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वे प्यार के दरिया में डूब कर चले गए...

कृति -चर्चा

वे प्यार के दरिया में डूब कर चले गए...
दो किताबें , दो लेखिकाएं, दोनों में सुनी जा सकती हैं दिलों की धड़कनें 
                                                ■ ईशमधु तलवार
प्यार में डूब कर आग का दरिया कैसे पार किया जाता है यह कोई हिंदी के संपादक- लेखक रवीन्द्र कालिया और अवधनारायण मुद्गल से पूछे ! लेकिन कैसे पूछें ? वे तो अब सितारों के उस पार जा चुके हैं ! लेकिन कहते हैं , जिस्म चला जाता है पर प्यार कभी नहीं मरता । वह हमेशा लहरों की तरह बहता रहता है । कागज पर रोशनाई की शक्ल में बहते इस प्यार को दो किताबों में देखा और महसूस किया जा सकता है । ममता कालिया की "रवि कथा" और चित्रा मुद्गल की "तिल भर जगह नहीं " में खूब जगह है - जीवन संघर्षों के बीच प्यार को बचाए रखने की ।

शायद इसीलिए ममता कालिया अपनी 'रवि कथा' में कहती हैं -"मैं रवि को अपने आसपास बोलते , उठते-बैठते और चलते-फिरते देख लेती हूं । यादों में बसे इस रवि से मेरा प्रेम उस जीते जागते रवि की तुलना में कहीं ज्यादा है । यह रवि पूरी तरह मेरा है । यह रवि कभी मुझे अकेला नहीं छोड़ता । इसे नौकरी पर नौ से पांच बाहर नहीं जाना होता । इसको शाम को दारु नहीं पीनी होती । यह मेरे किसी काम में मीनमेख नहीं निकालता । हम एक-दूसरे की आंखों में आंखें डाल कर घंटों बैठे रह सकते हैं ।"
और देखिए चित्रा मुद्गल क्या कहती हैं- "तुमको समेट पाना एक बंधे बंधाए खांचे में ....संभव है मेरे लिए ।" दरअसल अवधनारायण मुद्गल की एक कविता की पंक्तियां हैं "मैं नागों की भीड़ में यज्ञ के सारे मंत्र भूल गया हूं, तिल भर जगह नहीं जहां मैं अपना हवन कुंड स्थापित कर सकूं ।" इस कविता के सूत्र पकड़ते हुए वे आगे कहती हैं -"जब भी मैं अवध की "नाग यज्ञ और मैं" कविता एकांत में पढ़ती हूं तो व्यक्त के समांतर अव्यक्त की सहसा अनेक अर्थ छवियां अपनी गांठे खोलने के लिए मुझे आमंत्रित करती हुई-सी महसूस होती हैं । उन गांठों पर चुटकी रखते ही अनायास एक सघन उदासी तारी होने लगती है मनस् पर कि कहीं यह कविता उनकी निजी आत्म पीड़ा और विदीर्ण कर देने वाले जीवन संघर्ष की पराकाष्ठा से उपजी वह बेचैनी और तड़प की परिणिति तो नहीं है जो चाहती थी जीवन में मुट्ठी पर सुकून पाने के लिए तिल भर जगह , जहां वह अपना हवन कुंड स्थापित कर सके । जी सके जीवन को उस तरह से जिस तरह से जीने के आकांक्षी थे वे । ....कह नहीं सकती कि उनकी वह तलाश पूरी हुई कि नहीं । ...कहते हैं- तलाश कभी पूरी नहीं होती । परिणिति के निकट पहुंचकर वह नया रूप धर लेती है । और अगर मैं यह मान लूं कि हो सकता है , मेरे साथ को पाकर उनकी उस तलाश ने अपना पूर्ण विराम अर्जित कर लिया हो तो मैं उस मुगालते को आंखें बंद होने तक, अपने से अलग नहीं करना चाहती ।“ दरअसल , यह मुगालता नहीं , एक सच्चाई है जो प्रेम की राह पकड़ कर अपना मुकाम पाती है। 
दोनों किताबों की लेखिकाएं- ममता कालिया और चित्रा मुद्गल आपस में पक्की सहेलियां हैं । एक-दूसरे के पन्नों पर दोनों की खूब आवाजाही हुई है । दोनों ने अपने प्यार को शिद्दत से याद किया है। चलचित्र की तरह दोनों अपने जीवन के पन्ने पलटती रही हैं, बीते वक्त को फिर से जीने की कोशिश करती रही हैं ।

अन्दाज़- ए बयाँ उर्फ़ रवि कथा

रवींद्र कालिया की "गालिब छुटी शराब" पढ़ने के बाद उसका नशा बरसों तक नहीं उतरता । मेरे ऊपर जैसे अभी भी वह नशा तारी है । मैंने यह किताब पढ़ते ही जयपुर से रवीन्द्र कालिया को फोन किया था। वे बहुत खुश हुए । मुझसे बोले-'आप बाबूलाल शर्मा को जानते हो ?' मैंने कहा -'हां ,बिल्कुल जानता हूं।' तब रवींद्र कालिया ने कहा - "मैं कल अपने बेटे के पास अहमदाबाद जा रहा हूं । ट्रेन जयपुर होकर जाएगी । उनसे कहिए कि समय निकाल पाएं तो रेलवे स्टेशन पर मिलने आ जाएं । उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए ।' मैंने उनका संदेश तब बाबूलाल शर्मा तक पहुंचा दिया । वे उन दिनों जयपुर में दैनिक भास्कर के संपादक थे । गालिब छुटी शराब में भी बाबूलाल शर्मा का जिक्र आया है । जब वे इलाहाबाद में माया के संपादक होते थे। पिछले दिनों ममता कालिया जी से फोन पर बातचीत में बाबूलाल शर्मा का जिक्र आया तो वे भी बोलीं-' हां ,वे तो रवि के हमदम -हम प्याला थे । रोज ही हमारे घर आते थे।'
मन्नू भंडारी ने रवींद्र कालिया को पत्र में ठीक ही लिखा था ; 'गालिब छुटी शराब पढ़कर तुमसे ज्यादा मस्ती तो मुझे छा गई । सामने होते तो बाहों में भरकर बधाई देती ।' ममता कालिया ने 'रवि कथा' में इस पत्र के साथ ही श्रीलाल शुक्ल की एक टिप्पणी का भी जिक्र किया है, जिसमें उन्होंने कहा था-" कालिया अगर मुझसे पूछ कर दिया जाता तो मैं तुम्हें इस किताब पर नोबेल पुरस्कार दिलवाता। " उस समय रवींद्र कालिया ने हंसते हुए कहा था 'श्रीलाल जी आप घर पर हैं या कार्ल्टन में बैठे हैं ?'('कार्ल्टन' लखनऊ की एक मशहूर बार है, जो श्रीलाल शुक्ल का प्रिय अड्डा होता था।)

शायद 'गालिब छुटी शराब' का ही असर रहा होगा कि 'रवि कथा' का लगभग हर अध्याय गालिब के किसी शे'र से शुरू होता है और नशे की तरह बहा कर अपने साथ ले जाता है । इसके पन्नों पर सरकते हुए रवीन्द्र कालिया की तस्वीरें आंखों के सामने आकर खड़ी हो जाती हैं । जैसे एक तस्वीर में , जब विदेशों में रहने वाले उनके भाई-बहन के परिवार आते तो उन्हें अंग्रेजी बोलनी पड़ती । महीना -सवा महीना रहने के बाद वे वापस लौटते तो रवि अपने बिस्तर पर लमलेट हो जाते जैसे बहुत बड़ा फर्ज अदा किया हो । ममता कालिया झुंझलाकर कहतीं 'सारा काम तो मैंने किया, तुम काहे से थक गए ? रवि कहते , 'मैं इंग्लिश बोल कर थक गया।' या फिर एक और दृश्य- रवीन्द्र कालिया न्यूयॉर्क में विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे हैं। एयरपोर्ट पर सुरक्षा अधिकारी ने पूछ लिया ,"आपके पास किसी प्रकार की धारदार या नुकीली चीज तो नहीं है ? " रवि ने अधिकारी से कहा 'मुंह में दांत हैं कहिए तो निकाल कर रख दूं ?'
ममता कालिया कहती हैं " रवींद्र कालिया को मैंने लेखक की तरह जाना , पाठक की तरह पढ़ा और प्रेमी की तरह पाया। उनके साथ बिताए पचास साल आंखों के आगे पचास से भी ज्यादा कहानियों की तरह घूम जाते हैं ।"

सच में, ऐसे प्रेम को भूलना आसान नहीं होता। एक बार जयपुर में ममता कालिया को मैं अपनी गाड़ी से एयरपोर्ट छोड़ने गया तो वे पूरे रास्ते यही बताती रहीं कि 'रवि ऐसे थे , रवि वैसे थे । रवि भी आपकी तरह अपनी मां को चाई जी कहते थे ।'' रवि कथा' में ममता कालिया का दर्द इन पंक्तियों के बीच की खाली जगह में झांक कर भी पढ़ा जा सकता है -
" रवि के बिना मेरा एक-एक दिन भारी जा रहा है। वह मेरे जीवन के रवि और शशि दोनों थे। शहर की हर सड़क मुझसे पूछती है, रवि को कहां छोड़ आई ? क्या जवाब दूं ! घर के हर कोने से उनकी आवाज , उनकी हंसी सुनाई देती है। " 
ये स्मृतियां ही शायद इंसान को ताकत देती हैं। रवींद्र कालिया का रचनात्मक संसार और साहित्य किताबों के पन्नों पर फैला पड़ा है , लेकिन उनकी स्मृतियों का कोलाज 'रवि कथा' में ही देखा और पढ़ा जा सकता है ।
इन यादों को लेकर ममता कालिया ने सही ही लिखा है " उनकी यादों का मैं कोई ताजमहल खड़ा नहीं करना चाहती ।... अपने साथी रवीन्द्र कालिया को महामानव की तरह प्रस्तुत करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। वह कद्दावर इंसान थे , सिर्फ कद-काठी में नहीं बल्कि कला कौशल और कौतुक में भी । उनमें कमजोरियां भी थीं और कर्मठता भी । अपनी सभी खासियतें और खामियाँ खुली हथेली पर रखकर चलते थे।"
"रवि कथा" से गुजरते हुए यह साफ लगता है कि जीवन में ममता कालिया के संघर्ष भी रवीन्द्र कालिया से किसी तरह कम नहीं थे। प्यार में झूलते हुए यह उनके संघर्ष की भी गाथा है । रवि के जाने के बाद भी यह संघर्ष कम तो नहीं हुए हैं। तभी उनकी कलम से स्याही कुछ इस तरह पानी की तरह बह कर आती है -" ऐसे दीवाने दिलदार के लिए मैं अपनी आंखों का कितना खारा पानी समंदर में मिला दूं कि मन ठहर जाए , आंख लग जाए और सुबह हो जाए ।... मेरे लिए रवि जीते जी एक लंबी प्रेम कहानी थे । अब तो वे कथा अनंता बन गए हैं। "
शायद जिगर मुरादाबादी ने ऐसे ही हालात पर कहा होगा -
 एक लफ्ज़-ए- मोहब्बत का अदना ये फसाना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो जमाना है ।
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तिल भर जगह नहीं

दिल्ली के 10 , दरियागंज स्थित कहानी पत्रिका 'सारिका' के दफ्तर में जब भी मैं गया , अवधनारायण मुद्गल को हमेशा हंसते , खिलखिलाते और ठहाके लगाते हुए पाया। यह अस्सी का दशक था , जब मैं सारिका के दफ्तर में बलराम से अक्सर मिलने जाता था -अलवर से । वहां सुरेश उनियाल होते और अवध नारायण मुद्गल भी । मुद्गल जी को हमेशा एक बेहतरीन इंसान पाया।
 बाद में 1983 में शिमला में 'शिखर' संस्था के लेखक सम्मेलन में जैनेंद्र कुमार के साथ ही अवधनारायण मुद्गल को भी सुनने का अवसर मिला । इसकी तस्वीर भी चित्रा मुद्गल की पुस्तक 'तिल भर जगह नहीं' में छपी है , जो मेरे हाथ में है ।
 मुझे याद आया, उन्हीं दिनों एक बार अवधनारायण मुद्गल अलवर में अनिल कौशिक के कहानी संग्रह 'फिर उसी तरह' के लोकार्पण के लिए आए । तब चित्रा मुद्गल भी उनके साथ थीं और दोनों के साथ कंपनी बाग के सामने एक रेस्टोरेंट में हमने चाय-नाश्ता लिया था । 
( अलवर में अस्सी के दशक में अनिल कौशिक (अब अलवर प्रलेस के अध्यक्ष) के एक कहानी संग्रह के विमोचन में आए "सारिका" के तत्कालीन संपादक अवध नारायण मुदगल और कहानीकार चित्रा मुदगल के साथ ही जुग मंदिर तायल, भागीरथ भार्गव, मोहन श्रोत्रिय, हेतु भारद्वाज, जयसिंह नीरज, डॉ जीवन सिंह मानवी ,अशोक राही और अन्य स्थानीय लेखक चित्र में दिखाई दे रहे हैं । )

फिर लंबे अरसे बाद दिल्ली में मैं और प्रेमचंद गांधी चित्रा मुद्गल से मिलने उनके फ्लैट पर गए तो अवधनारायण मुद्गल फिर उसी तरह नहीं थे । लिविंग रूम में हम चित्रा मुद्गल जी के साथ बैठे थे और उससे सटे हुए एक कमरे में दरवाजे से अवध नारायण मुद्गल लेटे हुए दिखाई दे रहे थे। वे तब बात करने की स्थिति में नहीं थे। मैं कमरे में गया , उन्हें हाथ जोड़े और आ गया। उनकी हंसी, खिलखिलाहट और ठहाके वक्त अपने साथ ले उड़ा था । वक्त कितना क्रूर होता है , तभी जाना। बगल में एक कमरे में अवध नारायण मुद्गल निःशब्द लेटे थे और उनके दरवाजे के बाहर उनका 'प्रेम' बैठा था , जिसके लिए एक बार उन्होंने जो लिखा वह चित्रा मुद्गल की किताब में कुछ इस तरह आया है -" दरअसल प्यार इतनी गहरी और सूक्ष्म चीज है कि उसे महसूस करने के अर्थ तो दिए जा सकते हैं , लेकिन शब्द नहीं दिए जा सकते। आदम से लेकर अवध तक कोई भी प्रेमी इसे अर्थ तो दे सका , लेकिन शब्द नहीं दे सका। प्रेमिकाओं में हव्वा से लेकर चित्रा तक भी नहीं ।... तुम्हारा प्यार मेरे जिंदा रहने की पहली शर्त है । यही शर्त मेरी ताकत बन रही है । प्यार मोची की दुकान नहीं है कि एक जूता पहनो , दूसरा बदल लो और तीसरा मरम्मत करा लो। यह सिर्फ धड़कन है जो एक दिल से दूसरे दिल तक धड़कती है । ... खुदा इसे मुसल्सल बरकरार रखे। "

ठीक ममता कालिया की तरह, चित्रा मुद्गल के साथ भी उनकी स्मृतियां छाया की तरह साथ चलती है और वे कहती हैं-  " हम पति-पत्नी के बीच प्रेमी-प्रेमिका वाला भाव कभी खत्म नहीं हुआ। उतार-चढ़ावों और चुनौतियों के बीच भी हम प्रेम की अविच्छिन्न , अविरल धारा से ऊष्मित् ऊर्जावान बने रहे ।... कह सकती हूं कि हमारी परस्परता किसी तय अनुबंध की मोहताज नहीं थी । अनुबंधों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त से हम हमेशा दूर रहे। लेकिन यह मानकर चलते रहे, प्रेम जब तक परिपक्व समझ , विवेक और भरोसे की जमीन पर भावनाओं के गठबंधन के फूटे कल्लों को मजबूत तना नहीं सौंपता , प्रेम प्रेम नहीं हो पाता। "
'तिल भर जगह नहीं' में केवल प्रेम-दर्शन की ही जगह नहीं है , इसमें विचारधाराओं पर उठे सवाल है , साक्षात्कार हैं, अवधनारायण मुद्गल की रचनाओं का विश्लेषण है , उनके विविध रूप हैं और उनका जीवन -वृत्त है । अवधनारायण मुद्गल एक साक्षात्कार में हमारे समय के महत्वपूर्ण कहानीकार भीष्म साहनी को विचारधारा से हटने के प्रश्न पर घेरते हैं और लेखन के स्तर पर सार्थकता की बात उठाते हैं । तब भीष्म साहनी का यह जवाब निकल कर आता है -"विचारधारा हमें कहानी का नजरिया नहीं देती, जिंदगी का नजरिया देती है। कहानी तो हम जिंदगी से ही लेते हैं , कच्ची सामग्री तो हम जिंदगी में से उठाते हैं। तो किसी बंधी बंधाई विचारधारा में उसे फिट करने की कोशिश की जाए , ऐसा नहीं है , क्योंकि जिंदगी का अनुभव या घटना अपने अंदर ही उस कहानी को लिए रहता है। ऊपर से कोई चीज थोपी नहीं जाती ।"

दरअसल यह पुस्तक लगता है अवधनारायण मुद्गल को समग्रता में दिखाने का एक प्रयास है। इसके चलते अध्यायों के विषय भी निबंध जैसे हैं" अवधनारायण मुद्गल : व्यक्तित्व , एक सामाजिक का रूप , कवि का रूप, रूपांतरकार का रूप , कुशल साक्षात्कारकर्ता ,गैर- पारंपरिक ऐतिहासिक दृष्टि, विविध संदर्भ , उपसंहार, आदि-आदि।
शायद इसलिए 'तिल भर जगह नहीं' जहां तारीखों और विश्लेषणों का एक दस्तावेज जैसा बन गया है , वही 'रवि कथा' एक कहानी या उपन्यास का आनंद देती है। 
दो सहेलियाँ
ममता कालिया और चित्रा मुद्गल दोनों पक्की सहेलियां हैं । दोनों का अपना-अपना प्यार एक साथ परवान चढ़ा- 1965 में और दोनों की अब एक साथ पुस्तकें आई हैं -प्यार और रचनात्मकता में डूबी हुई ।
रवींद्र कालिया जब बीमार पड़ कर अस्पताल में भर्ती हुए तो उस वक्त के लिए ममता कालिया अपनी पुस्तक में लिखती हैं -" ऐसे कातर समय में सबसे पहले , मेरी दोस्त चित्रा मुद्गल सपरिवार पहुंची। अभी अवध के चले जाने के दुख से संभली नहीं थी। गिरती-पड़ती चल रही थी पर अधा, अनघा का हाथ थाम मुझ तक आई। " उधर, चित्रा मुद्गल अपनी पुस्तक में ममता कालिया के लिए क्या लिखती हैं , यह भी देखिए-" सुप्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया ने लिखा है -अवध नारायण मुद्गल जैसा अब दोस्त कहां ?" आगे लिखती हैं : ममता की दृष्टि में- अवध का जीवन दुर्धर्ष जीजिविषा की महागाथा रहा है , जिसमें कई बार उन्होंने सिफर से शुरू किया।... रवींद्र कालिया की तरह अवध भी दोस्तियों को जीने वाले व्यक्ति थे। दोस्तों ने जहर का प्याला थमा दिया तो कुर्बान अली उसे पिएंगे ही पिएंगे , भले ही रक्तचाप , रक्त शर्करा और दिल की टिक टिक इसके खिलाफ अलार्म बजा रही हो । दोनों दोस्तों को देखकर ही यह मान लिया गया होगा , 'दोस्त बन बन के मिले मुझको मिटाने वाले'। इसे गाया भी एक तीसरे दोस्त जगजीत सिंह ने । " 
दोनों किताबों में एक फर्क साफ दिखता है - 'तिल भर जगह नहीं' में जहां जीवन निबंधात्मक भाषा के तिनकों में उलझ कर बहता है , वहींं 'रवि कथा' नदी की तरह कल-कल बहती हुई चलती है । लेकिन दोनों में एक समानता है-दोनों में दिल धड़कता है । यही बड़ी चीज है।
ईशमधु तलवार
लेखक, पत्रकार , सिने समीक्षक एवं गीतकार ईशमधु तलवार चार दशक से अधिक समय से लेखन में सक्रिय हैं । रिनाला खुर्द ( उपन्यास ) ,लाल बजरी की सड़क (कहानी संग्रह ) तथा वो तेरे प्यार का गम 
( संगीतकार दान सिंह पर केंद्रित )उनकी चर्चित पुस्तकें हैं ।
मोबाइल नंबर - 9413327070
संपर्क - 79/14, शाकुंतलम् , शिप्रा पथ ,मानसरोवर, जयपुर- 302020



टिप्पणियाँ

  1. बढ़िया आलेख! सचमुच बढ़िया!
    जीवंत, किताबों में बहते प्यार की तरह!

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  2. गद्येतर साहित्य का नायाब नमूना यह आलेख जिसमें दो पुस्तकों की आत्मा की झिलमिल में पांच प्रतिबिंब दिखे !

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रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो