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करीबन महीने भर से ज्यादा होने को आया, हम देश के तमाम महानगरों- शहरों से अपने गाँव लौटते मजदूरों के ह्रदय- द्रावक और करुण दृश्यों को देख रहे हैं। हमारे जैसे लोगों की उनके हालातों पर मूलतः दो तरह की प्रतिक्रियाएं हैं- निष्क्रिय और सक्रिय। पहली तरह की प्रतिक्रिया में हमारे मन में उनके लिए गहरा विषाद और करुणा है जिसमें कुछ न करने की बेबसी भी जुड जाती है। कुछ लोगों में यह अकर्मण्यता एक किस्म का अपराध बोध भी पैदा करती होगी जिसे वे कुछ न कर पाने के ठोस कारकों पर विचार कर धो- पोंछने का जतन करते रहे होंगे। सक्रिय प्रतिक्रियाओं में गाँव- घर लौटते मजदूरों के लिए खाना- पानी- चप्पलें मुहैय्या कराना, उनके लिए यत्र- तत्र शिकवे- शिकायतें करने से तस्वीरें बांटने और कविताएँ लिखने तक की कार्यवाहियां शामिल हैं। इन दोनों ही तरह की प्रतिक्रियाओं को स्वाभाविक मानवीय संवेदना और सहज आवेग मानते हुए अहमियत देनी चाहिए।

मैं आपका ध्यान एक और बात की ओर दिलाना चाहता हूँ। हो सकता है आपमें से बहुतों ने उस पर सोचा हो। अगर ऐसा है तो हमें एक सामूहिक विचार की ओर बढना चाहिए। आखिर वह कौन- सा तंत्र था जिसके चलते
देश भर में फैले इन लाखों लोगों- परिवारों के मन में एक साथ गाँव लौटने का विचार आया ? जैसे ही महामारी ने शहरी व्यवस्था को ठप्प किया और उस पर निर्भर इनका प्रत्यक्ष आधार ढहा, ये असहाय हुए, इन्होंने कैसे यह फैसला किया कि अब गाँव लौटना चाहिए ? क्या किसी नेतृत्व ने यह फैसला किया ? क्या एक- दूसरे को आदेश- निर्देश भेजे गये ?  क्या निर्विकल्पता इतनी विकट थी ? याद करें वह शुरूआती लाक डाउन जिसमें हजारों की भीड कर्फ्यू तोडकर बाहर निकल आयी थी। इतने बड़े महादेश में बिखरे इस वर्ग के करोड़ों लोगों की एक समान प्रतिक्रिया के निहितार्थों पर गहराई से विचार करने की जरूरत है।

और यह कैसा वृहद स्वत: स्फूर्त तथापि दृढ सामूहिक निर्णय है जिसे उन्होंने दमन और यंत्रणा के चलते टाल भले ही दिया लेकिन बदला नहीं। इसके लिए हर मर्मान्तक कीमतें चुकाते हुए वे प्रयाण पर निकल पडे। इस दौरान अपनी ही राज्य व्यवस्था और इसकी एजेन्सियों से कैसा- कैसा अतिचार और नकार इन्होंने नहीं सहा। आप ध्यान दें कि उस  महामारी से जनित मृत्यु के भय ने तो इनको किंचित ही शायद डराया हो। क्या इसके पीछे सिर्फ यही एक शहीदाना भाव मात्र रहा कि मरना ही है तो अपनी ही जमीन पर जाकर मरेंगे ? बेशक, यह भी था किन्तु संभवतः सिर्फ इतना भर भी नहीं था।

यह इससे भी कहीं ज्यादा गहरा और प्रबल भाव है। यह कुछ ऐसा सम्बन्ध है जो चेतन ही नहीं, बल्कि इनके अवचेतन में विद्यमान है। यह शिशु से मां के गर्भनाल से जुड़े रिश्ते की तरह है। हम कथित शिक्षित लोग उस लगाव को रूखे प्रति- प्रश्नों से क्षरित कर चुके हैं। हम मां की महत्ता को भी बिसरा चुके हैं। वे अभी भी हर वार- त्यौहार, शादी- उत्सव और शोक- मृत्यु में यात्राओं के कष्ट झेलते अपने गाँव भागते हैं। वे भले ही दशकों से महानगरों- शहरों में रह रहे हैं लेकिन वहाँ अभी भी आप्रवासी ही हैं। और शहरियों ने ही उन्हे कहां अपनाया है? इसलिए इनकी आत्मा अभी भी गाँव- घर में ही बसी है। निश्चय ही, बहुतों के गाँव में घर भी अब नहीं रहे होंगे लेकिन उन्हें अपने परिवार, कुटुंब, मुहल्ले और जाति पर कम से कम इस राज्य और यहां के समाज से ज्यादा भरोसा है। वहां की बच रह गयी सामुदायिकता और सामाजिकता उनके लिए कंफर्ट जोन है। इनकी मनस् रचना में वहाँ की अनुकूलित आबोहबा है जिसमें दुख- दर्द तो पहले ही कम न थे। तो फिर वे वहीं जा रहे हैं कि जो भी होगा, देखेंगे- सबके साथ, सबके बीच।

अब जरा उन विस्थापितों की मन: स्थिति और वेदना की कल्पना करें जिनकी बस्तियों को उजाडकर उनके तो नामो- निशां मिटा दिये गये हैं। वहाँ कोई बांध, कोई उद्योग अथवा कुछ और कथित आधारभूत संरचना खड़ी हो चुकी है। ये महानगर- शहर तो अभी तक उनके नहीं हुए हैं और पीछे कुछ रहा नहीं। वे कहां जायें? त्रिशंकु की तरह अधर में लटके वे नृशंसता के नर्क में रहने के लिए अभिशप्त हैं।

क्या अब भी कथित विकास का वह  छल उजागर नहीं हुआ है जिसके बल पर दशकों से इस देश की मजबूत ग्रामीण अार्थिकी को ध्वस्त किया गया है ? क्या यह साबित नहीं हो गया कि विकास के लिए शहरीकरण का तिलस्म किसी भी तरह की आपदा को सहने में सक्षम नहीं है ? क्या गाँव गये या पहुंचने वाले इनमें से अधिकांश के लिए वहीं सुरक्षित आजीविका और गरिमापूर्ण जीवन बिता सकने के लिए कोई संभावनाएँ नहीं बची हैं ? उस दुनिया में जीवन बसर करने के लिए, जिसे ये अपना मानते हैं और इस हद तक प्यार करते हैं।

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