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मंजुला बिष्ट की कहानी' पराई जीभ'

संभावना

  कैसे कहुँ कि इस कहानी को पढ़कर कैसी हूक उठी है। आत्मा के भीतरी भाग पर चोट करती यह कथा आज के दिन का हासिल रही। मुझे खुशी है कि मैंने यह कहानी पढ़ी ।

इस अद्भुत कहानी पर कुछ भी कह सकूँ इतनी क्षमता कहाँ हो सकेगी मेरी । फिर भी कुछ पक्तियाँ लिखनी ही होगी। 

'पराई जीभ' एक साथ कई चीज़ों से रूबरू कराती चलती है। जीवन-मृत्यु, साथ-असाथ, आशा-निराशा, सपना-यथार्थ. एक संग कितना कुछ!
इसे पढ़ते हुए एक विचित्र सी मनोदशा रही... एक प्रतिभावान मेधावी बालक धीरज जिसने अभी-अभी उत्कृष्ट अंकों से बारहवीं पास की है, जिसके तमाम सपने उसके सामने क्षत-विक्षत होते जा रहे हैं।उसका चाटर्ड अकॉन्टेन्ट बनना अब सपना मात्र रह गया है, वह देखता है सामने बिस्तर पर लेटे बीमार पिता लिवर सिरोसिस से जूझ रहे हैं। उसे अपने मजबूत पिता बेतरह याद आ रहे हैं, जिन्हें वो बचपन से देखता रहा है। उसकी जीभ पर बचपन में पिता की दी हुई टॉफ़ी का स्वाद है। एक क्षण को वह उस सुखद स्मृति में डूबता उतरता है तो अगले ही क्षण उसके सम्मुख एक त्रासद वर्तमान आ खड़ा होता है। वह जान गया है कि इतनी गम्भीर स्तिथि में भी उसके पिता छिपकर शराब पी रहे हैं।  यह लत उन्हें प्रतिदिन भीतर से मारे डाल रही है। उनके सामने उनका घर, उनका सपना, उनके पुत्र का सपना सब चकनाचूर हो रहा है ।
एक तीसरे पात्र 'कर्नल अंकल' जो कैंसर की आखिरी स्टेज से जूझते हुए भी धीरू की सारी स्थिति को समझते हुए उसे वात्सल्य प्रेम से देख रहे हैं। यह एक अलग ही भावाकुल कर देने वाला प्रसंग है।

इस पूरी कथा में जो मनोवैज्ञानिक ट्रीटमेंट है वह इसे और अधिक विशेष बनाता है।सारा खेल मनोविज्ञान का ही है..जो एक क्षण निराशा है, वही अगले क्षण उम्मीद बन सकती है. जो एक क्षण कमज़ोंरी है, आगे मजबूती बनकर प्रोत्साहित कर सकती है. जो जीभ आज पराई है, वही अपनी हो सकती है।
पूरी कथा एक प्रवाह में चलती है,बहती हुई सी , बहाती हुई सी लगभग एक समान चाल में,जो अपनी बुनाबट और कथावस्तु के ट्रीटमेंट के कारण हर अगले पल और मारक हो जाती है। यहाँ रेखांकित करने योग्य यह है कि इतनी कठिन स्थिति और मनोविज्ञान को व्यक्त करते हुए भी कथाकार की भाषा और संरचना बेहद सहज और बोधगम्य है, वह आपको परेशान या आतंकित नहीं करती, अपितु और बांधकर रखती है , ज्यों यह कथा आपकी अपनी कथा हो  

धीरू का अपने पिता के साथ और फिर कर्नल के पुत्र के संग जो संवाद है वे इतना मार्मिक हैं कि सीधे हृदय को जाकर लगी हैं। मुझे मेरे पिता याद आते रहे। 

अपने शिल्प और विषयवस्तु के कारण यह कथा न सिर्फ अनूठी है है, अपितु अपने समय को भी सफलता से व्यक्त करती है, कर्नल की देखभाल के लिए धीरू का होना इसकी दास्तान बयाँ करती है. इस सुंदर मनोवैज्ञानिक कथा के लिए आपको ख़ूब प्रेम ।

ईश्वर आपकी लेखनी को और ऊर्जा और बल दे।
बहुत बधाई 

सपना भट्ट


                         पराई जीभ

                                                              ■  मंजुला बिष्ट

  "ज़रा पापा को सहारा दे न,धीर!''बाथरूम की ओर जाता वह माँ के संकोची अनुनय पर लौट पड़ा।उसने लेटे हुए पिता को सहारा देकर बिस्तर पर बैठाया।माँ के कंधे पर पड़े तौलिए को उनके गले के चारों तरफ लपेटा व स्टूल पर रखा टमाटर का गर्म सूप उन्हें पिलाने लगा।दिसम्बर माह की तीक्ष्ण शीत लहरों की झुरझुरी गलन पिता के कमज़ोर शरीर के भीतर धँसती चली जाती थी।गर्मागर्म सूप पिता के लिए बहुत फ़ायदेमंद था,जिसे माँ बगैर नागा किये रोज़ सुबह-शाम बना रही थी।
  अचानक पिता ने उसका हाथ रोक दिया!उन्हें तीव्र उबकाई आयी थी!मुँह पर तौलिया रख लेने के बावजूद उबकाई तीख़ी गंध छोड़ गई।उसका चम्मच लिए हाथ हवा में लहरा गया!वह हतप्रभ हो उन्हें ताकता रहा।शंका व असमंजस की धुँध उसकी पुतलियों के आगे गहराती जा रही थी..!
  "कल से बुख़ार भी आ रहा है,आजकल खाना भी नही भाता है।"माँ ने नज़र झुकाए मायूसी से कहा।धीरज के हाथ से सूप का कटोरा नीचे गिरने से ..बस्स बच गया था।"डॉक्टर को दिखाना होगा?"माँ ने सवाल नहीं किया था बल्कि उसकी समेटी हुई हिम्मत के लरज़ने का संकेत दिया था।पिता को नज़रें चुराते देख उसने माँ को ताका,उसके बैग से टिफ़िन निकालती माँ की अनभिज्ञ दिखती पीठ उसे अधिक बेचैन कर गयी।लेक़िन वह अब इतना भी अबोध नहीं जो उस तीख़ी गन्ध का मूल न समझे!वह कटोरा थामे स्टूल में धम्म से धँस गया।
  एकाएक वह तीख़ी गन्ध पूरे वेग के साथ नाक के रास्ते गले में उतरने लगी...अंदर..और अंदर !समूचे वजूद के हर कोने व गोलाइयों में बेलगाम घूमती हुई!पूर्व अनुभूत संत्रास से बचने के लिये वह दाँतों से जीभ को तेज़ी से...और अधिक तेज़ी से खसोटने लगा।सिर झुकाए जीभ को होंठों की सख़्त बाड़ में रोक लेना चाहता था,लेक़िन मस्तिष्क था कि उसका साथ छोड़ता जा रहा था।वर्तमान में बने रहने की जद्दोजहद उसे स्मृतियों के अधिक समीप खींचे ले जा रही थी...! 



         
 एक साल पूर्व पिता के बिस्तर पर लगते ही उसका चार्टेड-अकाउंटेंट बनने का सपना चकनाचूर हो गया था।उसने उन टूटे सपनों की अनुगूँज से बचने के लिए ख़ुद को लोगों से दरकिनार रखना शुरू कर दिया।अब हर समय अकेला हो जाना उसके निर्जन मन की एकमात्र चाहना होती जा रही है।साँस लेने व साँस खींचने के वृहद अंतर को वह अब हर घड़ी महसूस करता है।तन व मन एक दूसरे से मिलना ही नहीं चाहते हैं।
  बेवक़्त ही अपने सपनों को यूँ ज़मीदोज़ होते देख उसके भीतर जिंदगी के प्रति अथाह भय पैदा हुआ,जो पहले ख़ुद से चिढ़ में बदला फ़िर क़िस्मत से नाराज़ हो वह बेहद उदास रहने लगा।धीरे-धीरे उसे हर वक़्त उदासी में सिमटे रहना साँसें खींचने के लिये अधिक सुविधाजनक लगने लगा।माँ जानती थी कि वह इस तरह से ख़ुद को सज़ा देकर अपनी बर्दाश्तगी बढ़ा रहा है।
   वह पुत्र रूप में अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की यथासम्भव सभी कोशिशों में है।लेक़िन,पिछले एक महीने से उसके वजूद की बेजुबान छटपटाहट जैसे उसकी जीभ पर बहुत मोटी लिसलिसी परत के रूप में पसरने लगती हैं।फ़िर एक अज्ञात-अनुसना  सिलसिला शुरू होता है!लिसलिसी जीभ जैसे ऊबड़-खाबड़ धरातल पर रगड़ती चली जाती है।वह उसे खसोट-खसोटकर और खींचकर रोकना चाहता है लेक़िन जीभ जैसे अनियंत्रित होकर उसके शरीर.. उसके पूरे वजूद से बाहर भागने लगती है।उसकी अपनी जीभ जैसे एकदम 'पराई 'हो उठती है।
   उस अनसुनी-अनुभूति में वह बेहद-बेहद बेचैन हो उठता है।फिर अगले ही पलों में उसका पूरा वजूद किसी अंधेरे निर्वात में डूबता चला जाता है..अंदर और अधिकतम अंदर..!फिर ज़ुबान,जबड़े व कान एकदम सपाट- सुन्न!मस्तिष्क जैसे लम्बी-अंधेरी सुरंग में "घूँ-घूँ"कर खिसकने लगता है।पराई हो चुकी उसकी जीभ तभी उसके पास वापस लौटती है जब वह बाहर भागने की कोशिशों में पछाड़ खा-खाकर बुरी तरह थक जाती है।"घूँ-घूँ"की उस ध्वनि को पहचानने की अनेक कोशिशों के बाद समझ पाया था कि वह मधुमक्खियों की आक्रामक भीड़ जैसा ही कुछ होता है।उनका संभावित आक्रमण उसे काली नियति की बढ़ती परछाई लगती है,जिसकी गिरफ्त से बचने के लिए वह पिता की छाती पर अपना पूरा भार टिका देना चाहता है।
  लेकिन..यही तो अब नामुमकिन है!शुक्र है कि रगड़ती हुई जीभ पसीना नही छूटने देती है वरना माँ-पापा को क्या जवाब देता–ख़ुद को सांत्वना देता क्लांत तन-मन को लादे हुए जब वह बाथरूम जाने के लिए उठा तो ध्यान आया कि उसके हाथ में सूप का कटोरा नहीं था!माँ खाली कटोरा लेकर किचन की ओर जा रही थी।वे काम से थके लौटे बेटे की अनमनयस्कता के उत्तर खोजकर ज़्यादा थकी दिखी तो पिता करवट ले दीवार को घूरते मिलें।
   बाथरूम में गीजर के जलते लाल-हरे स्विच में उसे वे दो लाल-हरी टॉफियाँ याद आने लगी जो पापा ने एक रविवार की सुबह नहलाने से पहले उसके मुँह में फिसला दिए थे।वह उनसे नहाते हुए मचल कर इधर-उधर भागता जो बहुत था।उसे टॉफियों के बासी स्वाद का लिसलिसा खट्टापन जीभ पर उतरता महसूस होने लगा,फ़ौरन दो-तीन बार कुल्ला किया।
   लेक़िन अब यह क्या!कोई उसे ही ठेलता हुआ नंग-धड़ंग बाथरूम में खिलिखिलाता हुआ घुस आया था!उसने ख़ुद को सम्भालते हुए उसे पहचानने की कोशिश की।अरे!यह तो वही था।वह टॉफियाँ चूसता हुआ,ठिठुरता हुआ सामने लाल स्टूल पर आकर बैठ गया..!!पिता उसके स्वस्थ बाल-शरीर पर माँ द्वारा की गई सरसों के गुनगुने तेल की मालिश पर साबुन लगाते हुए ख़ूब लाड़ कर रहे हैं।वह मुँह में खट्टी- मीठी लार को दबाए हुए अपनी शरारती गोल-चमकीली आँखें मींचे हुए हँसे जा रहा है।पिता उस पर बलिहारी हैं..!उन दोनों की खिलखिलाहटों से बाहर तौलिया लिये खड़ी माँ आह्लादित है।
  चार बाई पाँच का वह बाथरूम रंग-बिरंगें फूलों की महक से भरी कोई घाटी लग रहा है।तभी अचानक... ढेर सारी मधुमक्खियाँ उन फूलों पर मंडराने लगीं।वह उनके उड़ान से झरते संगीत को मंत्रमुग्ध सा सुन रहा था कि ...उन मधुमक्खियों ने अचानक अपने टार्गेट को बदल दिया।अब वे उसे बड़ी उम्मीद से देख रही हैं।वह उनका निर्मम लक्ष्य पहचान चुका है।"घूँ-घूँ"का वह अवसादी-शोर अब शीघ्र ही उनके पंखों से निकलकर उसकी जीभ की ओर बढ़ने लगेगा...!
  "जल्दी आओ,धीर !ठंड लग जायेगी।"चिंतित माँ सचमुच ही तौलिया लिए उसकी पीठ के पीछे खड़ी थी।यह अहसास होने पर उसने फ़टाफ़ट टॉफियों का बासी स्वाद निगल लिया व पिता की मजबूत हथेली से अपनी साबुन लगी नन्हीं-कोमल अँगुलियों को भी छुड़ा लिया।"मम्मी!आप क्यों बेकार परेशान होती हैं,आप ख़ुद दिनभर थक जाती हैं!"माँ से तौलिया लेते हुए उसने फिर सामान्य होने की भरसक कोशिश की।माँ ने उदास माथे को छूकर हाल जानना चाहा।उसने मुस्कान लम्बी करने की कोशिश की,ख्याल ही नहीं रहा कि माँ से बेहतर कौन अपनी संतान की मुस्कान का स्थितिपरक आकलन कर सकता है!शॉल में खुद को लपेटती माँ खाने के लिए उसे जल्दी आने को कह चली गयी।
  उसने चेहरा से टपकते गुनगुने पानी को पोंछ आईने में देखा।वहाँ उसकी सुडौल पीठ दिख गयी,जो दनदनाती हुई ओझल होते बिंदु में बदलने को अग्रसर थी!एक दिन मेले में तरह-तरह के आदमकद शीशों के सामने खड़ी हो उसने कितने चेहरें बनाकर दिखाये थे।हर शीशे में ख़ुद को खोजती एकाएक वह गड्डमड्ड होते एक शीशे के सामने बेहद उदास हो गयी।उस बासंती शाम को वह ऐसी उदास हुई कि फ़िर कभी मुस्कराती हुई तो क्या,दनदनाती हुई भी वापस नहीं लौटी।
 उसकी खरगोश सी गुलाबी आँखों में वह चाह कर भी नही ठहर पाता था।उसकी चंचल चितवन में नैतिकता के दायरे तब बेहद बचकाने लगते थे,जब सार्वजनिक जगहों में उसकी उन्मुक्त शरारतों से आतंकित हो ख़ुद को सिकोड़ लेता था।करीने से तराशी धनुषाकार भवों को उठाकर वह उसे पहले जैसे टटोलती फ़िर एकाएक ताली बजाकर खिलखिलाकर हँस पड़ती।सामाजिक व आर्थिक स्तर के अलावा वे दोनों ज़ेहनी तौर पर भी विपरीत ध्रुव साबित हो रहे थे।वह उनके रिश्ते को धैर्यता से एक सम्मानजनक नाम देना चाहता था जबकि वह उसे अपनी तेज़ भागती बिंदास जिंदगी में मात्र एक पड़ाव ही समझ रही थी।
  प्रेम हो या विवाह,यदि सिर्फ सुंदरता या अन्य कोई विशेष आवश्यकता हेतु ही आयोजित हुआ हो तो वह अपनी गरिमा व सहनशीलता जल्दी ही खो देता है।बगैर दुःख व पीड़ा बाँटे प्रेम आत्मोत्सर्ग का माध्यम कैसे बनें!किसी की मुस्कराहट से मिलकर कलेजा इतना आत्मविश्ववासी भी हो सकता है–यह उससे मिलकर ही वह समझा था।लेकिन अब...अब तो वह मौसम की हर तासीर से जैसे मुक्त हो रहा है।अब उसके साथ बारहमासी जेठ की तपन है।अब उसे किसी बहुरंगी मेले की कोई चाहना नहीं है,उसे तो दिन-रात बस..रुपयों व पिता की ही चिंता है।
   "धीर s..s!"माँ की व्यग्र-ऊँची होती आवाज़ ने उसे गर्म खाने के परोसे जाने की याद दिलाया।उसने फ़टाफ़ट कपड़े बदलें।खाते हुए वे तीनों उस तस्वीर के हिस्से भर दिख रहे थे,जिसका रंग तेज़ी से उड़ता जा रहा था।क्या ईंट-सीमेंट से बने घर भी किसी स्वार्थी इंसान की तरह हो जाते हैं जो मुश्किल घड़ियों में बेज़ार हो साथ छोड़ने लगते हैं?उसे क्यों वे तीनों बगैर छत के महसूस हो रहें हैं..?
   शेर समान पिता भी कभी कमज़ोर हो सकते हैं–यह उसने डेढ़ साल पहले तब जाना था,जब उसे ग्यारवीं की परीक्षा के बाद पिता की गम्भीर बीमारी "लिवर-सिरोसिस"के बारे में पता चला था।दुनिया जीतने की आस लिये बलिष्ठ पिता शहर आकर नशे की भेंट चढ़ गए।उन्होंने नशे में डूबते हुए उसके सपनों को गाँव के सीमांत में दफ़न करना शुरू कर दिया।माँ की समझाइश ,तमाम कसमें व धमकियाँ बेअसर साबित हो रही थी।पिता बिस्तर पर पूरी तरह आने तक अपनी बीमारी के साथ नशे से भी लड़ते रहें।बारहवीं की परीक्षा चौरानवे प्रतिशत के साथ पास करने के बावज़ूद उसे अपने बेशक़ीमती सपनों को दो जून की रोटी व पिता की दवाइयों के इंतज़ाम में तिरोहित करना पड़ा।
  ''तुम्हारी परीक्षा कब से है,धीरू?"पिता की कमज़ोर आवाज़ ने उसे अपनी अकेली दुनिया से बाहर निकाला।"अभी फिक्स -डेट नही आई है,पापा!"कहकर वह उठ गया।कभी पिता द्वारा 'वर्बल-डायरिया' का रोगी घोषित उनका बच्चा 'धीरु' अब शब्दों के मामले में हद दर्ज़े का संयमी हो गया है–ऐसा शायद पिता सोचने लगें हैं,उसे यह पिता की सूनी तौलती नजरों से महसूस हुआ| 



  कमरे में आकर रज़ाई के भीतर कटे पेड़ की तरह लुढ़क गया।डिस्टेंस-लर्निंग प्रोग्राम के जरिये बीकॉम की पढ़ाई शुरू तो की लेक़िन उस जैसे मेधावी छात्र के लिये मात्र उत्तीर्ण हो जाना तीक्ष्ण कचोट की तरह था।परीक्षा सिर पर थी,लेक़िन पढ़ने के लिए समय कहाँ से चुराए?आज भी छाती पर कोर्स की किताब थी लेक़िन मन अशान्त होने की अनन्तता पर था।निस्सीम चिंता व भय से टूटता शरीर बेहद थकने के बाद भी सो नही पा रहा था।हालाँकि अब वह चाँद-सितारों के साथ म्यूट मोड में रात-भर चलना सीख गया था।लेक़िन आज वह पिता की उबकाई पर थमा था।डॉक्टर के अनुसार यह लक्षण इस बीमारी की दूसरी स्टेज का है,जबकि पिता तो पहली स्टेज के रोगी थे!
    तो क्या वे शराब के लिये धोखेबाजी पर हैं?छत से सवाल पूछते हुए उसे लगा जैसे पूरी छत उसकी तरफ़ तेज़ी से आ रही है !वह जीभ पर उस मोटी लिसलिसी परत से बचने के लिए सोने की कोशिश करने लगा।अब उसे अच्छी तरह मालूम था कि कब उसकी जीभ पराई हो जाती है।शायद उसकी जीभ की विभिन्न स्वाद-ग्रन्थियां अपना स्वभाव खोती जा रही हैं जैसे उसका जीवन भी बहुआयामी से नीरस एकरंगी हो गया है।जहाँ अब किसी भी दूसरे ख़ुशनुमा रंग का प्रवेश निषेध था!जैसे वह भी उसके जीवन की तमाम खुशियों व उम्मीदों की तरह पराई हो गयी थी!



क्या उसे एक मनो-परामर्श की फ़ौरी ज़रूरत है?नहीईई!!वह ख़ुद बीमार कैसे हो सकता है? वह अभी पिता के स्थान पर है..तो क्या पिता को उनकी बीमारी ने अपदस्थ कर दिया है!नहीईई... वह बामुश्किल होंठों को समझा पाया कि उसे अब अपनी तकलीफों को कोई भी बाहरी शब्द नही देना है।ख़ुद की तरफ आती छत को दूर धकेलने की कोशिशों में वह दूर किसी ग्रह-नक्षत्र के सामने मिमियाने लगा,"क्या तुम सचमुच भाग्य-विधाता हो!अगर हो तो मेरे पिता..को फिर पिता की जगह पर खड़ा कर दो न! मेरी उम्र के बच्चों को कमज़ोर व मजबूर पिता बिल्कुल अच्छे नही लगते हैं।"  
   सुबह साढ़े चार बजे माँ की लाड़भरी आवाज़ के साथ गर्म चाय उसे जिंदगी की दौड़ में वापस ले आयी।कल रात शायद दादी की शक्ल के तारे ने उस पर रहम की थी,जो अपनी बची हुई अंतिम-नींदें उसकी पलकों पर आहिस्ता से लुढ़का दी थी।उसे हाड़ कंपाने वाली दिसम्बर की ठंड को चीरते हुए एक हमउम्र लड़के के पास छः बजे तक पहुँचना था–यह याद आते ही गर्म बिस्तर व उनींदी पलकों का साथ तत्क्षण ही छूट गया।
   नियत समय पर वह एक शानदार बड़े फ्लैट में था,जहाँ वह उस लड़के का 'प्रोफेशनल केयरटेकर' था।लड़के की प्रिंसिपल माँ आकर बेटे के पोलियोग्रस्त पैरों में उठे दर्द के लिए कुछ विशेष ताक़ीद कर कॉलेज चली गयी।उसे तो आज उनसे कुछ कहना था..नही,रुपये माँगने थे!लेक़िन ज़ुबान पर संकोच के ताले लगे थे।घुप्प चुप रह गया।उम्र की लंबाई का मापन तय किये हुए रास्तों से तय होता है,न कि गुजारे हुए बरसों से–यह सोच रखने वाले उसके लिये,एक निश्चित दायरे में सिमटे इस सम्पन्न घर के बेटे के लड़खड़ाते कदम देखना कई बार ख़ुद को कुछ ज़्यादा भाग्यशाली समझने का सुकूँ भी दे जाता था!किसी की कमी कई बार स्वयं को अधिक गुणी समझने का मुगालता देती है..इस ख्याल ने उसे आकंठ ग्लानि से भर दिया।
    दिन के बारह बजे लड़के को घर की बाई को सुपुर्द कर वह बूढ़े-विधुर कर्नल अंकल के भव्य बंगले की तरफ़ चल पड़ा।उनके सुसज्जित कमरे में लगी तस्वीरें व मेडल्स उनके गर्वीले व अनुशासित अतीत को बताती थी।अस्सी वर्षीय कर्नल अंकल के परिवार में आर्किटेक्ट बहु-बेटे व पोते-पोती की अपनी भी कामयाब महत्वपूर्ण दुनिया थी।घर के ये सदस्य डाइनिंग-टेबल पर कुशल कुक के हाथों बनाये मेन्यू पर पर कभी-कभी ही एक साथ मिल पाते थे,जिसका अब कर्नल अंकल को कोई वास्ता नहीं था।उन्हें तो डॉक्टर द्वारा निर्देशित परहेजी खाना उनके कमरे में ही मिल जाता था।

  सरहदों पर जो सैनिक शत्रुओं की कुटिल सेंध के प्रति अति चौकन्ना रहा था,वह अपने शरीर में बोन-कैंसर की सेंधमारी को पकड़ ही न पाया।पाँच वर्ष पूर्व जीवनसाथी खोने के बाद इस घातक बीमारी ने उन्हें संसार से निर्लिप्त कर दिया था।आरंभिक इलाज़ के बाद शरीर व इच्छाशक्ति दोनों टूट रहे थे।हर आती साँस के साथ मौत की आहट का इंतज़ार करते हुए उन्हें अब किसी अपने का भी इंतजार नही था।एक रोज़ जाँघ पर हीटिंग पैड लगवाते हुए उन्होंने लगभग निःस्वर हो बुदबुदाया था,"विपरीत परिस्थितियों में आत्महत्या का विचार हर इंसान के जेहन में कभी न कभी कौंधता जरूर है।लेक़िन जिंदगी इतनी आकर्षक व सम्भावित मौक़े देती हुई लगती है कि कुछ साँसों का लालच..मरने के तत्कालीन निर्मम फ़ैसले को स्थगित करता रहता है।"कर्नल अंकल का वह कातर निःस्वर उसके ज़ेहन में जैसे अलार्म की तरह लौटता रहता था।
  आज तो महीने की पच्चीस तारीख़ है,क़रीब पूरे दस दिन बाद सैलेरी उसके हाथ में आएगी–कर्नल अंकल की आँखों में दवाई डालते हुए इस विचार ने उसे फ़िर पिता के बुख़ार व उबकाई में डूबा दिया।उसे उनकी आँखों की कोटरों में "घूँ-घूँ"की प्रतिध्वनि से गूँजती वही लम्बी-अंधेरी सुरंग दिखाई देने लगी।वह सुरंग,सम्भवतः उसके भय, अस्थिरताओं व आशंकाओं से उपजे नैराश्य की प्रतीक बनती जा रही थी।
  अगले ही पल..उस सुरंग की दीवार धोखे पर उतर आई!एक छेद से पानी की तेज़ धार सुरंग में सनसनाती हुई घुस आयी।उसे तो सुरंग के समानांतर बहती इस जानलेवा नदी का अंदाज़ा ही नहीं था!वह कैसे भूल गया था कि धोखा हमेशा क़रीब में ही छिपा रहता है!उसे तो तैराकी भी नहीं आती।कभी सीखने की ज़रुरत ही महसूस नहीं हुई!उसे अहसास हुआ कि अब वह नहीं बचेगा!नहिईई...उसे तो हर हाल में बचना ही होगा!घर पर मम्मी-पापा व जिम्मेदारियाँ उसका इंतजार कर रहें हैं–उसने यथाशक्ति तेज़ दौड़ लगा दी।वह आगे-आगे....पानी की तेज धार बिल्कुल उसके ठीक पीछे-पीछे..!!
  "धीरू!आज तेरा ध्यान कहाँ है!"हैरान कर्नल अंकल उसका हाथ हटा रहे थे।आई-ड्राप की शीशी को मुट्ठी में फँसाएं हुए वह अथाह शर्मिंदा हो उठा।उसे प्रशिक्षण-संस्थान में कुछेक दिनों की ट्रेनिंग के बाद विनम्र-अनुशासित हो अपनी ड्यूटी करने को कहा था।"देख न!गाल पर नदी बह रही है!"झक्क सफेद नीले किनारी रुमाल से गाल पोछता वह पित्रवत स्वर जैसे उसे सांत्वना दे रहा था।तो क्या वह नदी उसका पीछा करते हुए यहाँ तक पहुँच चुकी है?"सॉरी!"कर्नल अंकल के पीछे खड़ा वह बदहवास हो उठा।तभी उसका मोबाइल चीख़ पड़ा!
   ''धीरज!फ़िल्म देखने चलेगा..चल,जल्दी से निकल!"दूसरी तरफ जिगरी यार की साधिकार गुज़ारिश थी।"नही यार!तुम लोग जाओ।"वह खिसिया रहा था।"क्यों भला!अपने जन्मदिन पर एक फ़िल्म तो हमारे साथ देख लें यार!"उसने आती खुशियों से घबराकर कॉल ही काट दी।कर्नल अंकल सिर झुकाए अपने रुमाल की तह को उलट-पलट रहे थे।
   इसी बीच नौकर शाम का चाय-नाश्ता रख गया।कप में चाय डालते हुए वह फ़िर कर्नल अंकल के साथ नहीं था।"धीरू!सब ठीक है न!"कर्नल अंकल का वह प्रश्न सन्देह से भरा तो बिल्कुल नहीं था,बल्कि उसकी समस्या की पूर्ण-आस्वस्ति थी।वह फिर शर्मिंदा था कि अब वह अचानक इतना चुप क्यों हो जाता है?पिता के बिस्तर पकड़ते ही उसके अधिकार व असीम अल्हड़ता को जैसे पिता ने अपनी जेब में रख लिए हों।
  "कुछ चाहिए क्या,धीरू!"कर्नल अंकल उसे पिता से क्यों दिख रहे हैं ?क्या इसलिये ही कि वे भी पिता द्वारा पुकारे जाने वाले निकनेम 'धीरू' से उसे सम्बोधित करते हैं।नहीं,उसे अपनी सीमाओं को पार नहीं करना है–सोचते हुए दृढ़ता से जवाब दिया,"जी,अंकल जी!सब ठीक है।"लेक़िन वे बूढ़ी स्नेहसिक्त ऑंखें उसकी आँखों को खँगाल रही थी,उसने घबराकर नज़रें फेर ली।
   शाम साढ़े छह बजे ड्यूटी ख़त्म होने पर उसने कमरा व्यवस्थित किया व कर्नल अंकल के बगल में टीवी का रिमोट रखा।एकाएक उसके हाथ में कुछ कड़क कागज़ी सरसराहट हुई,"आज तुम्हारा बर्थ डे है न!मेनी-मेनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ द डे,यंग मैन!घर पर मेरी तरफ से मिठाई ले जाना।"फ़ौजी रुआब से लबरेज़ स्वर में अथाह स्नेह की पिघलन छलक आयी थी,निश्छल सूनी आँखें भावविह्वल दिखी।उनके कमजोर पड़ते बूढ़े शरीर पर कैंसर का प्रभाव अब तेज़ी से दिखने लगा था।
   असीम धैर्यता व जिजीविषा को इस तरह हारते देखना उसे जीवन की क्षणभंगुरता समझाने लगती थी,जो उसे स्थितिप्रज्ञता नहीं..असमय टूटन देती थी।पिता,वह हमउम्र लड़का व कर्नल अंकल तीनों ही उसे जिंदगी के प्रतिकूल क्रूर चेहरे लगतें थे,जो उसे घनघोर निराशा देते थे।उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखा व रुपये थमाकर हीटिंग पैड को ऑफ कर दिया।उसे वे आज बहुत थके हुए लगें,पूरी देह-आत्मा जैसे अकथ दर्द से लबरेज़ थी!
 ''लेक़िन यह तो बहुत ही ज़्यादा है,अंकल जी!" जैसे-तैसे वह बोल ही पड़ा।"अच्छा सुनो!मेरी कुछ जैकेट व ब्लेज़र हैं,तुम्हें फिट आएंगे।अगर पहनोगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी..और सुनो,कल तुम्हारी छुट्टी है..यहाँ सर्वेंट सब संभाल लेगा।"उसे अनसुना कर वार्डरोब की तरफ़ साधिकार इशारा हुआ।उसने वहाँ रखा एक बड़ा पॉली-बैग उठा लिया।
  उसके कंधे को थपथपाते हुए कर्नल अंकल अब माँ जैसे दिख रहे थे,जो उसे बचपन में साधारण ठंड में भी कनटोप पहनाए बगैर घर से बाहर नहीं भेजती थी।उसने कमरे में ब्लोअर ऑन किया।कर्नल अंकल को ओढाये हुए इम्पोर्टेड ब्लेंकेट व पश्मीने की टोपी की स्थिति को पुनः सुनिश्चित किया।फ़िर अनुशासित तरीके से विदा ली..हमेशा की ही तरह!कर्नल अंकल की स्नेहसिक्त नजरें दरवाज़ा बंद होने तक उसे छूती रही।पूरा रास्ते उसके भीतर अजीब बेचैनी तारी रही।
   घर पहुँचकर बरामदे में साईकिल खड़ी की तो,माँ ने हमेशा की तरह झट उसकी पीठ से बैग उतार लिया।''जल्दी से फ्रेश होकर आ।तेरी पसन्द का गाजर का हलवा बनाया है।हैप्पी वाला बर्थडे ,बच्चा!"उसे लगा खुशी व उत्साह जैसे इस देहरी का रास्ता बिल्कुल भूल गयें हैं।भला,कोई इतनी मायूसी से अपनी सन्तान को बधाई देता होगा!–ख़ुद से लिपटी हुई माँ के सर को चूमते हुए उसने सोचा।माँ बैग लिए घर के भीतर चली गयी।
  उसने उस बड़े पॉली-बैग को साईकिल के कैरियर से उतारकर भीतर बेंत के सोफे पर रखा।पॉली-बैग को देखकर माँ-पिता की बेबस निगाहें उससे छिपी न रह सकी।उसने पिता के पैर छुए।"सदा सुखी रहो,ख़ूब त-र-क्की क-रो!"पिता किश्तों में आशीर्वाद दे घुप्प चुप हो गए थे।घर में मनहूसियत ऐसे पसर रही थी जैसे बेमौसम बरसते ओलों ने पूरी खड़ी फ़सल बर्बाद की हो।
 "कर्नल अंकल ने जन्मदिन की मिठाई भिजवाई है।"उसने माँ-पिता के आँखों में तैरते सवालों का जवाब आगे बढ़कर दे दिया।"लेक़िन मिठाई कहाँ है?"माँ ने बैग से फल-सब्जियाँ व पनीर निकालते हुए मायूसी से पूछा।उसने सूप निकालते हुए बात खत्म की,"ये चीज़ें पापा के लिए ज़्यादा जरूरी थी न..मम्मी!मिठाई का हम करते भी क्या?"माँ ने नज़रें फेर ली और जाकर उस पॉलीबैग को सहेजने के लिए उठा लिया।वह माँ को उसके कमरे की तरफ जाता हुआ देख रहा था।उन्होंने पॉली बैग को सीने से भींचा हुआ था,जैसे अपनी बेबसी नियंत्रित कर रही हों।उसने अपनी अटकती साँस को जोर से बाहर फेंका फ़िर पिता के पास सूप ले पहुँचा।
  सूप पिलाते हुए उसे फ़िर वही जानी-पहचानी बू आयी।ओह!तो उसका शक़ सही था।पापा अब भी शराब पीते हैं!अपमानजनक बौखलाहट चरम पर थी!माँ से यह पूछना उन्हें अधिक दयनीय साबित करना था कि क्या पिता के एक दोस्त जो अक्सर मिलने आते हैं,वे ही पिता को चुपके से शराब दे जाते हैं।उसे लगा जैसे शराब की बोतलें उसके भीतर घुस-घुसकर लहुलुहान कर रही थी।उसके कानों के पास लगातार जोरदार धमाके होने लगें!लगा जैसे दिल किसी ने नज़दीक आकर पंचर कर दिया हो!
  'लिवर-सिरोसिस'जैसी गम्भीर बीमारी के चलते पूरे घर की व्यवस्था व शुभता को अभिशप्त कर पिता अब भी नशे के लिए रेंग रहे हैं...!नशे ने उसके सपनें दीमक की तरह धराशायी कर दिए हैं लेक़िन पिता हैं कि–भीतर से वह हाहाकार कर बैठा।कटोरा स्टूल पर छोड़ रसोई की तरफ भागते हुए वह फ़िर उसी लम्बी-अँधेरी सुंरग में सरपट भागने लगा।फ़िर वही 'घुँ-घुँ'..की ध्वनि,जो अब जल्दी ही करोड़ों प्रतिध्वनियों में बदल जाएगी।आह!..आह..!! कब तक!!
  उसकी जीभ ने उसे फ़िर नकारा व पराया घोषित करके बाहर की राह ले ली थी।वह उसे रोकने पर जब बिल्कुल बेबस हो गया तो अपनी दायीं हथेली से मुँह को ही ज़ोर से दबा लिया..लेक़िन जीभ आज ज़्यादा ज़िद पर उतर आई थी।वजूद का कोई हिस्सा जब स्वयं के ही विरोध पर उतर जाए तो वह इंसान क्या करें!फ़िर वही उबड़-खाबड़ रास्ता..फ़िर"घुँ-घुँ-घुँ "ध्वनि का उसके पूरे वजूद पर दमघोंटू घेराव!उफ्फ...!!
  उसकी पूरी जमा की हुई हिम्मत आज पूरी तरह टूट रही थी।वह कतरा-कतरा कमज़ोर पड़ता जा रहा था।उसकी निशक्त बाँहें रसोई की सीली हुई दीवार पर लिपट गयी।उसका जी कर रहा था कि अपने वजूद को इस ठंडी दीवार से खूब चोट पहुँचाये।वह ठंडे फर्श पर बैठकर मुट्ठी से आजमाईश करने लगा।अचानक!!एक काँपती खुरदुरी हथेली उसके सिर को सहलाती हुए गले पर फिसलकर कँधे पर स्थिर हो गई..!!
  यह माँ का स्पर्श तो बिल्कुल नहीं था!वह कैसे  पिता की नशीली-लाल आँखों में देखें?न जाने कितने सवाल उसकी आँखों से नज़र झुकाए बह रहे थे।"मुझे माफ़ कर दें,बेटा !''पिता अब गिड़गिड़ाने लगे थे।"नही..नही!आप मत रोएं..वरना पसलियों में दर्द उठ जाएगा।लेकिन अब भी यह सब क्यों,पापा!"वह जैसे अधिक कमज़ोर हो उठा।किसी सन्तति के लिये पालक को सही-गलत बताने से बढ़कर और क्या ग्लानि हो सकती है..!उसने रुलाई रोककर पिता को बिस्तर पर लिटाया।उसकी असमय परिपक्व होते उस व्यवहार पर पिता के मुख से गर्वोक्ति की जगह रुलाई फूट पड़ी,"मैं तुझे कुछ नही दे सका..आज के दिन भी नहीं!''
   "फर्स्ट स्टेज की आपकी यह बीमारी लाइलाज़ नहीं है,पापा!आपको सिर्फ़ शराब से दूर रहना है।अच्छी ख़ुराक़ लेनी है।मैं हूँ न!बस,आप मेरा साथ दें!फ़िर सब ठीक हो जाएगा।"पिता को साहस व धैर्य देता हुआ वह संकोच से भर उठा।क्या वह असमय पड़ी जिम्मरदारियों से पूरी तरह से निबाह नही कर पा रहा है?नही तो !वह तो शेर पिता का लाड़ला जिगरा है।"क्या आपने देखा है कि नशे ने आपको मेंटली कितना वीक बना दिया है कि आप अभी भी ख़ुद व हमको धोखा दे रहे हैं।आप सेकंड स्टेज की तरफ़ जा रहे हैं।अगर अभी भी नही रुके तो लीवर-ट्रांसप्लांट ही एकमात्र उपाय बचेगा...कहाँ से आएंगे इतने सारे रुपये!इस फ़्लैट के अलावा हमारे पास कोई पूँजी नही है,जो आपने सुपरवाइजर की जॉब से कितनी मुश्किलों से खरीदा है!"वह पिता को शर्मिंदगी से बचाने के लिए बच्चे के माफ़िक़ पुचकारने लगा।
   आँसुओं को छिपाने में माहिर हो चुकी माँ आज उसकी पीठ पर सिर रख रोने लगी।वह अपराधबोध से भर उठा।कम अज कम आज के दिन तो वह शांत रह ही सकता था!पिता के आँसुओं की असहाय धार उनके गले को तरबतर किये थी।पिता अब हाथ जोड़कर रोने लगें।''आपको मुझे कुछ देना है न!तो बस इस बेवक़्त के 'केयरटेकर'के तमगे से मुक्ति दिला दो!मुझे आपका बेटा बनकर फ़िर से पढ़ाई करनी है।आपको ऑफिस जाते हुए फ़िर से देखना है...केयरटेकर पुकारा जाना मुझे आज बद्दुआ लग रहा है!मुझे आज तो दुआ लेने का हक़ है न,पापा!"पिता के लिए बेटे के मुख से सुने हुए ये शब्द नश्तर समान थे।
   पिता सिर झुकाए सुबकते रहें।नशा,वह भी अतिशय..व्यक्ति को हमेशा रीढ़विहीन ही करता है।वह जीभ पर लौटती हुई उस लिसलिसी सरसराहट की आहट पर सतर्क होने लगा था कि पिता ने गद्दे के नीचे से शराब की बोतल निकाल उसे सौंप दी।पिता की दोनों बाजुओं में सिमटे माँ व वह बेतहाशा रोने लगें।बहुत ज़्यादा अप्रत्याशित ख़ुशी भी आम इंसान कहाँ बर्दाश्त कर पाता है!ऐसी स्थिति में या तो वह ख़ुद रोता है या अपनी खुशी बाँटते हुए दूसरों को भी रुलाता है।उन तीनों ने जी भर के मुस्कराते हुए रोना चुन लिया था।पिता की कमज़ोर देह अनायास ही उसे कुछ मजबूत लग रही थी,जैसे वे स्वयं को शाप-मुक्त कर रहें हों।धीरज ने रोते पिता का हाथ माँ को सौंप दिया ..ख़ुद किचन से हलवा लाकर उसे केक की शक़्ल में सजा दिया।
   अब उसकी जीभ 'पराई' नही होगी।पूरी उसकी 'अपनी' ही होगी।पापा हैं न..वे सब ठीक कर देंगे!आख़िर वे है तो उसके शेर पिता!–सोचते ही उसे लगा जैसे पिता ने उसे नहलाने के बाद ठिठुरते बाल-शरीर पर गर्म शॉल ओढ़ाकर गोद में बिठा लिया हो।वह उस रात उनींदा होने तक पढ़ता रहा।
   अगली कुहासी दोपहर को कर्नल अंकल के पास  पहुँचने के लिए वह बेहद उत्कंठित था।लेक़िन उन्होंने तो आज की छुट्टी दी थी–यह ध्यान आने पर उसने साईकिल सार्वजनिक लाइब्रेरी की तरफ मोड़ दी।महीनों बाद उसे आया देख लाइब्रेरियन ने उसकी तरफ स्वागत मुस्कान बिखेर दी।तीन घण्टें नयी-रौचक जानकारियों में डूबने के बाद लाइब्रेरी के बाहर बनें बगीचे की सुनहली धूप में टिफ़िन खोलकर बैठ गया।
  लंच खाते हुए कर्नल अंकल का ख़ुद की थाली से सब्जियाँ,दाल व सलाद जबरन उसे देना याद आया तो उनसे मिलने की उत्कंठा फ़िर बलवती हो उठी।आज उसे पहली बार उनके साथ खुलकर बातें जो करनी थी।लंच खत्म कर वह बंगले की तरफ अनायास ही चल पड़ा।वह उसी गिफ्टेड जैकेट से लिपटकर साईकिल को फोर्थ गीयर पर चलाकर अपनी रौ में चला जा रहा था।लेक़िन,उनके उस भव्य बंगले के खुले गेट के नज़दीक आते-आते उसकी आंखें फैलती चली गई..!
  ''आख़िर.कल रात कर्नल जिंदगी की जंग हार गया,फोर्थ-स्टेज की तरफ जाता हुआ आख़िर कब तक लड़ता!"बंगले के मुख्य दरवाजे से लेकर गेट तक फैले हुजूम से एक उम्रदराज़-रुंधी आवाज़ की इस सूचना ने उसकी साईकिल का सन्तुलन बुरी तरह से बिगाड़ दिया।उसे धक्क हुई !!पिता की बीमारी का फर्स्ट स्टेज ,बुखार,उबकाई याद आयी।तभी बंगले के नौकर की उस पर पड़ी नज़र ने उसे भीड़ से बाहर निकाला।रिश्तेदारों व परिचित लोगों से घिरे कर्नल अंकल का परिवार झक्क सफ़ेद कलफदार कपड़ों में दिखा।उनके चेहरों की अविचल रेखाओं में अंकल के साथ उनकी भी चिरमुक्ति दिख रही थी।एक प्रतीक्षित मृत्यु स्वयं के साथ न जाने कितने जीवित लोगों को मुक्त कर देती है–-यह विचार उस कुहासी मौसम में उसे अधिक ठंडी झुरझुरी दे गया।
 अन्तेयष्टि के बाद निकटतम परिचित लोग परिवार जनों से मिलकर अपने घरों को जा रहे थे।भीड़ के एक छोर पर वह खड़ा था।उसे अपने सिर-कंधे पर कर्नल अंकल का ऊष्मा से भरा स्पर्श महसूस हुआ।घबराकर ख़ुद की बाँहों को उसी गिफ्टेड जैकेट पर समेट लिया।जीभ पर वही जिद्दी लिसलिसी सरसराहट घुस रही थी।उसने ज़मीन पर पैर सख़्ती से जमाते हुए अपनी जीभ को भीतर...बिल्कुल भीतर चले जाने का सख़्त आदेश दिया।जीभ इससे पहले उसके नियंत्रण से बाहर चली जाए वह जीभ को दन्तपंक्तियों के बीच सख़्ती से क़ैद करता हुआ हाथ जोड़े कर्नल अंकल के बेटे की तरफ बढ़ने लगा।

   वे इतने विनम्र उसे पहली बार दिखे थे।शुक्र है कि उन्होंने उसे भीड़ में आसानी से पहचान लिया था।पहचान तो उन्होंने अंकल की उस जैकेट को भी लिया था!यह आभास होते ही वह असहज हो गया।अगले ही पल जब अंकल के बेटे ने जैकेट को देखते हुए उसकी तरफ बढ़ना शुरू किया,वह चोरी के आरोप की आशंका से काँप उठा।उन्होंने नज़दीक आने पर उसके जोड़े हाथों का विनम्र प्रत्युत्तर दिया ..वह हतप्रभ सा उनकी गीली कोरें देख रहा था!
  उसे अंकल के एकाकी जीवन के बाद उस उमड़ी भीड़ से वैसे ही घबराहट हो रही थी।अब उनके बेटे जो आज तक कभी उसको नोटिस भी नहीं किया करते थे,वे उससे लिपटी अपने पिता की व्यक्तिगत छुवन का गहन निरीक्षण कर उसे अधिक भयाक्रांत कर रहे थे।उन सभी प्रत्यक्ष अनुभूतियों से वह बुरी तरह हड़बड़ा गया।लेकिन तभी उस सफ़ेद कलफदार कड़क कुर्ते में हरकत हुई,एक हकलाता हुआ हाथ उसकी तरफ आगे बढ़ा।वह उस हाथ की दिशा को दम साधे देख रहा था कि वह हाथ उसके कंधे पर आकर रुका,एक लम्बी गहरी साँस का भभका उसके चेहरे को छू गया।फ़िर वह कलफदार कड़क गर्म साँस अचानक पलट गयी!
   उसे अब शीघ्रातिशीघ्र वहाँ से निकलना था।वह भी तेज़ी से पलटा था कि,"धीरू!"पहली बार अंकल के बेटे के मुँह से अपना नाम..वह भी 'धीरज' नहीं अपना निकनेम सुनकर वह जड़ हो गया।वे फ़िर करीब आये..हकलाता हाथ फिर उसकी तरफ अग्रसर हुआ.!!जैकेट की दायीं जेब में वह हाथ गया..झक्क सफेद नीले किनारी का रुमाल निकाल लिया!
  "इसे ले लूँ न,पापा जेब में हैंकी रखकर भूल जाते थे!"उनकी स्नेहसिक्त आँखें भी कर्नल अंकल सी ही हैं–यह भी उसे आज पहली बार मालूम हुआ।बगैर तेज़ दौड़े ही उसका दिल हाँफने लगा था,कान तप रहे थे।खुले लॉन के हवादार माहौल में भी वह घुट रहा था।उसने आँसुओं को गटकते हुए हामी भरी।झुकी निगाहों से विदा लेनी चाही।"इफ यू नीड़ अ जॉब..माई ऑफिस-डोर इज ऑलवेज ओपेन फ़ॉर यू,धीरू!"जैसे देवदूत ने साक्षात आकाशवाणी की हो!
  उसे लगा पिता कभी मरते नहीं हैं,न ही वे अपने सन्तानों को कभी अकेला छोड़ते हैं।सच तो यह है कि वे कभी मरने ही नहीं चाहिए।उसे माँ की तरह खुलकर रोना था लेक़िन यहाँ भीड़ के सामने नहीं।"यस सर!..आई नीड अ जॉब फ़ॉर माई  फादर!"बोलकर वह हाथ जोड़े,कर्नल अंकल के बेटे की आँखों से भी दूर भाग छूटा।
  बंगले से बाहर आकर साईकिल उठाई।पैडल तेज़ी से मारते हुए साईकिल को फ़िर फोर्थ-गीयर में डाल दिया।उसे बस पिता के पास पहुँचना था।आख़िर!कोई तो जगह हो,जहाँ उसे अब अपनी जीभ के 'पराई' होने का कोई अंदेशा न हो!जहाँ दुनिया के सारे संकोच,भय,अस्थिरताएं व आशंकाएं निःवस्त्र शिशु की तरह पिता की छाती पर बिखर जाए,माँ की गोद में दुबक जाएं।


मंजुला बिष्ट

वर्तमान में उदयपुर (राजस्थान) में निवास कर रही मंजुला बिष्ट की रचनाएं सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं , साहित्यिक पोर्टल तथा ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुकी हैं ।

ईमेल आईडी-bistmanjula123@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 27 नवम्बर 2021 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत