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नित्यानंद गायेन की कविताएँँ

कवि -कविता
 जन सरोकारों से जुड़े कवि का नाम है नित्यानन्द गायेन
                                                     ■ दिनकर कुमार
रूस के एक प्रांत दागिस्तान के लोक कवि रसूल हमजातोव कहते हैं कि कभी-कभी मैं अपने से यह प्रश्न करता हूं कि क्या चीज कविता का स्थान ले सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि कविता के अलावा पहाड़ हैं, बर्फ और नदी -नाले हैं, बारिश और सितारे हैं, सूरज और अनाज के खेत हैं…। मगर क्या पहाड़ , बारिश, फूल और सूरज का कविता के बिना और कविता का इनके बिना काम चल सकता है? वे आगे कहते हैं -कविता के बिना पहाड़ पत्थर बन जाएंगे, बारिश परेशान करने वाले पानी और डबरों में बदल जाएगी और सूर्य गर्मी देने वाला अंतरिक्षीय पिंड बनकर रह जाएगा।  

कवि नित्यानन्द गायेन की कविताएं काफी दिनों से पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है कि वह जन सरोकारों से जुड़े हुए कवि हैं। आम लोगों के हितों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट है। उनकी यही ईमानदारी और बेबाकी उनको यश लिप्सा से पागल हुए युवा कवियों की भीड़ से अलग करती है। ऐसे युवा कवियों की एक भीड़ को हम देख सकते हैं जो वर्तमान भयावह समय की यातनाओं, नागरिकों की दुर्दशा और लोकतंत्र के संकट को भी नजरअंदाज कर फूल-पत्ती-पंछी की अमूर्त कविता लिखते हुए, फेसबुक पर आत्मरति करते हुए, अवसरवाद के सोपानों पर चढ़ते हुए अपने स्वाभिमान का त्याग कर भी सुविधाजनक पद और पुरस्कार हासिल करने में व्यस्त रहते हैं। गायेन इन तमाम कुटिलताओं से दूर होकर कविता लिख रहे हैं और सर्वहारा वर्ग के साथ उसके संघर्ष में खड़े हैं।
गायेन की मातृभाषा बंगला है। बंगला साहित्य की समृद्ध परंपरा को देखते हुए उनके लिए बंगला में कविता लिखना अधिक आसान हो सकता था। लेकिन उन्होंने हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम चुना है और ऐसा करते हुए वह अपने साथ बंगाल की विरासत को भी हिन्दी में लेकर आए हैं। गायेन की तरह ऐसे अनेक अहिंदी भाषी साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने हिन्दी में सृजन करते हुए इसके दायरे का विस्तार किया है और इसे सम्पन्न बनाया है।
एक बातचीत में गायेन ने अपने आरंभिक जीवन के बारे में इस तरह बताया है-- "मेरा जन्म भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में हुआ था। भारत में बंगाल को कवि की उर्वर भूमि भी कहा जाता है क्योंकि कवि रबीन्द्र नाथ, सुकुमार राय, नज़रुल इस्लाम, शरत चंद्र आदि अनेकों कवि-लेखकों का संबंध बंगाल से है। इसलिए आज भी संगीत, कला और साहित्य के क्षेत्र में बंगाल की अलग पहचान है। बंगाल के हर घर में सुबह से ले कर शाम तक किसी भी वक्त आपको रवीन्द्र संगीत या नज़रुल गीत सुनाई पड़ सकता है। वहां धार्मिक और सामाजिक उत्सव हों या कोई राजनीतिक या सामाजिक आन्दोलन उनमें भी कविता और गीतों को गाया-बजाया जाता है जिसका असर वहां के बच्चों में बचपन से ही पड़ने लगता है। हाँ, इसका यह मतलब कतई नहीं कि वहां हर घर में कवि, चित्रकार या संगीतकार पैदा होता है। किन्तु यह पक्का है कि उस वातावरण के कारण बंगालियों में साहित्य–कला और संगीत की अच्छी रूचि व समझ होती है। कुछ ऐसा मेरे साथ भी हुआ हो शायद। हालांकि मैं जब कक्षा चार में गया उस वक्त मेरे पिता की मृत्यु हो गई और माँ के साथ हम राजधानी दिल्ली आ गये।"
गायेन अपने आसपास घट रही घटनाओं का सूक्ष्मता के साथ पर्यवेक्षण करते हैं और शोषण, असमानता, अन्याय, सत्ता की बर्बरता आदि को देखते हुए कविता का इस्तेमाल उन तमाम बुराइयों के खिलाफ करते हैं। कोविड-19 के नाम पर देश में जिस तरह आम लोगों का दमन किया जा रहा है और जिस तरह मेहनतकश लोगों को हजारों किलोमीटर पैदल चलकर शहरों से गांव लौटने के लिए मजबूर किया गया--उन त्रासदियों को गायेन ने कविता में व्यक्त करने की कोशिश की है--
लोग कह रहे हैं कि महामारी के इस वक़्त
नीला हो गया है आकाश
स्वच्छ हो गई है नदियां
हवा निर्मल
जबकि सड़क पर लहू है चारों ओर
जख्मी पैरों को देखना भूल गए हम
आकाश देखते-देखते...

गायेन अपने समय-समाज-देश-विश्व के सुलगते सवालों से सीधे टकराते हैं। देश में जो फासीवादी सत्ता काबिज है और चारों तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई है, गायेन उस वातावरण को अनुभव करते हुए छटपटा उठते हैं और कविताओं के माध्यम से प्रतिरोध को व्यक्त करते हैं।

सच्ची और असरदार कविता वही लिख सकता है जिसका हृदय शिशु की तरह पवित्र हो। गायेन का हृदय किसी शिशु के हृदय की तरह ही पवित्र है। मैं यही उम्मीद रखूंगा हमेशा उनकी यह पवित्रता बनी रहे और वह निर्भीकता के साथ आम लोगों की वेदना को कविता में व्यक्त करते रहें।
दिनकर कुमार


कविताएँँ : नित्यानंद गायेेन
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भेड़िया अब दो पैरों पर चल सकता है

चुप्पी साधे सब जीव
सुरक्षित हो जाने के भ्रम में
अंधेरे बिलों में छिप कर
राहत की सांस ले रहे हैं
बाहर आदमखोर भेड़िया
हंस रहा है
इसकी ख़बर नहीं है उन्हें
भेड़िया अब दो पैरों पर चल सकता है
दे सकता है सत्संग शिविर में प्रवचन
सुना सकता है बच्चों को कहानी
शिकार को जाल में फंसाने के लिए
कुछ भी कर सकता है वो
वह अब अपने खून भरे नुकीले पंजों को
खुर पहनकर छिपा कर चलता है
इनदिनों वो तमाम आदमखोर जानवरों का
मुखिया बन चुका है
आप भी जानते हैं कि अब वह गुफा के भीतर
कब और क्यों जाता है
हम बार -बार आगाह कर रहे हैं
कि जंगल में आग लग चुकी है
और आदमखोर भेड़िया अपने साथियों के साथ
मानव बस्तियों की तरफ बढ़ रहा है
अफ़सोस , कि लोग मुझे
आसमान गिरा , आसमान गिरा कहने वाला
खरगोश समझ रहे हैं !

राजा से हर मौत का हिसाब लेना चाहिए

नये भारत की सरकार
मारे गए नागरिकों की गिनती नहीं करती
मने किसी सरकारी खाते और डेटाबेस में
कोई रिकार्ड नहीं रखती
दरअसल आसान भाषा में समझ लीजिए
कि सरकार अब लाशों की गिनती नहीं करती

सरकार तो अब जीते हुए लोगों को
लाश बनाकर छोड़ देती है

राजा का सिंहासन जब लाशों की ढेर पर रखा हो
तब लाशों की गिनती भी अपराध माना जा सकता है
राजा इसे 'एक्ट ऑफ गॉड' यानी ईश्वरीय कृत
या लीला भी करार देकर बरी हो सकता है
राजा आखिर राजा होता है
वह कुछ भी कर सकता है
राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि कहा जाता है
ईश्वर द्वारा किये गए हत्याओं को किसी अपराध
या पाप की श्रेणी में नहीं गिना जाता
जो मरा वही पापी हो जाता है !

मजदूर, किसान, बेरोजगार को
राजा अब नागरिक नहीं मानता
वह सवाल पूछने वालों, काम मांगने वालों
और भूख में खाना मांगने वालों को देशद्रोही कहता है

राजा उनकी हत्या का आदेश नहीं देता
सिर्फ बेघर कर देता है
सड़क पर ला देता है
उनकी झुग्गियों को उजाड़ने का आदेश जारी करवाता है
राजा अस्पताल की ऑक्सिजन सप्लाई बंद करवा देता है

प्रजा राजा की भक्ति और राष्ट्रवाद की भावना के बोझ से
खुद को मुक्त नहीं कर पाती

किसान फांसी लगा लेता है
बेरोजगार युवा ज़हर पी लेता है
रोटियों के साथ रेल से कटकर मर जाता है
मजदूर का परिवार
और इस तरह मरते हुए वह
राजा को हत्या के आरोप से बचा लेता है

जबकि मैं सोचता हूँ इसके विपरीत
असामयिक हुई हर मौत के लिए 

राजा ही दोषी है
भूख से मरे हर नागरिक का क़ातिल है राजा
क्योंकि भूख से मरना भूकम्प से मरना नहीं है
किसान आत्महत्या दरअसल हत्या है राज्य द्वारा

ऐसी तमाम मौतों के लिए केवल राजा को ही
दोषी माना जाना चाहिए !
उससे एक -एक मौत का हिसाब लेना चाहिए ।


चेहरों ने अभिव्यक्ति की भाषा खो दी है

उन लोगों का कहना है
सब ठीक होगा
उम्मीद की इस दवा की
वैधता कितनी बची है अब
आखिरी रात कब सोये गहरी नींद याद नहीं
सुबह का इंतज़ार रहता इनदिनों
सपनों ने आत्महत्या कर ली है
बारिश के बाद छाता भी तो बोझ लगता है
मेरी भाषा भी अब
संक्रमित हो चुकी है
सभ्यता की उम्मीद बेकार है
इस दौर में भी खुश हैं जो लोग
उन्हें देख कर हंस लेना भी अब छल लगता है
भोजन की खुशबू से पेट नहीं भरता
और मजदूर जीना चाहता है
इस चाहत पर भी दिक्कत है उनको
इस चाहत को भी तो लालच कहा है आपने
आपकी बातों से
उसकी भूख नहीं मिटती
संतुलन अब कहीं नहीं है
मौत भारी है जीवन पर
चेहरों ने अभिव्यक्ति की भाषा खो दी है
आँखों में झांक कर देखा है कभी आपने ?
आँखों की भाषा सबको नहीं आती है

चन्द्रयान ने चाँद की सतह की पहली तस्वीर भेजी है

 चन्द्रयान ने चाँद की सतह की
पहली तस्वीर भेजी है
धरती पर गटर साफ करने उतरे
पांच मजदूरों ने दम तोड़ दिया है
लोग चाँद की सतह की तस्वीर देख कर आनंदित और उत्साहित हैं
धरती के स्वर्ग में सन्नाटा है

नौकरी से निकाले गये युवक ने
जहर खाकर आत्महत्या कर ली है
उधर हत्या के आरोपी जेल से छुटे हैं
जय श्री राम के नारों के साथ उनका स्वागत हो रहा है

राष्ट्र नायक नये-नये परिधानों में ट्विटर पर मुस्कुराते दिखाई दे रहे हैं

मंदिरों को भव्य रूप में सजाया गया है
बाहर कुछ बच्चे भोजन के लिए भीख मांग रहे हैं

पत्रकारों की संस्था ने सत्ता का दामन थाम लिया है
राष्ट्रहित ही सर्वोपरी है

धार्मिक पहचान
अब नागरिकता का आधार बन चुकी है
जल, जंगल, जमीन की लड़ाई में शामिल लोग
अपराधी घोषित हो चुके हैं
भूख, बेरोजगारी, शिक्षा, शोषण, आदि के सवाल राष्ट्र का अपमान है

आओ, चंद्रयान की यात्रा करें हम !

------------
1.

मेरे पास बहुत कुछ है 
तुमसे कहने के लिए 
किन्तु, इन दिनों मैं अकसर खामोश रहता हूँ 
दरअसल तुम हंसते हुए जो दर्द छिपा लेते हो मुझसे 
मैं उन्हीं को जीता रहता हूँ 

तुमने अपने दर्द को छिपाने की कला 
किस नदी से सीखी है ?

मैं अपने भीतर उस नदी को चाहता हूँ .

2.

तुमसे बात करते हुए 
सिर्फ तुम्हारी आँखों को पढ़ता हूँ 
तुमसे मिलकर 
मैंने सीख ली है 
आँखों की भाषा 
अब हर वक्त मेरी आँखों वो नदी बसती है 
जिससे तुमने दर्द को डूबोने की कला सीखी है 

3.

नदी लिखना 
नदी होना नहीं है 
अपार जल चाहिए 
आँखों में 
बहते रहने के लिए 

4.

लोग कह रहे हैं कि महामारी के इस वक्त 
नीला हो गया है आकाश 
स्वच्छ हो गईं हैं नदियां 
हवा निर्मल 
जबकि सड़क पर लहू है चारों ओर 
ज़ख्मी पैरों को देखना भूल गये हम 
आकाश देखते देखते 
तुम्हारे चेहरे की उदासी को 
वे पढ़ नहीं पाए हैं 
बुलबुल के उदास कंठ को नहीं सुना उन्होंने 
रेल पटरी पर पड़ी रोटियों से निकलती भूख की पीड़ा 
महसूस नहीं कर पाए 
वे केवल चांद को देखते रहे 

नित्यानंद गायेन
तीन कविता संग्रह -'अपने हिस्से का प्रेम '(2011) ,  'तुम्हारा कवि '(2018) तथा 'इस तरह ढह जाता है एक देश' (2018 ) । साक्षात्कार केंद्रित पुस्तक 'बहस नहीं संवाद '(2018 ) प्रकाशित । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व लेख प्रकाशित । कुछ कविताएंं बांग्ला भाषा में भी । मजदूर एवं छात्र आंदोलनों में सक्रिय । वर्तमान में स्वतंत्र लेखन ।

टिप्पणियाँ

  1. नित्यानंद गायेन की कविताएं देश के नौजवानों की व्यथा-कथा प्रस्तुत करती हैं। 2014 से पूर्व उनकी कविताओं में प्रेम बड़ी शिद्दत से हाज़िर रहा करता था और फिर व्यवस्था के बदलाव ने जैसे प्रेम को लील लिया और गायेन की कविताएं घनघोर प्रतिरोध की कविता बन गईं। वर्तमान दौर में अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर सीधी मार की कविताएं नित्यानन्द गायेन ही लिख रहे हैं। दिनकर कुमार ने कवि के अतीत को भी सुलभ किया, आभार। इन सभी कविताओं का स्वागत है।

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  2. नित्यानंद गायेन की कविताएं देश के नौजवानों की व्यथा-कथा प्रस्तुत करती हैं। 2014 से पूर्व उनकी कविताओं में प्रेम बड़ी शिद्दत से हाज़िर रहा करता था और फिर व्यवस्था के बदलाव ने जैसे प्रेम को लील लिया और गायेन की कविताएं घनघोर प्रतिरोध की कविता बन गईं। वर्तमान दौर में अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर सीधी मार की कविताएं नित्यानन्द गायेन ही लिख रहे हैं। दिनकर कुमार ने कवि के अतीत को भी सुलभ किया, आभार। इन सभी कविताओं का स्वागत है।

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  3. नदी लिखना
    नदी होना नहीं है... वाह !

    नीले आकाश की खूबसूरती के पर्दे को हटाकर जख़्मी पैरों को देखती कविताएं.

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  4. नदी लिखना
    नदी होना नहीं है... वाह !

    नीले आकाश की खूबसूरती के पर्दे को हटाकर जख़्मी पैरों को देखती कविताएं.

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  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

लेखक जी तुम क्या लिखते हो

संस्मरण   हिंदी में अपने तरह के अनोखे लेखक कृष्ण कल्पित का जन्मदिन है । मीमांसा के लिए लेखिका सोनू चौधरी उन्हें याद कर रही हैं , अपनी कैशौर्य स्मृति के साथ । एक युवा लेखक जब अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के उस लेखक को याद करता है , जिसने उसका अनुराग आरंभिक अवस्था में साहित्य से स्थापित किया हो , तब दरअसल उस लेखक के साथ-साथ अतीत के टुकड़े से लिपटा समय और समाज भी वापस से जीवंत हो उठता है ।      लेखक जी तुम क्या लिखते हो                                             सोनू चौधरी   हर बरस लिली का फूल अपना अलिखित निर्णय सुना देता है, अप्रेल में ही आऊंगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर तीखी धूप भी अपना कच्चा मन रख देती है।  मानुष की रचनात्मकता भी अपने निश्चित समय पर प्रस्फुटित होती है । कला का हर रूप साधना के जल से सिंचित होता है। संगीत की ढेर सारी लोकप्रिय सिम्फनी सुनने के बाद नव्य गढ़ने का विचार आता है । नये चित्रकार की प्रेरणा स्त्रोत प्रकृति के साथ ही पूर्ववर्ती कलाकारों के यादगार चित्र होते हैं और कलम पकड़ने से पहले किताब थामने वाले हाथ ही सिरजते हैं अप्रतिम रचना । मेरी लेखन यात्रा का यही आधार रहा ,जो