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बुरे दिनों में



अभी अतीत के अटाले में कुछ ढूंढ रहा था तो एक सुंदर लंबोतरी कितबिया हाथ आ गयी। अरे, ये तो मुकेश चतुर्वेदी की कविताओं की पुस्तिका है, जो एक अर्से पहले मुझे भेजी थी और वे इसे भेजकर भूल गये। इसके बाद उनसे जाने कितनी बार मुलाकातें हुई, कभी कोई जिक्र नहीं। मुकेश ने कभी अपने कवि- रूप का कहीं कोई जिक्र नहीं किया। चर्चा तो वे अपने नाटकों की भी नहीं करते। सिर्फ आमंत्रण भेजेंगे, आप देखने जायेंगे तो आभार जरूर जतायेंगे और अगर आप कोई प्रशंसात्मक टिप्पणी करेंगे तो बस एक विनम्र मुस्कराहट। हम भी उनके कवि को कहां पहचानते हैं। यह पुस्तिका उन्होने औरों को भी भेजी होगी, लेकिन जैसे मैं ने इसे अटाले में डालकर ओझल कर दिया, वैसे बाकियों को भी मैं ने कभी उनकी कविताओं पर बात करते नहीं सुना। चलो मुकेश से माफी के साथ अब थोडी चर्चा उनकी कविताओं की करते हैं।

बुरे दिनों मे" शीर्षक ३६ पृष्ठ की यह पुस्तिका करीबन इतनी ही कविताओं को समेटे है। पुस्तिका सवाई माधोपुर के सूत्रधार प्रकाशन से २०११ में छपी है जिसके हर पृष्ठ पर दिये रेखांकनों में मुकेश के सौंदर्य- बोध की छाप है। इसे प्रेमा को समर्पित किया गया है जो निश्चित ही इन कविताओं के थोडे से श्रोताओं में पहली रही होंगी। चूंकि मुकेश एक सांस्कृतिक एक्टिविस्ट रहे हैं तो ऐसा अनुमान हो सकता है कि उन्होंने प्रगतिशील- जनवादी कविताओं के प्रचलित मुहावरे में ही लिखा होगा। लेकिन यह प्रीतिकर है कि ये भिन्न और अपनी ही तरह की कविताएँ हैं जिनके माध्यम से मुकेश चतुर्वेदी के रचनात्मक व्यक्तित्व के एक नये आयाम से आपका परिचय होता है। हालांकि यहां भी सामाजिक रूपांतरण के लिए उनकी वही गहरी प्रतिबद्धता, सौंदर्य- बोध और जिन्दगी को अपनी शैली में जीने की ठसक बराबर प्रतिबिंबित होती हैं।

मेरी स्मृतियों में आठवें- नवें दशक के जयपुर का वह मुकेश है जो एक संयत आक्रोश से भरा युवा था। थियेटर करता था, पढता बहुत था और अपने गंभीर सवालों को लेकर बहस करता था। इप्टा का फिर से उभार हो रहा था और इसके जयपुर में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन तक वह तमाम स्तरों पर सक्रिय और सन्नद्ध रहा। फिर प्रेमा और मुकेश सवाई माधोपुर चले गये। शिव योगी से उनकी रंगमंचीय सक्रियता की खबरें मिलती थीं। फिर पता चला कि उन्होंने सवाई माधोपुर इप्टा का विधिवत गठन कर लिया है। उसके बाद वहाँ इप्टा के बैनर पर एक बड़ा सांस्कृतिक आयोजन हुआ जिसमें जयपुर से मैं और प्रेमचंद गांधी गये। दो दिन का यादगार आयोजन था। तभी पता चला कि किस तरह मुकेश और प्रेमा ने युवाओं की एक बड़ी टीम खडी करके इस अंचल को रंगमंच के वृहद आन्दोलन से जोड दिया है जहाँ पहले आधुनिक रंगमंच की कोई परंपरा नहीं थी। सवाई माधोपुर इप्टा ने लगभग एक दशक के काम पर भी एक पुस्तिका निकाली थी , मुझे भेजी थी, अभी कहीं गुम है। वैसे उस पर रमेश वर्मा और शिव योगी को लिखना चाहिए जो उस प्रक्रिया से बराबर जुड़े रहे और आजकल फुरसत में हैं। पिछले कुछ वर्षों से, स्थायी रूप से जयपुर आने के बाद, उन्होंने इप्टा महासचिव के रूप में राज्य भर की इप्टा को सक्रिय करने का दायित्व लिया है।

फिर से मुकेश की कविताओं पर आते हैं। इनमें एक स्त्री के जीवन भर के अकेलेपन पर एक मार्मिक कविता है। प्रेमिल सहयात्रा पर वे कहते हैं :
कितनी दूर चले आये हम
साथ- साथ देखो तो
इसी तरह बुरे दिनों में शीर्षक कविता में अपनों की करीबी को याद किया गया है। आज जब हम फिर से बुरे दिनों की चपेट में हैं तो हमें सबसे ज्यादा अपनों की करीबी ही महसूस हो रही है। अगली कविता में उस दोस्त के आत्मीय लगाव को याद किया है जो न उनकी जाति का है और न धर्म- सम्प्रदाय का। मध्यवर्ग से डिक्लास होकर बडे समुदाय से जुडने की प्रक्रिया को एक कविता में बडे प्रामाणिक रूप में रखा गया है। तानाशाह कविता में वे बताते हैं कि वह वस्तुत जन समूहों के विभ्रम और अंधानुरण से शक्ति अर्जित करता है :
सब मिलकर भीड हो गये
भीड फिर भेड हो गयी
इन कविताओं में आत्म- अवलोकन, जीवन की विडम्बनाएं, मानवीय जिजीविषा और अनुराग के छूने वाले विपर्यय चित्र और बिम्ब हैं। कविताओं का प्रभाव आप मेरे इस अनुमान से लगा सकते हैं कि ये सभी रचनाएँ किसी भी संवेदनशील चित्रकार के लिए कविता- पोस्टर बनाने की अपील रखती हैं।

अभी एक कविता आपको पढवाते हैं :

बढते हुए बच्चे

मिट्टी के घरौंदे 
बनाते ढहाते
सपने बुनते हैं
बच्चे

मिट्टी में लकीरें खींचते बच्चे
नक्शे बनाते हैं
देश और दुनिया के

आकाश पाताल सृष्टि
सब 
समा जाते हैं
बच्चों के नक्शे में

उन्मुक्त हंसती है
खेलती- कूदती
खुशी से भरपूर
किलकारियां लगाती है 
बच्चों के नक्शे की दुनिया

इस दुनिया को रौंदते बच्चे
तालियां बजाते हैं

धीरे- धीरे 
मिट्टी में खेलना छोडते हैं
सहमे- सहमे रहते हैं
बढते हुए बच्चे

सचमुच के घर
ढहाये जाने का डर
महसूस करना सीखते हैं
बढते हुए बच्चे

सीखते हैं
आतंक के साये में जीना
बढते हुए बच्चे

#पढते-पढते/३२

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