कृति -चर्चा
देश, हम नागरिकों से ही मिलकर बनता है। आम नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ उसके अधिकार-कर्तव्यों का बोध कराते निबन्ध जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त अव्यवस्था तो दर्शाते ही हैं ,आम इंसान को आत्ममंथन की ओर प्रेरित करते हुए एक ज़िम्मेदार नागरिक बनने की प्रेरणा भी देते हैं।इतना ही नहीं आम नागरिकों के साथ ‘ख़ास वर्ग’ को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य करते सारगर्भित निबंध हमारी आँखें आँजने का काम करते हैं कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
‘आम’ और ‘ख़ास’ वर्ग की नब्ज़ टटोलती मानीखेज़ सच्चाइयों का तटस्थ अवलोकन’
● नीलिमा टिक्कू
वरिष्ठ साहित्यकार, आलोचक,शिक्षाविद् डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की पुस्तक ,’जो देश हम बना रहे हैं’ के शीर्षक से ही समझा जा सकता है कि लेखक वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों से किस कदर व्यथित हैं.एक बुद्धिजीवी व्यक्तित्व जो लम्बे समय तक उच्च शिक्षा से सम्बद्ध रहें हों उनके अनुभवों का निचोड़ अधिकांश निबंधों में दिखाई देता है।
देश, हम नागरिकों से ही मिलकर बनता है। आम नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ उसके अधिकार-कर्तव्यों का बोध कराते निबन्ध जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त अव्यवस्था तो दर्शाते ही हैं ,आम इंसान को आत्ममंथन की ओर प्रेरित करते हुए एक ज़िम्मेदार नागरिक बनने की प्रेरणा भी देते हैं।इतना ही नहीं आम नागरिकों के साथ ‘ख़ास वर्ग’ को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य करते सारगर्भित निबंध हमारी आँखें आँजने का काम करते हैं कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
वर्तमान हालात की एक बानगी देखिए,
“महकमें ख़ाली , न डॉक्टर हैं, न मास्टर, न न्यायाधीश।जहां कर्मचारी हैं वहाँ बजट नहीं हैं, जहाँ बजट हैं वहाँ सैंक्शन नहीं हैं और जहाँ सैंक्शन हैं वहाँ पता चलता है कि जो सामान ख़रीदा गया है उसकी ज़रूरत नहीं थी।”(पृ.129)
चूँकि लेखक उच्च शिक्षा विभाग से सम्बद्ध रहे हैं अंत:आज के हालात से चिंतित होना और भी लाज़मी है।वर्तमान शिक्षण व्यवस्था का गिरता स्तर,गुरू-शिष्य परम्परा का क्षरण, सरकारी शिक्षण संस्थानों की बदहाली, शिक्षण व्यवस्था की विसंगतियाँ मसलन-शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की अपर्याप्त संख्या,पुस्तकालयों -पुस्तकालयाध्यक्षों का अभाव,विज्ञान संकाय में प्रयोगशालाओं की कमी,छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिंह ,उनमें राजनीति का समावेश, समय का दुरूपयोग,स्वायत्तता की आड़ में उच्च शिक्षण संस्थानों के निजीकरण से आर्थिक रूप से कमजोर भावी पीढ़ी के प्रति अन्याय, निजी शिक्षण संस्थानों की धांधली आदि महत्वपूर्ण मुद्दों पर बेहद प्रामाणिक रूप से लिखे निबंध तथा जीवन की वास्तविक शिक्षा से सम्बंधित विषय हमारे ज्ञान चक्षु खोलने में सक्षम हैं.
राष्ट्र भाषा और राज भाषा के बीच हिन्दी को लेकर फैला भ्रम,पुस्तकों की सरकारी ख़रीद और बैस्ट सैलर किताबों का सच, पुस्तक संस्कृति को क़ायम रखने के प्रयत्न,साहित्यकार का कर्तव्य,लेखक-प्रकाशक के साझा प्रयासों के महत्वपूर्ण सुझाव देने के साथ ही कला, साहित्य और संस्कृति के प्रति सरकार की अनदेखी ,अध्यक्ष विहीन अकादमियों की शोचनीय स्थिति का वर्णन एक संवेदनशील और जागरूक साहित्यकार ही कर सकता है।
प्रत्येक निबन्ध में वर्णित परिस्थितियाँ ,समाज का आइना दिखाते हुए आत्ममंथन को मजबूर करती हैं।स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की बात हो अथवा चीन के उत्पाद का विरोध ,वे स्पष्ट लिखते हैं कि केवल मौखिक वार्तालाप से कुछ नहीं होगा अपितु सरकारी स्तर पर विदेशी सामान के आयात पर रोक लगाने से ही इस समस्या का निराकरण हो सकेगा।कैशलैस व्यवस्था में वसूले जाते शुल्क दर से आम जनता को नुक़सान से वे चिंतित होते हैं।वहीं स्वच्छ भारत अभियान के लिए आम नागरिकों को सचेत करते हैं कि केवल सरकारी प्रयत्नों से देश स्वच्छ नहीं हो सकेगा इसके लिए आम नागरिक को सफ़ाई के संदर्भ में अपनी मानसिकता बदलनी होगी।अपना घर साफ़ करके पड़ोसी के घर के बाहर कूड़ा फेंकने की आदत छोड़नी पड़ेगी।
संग्रह के सभी निबन्धों में रोचक उदाहरण देते हुए आम नागरिक की मानसिकता पर चुटीले तंज इस तरह से कसे गये हैं कि बिना बुरा लगे भी हम अपनी ग़लत आदतों पर शर्मिंदा हो उठें,इसी संदर्भ में सड़क सुरक्षा सप्ताह अभियान को लेकर एक रोचक उदाहरण दृष्टव्य है,
“हम दुनिया के बहुत कम ऐसे देशों में से हैं जहाँ लाल बत्ती और सिपाही दोनों की ज़रूरत पड़ती है, वरना दुनिया के सभ्य देशों में लालबत्ती काफ़ी मानी जाती है.”(पृ.118).
यह विडम्बना ही कही जायेगी की इसके बावजूद लाल बत्ती में ही चौराहा पार करने की हिमाक़त हमारे यहाँ होती है और कई बार जान से हाथ धोने पड़ते हैं।
जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी तंज कसा गया है।हम अक्सर परस्पर बातचीत में जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार होने की शिकायत करते हैं लेकिन इस संदर्भ में अपने गिरेहबान में झांक कर नहीं देखते हैं कि इसके पीछे हमारा योगदान कितना है।बुलेट ट्रेन की प्रासंगिकता और देश की रेल व्यवस्था -संसाधनों को लेकर प्रामाणिक महत्वपूर्ण जानकारी मंथनीय है।
जेनेरिक दवा/सस्ती दवा की जानकारी और मंहगी दवाओं के मायाजाल से निकलने तथा सरकार द्वारा सस्ती दवाओं की उपलब्धता बढ़ाने और चिकित्सकों को मरीज़ों के लिए इन सस्ती दवाओं को लेने की सलाह देने का बहुत महत्वपूर्ण सुझाव डॉ.अग्रवाल ने दिया है ।इस विषय पर लिखे सारगर्भित निबंध के लिए डॉ.अग्रवाल को साधुवाद ।
पुस्तक में वर्णित हर निबंध हमें वास्तविकता दर्शाता कुछ न कुछ अच्छी सीख दे जाता है ।सैंसरशिप नियमों में बदलाव की संभावनाएँ भी महत्वपूर्ण निबंध है।हम इलेक्ट्रोनिक उपकरण मोबाइल एप ,कम्प्यूटर आदि इस्तेमाल करते हैं उनके प्रयोग में सावधानी बरतने की सलाह जिससे हमारी निजता का हनन ना हो बेहद ज़रूरी जानकारी है।सोशल मीडिया/आभासी दुनिया और वाटसएप यूनिवर्सिटी का कड़वा सच हमें सावधान करता है।
कुछ निबंधों में मैने वाल्तेयर के कथन की पुनरावृत्ति देखी जो मुझे बहुत अच्छी लगी,
“हो सकता है कि मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊँ , फिर भी विचार प्रकट करने में आपके अधिकारों की रक्षा करूँगा .”
इस सम्बंध में मैं यह कहना चाहूँगी कि आरम्भ से ही हमारा देश अनेकता में एकता के लिए जाना जाता है। यहाँ विभिन्न धर्म-मतावलंबियों के लोग मिलजुल कर रहते हैं।ऐसे में एक दूसरे से विचार-विमर्श, सहमति-असहमति व्यक्त करना हमारी संस्कृति का खूबसूरत पक्ष है इसे बरक़रार रहना चाहिए।डॉ.अग्रवाल भी यही लिखते हैं कि असल ज़िंदगी और आभासी दुनियाँ दोनों जगह सार्थक विमर्श ज़रूरी है.इस संदर्भ में टी वी चैनलों की बहसों के वैचारिक विमर्श पर भी बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा है।
“असहमति के लिए न केवल गुंजाइश बनी रहनी चाहिए, उसका उचित सम्मान भी होना चाहिए.”(पृ.134)
“जीवन को समग्रता में देखा जाए इसी में हम सबका हित निहित है।”(पृ.218)
अंत में मैं यही कहना चाहूँगी कि सार्थक -ज़िम्मेदारी से जीवन जीने के लिए हर ख़ास और आम नागरिक इस पुस्तक को पढ़े यह बेहद ज़रूरी है। इसे पढ़कर जाना जा सकता है कि अपनी मानसिकता में सुधार कर ,अपने दायित्वों को निभाते हुए , मानसिक प्रदूषण से मुक्त रह कर,हम कैसे समाज में आमूल-चूल परिवर्तन ला सकते हैं।देश को संवारने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।यह एक सार्थक-ज्ञानवर्धक पुस्तक है जिसका कहन आरम्भ से अंत तक अपने चुटीले अंदाज़ में पाठकों को बांधे रखने में सक्षम है।इस महत्वपूर्ण पुस्तक के लिए डॉ.अग्रवाल को हार्दिक बधाई ।एक मुख्य बात विशेष रूप से कहना चाहूँगी कि इस पुस्तक में एक भी वर्तनी की अशुद्धि देखने को नहीं मिली, इसके लिए लेखक और प्रकाशक महोदय को हार्दिक बधाई।
‘इंसानियत डॉट कॉम’ ( कहानी संग्रह ) प्रकाशित
इस आत्मीय समीक्षा के लिए नीलिमा टिक्कू जी का आभार, दिल से.
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