सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कन्याशुल्कम्

कन्याशुल्कम्


कन्याशुल्कम् मूल तेलगू में गुरजाडा अप्पाराव का नाटक है जिसे आधुनिक तेलगू साहित्य में क्लासिक का दर्जा हासिल है। गुरजाडा वेंकट अप्पाराव विजयनगरम के महाराज कालेज में प्राध्यापक थे। विजयनगरम के महाराजा आनंद गजपति राजू से 1887 में अप्पाराव का परिचय हुआ। तदनन्तर उन्हें विजयनगरम रियासत में प्राप्त शिलालेखों के अध्ययन कर्ता के रूप में नियुक्त किया गया। उन दिनों वहाँ कन्या विक्रय प्रथा का विशेष रूप से ब्राह्मण समाज में प्रचलन था। छोटी- सी लड़कियों का विवाह वृद्धों के साथ कर दिया जाता था। कई बार विवाह- मंडप में ही दूल्हे की मृत्यु हो जाती थी और उस बाल- विधवा का जीवन दयनीय हो जाता था। समाज विधवा विवाह की अनुमति नहीं देता था। उन्हें या तो सदा के लिए विधवा का नारकीय जीवन बिताना होता था अन्यथा वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर होना पड़ता था। इस दुुराचार का निर्मूलन करने के उद्देश्य से महाराज गजपति राजू ने गुरजाडा अप्पाराव से अनुरोध किया कि किसी साहित्यिक विधा के माध्यम से इस कुप्रथा के विरुद्ध उद्वेलन के लिए प्रयत्न करें। कन्या विक्रय के प्रचलन का जोरदार खण्डन करने के उद्देश्य से अप्पाराव ने कन्याशुल्कम् नाटक की रचना की।

कन्याशुल्कम् नाटक का प्रथम मंचन विजयनगरम के महाराजा आनंद गजपति राजू की उपस्थिति में 13.08.1892 को किया गया। इस नाटक का प्रथम संस्करण 1897 में प्रकाशित हुआ जिसे महाराज गजपति राजू को ही समर्पित किया गया था। आज भी आन्ध्रप्रदेश में इसका मंचन सैंकड़ों दर्शकों के सामने किया जाता है। इस तरह यह सौ से अधिक वर्षों से लगातार मंचित होने वाला नाटक है। हिन्दी में केवल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का अंधेर नगरी ही इस कोटि का नाटक है हालांकि इसकी उम्र कन्याशुल्कम् से कम है। आचार्य भीमसेन निर्मल ने इस नाटक का हिन्दी रूपान्तर किया था। कई अन्य अनुवादकों ने भी इस नाटक को हिन्दी में प्रस्तुत किया। यह हिन्दी संस्करण इनुगंटी जानकी द्वारा रूपान्तरित है। इसकी भूमिका में आचार्य एस ए सूर्यनारायण वर्मा ने आई जानकी के हिन्दी रूपान्तर को मूल के सन्निकट माना है। उनके अनुसार मूल कृति के प्रवाह की सफल पुनर्रचना और आख्यानपरक जटिलताओं के कुशल निर्वहन के लिए यह कृति तेलगू से हिन्दी अनुवाद की दिशा में एक महत्वपूर्ण देन है।

हिन्दी संस्करण से भी पहले मूल लेखक गुरजाडा अप्पाराव द्वारा द्वितीय संस्करण के लिए अंग्रेज़ी में लिखी उनकी भूमिका दी गयी है। इससे पता चलता है कि पहले संस्करण पर एस श्रीनिवास आयंगर से मिले सुझावों के आधार पर उन्होंने नाटक में कुछ जरूरी परिवर्तन किये हैं। इसी से पता चलता है कि नाटक को मिली जबरदस्त प्रतिक्रिया पर तत्कालीन प्रेस ने इसे तेलगू साहित्य में एक ऐतिहासिक घटना बताया था। नाटक का पहला संस्करण कुछ सप्ताह में ही खप गया और इसकी मांग बढती गयी। इस नाटक से पहले तेलगू रंगमंच में ऐसे फुल लेंथ प्ले को मंचित करने की भी कोई परंपरा नहीं थी। वहाँ कुछ मराठी समूह हिन्दी नाटकों का मंचन करके चले जाते थे और तेलगू में उन्ही की नकल होती रहती थीं। कन्याशुल्कम् नाटक के रूप में पहली बार तेलुगू रंगमंच पर एक स्वस्थ और सार्थक रचना सामने आयी। इसके बाद वहाँ हिन्दी नाटकों का प्रभाव क्षीण होता गया और तेलगू नाटकों की अहमियत बढती गयी। हालांकि इसे काफी जद्दोजहद करनी पड़ी, उन चुनौतियों का उल्लेख लेखक ने भूमिका में किया है।

यह तेलगू भाषा की भी निर्मिति का समय था। लेखक ने जन - सामान्य द्वारा बरती जाने वाली तेलगू भाषा में साहित्य लेखन की समस्याओं को बताया है। हिन्दी प्रदेशों की तरह वहाँ भी समाज- सुधार और भाषिक- विकास की प्रक्रिया समानांतर चल रही थी। इस नाटक की अन्तर्निहित शक्ति यही है कि इसमें बोलचाल की तेलगू को प्रयुक्त किया गया है। उसी दौरान संस्कृत नाटकों के तेलगू में हुए रूपान्तरों में भी तेलगू के इस रूप का प्रयोग नहीं किया गया था, इसलिए उन्हें विशेष सफलता भी नहीं मिली। अप्पाराव का अंग्रेजी साहित्य पर भी अच्छा अधिकार था, उन्होंने अपने नाटक की संरचना में अंग्रेजी नाटकों से ही आधार लिया है।

अप्पाराव ने इस भूमिका में मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले का स्वागत किया है जिसमें कन्या विक्रय को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। जाहिर है कि नाटक उस समय की अनेक परिघटनाओं को समेटे हुए है। कन्या- विक्रय, विधवा विवाह और वेश्यावृत्ति के इर्दगिर्द पूरे नाटक का कथानक बुना गया है। समाज में स्त्रियों का निम्न स्तर हिला देने वाला है। एक संवाद से पता चलता है कि इस समस्या पर तेलगू में एक उपन्यास भी आ चुका था। विधवाओं की दशा का मार्मिक चित्रण है। उभरती स्थानीय राजनीति में पतनशील प्रवृत्तियाँ भी पनप रही हैं। ब्राह्मणों के पारंपरिक पेशे और वर्चस्व का पराभव हो चुका है लेकिन उनके घात- प्रतिघात बढ गये हैं। अंग्रेज़ी जानने वालों को नौकरियां मिल रही हैं और उसे मिली अहमियत से अधकचरी अंग्रेजी बढ रही है। वकीलों को तब भी लुटेरों जैसा माना जाता था, फिर भी मुकदमेबाजी बढ रही थी और इसमें लोगों की जमीनें तक बिक जाती थीं। विद्या पर धन भारी पडने लगा था। समाज- सुधार और नेशनल कांग्रेस पर चर्चा होने लगी थी। धार्मिक पाखंड भी बढ रहा था और धर्म- गुरूओं के अमेरिका जाने का उल्लेख आया है। वहाँ की दास- प्रथा से विधवा जीवन की दारुणता का साम्य देखा गया है। पुलिस में भष्ट्राचार और उसके दलाल उभर रहे हैं। लेखक मानता है कि नाटक में व्यंग्य को हास्य के रूप में आना चाहिए और यही इस नाटक की मुख्य शैली है। हालात के इस पतनशील सातत्य और लेखकीय अन्तर्दृष्टि ने भी इस नाटक को कालजयी बनाया है।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

डांग- एक अभिनव आख्यान

डांग: परिपार्श्व कवि- कथाकार- विचारक हरिराम मीणा के नये उपन्यास को पढते हुए इसका एक परिपार्श्व ध्यान में आता जाता है। डाकुओं के जीवन पर दुनिया भर में आरम्भ से ही किस्से- कहानियाँ रहे हैं। एक जमाने में ये मौखिक सुने- सुनाये जाते रहे होंगे। तदनंतर मुद्रित माध्यमों के आने के बाद ये पत्र- पत्रिकाओं में जगह पाने लगे। इनमें राबिन हुड जैसी दस्यु कथाएं तो क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं। फिल्मों के जादुई संसार में तो डाकुओं को होना ही था। भारत के हिन्दी प्रदेशों में दस्यु कथाओं के प्रचलन का ऐसा ही क्रम रहा है। एक जमाने में फुटपाथ पर बिकने वाले साहित्य में किस्सा तोता मैना और चार दरवेश के साथ सुल्ताना डाकू और डाकू मानसिंह किताबें भी बिका करती थीं। हिन्दी में डाकुओं पर नौटंकी के बाद सैंकड़ों फिल्में बनी हैं जिनमें सुल्ताना डाकू, पुतली बाई और गंगा- जमना जैसी फिल्मों ने बाक्स आफिस पर भी रिकॉर्ड सफलता पायी है। जन- सामान्य में डाकुओं के जीवन को लेकर उत्सुकता और रोमांच पर अध्ययन की जरूरत है। एक ओर उनमें डाकुओं के प्रति भय और आतंक का भाव होता है तो दूसरी तरफ उनसे जुड़े किस्सों के प्रति जबरदस्त आकर्षण रहत...

कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी

स्मृति-शेष हिंदी के विलक्षण कवि, प्रगतिशील विचारों के संवाहक, गहन अध्येता एवं विचारक तारा प्रकाश जोशी का जाना इस भयावह समय में साहित्य एवं समाज में एक गहरी  रिक्तता छोड़ गया है । एक गहरी आत्मीय ऊर्जा से सबका स्वागत करने वाले तारा प्रकाश जोशी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत एवं आधुनिकता दोनों के प्रति सहृदय थे । उनसे जुड़ी स्मृतियाँ एवं यादें साझा कर रहे हैं -हेतु भारद्वाज ,लोकेश कुमार सिंह साहिल , कृष्ण कल्पित एवं ईशमधु तलवार । कवि व्यक्तित्व-तारा प्रकाश जोशी                                           हेतु भारद्वाज   स्व० तारा प्रकाश जोशी के महाप्रयाण का समाचार सोशल मीडिया पर मिला। मन कुछ अजीब सा हो गया। यही समाचार देने के लिए अजमेर से डॉ हरप्रकाश गौड़ का फोन आया। डॉ बीना शर्मा ने भी बात की- पर दोनों से वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त  रहा। दूसरे दिन डॉ गौड़ का फिर फोन आया तो उन्होंने कहा, कल आपका स्वर बड़ा अटपटा सा लगा। हम लोग समझ गए कि जोशी जी के जाने के समाचार से आप कुछ अस...

जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ

परिप्रेक्ष्य जाति का उच्छेद : एक पुनर्पाठ                                                               ■  राजाराम भादू जाति का उच्छेद ( Annihilation of Caste )  डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर की ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय जाति- व्यवस्था की प्रकृति और संरचना को पहली बार ठोस रूप में विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ अम्बेडकर जाति- व्यवस्था के उन्मूलन को मोक्ष पाने के सदृश मुश्किल मानते हैं। बहुसंख्यक लोगों की अधीनस्थता बनाये रखने के लिए इसे श्रेणी- भेद की तरह देखते हुए वे हिन्दू समाज की पुनर्रचना की आवश्यकता अनुभव करते हैं। पार्थक्य से पहचान मानने वाले इस समाज ने आदिवासियों को भी अलगाया हुआ है। वंचितों के सम्बलन और सकारात्मक कार्रवाहियों को प्रस्तावित करते हुए भी डॉ॰ अम्बेडकर जाति के विच्छेद को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। डॉ॰ अम्बेडकर मानते हैं कि जाति- उन्मूलन एक वैचारिक संघर्ष भी है, इसी संदर्भ में इस प्रसिद्ध लेख का पुनर्पाठ कर रहे हैं- र...

जुरहरा की रामलीला

"लोक में राम और जुरहरा की रामलीला " डॉ॰ जीवन सिंह द्वारा लिखित एक अलग तरह की किताब है। इसमें डेढ शताब्दी से भी अधिक समय से जुरहरा में होने वाली रामलीला का विस्तृत दस्तावेजीकरण है। जुरहरा गाँव के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के साथ रामलीला की शैली, अभिनय- प्रक्रिया और लीला- प्रबंधन का ऐतिहासिक विवरण है। इस रामलीला ने वहाँ साधारणता और सामूहिकता की भावना को ऊर्जस्विता प्रदान की है। जुरहरा राजस्थान के भरतपुर जिले का  सीमावर्ती गाँव है जो अब बड़े कस्बे का रूप ले चुका है। ये राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीमाओं के मध्य स्थित है। करीबन पांच शताब्दी पूर्व बसे इस गाँव में हिन्दू, जैन और मेव मुस्लिमों की आबादी है। आंचलिक रूप से मेवात और सांस्कृतिक रूप से ब्रज- मेवाती भाषी इस कस्बे के हिन्दुओं में अनेक सवर्ण, पिछड़ी व दलित जातियाँ शामिल हैं। जीवन सिंह लिखते हैं कि आजादी के आन्दोलन के समय सुधारिणी सभा ने गाँव में साक्षरता के साथ वाचनालय- पुस्तकालय स्थापित किये लेकिन आज की तारीख में कस्बे में कोई पुस्तकालय नहीं है। रामलीला जुरहरा का ऐसा सांस्कृतिक अनुष्ठान है जो सभी तरह के लोगों को परस्...

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक...

नित्यानंद गायेन की कविताएँँ

कवि -कविता  जन सरोकारों से जुड़े कवि का नाम है नित्यानन्द गायेन                                                      ■  दिनकर कुमार रूस के एक प्रांत दागिस्तान के लोक कवि रसूल हमजातोव कहते हैं कि कभी-कभी मैं अपने से यह प्रश्न करता हूं कि क्या चीज कविता का स्थान ले सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि कविता के अलावा पहाड़ हैं, बर्फ और नदी -नाले हैं, बारिश और सितारे हैं, सूरज और अनाज के खेत हैं…। मगर क्या पहाड़ , बारिश, फूल और सूरज का कविता के बिना और कविता का इनके बिना काम चल सकता है? वे आगे कहते हैं -कविता के बिना पहाड़ पत्थर बन जाएंगे, बारिश परेशान करने वाले पानी और डबरों में बदल जाएगी और सूर्य गर्मी देने वाला अंतरिक्षीय पिंड बनकर रह जाएगा।   कवि नित्यानन्द गायेन की कविताएं काफी दिनों से पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है कि वह जन सरोकारों से जुड़े हुए कवि हैं। आम लोगों के हितों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट है। उनकी यही ईमानदारी और बेबाकी उनको य...

सबाल्टर्न स्टडीज - दिलीप सीमियन

दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के...

सर्वेश्वर की भेडिया और हिंस्र शंक्लें - राजाराम भादू

पूर्वकथन : लीलाधर मंडलोई ने वर्तमान साहित्य के शताब्दी कविता विशेषांक ( मई- जून,२०००) का संपादन किया था। इसमें शताब्दी की कुछ चुनी हुई कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ व लेख हैं जो अलग- अलग लोगों से लिखवाये गये थे। मैं ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की भेडिया श्रृंखला पर लिखा था। इसे उलटते- पलटते लगा कि यह आज तो और भी मौजूं है। भगतसिंह की जेल में लिखी डायरी- ए मार्टायर्स नोटबुक ( इंडियन बुक क्रानिकल) का हिन्दी अनुवाद आ चुका है- शहीदे- आजम की जेल नोटबुक ( परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ)। इसमें भगतसिंह द्वारा मूल पृष्ठ ३९ में तिरछे लिखी ये पंक्तियां उद्धृत हैं- महान इसलिए महान हैं क्योंकि हम घुटनों पर हैं  आओ उठ खडे हों। पंक्तियों के लेखक का नाम नहीं है, बहुत संभव है ये स्वयं भगतसिंह की लिखी हों। सर्वेश्वर की इन कविताओं को पढते हुए मुझे लगता है, ये महानता के विरुद्ध साधारण जनों को उठ खडे होने के लिए आह्वान करती कविताएँ हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपनी काव्य- यात्रा सोच के जिस धरातल से शुरू की थी, बाद में वे लगभग उसके विपरीत छोर पर छोर पर पहुँच गये थे। यहां वे आततायी शक्तियों के प्रतिपक्...

यह मेरे लिए नहीं : धर्मवीर भारती

अन्तर्पाठ आलोचक राजाराम भादू अन्तर्पाठ श्रृंखला में प्रतिष्ठित कथाकारों की उन कहानियों की चर्चा कर रहे हैं जो महत्वपूर्ण होते हुए भी चर्चा में उतनी नहीं आ पायीं। हमारे विशेष आग्रह पर शुरू की गयी इस श्रृंखला में अभी तक आप मोहन राकेश की कहानी- जानवर और जानवर तथा कमलेश्वर की - नीली झील- पर पढ चुके हैं। इस श्रृंखला की तीसरी कडी में आप पढ रहे हैं धर्मवीर भारती की कहानी -यह मेरे लिए नहीं- और इस कहानी पर राजाराम भादू की टिप्पणी।                  - विनोद मिश्र सं. / कृति बहुमत, अक्टूबर, २०२१ इदन्न मम् : अस्मिता और आत्मसंघर्ष - राजाराम भादू धर्मवीर भारती ने अनेक कहानियाँ लिखी हैं। इनमें गुलकी बन्नो और बंद गली का आखिरी मकान जैसी तीन- चार कहानियों की ज्यादा चर्चा होती है। उनकी कहानी- यह मेरे लिए नहीं- ने मुझे विशेष प्रभावित किया जो १९६३ में प्रकाशित बंद गली का आखिरी मकान संकलन में शामिल है। भारती ने अपने बारे में बहुत कम लिखा है। कथा- साहित्य ही नहीं, उनकी कविता में भी अपने समकालीनों की तुलना में आत्मपरकता कम है। यह मेरे लिए कहानी आत्मपरक शैली में लिखी ...

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म...