कवि-कविता
जटिल यथार्थ को पहचानने वाले स्पष्ट दृष्टिबोध के कवि : आर.चेतनक्रान्ति
■ कैलाश मनहर
यह एक निर्विवाद सच्चाई है कि हमारे समय की कविता में सामाजिक यथार्थ की जटिलतायें,राजनैतिक विरोधाभास और छद्म,तथा पूँजीवादी वर्ग चरित्र के षड़यन्त्र पूरी सावचेती के साथ अभिव्यिक्त हो रहे हैं | सभ्यता के विकास के नाम पर आगे बढ़ने का ढोंग करते इस वैश्विक समाज में मानवीय जीवन की चाबी एक प्रकार के छलपूर्ण और प्रायोजित प्रबंधन के हाथों में दिखाई दे रही है जिसमें मनुष्य,प्रकृति और तमाम संवेदनाओं एवं भावनाओं तक को उत्पादकतामूलक उपयोगितावाद के कारागार में क़ैद कर दिया गया है | उपयोगितावाद हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है और जो इस उपयोगितावाद के लक्ष्य की पकड़ में नहीं आ पा रहा है,उसे बिल्कुल निरर्थक मानते हुये अस्वीकार कर दिया जाता है |
सभ्यता के विकास की इस कपटपूर्ण चालाकी और सामाजिक यथार्थ की इन जटिलताओं को पहचानने में आर.चेतनक्रान्ति की कवितायें पूरी कोशिश करती हैं और लगभग सार्थक रचना संसार के प्रति भी आशान्वित करती हैं |सभ्यता के विकास के नाम पर उत्तरोत्तर अमानवीय होती जाती हमारी समाज व्यवस्था के इस खतरनाक खेल को समझने में आर.चेतनक्रान्ति अपनी उत्तरदायित्वपूर्ण भाषा,सहज शिल्प,और गहन अभिव्यंजनायुक्त मौलिक मुहावरों के साथ कविता के अँधेरे गह्वर में प्रविष्ट होते हैं और बिल्कुल स्पष्ट दृष्टि के साथ तमाम अमानवीय तरीकों को पहचानते हुये उन पर प्रहार भी करते हैं |हमारे समय की हिन्दी कविता में आर.चेतनक्रान्ति जैसा मारक और अचूक व्यंग्य शायद ही कहीं अन्यत्र मिल पाता है |
"उस घर को मैं
जिजीविषा का प्रतीक कहता
पर तुमने उसे जाने किस जादू से
लालसा का दुर्ग बना दिया
अक्सर वहाँ घुसते हुये मुझे भय लगता है"
यह हमारे समय और समाज की विडम्बनापूर्ण सच्चाई है कि जो जिजीविषा का आवास होना चाहिये था वह "घर" लालसाओं का ऐसा क़ैदखाना बन गया है जहाँ जाते हुये एक मनुष्य के रूप में कवि को भय लगता है |
आर.चेतनक्रान्ति अपनी सजग और चौकन्नी दृष्टि से सामान्यताओं के भीतर रली-मिली असामान्यताओं को पहचानने का माद्दा रखते हैं और सहज-सुलझे हुये-से वातावरण में से असहज करने वाली उलझी हुई स्थितियाँ आसानी से पकड़ लेते हैं |"शाम को सिंगार करने वाली औरतें" उनकी ऐसी खास कविता है कि जिसमें सब कुछ साधारण-सा लगता है लेकिन कविता के अन्तिम चरण तक पहुँचते ही जब वे कहते हैं
"कि वहाँ वेश्याओं के मुहल्ले में भी
यह सब ऐसे ही होता है"
तो हमारे सामाजिक यथार्थ की जटिलता पूरी विद्रूपता के साथ प्रकट होती है और पाठक के मन में उन शाम को सिंगार करती औरतों के प्रति करुणाश्रु-से छलकने लगते हैं |ऐसे में प्रेम,पवित्रता और विश्वास जैसी अवधारणायें संदिग्ध प्रतीत होने लगती हैं |
आर.चेतनक्रान्ति की कवितायें हमारे समय और समाज की विडम्बनाओं को स्पष्ट पहचानते हुये उन खतरनाक प्रवृत्तियों की ओर सीधा संकेत करती हैं जिनके कारण मनुष्य और प्रकृति उपभोग की वस्तुओं में तब्दील होते जा रहे हैं |वे सीधे शब्दों किन्तु अपने खास व्यंग्यात्मकता लहज़े में शासन तंत्र की कुटिलताओं द्वारा लोकतन्त्र के बरअक्स एक प्रतिलोकतन्त्र रचे जाने का रूपक प्रकट करते हुये राजनीति और राज के फर्क़ का पर्दाफाश करते हैं |मनुष्य को अपना मनुष्य होना और नागरिकों को अपना नागरिक होना सिध्द करने हेतु बनाये जाने वाले काले कानून की विडम्बनायें और "प्रतिलोकतन्त्र" स्थापित करने वाली सत्ता का चरित्र उनकी कविता में "वे राजनीति से उकता गये हैं/अब वे सिर्फ़ राज करेंगे" के द्वारा सटीक रूप से अभिव्यंजित होता है |
चेतन की भाषा में एक विशेष प्रकार का भावबोध है जो अपने समय की मुश्किलों को स्पष्ट पहचानता है |चेतन की "भाषा जानती है".कि प्रकृति,परम्परा और परिवर्तन की आड़ में हमारी पारस्परिक सामाजिकता को पाखण्डी बुध्दिजीवियों और कुटिल शासकों ने कितना नुकसान पहुँचाया है ?इसीलिये वे पूरी साफ़गोई से कह पाते हैं कि "पर भाषा जानती है/एक दिन वह बैठी दिखेगी तुम्हें/मंच के नीचे/झुटपुटे में/शाप उच्चारती हुई" |
गाढ़ी व्यंजनात्मक भाषा में यही शाप चेतन उन तमाम क्रूर और कुटिल अमानवीय ताक़तों के प्रति उच्चारना चाहते हैं जो मनुष्य और प्रकृति का निरन्तर भक्षण किये जा रही हैं |उनके दोनों कविता संग्रहों के शीर्षकों से भी चेतन की अभिव्यंजनात्मक भाषा प्रकट होती है जहाँ शोककाल में भी अमानवीयतापूर्ण नाच हो रहा है (शोकनाच)और वीरता में भी विडम्बनापूर्ण विचलन (वीरता में विचलन)हमारे समय की कुत्सित प्रवृत्ति की तरह दीखते हैं |ऐसे में उनकी एक पुरानी कविता का अंश "उसको एक चाकू दिया गया/और तनख्वाह/कि मरते हुये आदमी को देख कर/तुम्हारे हाथ काँपें तो/तुम करुणा से बाज रहो |"याद करते हुये यह कहा जाना पूरी तरह समीचीन प्रतीत होता है कि आर.चेतनक्रान्ति विडम्बनाओं और विद्रूपताओं के जटिल यथार्थ को पहचानने वाले स्पष्ट दृष्टिबोध के कवि हैं |
आर.चेतनक्रान्ति की कवितायें
घर
घर
जो पूरी दुनिया को बाहर कर देता है
जिसकी पहली दीवार
मेरे और तुम्हारे बीच खड़ी होती है
फिर दूसरी तीसरी और चौथी
और फिर एक छत
जो आसमान की कृपाओं के विरुद्ध
हमारा जवाब है
घर
जिसमें एक दरवाजा होता है
जहाँ हम कुत्तों और बिल्लियों के लिए
डंडा लेकर खड़े होते हैं
और संसार भर में फैले
अपने शत्रुओं को ललकारते हैं
घर जिसमें एक खिड़की होती है
जहाँ से झांककर हम
शत्रु-पक्ष की तैयारियां देखते हैं
और उंगली घुमाकर
हवा में उड़ता रक्त चखते हैं
घर
जिसकी चौखट पर हम एक बटन लगाते हैं
जिससे सुबह गायत्री मन्त्र बजता है
और शाम को हनुमान चालीसा
वह घर
जो भूमि-गर्भ में खौलते लावे की छाती पर
ठेंगे की तरह खड़ा है
उस घर को मैं
जिजीविषा का प्रतीक कहता
पर तुमने उसे जाने किस जादू से
लालसा का दुर्ग बना दिया
अकसर वहां घुसते हुए मुझे भय लगता है.
नया साल
हर साल
अमीरों की
और नस्लें बाज़ार में आ जाती हैं
हर साल
वे दिखते हैं
और ओछे
अपने पुरखों से.
हर साल
और गहरे
पैठ जाता है विज्ञापन-लेखक
भाषा में
और ज्यादा जान जाता है
जन का मन
हर साल
और नजदीक खुल जाती है दूकान
हर साल
हम और ज्यादा साहस के साथ
खरीदने की तरह
करने लगते हैं बिकना.
हर साल
और ज़ोर से बोलता है
क़ानून
हर साल
और पीछे हट जाते हैं
कहने वाले--
कि ‘नहीं-नहीं-नहीं’
हर साल
हम
और कम पर
हो जाते हैं राज़ी
हर साल
हम लिखते हैं
और घटिया कविता
जैसी ये है.
शाम को सिंगार करने वाली औरतें
उन्हें बताया गया है कि वे वेश्याएं नहीं हैं
विवाहित हैं सम्मानित हैं
इसलिए वे पिछले पहर से बेहिचक सिंगार करने बैठ जाती हैं
उन्हें कहा गया कि वे नौकरानियां भी नहीं हैं
घर की सब जिम्मेदारियां उनके ऊपर हैं
सो वे सिंगार करके सब्जी काटने बैठ जाती हैं
और अपने पूरे अधिकार और सामर्थ्य से
एक लाजवाब सब्जी बनाती हैं
छज्जे पर आ जाती हैं
हंसती-बतियातीं
उनके आने का इंतिजार करने लगती हैं
जिनके नाम पर वह घर है जहाँ वे रहती हैं
जिनके पास वह पैसा है जिसे वे खर्च करती हैं
जिनके वे बच्चे हैं जिन्हें वे पैदा करतीं हैं और पालतीं हैं
जब वे गली के मोड़ से आते हुए दिखते हैं
वे लहराकर दरवाजे पर पहुँच जाती हैं
शाम को सिंगार करने वाली औरतें
जिन्हें घर से ज्यादा दूर टहलाने कभी नहीं ले जाया जाता
कभी नहीं जान पातीं
कि वहां वेश्याओं के मुहल्ले में भी
यह सब ऐसे ही होता है.
प्रतिलोकतंत्र
दूकान तोड़ देंगे
मकान तोड़ देंगे
भगा देंगे सडको से
घेरकर कहीं बाहर शहर के
बंदूकें छाती पर धर
पूछेंगे तुम्हारी पहचान
कहेंगे साबित करो तुम मुजरिम नहीं हो.
हर वजन के हर तरह के
जीवनमंत्री मृत्युमंत्री देशमंत्री जिलामंत्री
तुम्हारी पुलिस तुम्हारी फौजें तुम्हारे सामने करके
कहेंगे यही व्यवस्था है
अब और कोई चारा नहीं
वे जाहिर नहीं होने देंगे कि वे चुक गए
नहीं सोचने देंगे तुम्हें कि तुम उनके बारे में पुनः सोचो
सर्दी और डर में लिथड़े हुए जब तुम कसमसाओगे
वे तुम्हें तुम्हारे होने के अपराधबोध से नहला देंगे
और तस्वीर खींचकर दिखाएँगे
कि देखो तुम कितने बुरे दीखते हो.
चुनिन्दा सफल असाधारण अनुकरणीय अपने प्रिय नागरिकों की
उपलब्धियों के सुगढ़ विज्ञापन
चला देंगे तुम्हारी नाक के ऐन सामने चिपकाकर
और कहेंगे देखो
इनको देखो और खुद को देख लो.
शर्मिंदा तुम छिप जाना चाहोगे चले जाना चाहोगे
पर वे घेरकर तुम्हें वापस खड़ा करेंगे
बड़े एक मैदान में
और रेलमपेल झोंक देंगे तुम्हारे ऊपर नीचे आगे पीछे
जाने क्या-क्या
जो तुम्हें खुद ही अपना नहीं लगेगा
वह भवन वह गेट वह रोड वह पथ
वे तोपें पनडुब्बियां हवा से हवा में मारने वाला कुछ
कोई गैस अलग अलग ढंग से जलती आग गोले झंडे
सेल्यूट कदमताल अनुशासन शोर बैरियर्स
इजाजतें प्रतिबन्ध क़ानून बैंक सीलिंग्स रियायतें
अखबार विदेशी मेहमान विशाल और नयनाभिराम जाने क्या क्या
गगनचुम्बी आक्षितिज पाताल तक फैला कुछ और
और इनकी तेज साफ़ स्थिर रंगों में त्रिआयामी तस्वीरें
इसके उधर अगर तुम देख सकोगे
तो अपने जैसा अपने कद का बिलकुल अपनी तरह का एक आदमी
तुम्हें कहीं जाता दिखाई देगा
तुम्हें यहाँ अपने होने पर संदेह होगा
और लस्त-पस्त तुम कोना-कोना खखोरते फिरोगे शहर का
ढूंढते हुए अपने पहचान पत्र प्रमाण पत्र
तर्क गिडगिडाहटें गुर्राहटे प्रार्थनाएं आवेदन अधिकार-संविदाएं
अपनी प्रजनन क्षमता अपना सशक्त शिश्न अपने बाजू अपने पुट्ठे
और यह सब नाकाफी पाया जाएगा
तुम साबित नहीं कर पाओगे अपनी वैधता
और मार दिए जाओगे
देखो वे आ रहे हैं घिरे
चारों तरफ से
वे राजनीति से उकता उठे हैं
अब वे सिर्फ राज करेंगे.
भाषा जानती है
कबूतर को पता है न कोयल को
आम को पता है न पीपल को
उस बूढ़ी अम्मा को भी नहीं पता
जिसका फोटो पहले लिया
तुमने
और फिर लिखी कविता
कोई नहीं जानता
कि कितना झूठ बोला
तुमने
कितने शब्द
अपने मांस से बनाए
और कितने
औरों की हड्डियों से नोचे
और कितने बस उठा लिए
पड़े हुए रस्ते में
और खोंस लिये मुकुट में
पर भाषा जानती है
एक दिन वह बैठी दिखेगी तुम्हें
मंच के नीचे
झुटपुटे में
शाप उच्चारती हुई .
02 सितम्बर1968 को सहारनपुर (उ.प्र.)में जन्मे कवि आर.चेतनक्रान्ति के दो कविता संग्रह (1)शोकनाच (2004)और(2)वीरता पर विचलन (2017) प्रकाशित हैं |अपनी प्रसिद्ध कविता "सीलमपुर की लड़कियाँ" के लिये भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित हैं |
सम्पर्क - 125/6, चन्दन विहार, संत नगर पश्चिम, बुराड़ी,
दिल्ली-110084
मोबा.9891199861
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