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नगर में बर्बर


नगर में बर्बर

भारत ने भारत पर हमला कर दिया।

कविता कृष्णपल्लवी की कुछ कविताओं और किस्सों का संकलन है- नगर में बर्बर। ये किस्से भी कविताएँ ही हैं। आसानी के लिए इन्हें राजनीतिक अथवा प्रतिरोध की कविता कहा जा सकता है लेकिन इस आसानी में हम अनजाने ही सही एक दुश्चक्र में फंस जाते हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हर दौर में संस्कृति का भी एक वर्चस्व शिखर होता है और शिखर की शक्तियों एक खास तरह के कृतित्व को उभारती और शेष का हाशियाकरण करती रहती हैं। संस्कृति- शिखर के मूल यथास्थितिवाद को चुनौती सदैव बाहर से ही मिलती रही है। जब हम किसी कविता को राजनीतिक या प्रतिरोध की कविता कहते हैं तो प्रकारान्तर से उसे सीमित और श्रेणीबद्ध कर देते हैं जो शिखर- शक्तियों के अनुकूल ही होता है। जबकि संरचनागत हिंसक व्यवस्था के प्रतिरोध का स्वर अपने समय का मुख्य स्वर होता है और यह भी ठीक उसी प्रकार है जैसे कि हर कवि की अपनी शैली और कलात्मक विशिष्टताएँ होती हैं।

कविता कृष्णपल्लवी क्रानी कैपिटलिज्म और फासी सत्ता के अपवित्र गठजोड़ पर लगातार प्रहार करती हैं। जिन्हें कविता में क्रोध से आपत्ति है उन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सात्विक क्रोध की धारणा का स्मरण करना चाहिए। कविता फिसल चुके अथवा पतन के दलदल में धंस चुके वामपंथियों, बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों को कुछ ज्यादा इसलिए धिक्कारती हैं कि इनसे उन्हें कहीं ज्यादा अपेक्षाएं रही थीं। कविता कृष्णपल्लवी के तेजाबी तेवर के नीचे नैतिक ताप का ठोस धरातल है इसीलिए उनके आक्रमण का वार तिलमिला देने वाला है।

कथित मुख्याधारा की कविता मेंआभिजात्य अथवा औसत मध्यवर्गीय आलंकारिकता टोहने वाले समीक्षक और मर्मज्ञ ऐसी आवाजों को उपेक्षित और अनदेखा कर देते हैं जो अपने समय की कुरूप सचाइयों को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं। कविता कृष्णपल्लवी ने इस सांस्कृतिक परिवेश से अपने अलगाव को ताकत बना लिया है। उन्होंने सर्वनाम, संकेतों और बिम्बों की गुंजलक को बेधकर चीजों को उनके वास्तविक नाम से पुकारा है। उनकी प्राथमिकताएं भिन्न हैं-
सड़कों पर कब्जा जमाये हत्यारे यथार्थ और मनुष्यता के
दुस्वप्नों के बारे में कुछ बातें करना चाहती हूं
और वे ब्रेख्त को याद करती हैं-
ब्रेख्त ने कहा था, वह जो हंस रहा है
उस तक बुरी खबर अभी तक नहीं पहुंची है!

सांस्कृतिक परिदृश्य में व्याप्त जडता और कुहासे से बाहर आते हुए वे कहती हैं: एक बहुत बड़ी दुनिया है मेरे जीने के लिए और बहुत सारे सार्थक काम हैं। उनकी भाषा में जरूरी तिक्तता और मारक व्यंग्य तंत्र में समायी विसंगतियों को एक्सपोज करता चलता है। ये पंक्तियाँ देखें-
जितना अधिक ताकतवर लोग कविताएँ लिखने लगे
उतना ही अधिक उनके निकट के कवि लोग
उनके कुत्तों की तरह हो गये,
और दूसरी तरफ वे कहती हैं-
तानाशाह जब लोगों से अपने मन की बात करता है
तो वह सब कुछ कहता है जो
उसके मन में कभी नहीं होता
यही इस सामयिक आह्वान का अनिवार्य संदर्भ है-
अगर अब भी तुमने
आवाज नहीं उठायी
तो अपनी छोटी- सी बच्ची से प्यार के दो बोल 
बोलने से ऐन पहले गूंगे हो जाओगे‌।

कविता में राजनीति और प्रतिरोध की अन्तर्वस्तु के सामूहिक अवमूल्यन के दुखद परिणाम हमने पिछले दिनों शुरू हुए व्यापक विरोध- प्रदर्शनों और धरनों के दौरान देखे जब हमें अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति के लिए दशकों पुरानी रचनाओं का सहारा लेना पड़ा। हमारे छात्र- युवा साथियों ने जरूर अनेक स्वत: स्फूर्त रचनाएँ सृजित कर आन्दोलन में इस्तेमाल किया है। जो लोग रचनाओं को व्यवहार में बरतने पर खिन्न होते हैं, उन्हें क्लासिकों के प्रासंगिक होने के कारकों पर भी विचार करना चाहिए। कविता कृष्णपल्लवी सही सवाल उठाती हैं- 
वास्तविक बर्बरता का प्रतीकात्मक विरोध ?

नगर में बर्बर संकलन की रचनाएँ अपने कलात्मक प्रयोगों के लिए भी रेखांकित की जानी चाहिए हालांकि यह कलात्मकता अन्तर्वस्तु को आच्छादित करने के लिए नहीं बल्कि उसे तेजस्विता प्रदान करने के लिए है। जूतों पर काव्यात्मक विमर्श कविता को एक उदाहरण की तरह पेश किया जा सकता है। यहाँ विषयवस्तु का पीछा करती भाषा और शिल्प है और जिंदगी जैसी विह्वल  और मलिन हैं। इनमें लोक गीत, बच्चों की तुकबंदियां, उलटबांसियां और किस्से- कहानियाँ हैं।

जैसाकि हमने कहा कि ये किस्से- कहानियाँ भी कविताएँ ही हैं। यह खास अन्तर्वस्तु के लिए सटीक और मौजूं शिल्प- विधान है। स्त्रियाँ ; कुछ चित्र और गरुङ की उड़ान कविताओं के गहरे निहितार्थ हैं। रोजा लक्जमवर्ग ने कभी कहा था कि यदि गरुङ नीची उड़ान भरता है तो इसमें कौओं के प्रसन्न होने की कोई बात नहीं है क्योंकि सबसे ऊंची उड़ान भी गरुङ ही भर सकता है। संकलन में एक छोटी कहानी को आप प्रचलित अर्थ में प्रेम कविता कह सकते हैं और यह भी कृष्णपल्लवी के अलहदा रुझान का पता देती है। अगर किसी को अपने अन्तर्विरोधों का विखंडन करना है तो संकलन की आखिरी कविता में इसके लिए वस्तुपरक किन्तु काव्यात्मक आत्म- मूल्यांकन संकेतक हैं।

आज नृशंसता और घृणित हिंसा का जो नंगा और वीभत्स रूप हम देख रहे हैं, वह उस प्रक्रिया की परिणति है जिसे कविता कृष्णपल्लवी न केवल लक्षित किया, सारे खतरे उठाते हुए उसके सक्रिय प्रतिकार में सन्नद्ध रही हैं और हमें हर तरह पुकार कर चेताती रही हैं। कला शायद इसी तरह भविष्य को देख लेती है।

संकलन परिकल्पना प्रकाशन , लखनऊ से आया है।

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