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सर्वेश्वर की भेडिया और हिंस्त्र शक्लें



पूर्वकथन : लीलाधर मंडलोई ने वर्तमान साहित्य के शताब्दी कविता विशेषांक ( मई- जून,२०००) का संपादन किया था। इसमें शताब्दी की कुछ चुनी हुई कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ व लेख हैं जो अलग- अलग लोगों से लिखवाये गये थे। मैं ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की भेडिया श्रृंखला पर लिखा था। इसे उलटते- पलटते लगा कि यह आज तो और भी मौजूं है।

सर्वेश्वर की भेडिया और हिंस्त्र शक्लें

भगतसिंह की जेल में लिखी डायरी- ए मार्टायर्स नोटबुक ( इंडियन बुक क्रानिकल) का हिन्दी अनुवाद आ चुका है- शहीदे- आजम की जेल नोटबुक ( परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ)। इसमें भगतसिंह द्वारा मूल पृष्ठ ३९ में तिरछे लिखी ये पंक्तियां उद्धृत हैं-
महान इसलिए महान हैं क्योंकि
हम घुटनों पर हैं 
आओ उठ खडे हों।
पंक्तियों के लेखक का नाम नहीं है, बहुत संभव है ये स्वयं भगतसिंह की लिखी हों। सर्वेश्वर की इन कविताओं को पढते हुए मुझे लगता है, ये महानता के विरुद्ध साधारण जनों को उठ खडे होने के लिए आह्वान करती कविताएँ हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपनी काव्य- यात्रा सोच के जिस धरातल से शुरू की थी, बाद में वे लगभग उसके विपरीत छोर पर छोर पर पहुँच गये थे। यहां वे आततायी शक्तियों के प्रतिपक्ष में और सताये हुए लोगों के पक्ष में दृढ़ता से खडे हुए। मुक्तिबोध ने अपनी कविता और सौंदर्य- चिंतन से सामान्य- जन की पक्षधरता में कलाओं के लिए जो मार्ग प्रशस्त किया, सर्वेश्वर ने उस मार्ग को और विस्तार दिया है। मुझे वे मुक्तिबोध और नागार्जुन के बीच खडे लगते हैं। मुक्तिबोध उत्पीडक के जिन चेहरों और षडयंत्रों को अंधेरे में देखते हैं, सर्वेश्वर ने उन्हें पहचाना है। उनके यहां दमन- उत्पीड़न के विरुद्ध तीव्र घृणा और आक्रोश है। वे किसी अन्तर्द्वंद अथवा ऊहापोह में उलझे बगैर प्रतिरोध की हर कार्यवाही से अपनी संलग्नता का खुला इजहार करते हैं। सर्वेश्वर की कविता अपने वृहद कैनवास, विविधता और समृद्ध जीवन- अनुभवों के कारण ध्यान आकृष्ट करती है, वे बाहरी परिवेश के उत्कृष्ट चित्रण के साथ मनुष्य के अंत: प्रदेश के रहस्यों को खोलते हैं। मुझे कहा गया था कि मैं सर्वेश्वर की भेडिया श्रृंखला कविताओं पर लिखूं। 

मुझे लगा कि भेडिया श्रृंखला की कविताएँ केवल एक क्रम में लिखी कविताएँ ही नहीं हैं जिनमें सिर्फ शीर्षक का ही साम्य है बल्कि इनमें अंतर्वस्तुगत विकास क्रम है। जंगल का दर्द सर्वेश्वर का एक उत्तरवर्ती संकलन है जिसमें उनकी दृष्टि प्रखरता से व्यक्त हुई है। वे मनुष्य समाज को वर्गीय ढांचे से भी इतर अच्छाई और बुराई के उत्स और कारकों की छानबीन करके भी समझ रहे हैं। इन कविताओं की परिप्रेक्ष्यगत एकता ही नहीं, संरचनात्मक संलग्नता भी इन पर एक साथ विचार की मांग करती है। दूसरी कविता ( भेडिया-२) पहली कविता की पृष्ठभूमि पर खड़ी है और तीसरी कविता (भेडिया-३) पहली दो कविताओं की आधार- भूमि पर। बल्कि तीसरी कविता बाकी दोनों कविताओं को एक और अर्थ- संदर्भ प्रदान करती है, जहां आदमी और भेडिये के द्वंद्व का आयाम बदलता है। तब भेडिये रूपक की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। इसलिए इन कविताओं के प्रसंगों का एक सम्मुचय बनता है। यह फंतासी नहीं है बल्कि विचलित कर देने वाली कठोर और कंटीली दुनिया है। यह तो साफ लगता ही है कि ये एक ही कविता के तीन भाग हैं जिन्हें मिलाने पर ही वह मुकम्मिल बनती है। किसी एक भाग का स्वतंत्र पाठ अधूरा होगा क्योंकि वह मुख्य होते हुए दूसरे का पूरक है और दूसरा उसके लिए आनुषंगिक। हालांकि हर भाग इतना विशिष्ट है कि उसे अलगाकर रखा गया है। ये तीन एपिसोड हैं जिनमें परस्पर आवयविक एकता है। इसलिए मैं इन्हें एक साथ पढने के लिए आग्रहशील हूं। यह इसलिए भी जरूरी है कि पाठ ( टेक्स्ट) के साथ जिस दूसरे पाठ की सृष्टि होती है, उसके भ्रंश का डर है। हमारे आभ्यंतर का अरण्य और उसमें गुर्राते भेडिये।

यह भेडिया क्या है ? इन कविताओं का भेडिया एक साथ वास्तविक और रूपकात्मक बना रहता है। एक रूपक के रूप में वह मानवीकृत है, यानी मनुष्य का भेडियाकरण। भेडियाकृत मनुष्यों से निपटने की कार्यवाही का वृत्तान्त। इस तरह यहां रूपक अथवा प्रतीक की परंपरागत प्रयुक्ति का अतिक्रमण है। वैसे ये सर्वेश्वर की अपनी काव्य- शैली है जिसमें कविता अपनी स्वतंत्र इयत्ता के साथ जीवन की सापेक्षता में खड़ी है। सर्वेश्वर मनुष्य की मूल प्रकृति और सहजात वृत्तियों की मनोवैज्ञानिक पडताल करते हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य की बाहर प्रकट होने वाली प्रकृति की निर्मिति पहले भीतर घटित होती है। मनुष्य का भेडियाकरण अन्त: करण में हुए व्यापक स्खलन की परिणति है जिसमें प्रेम, करुणा, मैत्री जैसी उत्कृष्ट भावनाओं का खात्मा हो चुका है। इस भेडिया- वृत्ति का प्रतिकार एक जरूरी कर्त्तव्य है।

अमानवीय वृत्तियों यथा नृशंसता, क्रूरता, धूर्त्तता और चालाकी की अभिव्यक्ति के लिए कलाओं में हिंस्त्र जीवों के रूपकों का आरम्भ से ही इस्तेमाल होता आया है। यहाँ पिकासो की विश्व प्रसिद्ध पेन्टिग गुएर्निका की चर्चा प्रासंगिक होगी। इस पेन्टिग में पिकासो ने फासीवादी पाशविकता, क्रूरता और ध्वंस को व्यक्त किया है। इसमें वे सांड का रूपक प्रयुक्त करते हैं, एक निरीह स्त्री पर आक्रमण करता सांड। अनेक ऐसी कला- कृतियाँ याद हो आती हैं जिनमें स्त्री- उत्पीड़न को दर्शाने के लिए कलाकारों ने सांड का रूपक प्रस्तुत किया है। लेकिन हमारे यहां भेडिये का रूपक बलात्कारी के संदर्भ में खासा प्रचलित है। और ऐसे वर्णनों में बहुधा यह उक्ति भी है कि.... और उसके भीतर का भेडिया जाग उठा। यह ध्यान देने की बात है कि सांड गाय प्रजाति का सदस्य है। उसके स्वभावगत बदलाव और हिंस्त्र वृत्ति ने उसका चरित्र इतना बदल दिया कि वह अपनी ही प्रजाति का विपर्यय बन गया। इसी तरह देखें तो भेडिया भी कुत्ता प्रजाति का प्राणी है। अपने समाजीकरण की बदौलत कुत्ता मनुष्य का सहचर- मित्र बन गया और उससे बाहर गया भेडिया खुद अपने ही कुत्ता समाज का भी शत्रु है। मनुष्य का भेडियाकरण वस्तुत उसका एंटी- सोशलाइजेशन है। जैसे एक देह में प्रेम का प्रवेश कहा जाता है। भेडिया वृत्ति का प्रतिकार इस देह को प्रेत- बाधा से मुक्त करने के उपक्रम की तरह है।      
        

भेडिया कविताएँ पढते हुए भुवनेश्वर की कहानी भेडिये याद आती रहती है। भेडियों का एक झुंड, भौंकता हुआ पीछे दौडता, जान बचाने की जद्दोजहद में एक- एक नटनी (नट स्त्री) को भूखे  भेडियों के सामने फेंकता बंजारा गाडीवान। यहां नृशंस भेडियों के प्रतिरोध की गुंजाइश कहां है। सिर्फ किसी तरह जान बचाने की फिक्र है। बंजारा एक- एक करके नटनियों को भूखे भेडियों के सामने फेंकता चलता है। भेडिये उसका भक्षण करने में थोडा वक्त लेते हैं और फिर दौड पडते हैं। बंजारा इस तरह भेडियों को पीछे छोडता, गाड़ी को हल्का करता, दौडकर अपनी जान बचा लेता है। वह स्त्री- व्यापार में लिप्त था, इसलिए ये स्त्रियाँ उसके लिए महज माल की शक्ल में थीं। इतना अमानवीयकृत तो वह पहले था ही, अब वह इस माल का इस्तेमाल अलग तरह से अपनी जान बचाने के लिए कर रहा था। यदि इन स्त्रियों की आंख से बंजारे गाडीवान को देखें तो उनके लिए इस गाडीवान और वहशी भेडियों में ज्यादा फर्क नहीं होगा। लेकिन क्या वह गाडीवान भेडियों से मुक्त हो गया ? नहीं, वे उसकी नींद और स्मृतियों में निरंतर भौंकते हुए उसका पीछा करते रहे। दूसरी ओर वह वैसा मनुष्य भी नहीं रह गया, जैसा इस घटना के पूर्व था। भय और कायरता मुक्ति को ग्रस लेते हैं।

सर्वेश्वर की भेडिया श्रृंखला कविताओं का पाठ सर्वथा अलग प्रभाव छोडता है। यह भिन्नता क्या है, इसे पहचानना थोडा मुश्किल है। प्रथम दृष्टया ये प्रबोधन की कविताएँ लगती हैं लेकिन प्रथम दृष्टया...। इन कविताओं की प्रकृति इतनी विशिष्ट है कि ये तुरंत अन्य सैकड़ों कविताओं से खुद को अलगा लेती हैं। पुनर्पाठ को विवश करती ये कविताएँ हमारे भीतर के वन- प्रांतर में प्रवेश करती हैं और तीसरी कविता की पहली पंक्ति भेडिये फिर आयेंगे हमारे पिछले अहसास को खत्म कर देती है। नहीं, ये प्रबोधन कविताएँ नहीं हैं। भेडिये फिर आयेंगे एक चेतावनी है लेकिन सिर्फ चेतावनी भर नहीं। यह एक आवर्तनशील परिघटना और उसके प्रतिकार की प्रक्रिया का उदघाटन है। प्रतिकार की अनिवार्यता का प्रतिपादन इन कविताओं की कला- निष्पत्ति है।

पहली कविता भेडिये के बारे में इस मान्यता को आधार बनाती है कि यदि आप भेडिये से डरते नहीं और उसकी आंखों में आंखें डालकर मुकाबला करें तो वह भाग खडा होता है। इसके बाद ये पंक्तियाँ आती हैं-
और तुम कर भी क्या सकते हो
जब वह तुम्हारे सामने हो ?
यहां दूसरी लोक- मान्यता की अनुगूंज सुनायी देती है। कहते हैं कि जब हिरणी को यह लगता है, शिकारी ( चाहे वह हिंस्त्र जीव हो या मनुष्य) से वह बच नहीं सकती तो अपने सींग आगे कर मुकाबले पर उतर आती है। हालांकि यहां कवि प्रश्न रख रहा है। किसी को यह उत्तर सूझ सकता है कि किसी प्रकार बच निकलो। इस कायराना पलायन की फलश्रुति अगली पंक्तियों में है-
यदि तुम मुंह छुपा भागोगे
तो भी तुम उसे
अपने भीतर इसी  तरह खडा पाओगे
यदि बच रहे।
यह बाहर के भेडिये का अंत: प्रवेश है। भय का  मनोविज्ञान है। भय जो आत्मा का क्षरण कर देता है, घुन की तरह उसकी जीवनी- शक्ति को खोखला कर देता है। भेडिया हमारी आत्मा में मांद न बना सके, इससे उसे फेस करने, उससे मुठभेड़ करने को औचित्य मिलता है। अपने भीतरी भय को शक्ति में तब्दील करने की रणनीति है यहां, जिसके लिए कवि लीलाधर जगूडी कहते हैं, भय भी शक्ति देता है।

इस श्रृंखला की पहली कविता हिंसा, क्रूरता या बलात कृत्य के वैयक्तिक प्रतिकार या कहें तो वैयक्तिक प्रतिहिंसा की रणनीति को स्थापित करती है। जबकि अगली कविता भेडिया- वृत्ति के विरुद्ध सामूहिक कार्यवाही का आह्वान है। यहाँ फिर लोक- अनुभव को रणनीतिक आधार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भेडिया आग से डरता है इसलिए तुम मशाल जलाओ।
भेडिये और मनुष्य में यही फर्क है कि भेडिया मशाल नहीं जला सकता। यहां मानव- सभ्यता में आग की खोज और अग्नि व मनुष्य का साहचर्य एक व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेता है। मनुष्य का ज्ञान और चेतना ऐसी मशाल है जिससे अन्यायी को खदेडा जा सकता है। यहाँ कवि का संबोधन जन- समूह के लिए है, उधर भेडिये भी झुंड में बदल गये हैं। भेडिया- वृत्ति का वर्णन देखिये, भूखे भेडिये आपस में गुर्रायेंगे, एक- दूसरे को चींथ खायेंगे। ये भेडियों के झुंड और जन- समूह की समूह- भावना के बीच का गुणात्मक अंतर है। संकट में भेडिये एक- दूसरे के भी शत्रु हो जाते हैं। तीसरी कविता बाहर के भेडियों से संघर्ष की न होकर अपने बीच उत्पन्न हुए भेडियों के संकट की चेतावनी है-
अचानक
 तुम में से कोई एक दिन
भेडिया बन जायेगा
उसका वंश बढने लगेगा
यह मनुष्य की हिंस्त्र -वृत्ति और पाशविकता के उभार और उसके प्रतिकार का मसला है। यह कविता पहली दो कविताओं में आये भेडियों को रूपक में बदल देती है और भेडिया- प्रसंग को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान कर देती है। मनुष्य समाज में विद्यमान हिंसा और उत्पीड़न की आदिम प्रवृत्ति भेडिया- वृत्ति की पहचान बन जाती है। मनुष्यता को इसका अनिवार्य प्रतिकार करना है और इसके लिए साहस से मशाल लेकर खडा होना है। यह एक सतत् कार्य- भार है।    
                                  

मनुष्यता से अमानवीयता (भेडिया- वृत्ति) की ओर स्खलन यदि एक परिघटना है तो इसका सचेत और संगठित प्रतिरोध मानवता के  लिए जरूरी उपक्रम है। खुद की एक मनुष्य के रूप में पहचान, निर्भय होने का सुख जानने और मशाल उठाना (अर्थात सचेतन संघर्ष) सीखने के लिए भेडियों से जूझना अनिवार्यता है। भेडिये एक चुनौती की तरह आते हैं। कमजोर क्षण में भी उनसे मुठभेड़ एक साहसिक कार्यवाही है, भय से मुक्ति के लिए। जैसे कि डा. लोहिया कहा करते थे, निराशा में किया गया काम ही कर्त्तव्य होता है। ये कविताएँ नृशंसता, अन्याय और क्रूरता के विरुद्ध मानवीय संघर्ष के ऐतिहासिक साक्ष्यों से उत्पन्न सूत्रीकरण और नैसर्गिक सत्य की मदद से एक प्रेरक काव्य- सत्य प्रतिपादित करती हैं।

इन कविताओं की संरचना संश्लिष्ट और सुदृढ़ है। एक नाटकीय वक्तव्य से हर कविता की शुरुआत होती है। फिर कुछ प्रचलित मान्यताएँ, इतिहास से निसृत लोक- अनुभव और नैसर्गिक सत्य हैं और उनके आधार पर रणनीतिक सूत्रीकरण किये गये हैं। कविताएँ सामान्य वर्तमान काल में घटित हैं ( सभी वाक्य व्याकरण की दृष्टि से इसी काल के हैं)। कविता वक्तव्यमूलक हैं। सामान्यीकरण और रणनीतिक सूत्रीकरण का सहमेल है। यह सहमेल ज्ञान- मीमांसा का ताना- बाना रचकर प्रतिरोध के दर्शन की पृष्ठभूमि बन जाता है। प्रतिरोध का दर्शन, यही तो इन कविताओं की प्रतिश्रुति है। इस निष्पत्ति के चलते कविताएँ देश- काल से गहरी संपृक्ति रखते हुए भी आगे बढ जाती हैं, उसका अतिक्रमण कर जाती हैं। जबकि भेडिये फिर आयेंगे में एक आवृत्ति, एक प्रक्रिया के सातत्य का बोध है। हर कविता की आखिरी पंक्ति प्रश्न है जो व्यापक समानांतर अर्थ के सृजन में मदद करती है। ये प्रश्न पाठक को निष्क्रिय भोक्ता नहीं रहने देता, वह उसे एक्टिवेट करता है। सोचने- विचारने और करने की दिशा में सक्रिय करता है।

भेडिया कविताएँ प्रचलित अर्थों में प्रतिहिंसा की कविताएँ नहीं है। ये हिंसा के बदले हिंसा की मांग अथवा उसका समर्थन नहीं करतीं बल्कि उसकी जडों के उन्मूलन की ओर इंगित करती हैं। ये क्रूरता, अन्याय और बलात कृत्य के प्रतिकार को स्वाभाविक नैतिक जमीन देती हैं, हिंसा के निषेध का पक्ष पोषित करती हैं। ये हिंसा के निषेध अथवा प्रतिकार के अर्थ में प्रतिहिंसा ( काउंटर वाइलेंस) है जिसके लिए बाबा नागार्जुन कहा करते थे, प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का। जब आप प्रतिहिंसा के इस मार्ग पर चलते हैं तो मुठभेड़ पर बहुत कुछ निर्भर करता है। मसलन गांधी जी का अहिंसा दर्शन भी हिंसा के निषेध पर खडा है लेकिन एक मुकाम पर वे भी कायरता और हिंसा में से हिंसा को वरेण्य मानते हैं। हिंसा, क्रूरता और अन्याय का प्रतिकार उसके प्रति गहरी घृणा और क्रोध की मांग करता है। ऐसा क्रोध जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल सात्विक क्रोध कहते थे, जिसकी प्रेरणा राम ने शक्ति के नेत्रों में पायी थी। इस सुर्खी से ही भेडिये की सुर्ख आंखों का मुकाबला किया जा सकता है। अपने बीच भेडिये में तब्दील होते व्यक्ति को चीन्हते रहना होता है और अगर उनकी वंश- वृद्धि हो गयी है तो फिर ज्ञान की मशाल लेकर एकजुट प्रतिरोध के जरिये उन्हें बर्फीली घाटी में खुद-ब- खुद खत्म होने को खदेडने की साहसिक कार्यवाही के लिए तत्पर रहना होगा।

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रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी