लोगों को लेकर एक उजाड़ फैक्ट्री प्रांगण को सेट के रूप में बदल कर यह फिल्म बनायी गयी। इन 220 लोगों में करीब 60 प्रतिशत लोगों के लिए अभिनय का यह पहला मौका था।
यह फिल्म इस रूप में भी अद्भुत है कि इसे आज (यानी तब 1999 मेंके सवालों से टकराते हुए बनाया गया है। ‘पेरिस कम्यून’ पर फिल्म बनाने का कारण बताते हुए पीटर वाटकिन कहते हैं कि -‘‘आज हम मानव इतिहास के सबसे बुरे दौर में प्रवेश कर रहे हैं। जहां उत्तरआधुनिक निराशावाद ने मानवतावाद और आलोचनात्मक चिन्तन को ढक लिया है। बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने लोगों को लालच की गिरफ्त में ले रखा है………………………………………….जहां नैतिकता सामूहिकताप्रतिबद्धता को ‘पुराना फैशन’ मान लिया गया है। ऐसे में यह देखना कि 1871 में पेरिस में क्या हुआ…………………..? पेरिस कम्यून एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष का प्रतीक है। एक सामूहिक सामाजिक बदलाव की जरूरत का प्रतीक है। हमें पेरिस कम्यून के आदर्शों की जरूरत आज वैसे ही है जैसे मरते आदमी को आॅक्सीजन की जरूरत होती है।’’
अपनी इसी प्रतिबद्धता के कारण फिल्म के पात्र फिल्म के बीच से ही अचानक आज के दौर में यानी 1999 में आ जाते हैं और दर्शकों को 1999 के दौर की समस्याओं से रूबरू कराते हैं तथा अगले फ्रेम में वे पुनः पेरिस कम्यून में पहुंच जाते हैं।
आमतौर इतिहास पर केन्द्रित फिल्में दर्शकों को वर्तमान से काट कर अतीत में ले जाती हैं। लेकिन यह फिल्म अपनी अद्भुत तकनीक से अतीत-वर्तमान का सम्वाद बनाए रखती है।



यह फिल्म अन्य फिल्मों से इस रूप में अलग हो जाती है कि इस फिल्म के डायरेक्टर से लेकर सभी 'कास्ट व क्रूएक प्रतिबद्धता के साथ इस फिल्म से जुड़े हुए हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि साढ़े पांच घण्टे की यह पूरी फिल्म मुख्यतः 'इम्प्रोवाइजेशनहै। यानी इसकी कोई निश्चित पटकथा नहीं है। फिल्म बनाने से पहले रिसर्च के दौरान और फिर सभी कास्ट व क्रू के साथ विभिन्न स्तर पर चर्चा समूह गठित करके पेरिस कम्यून के इतिहास को उन लोगों ने आत्मसात कर लिया। पेरिस कम्यून के दौरान विभिन्न तबकों समूहों व वर्गाें की क्या भूमिका थी इसे समझने के बाद सभी पात्रों ने कैमरे के सामने उस पूरी ऐतिहासिक घटना को बिना किसी निश्चित पटकथा के जिया। यह अनुभव वास्तव में बेजोड़ रहा होगा।
फिल्म के पहले ही फ्रेम में कलाकारों का पेरिस कम्यून के आदर्शों से जुड़ाव स्पष्ट हो जाता है। पहले ही फ्रेम में एक टीवी रिपोर्टर आपसे मुखातिब होती है और कहती है कि पेरिस कम्यून का जिस क्रूरता के साथ दमन किया गयावह सब जानने के बाद मेरे लिए अभिनय के दौरान पेरिस कम्यून की जीत के जश्न की रिपोर्टिंग करते हुए मुस्कुराना बहुत कठिन था।

निश्चित रूप से पेरिस कम्यून के दौरान यानी 
1871 के दौरान टीवी का अविष्कार नहीं हुआ था। लेकिन पीटर वाटकिन ने उस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया की कल्पना द्वारा राज्य प्रायोजित मीडिया और वैकल्पिक मीडिया की भूमिका को हमारे आज के सन्दर्भ में बहुत तीखे और जीवन्त तरीके से पेश किया है। पीटर वाटकिन से ज्यादा वैकल्पिक मीडिया के महत्व को और कौन समझ सकता है जिनकी बहुतचर्चित फिल्म ‘वार गेम’ ब्रिटेन में 20 साल तक प्रतिबन्धित रही।
इस फिल्म के पात्र अपने असली अर्थों में जनता ही है। मैंने इससे पहले ऐसी कोई फिल्म नहीं देखी जिसमें इतने जीवन्त व सामान्य तरीके से जनता को मुख्य पात्र के रूप में पेश किया गया हो। इसमें भी आम महिलाओं को और उनकी राजनीतिक भागीदारी को इस फिल्म में जिस तरीके से पेश किया गया हैवह सचमुच में एक रोमांचकारी अनुभव है।

इस फिल्म में कम्यून के नेताओं और नेशनल गार्ड 
(सर्वहारा की सेनाके नेताओं को भी उनकी अपनी पूरी भूमिका में दिखाया गया है। लेकिन फिल्म खत्म होने के बाद जहन में आम जनता के चित्र ही तैरते रहते हैं। ‘जनता ही इतिहास बनाती है’इस कथन की चरितार्थता इस फिल्म में बहुत ही खूबसूरत तरीके से हुयी है।
1999 में ऐसी फिल्म बनाने में जाहिर है कि पीटर वाटकिन को अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। इसका अपना एक इतिहास है। इन कठिनाइयों पर एक स्वतन्त्र डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है। जिसका नाम है-‘रेजिस्टेण्ट क्लाक’ ।
अन्त में-यह फिल्म उन सभी लोगों के लिए एक जरूरी फिल्म है जो क्रान्ति का न सिर्फ सपना देखते हैं वरन् उसे जीते भी हैं। यह फिल्म उन लोगों के लिए भी एक जरूरी फिल्म है जो फिल्म को समाज परिवर्तन के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग में लाना चाहते हैं।


मनीष आजाद


मनीष लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। पिछले दिनों इनकी लिखी जेल डायरी चर्चा में रही है। प्रतिरोध के साहित्य और सिनेमा का आधिकारिक अध्ययन है। मीमांसा के लिए सिनेमा पर लिख रहे हैं।

यह फिल्म 'यू टयूबपर उपलब्ध है.

https://www.youtube.com/watch?v=epGlo2abAYY


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