सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

आलोक- वृत्त में स्वयं- प्रभ !

आलोक- वृत्त में स्वयं- प्रभ !

सुमन केशरी की कविताओं के संदर्भ हमारे धूसर वर्तमान, प्रश्नाच्छादित अतीत और आशंकित भविष्य से उलझे हुए हैं। उनके यहां सांस्कृतिक स्मृतियाँ बारंबार आती हैं जो हमारे मिथकों में दर्ज हैं और जिनका वे वर्तमान के प्रसंग में प्रत्याख्यान करती हैं। एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में परिदृश्य के विस्तृत और कई बार अपरिभाषेय फलक को वे अपनी कविता में एक स्त्री के नजरिये से देखती- परखती हैं। उनके संकलन- पिरामिडों की तहों में तथा मोनालिसा की आखें- की कविताओं से गुजरना अपने आप में एक उद्वेलनकारी अनुभव है।

ये दिन पिरामिडों की तहों में गुजरते दिन हैं... कवि की यह प्रतीति किसी को अतिरंजित लग सकती थी लेकिन महामारी की मौजूदा आपदा और इससे निपटने में भारी असफलताओं ने इसे एक भयावह वास्तविकता बना दिया है। यहीं से एक लंबी कविता- श्रृंखला आरम्भ होती है, जो असल में एक विराट फंतासी है और संकलन के आखिर में ही समाप्त होती है। इसी के उत्तरार्द्ध में जो कविता किंचित भिन्न और खुली लग रही हैं, वे भी 
 फंतासी के उसी संसार की किसी ऊपरी सतह पर घटित हो रही हैं। कविता पिरामिड की  दुनिया के जिस अंत: क्षेत्र में ले जाती है, वह रहस्य, लोमहर्षक दृश्यों और हारर फिल्मों जैसे अनुभव से गुजरना है। यह स्वाभाविक सवाल उठता है कि इस फंतासी का निहितार्थ क्या हो सकता है।

मुझे लगता है कि कवि ने इस फंतासी के माध्यम से सामाजिक आभ्यंतर की सामान्य मानसिकता और उसके अवचेतन की टोह लेने की कोशिश की है। मुक्तिबोध की ब्रह्म राक्षस और अंधेरे में जैसी रचनाओं को डिकोड करने में कार्ल जुंग जैसे मनो- विश्लेषकों के सिद्धान्तों की मदद ली गयी है। जुंग ने स्वप्नों का गहन विश्लेषण करके मनो- जगत को समझने की कोशिश की थी। इतना तो साफ है कि सुमन केशरी इन मायावी वर्णनों से हिंस्त्र व क्रूर मनोवृत्ति का आभास रचती हैं जो अपनी प्रकृति में मुक्तिबोध के वृत्तान्तों से भी डरावना और हाहाकारी है। यहाँ भय और केवल भय है हालांकि आत्माएँ जाग रही हैं। कैद आत्माएँ, प्रेत और ममियां हैं। इस द्वेष- काल में हर अन्य को शत्रु मान सब घात लगाये बैठे हैं। इस इन्द्रजाल में सभी खजाने के लोभ में फंसे हैं और उनकी अन्तर्रात्मा खो गयी है। इस मृगतृष्णा के जागरण में किसी को नींद जैसी नींद नहीं आती। वे आकांक्षाओं की अंधेरी कब्र में पडे हैं।

लोगों को इन अमानवीय स्थितियों में डालने वाली शक्तियाँ तुमुल कोलाहल के साथ अपने छलावे लेकर आती हैं। ..वे जब भी आये, सफेद पंखों वाले हंसों के वेश में आये। ...सामान्य - जन मर्मान्तक अनुभवों से गुजरता है हालांकि दिखता सामान्य है। घर सुनते ही वह अपने भीतर सिमट जाता था, मानो वही उसका घर हो। कोई आत्महत्या करता है तो सब कुछ के लिए वही दोषी होता है जबकि बाकी- परिवार, समाज और राज्य उसके प्रति हर जिम्मेदारी से बरी हो जाते हैं। सपने अब जागरण की गठरी में कैद है।... अब सपने में भी सांस ले पाना दूभर था....।

सुमन केशरी उक्त परिघटना में स्त्री की अवस्थिति का काव्यात्मक आख्यान प्रस्तुत करती हैं। इन कविताओं में मां अनेकश: और विविधरूपा आती हैं जो वस्तुत: मातृत्व के विराट अर्थ को द्योतित करती हैं, जोकि स्त्रीत्व की मूल- प्रकृति है। एक शोकगीत श्रृंखला के जरिए सुमन जी ने मातृत्व और वात्सल्य का अद्भुत चित्रण किया है। तू विस्मृति में स्मृति है मां- शीर्षक कविता बिल्ली के ऐसे नवजात शिशुओं पर लिखी गयी है जो अपनी माँ से बिछुड गये। जो एक- दूसरे में और तदनन्तर उन्हें संभालने वाली ( कवि) में अपनी माँ को खोजते हैं। जब एक बड़ा बच्चा मर जाता है तो उन्हें संभालने वाली ( कवि) एक मां की तरह ही आकुल- व्याकुल होती है। यह शोकगीत थामस ग्रे की एलेजी आन दि डेथ आफ ए कैट की याद दिला देती है जो उन्होंने अपनी प्यारी बिल्ली के मछलियों के टब में डूब जाने पर लिखी थी। हिन्दी में शोक- गीतों की वैसी परंपरा नहीं है। निराला जी की सरोज- स्मृति ही हमारे पास एकमात्र महान शोकगीत है।

घर को लेकर एक छोटी- सी किन्तु अर्थवान कविता है-

तिनके बटोर रखने पर भी
घर घर नहीं बनता
चोंच के स्पर्श बिना

और विडम्बना यह है कि पुरुष घर छोडता है तो वैरागी लेकिन स्त्री घर छोडे तो पतिता कहलाती है। घर से निष्कासन भी स्त्री का ही होता है भले ही वह सीता हो। स्त्री का कोई घर नहीं होता। इन कविताओं में सुमन जी स्त्री की इयत्ता को विभिन्न आयामों में निरूपित करती हैं। मां की तरह ही उनकी कविताओं में बेटी भी बहुत आती है और कई बार यह चिड़िया के रूपक के साथ है। राजस्थानी लोकगीतों में भी बेटी को चिडकोली ( नन्हीं चिड़िया) ही कहा गया है। बेटी स्त्री की आगत पीढी की ही प्रतिनिधि है। अजन्मे बच्चे की शोकान्तिका भी उल्लेखनीय है। स्त्रियों के सांस्कृतिक अनुकूलन और मतारोपण की अनवरत् प्रक्रिया ने उन्हें अनात्म बना दिया है। सुमन जी ऋत और पंच- तत्वों के संदर्भ से समता के विमर्श को एक दार्शनिक रुख देती हैं। स्त्री- जो फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से फिर जन्मती है- पुनर्नवा।

मोनालिसा की आंखें संकलन की कविताएँ हमारे बाह्य और आभ्यन्तर को और सूक्ष्मता से सामने लाती हैं। मोनालिसा कविताओं में हम खुद को कलाकृति के दृश्य बिम्ब से इतर मोनालिसा और लियोनार्डो के मन की दुनिया की पडताल करता पाते हैं। यहाँ भी मां, उनकी स्मृतियाँ और बेटी हैं- सघन भाव- प्रवणता के साथ। शिला को अहिल्या में बदलता राम का कवि- मन है- करुणासिक्त। पूर्वज हैं, जिनके लिए निर्मल वर्मा कहते थे कि भारतीय अपने ( मृत) पूर्वजों के साथ रहते हैं- पर्व, त्यौहारों और उल्लास के अवसरों में उन्हें शामिल करते हुए। इसी संकलन में एक कविता है- कूक नहीं.... एक विकल चीख, जोहती, पुकारती, जाने किसे?.... उस बियावान  में.... । यह कविता राबर्ट ब्रिजेज की प्रसिद्ध कविता नाइटेंगिल्स को प्रतिध्वनित करती है जिसमें वे कहते हैं कि वे ( नाइटेंगिल) गा नहीं रहीं बल्कि अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त कर रही हैं। क्या इसका कुछ संदर्भ स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गीतों की हालिया सांस्कृतिक व्याख्याओं से नहीं जुडता है ? मछली, उसकी पनीली  आंखें व इसके कंट्रास्ट में रेगिस्तान भी इनकी कविता में मोटिफ की तरह आते हैं। मछली शीर्षक कविता है-

उसने कहा
मछली
करती है पानी से प्रेम

मछली नहीं जानती प्रेम
वह तो बस जीती
पानी में
मरती है पानी में

क्या तुमने
पानी के बाहर
कभी 
मछली को मछली- सा देखा है?

सपनों को लेकर दोनों संकलनों में कविताएँ हैं जो स्त्री- प्रश्नों के संदर्भ में खास मायने रखती हैं। मणिकर्णिका श्रृंखला भूलने वाली नहीं है और यहां भी उन्हें हरिश्चंद्र की प्रतिच्छाया और अपने बेटे रोहिताश्व को पुकारती तारामती की पुकार की अनुगूंज सुनायी पडती है। अंत में मोनालिसा... संकलन की आखिरी कविता- औरत- कि किस तरह वह रचती है एक वितान-

रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटियां रख कर
हथेली से आंखों को छाया देते हुए
औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा

उत्तर-आधुनिकता और जाक देरिदा जाक देरिदा को एक तरह से उत्तर- आधुनिकता का सूत्रधार चिंतक माना जाता है। उत्तर- आधुनिकता कही जाने वाली विचार- सरणी को देरिदा ने अपने चिंतन और युगान्तरकारी उद्बोधनों से एक निश्चित पहचान और विशिष्टता प्रदान की थी। आधुनिकता के उत्तर- काल की समस्यामूलक विशेषताएं तो ठोस और मूर्त्त थीं, जैसे- भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था, उच्च तकनीकी और मीडिया का अभूतपूर्व प्रसार। लेकिन चिंतन और संस्कृति पर उन व्यापक परिवर्तनों के छाया- प्रभावों का संधान तथा विश्लेषण इतना आसान नहीं था, यद्यपि कई. चिंतक और अध्येता इस प्रक्रिया में सन्नद्ध थे। जाक देरिदा ने इस उपक्रम को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाया जिसे विचार की दुनिया में उत्तर- आधुनिकता के नाम से परिभाषित किया गया। आज उत्तर- आधुनिकता के पद से ही अभिभूत हो जाने वाले बुद्धिजीवी और रचनाकारों की लंबी कतार है तो इस विचारणा को ही खारिज करने वालों और उत्तर- आधुनिकता के नाम पर दी जाने वाली स्थापनाओं पर प्रत्याक्रमण करने वालों की भी कमी नहीं है। बेशक, उत्तर- आधुनिकता के नाम पर काफी कूडा- कचरा भी है किन्तु इस विचार- सरणी से गुजरना हरेक

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ असहज है, इसलिए ज्यादा बातें नहीं की। पोते-पोती ने भी पूछा 'बावा परेशान क्यों हैं?' मैं उन्हें क्या उत्तर देता।  उनसे म

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- राजाराम भादू। जाति एक नितान्त भारतीय परिघटना है। मनुष्य समुदाय के विशेष रूप दुनिया भर में पाये जाते हैं और उनमें आंतरिक व पारस्परिक विषमताएं भी पायी जाती हैं लेकिन ह

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी