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चौकन्नी स्त्रियाँ - रजनी मोरवाल

कहानी-कहानीकार

महिला संघर्षों का कोलाज - रजनी मोरवाल का कथा संसार 
                            चरण सिंह पथिक

राजस्थान ही नहीं वरन समूची हिंदी पट्टी में पिछले एक दशक में जिस तेजी से अपनी कहानियों के वैशिष्ट्य के कारण कथा जगत में जो-जो नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं , उनमें रजनी मोरवाल का नाम प्रमुख है ।
रजनी मोरवाल ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'कुछ तो बाकी है' से कथा जगत के इस जटिल प्रदेश में अपनी कहानियों के बलबूते अपनी अलग पहचान कायम की है । किसी भी रचनाकार के लिए अपने लेखन को शुरुआती जुनून के जैसा बरकरार रखना , एक चुनौती होता है ।
 ऐसे में अगर आप महिला हैं तो और भी कठिनाइयां आपके सामने होती हैं । जिनसें कदम-कदम पर आपको जूझना होता है । रजनी मोरवाल ने इन चुनौतियों की परवाह ना करते हुए अपना लेखन निरंतर जारी रखा ।

'नमकसार' संग्रह की कहानियाँ तथा उसके बाद का उपन्यास 'गली हसनपुरा' रजनी के रचना वैशिष्ट्य की गवाही देता है । 'नमकसार' कहानी पर एक सफल नाटक का मंचन भी हो चुका है । दरअसल रजनी मोरवाल के यहां किरदारों और विषयों की विविधता इतनी है कि , उनके कथा संसार को सबसे अलगा कर देखा जाता है ।
 चाहे आप 'कुछ तो बाकी है' संग्रह की कहानियाँ पढ़ जाइये या 'नमकसार' संग्रह की कहानियाँ या फिर उनका प्रसिद्ध उपन्यास 'गली हसनपुरा'
 रजनी मोरवाल अपने तीन कहानी संग्रह और एक उपन्यास के जरिए हिन्दी के कथा जगत में महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी हैं । रजनी के यहां स्त्री-विमर्श अन्य महिला रचनाकारों की तरह  प्रमुखता से है तो सही , मगर वह सबसे जुदा अंदाज में है । 
जीवन के कटु यथार्थ से संघर्ष करते महिला किरदार यहां पुरुषों को लेकर  चीखते-चिल्लाते या गरियाते नजर नहीं आते । बल्कि अपने संघर्ष के बलबूते समानान्तर कदमताल करते हुए पुरुषों से बराबरी का हक मांगते नहीं , साधिकार लेते हुए अपने को मजबूती से खड़ा रखते हैं । 
जैसा कि आजकल स्त्री विमर्श को लेकर जिस ताबड़तोड़ तरीके से कहानियां गढ़ी जा रही हैं और उन कहानियों में पुरुष पात्र को बतौर खलनायक स्थापित किए जाने का बहुचलन जारी है । ऐसे में रजनी मोरवाल ने अपनी कहानियों के माध्यम से यह स्थापित किया है कि संघर्ष को , जीवन के प्रति सकारात्मक नजरिया ही आपको बराबरी का हक दिला सकता है ।
 आर्थिक आत्मनिर्भरता उस में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । रजनी मोरवाल के पात्र हमारे आसपास के साधारण किरदार हैं । जो विषम परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेकते बल्कि तन कर खड़े होते हैं ।
 रजनी मोरवाल के जीवन अनुभव विशाल हैं । उन्होंने अपने किरदार वहीं से लिये हैं । वंचित, शोषित ,अल्पसंख्यक, दलित और बेरोजगार तथा एक अदद छत की उम्मीद में गांव दर गांव , शहर दर शहर भटकते परिवारों की व्यथा- कथा तथा उनका संघर्ष ही उनके रचना संसार का हासिल है ।

 उनका उपन्यास 'गली हसनपुरा' ऐसे ही दर-दर भटकते समुदाय का दारुण आख्यान है । जिसके स्त्री-पात्र पूरी जीवटता के साथ हालात के जूझते हैं । अपने हक के लिए आवाज उठाते हैं । मगर हार नहीं मानते । 
उनके तीनों कहानी संग्रह की कहानियों में अनेक स्त्री और पुरुष पात्र ऐसे हैं ,जो पाठक के जेहन में रच- बस जाते हैं । रजनी के पास अपनी चुटीली भाषा है । कहानी बुनने का एक बेहतरीन शिल्प है , कहन की वह शैली भी है ,जो बहुत कम रचनाकारों में देखने को मिलती है ।
 रचना के रचे जाने का एक परिपक्व धैर्य है ,जो किसी भी रचनाकार के लिए अत्यावश्यक है । स्त्री,-विमर्श के इस शोर में रजनी मोरवाल का कथा संसार एक ताजा हवा का झोंका है।  जिसे उनके रचना संसार के गुजरे बिना महसूस नहीं किया जा सकता । हिंदी कथा-संसार उनसे और भी बेहतरीन कहानियों और उपन्यास की उम्मीद पाले हुए हैं । उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं ।


कहानी -
         चौकन्नी स्त्रियाँ
                                               रजनी मोरवाल

दूर्वा थकान से पस्त थी, चाहती थी कुछ खा ले और सुबह तक ढह जाए ।एक तो 8-10 घंटे का सफ़र और दूसरा लैंडिंग करने के बाद भी एक किलोमीटर चल कर कनवेयर बैल्ट तक आना और भी थकाऊ बना देता है । सत्या उसे रिसीव करने अंदर ही आ गया था सो दूर से ही हाथ हिलाते दिख गया था ।
“आपको कोई परेशानी तो नहीं होगी मेरे साथ सोने में ?” सामान का इंतज़ार करते हुए सत्या ने अचानक चुप्पी तोड़ी थी।
“हैं ...?”
“अरे मेरा मतलब था मेरे फ़्लैट में होने से ? अब साथ रहोगी तो सोओगी भी तो, मानाकि पलंग और कमरे दो हैं किन्तु कहा तो यही जाएगा।” उसकी बात से दूर्वा के दिमाग में हथोड़े बजने लगे थे, उसे हाँ-ना के बीच झूलता देख सत्या ने ही चुप्पी तोड़ी थी।
“यहाँ पास ही पांडिचेरी के कुछ भारतीय रहते हैं, उन्होंने यहाँ कुछ सस्ते होटल्स और भोजनालय खोल रखें हैं, चलें ?”
“नहीं ! मैं किसी से इनसिक्योर नहीं होती, खुद से तो बिलकुल नहीं। मैं तुमारे साथ ही ठहरूँगी अगर तुम्हें एतराज़ न हो तो ?” बिना उसकी प्रतिक्रिया के वह सामान का इंतज़ार करने लगी थी ।

एयरपोर्ट पर कनवेयर बैल्ट नंबर एक पर खड़ी दूर्वा की उचटती निगाहें कभी बैल्ट पर से गुज़रते सामान पर पड़ती थीं तो कभी लौट कर एयरपोर्ट का मुआयना करने लग जाती थीं ।उलटते-पुलटते, घिसटते-रगड़ते बड़े छोटे बैग्स और अटेचियाँ यूँ लुढ़क रहे थे मानों उसके टूटे सपनों का एक सैलाब-सा बहा आ रहा था । उसने अपनी घबराकर अपनी नज़र एक पल को वहाँ से दूसरी तरफ फेर ली थी।
एअरपोर्ट पर पीछे की तरफ मोनालिसा की एक बड़ी-सी पेंटिंग लगी दिख रही थी । वैसे यह  मोनालिसा की एक प्रतिलिपि होगी किन्तु मुस्कान शत-प्रतिशत वही जो किसी के भी कदम ठिठका दे।”
“ये उसकी प्रतिलिपि है क्योंकि चित्रकार ‘लिओनार्दो दा विंची’ की मूल कृति तो लूव्र म्यूज़ियम में लगी है।”
“जानती हूँ और जिसे देखने की बेताबी, मैं ज़ब्त नहीं कर पा रही हूँ।” 
“मैं इसी कशमकश में रहता हूँ हमेशा कि ये हँस री कि रो री ?” सत्या फुसफुसाया था।


“शट अप, सत्या ! पिटवाओगे विदेश में ?”
“तुम्हारे लिए होगा विदेश, मैं तो एक पैर भारत में और दूसरा पैर यहाँ रखता हूँ।” 
“ओहो.... चलो हटो ! एन.आर.आई. कहीं के!” 
“अच्छा  ! सच बताना अगर ये हँसना हुआ तो भई इतनी रहस्यमयी मुस्कान क्यों भला ? कोई खुलकर ना हँस ले इससे बेहतर कि सदियों तक इनकी मुस्कान ही बूझते रहेंगे लोग। खुद तो निक्कल्ली और पीढ़ियों को काम पे लगा गयी।” 
“तुम ना, ये अजीब-सी गँवारू भाषा मत बोला करो ! कौन मानेगा कि तुम किसी कंपनी के सी.ई.ओ.  हो।”
“वह तो मैं कर्मचारियों के लिए हूँ तुम्हारे सामने तो वही हूँ बचपन वाला लड़ियन...हे हे हे!”
“उफ़्फ़ ! तुमसे बहस ना करने में ही समझदारी है, अब तो तुम्हारी अम्मा तक तुम्हें लड़ियन ना बुलाती होंगी फिर भला मैंने कब बुलाया तुम्हें इस नाम से? पहली मर्तबा मिले हो।”
“ओहो... तो अब बुला लो ! पहली दफ़ा क्यों ? फ़ोन पर वीडिओ कालिंग भी तो की थी ना यहाँ आने से पहले ? सब समझता हूँ कि तुम देख लेना चाहती थी कि बंदा है कौन ?” सत्या उसके मुँह के ठीक सामने आकर खड़ा हो गया था।
“अच्छा बाबा ! चलो सामान बटोरो और चलो यहाँ से।” बुआ ने न जाने कौनसी घड़ी में कह दिया था कि मेरी सहेली का बेटा वहाँ रहता है उससे मिल लेना, यूरोप भी घूमा देगा और तुम अकेलेपन से भी बच जाओगी।”
“क्या परेशानी है ? ठीक ही तो किया उन्होंने, मैं छुट्टी लेकर तुम्हारे साथ घूमने के लिए तैयार हूँ। आज रात ही तुम्हें सैर करवाता हूँ, अब थोड़ी बहुत शरारतें तो बनती हैं ना ।” सत्या ने बनावटी गुस्से से कहा था।
“चलो भी लड़ियन कहीं के !” दूर्वा ने ट्रोली पर सामान रखते हुए कहा था। वह सत्या को अपना पर्स संभालने की हिदायत देते हुए वाशरूम चल दी थी।
“इन लड़कियों के साथ यही प्रॉब्लम है। इनके कंघी से लेकर जूतों तक सब संभालना पड़ता है उस पर भी ये विमर्श कि हम आत्मनिर्भर हैं, मर्दों से कम नहीं, अपने लिए अपनी दुनिया खुद  बना सकती हैं आदि-आदि।”
“तुम ये क्या बड़बड़ाते रहते हो ? हाँ, हम सब कर सकती हैं और वह भी अकेले अपने दम पर।”
“जी फिलहाल तो लीजिए ये पर्स पकड़िए और गेट तक चलिए, टैक्सी आ गयी होगी। यहाँ एक घंटा इंतज़ार करने के टैक्सी वाला वेटिंग चार्जेज अड़तीस यूरो ले लेता है।”
“आ गए न टिपिकल भारतीय मानसिकता पर ?”
“अरे यार पैसे ख़र्च करने में नहीं बल्कि फ़िज़ूल खर्ची करने से गुरेज़ है मुझे।” 
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही उसकी कंपकंपी छूट गई थी, सर्द भरी तेज़ हवाओं ने उसे झकझोर के रख दिया था, उसने बैग में से जैकेट निकालकर पहन ली । इनर, ग्लव्ज़, वूलन कैप और बूट्स तो वह पहले से ही पहनकर चली थी ।
“इतनी ठंड में जीते कैसे होंगे यहाँ के लोग ?”
“क्यों जी ? हम क्या जिंदा नहीं ? देख लो साँसे चल रही हैं बल्कि आपको देखने के बाद तो दौड़ने लगी हैं ।” उसने दूर्वा का हाथ अपने हृदय से सटाते हुए कुछ इस अंदाज़ में बोला था कि दूर्वा की हँसी फूट पड़ी थी ।
“देखो, हम आज ही एअरपोर्ट से घर जाते हुए एफिल-टावर देख लेंगे ।समय भी बचेगा और रौशनी में वह भव्य लगता है,दिन के उजाले में तो  शहर से गुज़रते हुए कभी भी देखा जा सकता है ।” दूर्वा ने नॉटिस किया था कि सत्या बात करते-करते तुरंत पॉइंट पर आ जाता है, मुद्दे की बात पर टिके रहने वाले पुरुष उसे सच्चे लगते हैं।उसे लगता है ऐसे पुरुष ज़िन्दगी की राहों पर भटकते नहीं हैं । कठिन से कठिन परिस्थितियाँ भी उन्हें मुद्दे से गुमराह नहीं करतीं । ऐसे पुरुष परफेक्ट हस्बैंड काइंड ऑफ़ मटिरीअल होते हैं । रोहित की तरह के तो सिर्फ़ बॉय फ्रेंड तक ही सीमित रहने चाहिए, गलती किसी की भी रही हो, अब हो गयी सो हो गयी । वह हिम्मत करके सब आधा-अधूरा छोड़कर चली आई थी । वक़ील ने कहा था- “कुछ समय दो अपने रिश्ते को, कानूनी दाँव-पेच की बजाय एक छोटा-सा ब्रेक लो ।”
“चलो बहुत ठंड है यहाँ, मुझे कल लूव्र म्यूज़ियम भी देखना है।” दूर्वा जहाँ से निकली थी उन्हीं ख़यालों में जा-जा कर अटकी जा रही थी ।
( चित्र - अमित कल्ला )
“एक दिन में ? असंभव है एक दिन में मैडम...लोग महीनों यहाँ पड़े रहते हैं तब भी इसका कोई ना कोई कोना अछूता छूट ही जाता होगा । अगर 537 पेंटिंग्स और 184 कलाकृति में से हरेक को चार सेकंड भी देखोगी तब भी पूरा म्यूज़ियम देखने में तीन महीने का समय लगेगा । गारंटी लेता हूँ कि ‘मोनालिसा’ की पेंटिंग के समक्ष ही तुम पूरा दिन ठगा जाओगी ।”
“ठगा तो मैं आई ही हूँ अपने-आपको ज़िन्दगी के हाथों और कितना ठगाऊँगी ? अब आई हूँ तो हर कोना छू तो लूँ कम-अज-कम ।”
“हाँ, छू लो...” वह कुछ-कुछ, कम-कम, धीमा-धीमा ही सही किन्तु यही बोला जरूर था ।
वह फ्रेश होकर आई तबतक सत्या ने नूडल्स और टोमेटो सूप बना लिया था, वाइन के दो गिलास उसने खाली रख छोड़े थे, अगर एतराज़ न हो  तो...? 
“यहाँ सर्दी से यूँ ही बचा जा सकता है, देख लो हीटर तीनों ऑन हैं ...भई देख लो  ! अपनी-अपनी श्रद्धा है, अपन तो एकाध लेंगे ।” उसने बिना किसी को संबोधित कहे कहा था ।दूर्वा ने अपना ग्लास उसके आगे बढ़ा दिया था ।
“मने प्यास तो है ?”
“अबे चुप बे लड़ियन... चल सर्व कर ।”
  “आ गयी न अपनी वाली पर, अब ना कहोगी मेरी भाषा को गँवारू ।” वे दोनों एक साथ हँस पड़े थे । खाना सिर्फ़ पेट भरना था और पीना ठंड का बचाव किन्तु नशे के बहाने-बहाने दूर्वा ने सत्या को सब बता दिया था । कई मर्तबा किसी एक बहाने के भरोसे हम कितना कुछ उलीच देते हैं । इल्ज़ाम दिल ओ’ दिमाग के नशे पर जाता है जबकि ऐसी स्थिति में अमूमन ज़ेहन ज़िन्दगी के उन्हीं कोनों को अधिक झकझोरता है जिन्हें हम सबसे बचाए अपने साथ लिए चलते हैं, जिसे लोग अचेतन मन कहते हैं । दूर्वा ने भी यही किया, बता दिया कि रोहित और उसके बीच सब ठीक नहीं है । वह इस सदी में भी स्त्रियों को दूसरे पायदान पर मानता है । उसका सोचना है कि बायलोजिकल सब स्त्रियाँ जन्मती ही इस तरह हैं । वह स्त्री को दैहिक रूप से पुरुष से कमज़ोर व उसके मस्तिष्क को तमाम इफ्स एंड बट्स के बीच दूसरे पायदान पर झूलता हुआ पाता है जो पहले पायदान पर चढ़ने की हिम्मत ही नहीं कर पाता । उसका मानना है कि स्त्रियों को हमेशा से कमज़ोर एक कदम ठिठककर सोचना चाहिए । एक हद में आज़ादी का पक्षधर है ।
“तुम भी आधी आबादी की मानिंद ‘सिमोन द बोउआर’ की प्रसंशक हो ? जिनका कहना था ‘स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है।’ सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं और  गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में।”
“यही सच भी है ।”
“तो तुमने उसे सिर्फ़ इसी कारण से छोड़ दिया ?
“ये ‘सिर्फ़’ नहीं है बल्कि यही सबसे अहम कारण है, वैसे अभी छोड़ा नहीं है हमने एक-दूसरे को सिर्फ़ एक ब्रेक लिया है... एक स्पेस... जो वक़ील के कहने पर है । यह इरादतन स्पेस है जो कि भर पाएगा या नहीं, क्या मालूम ?”
“ये स्पेस दरअसल हमारे विचारों में होते हैं जो जिद और ईगो के चलते एक चौड़ी खाई में तब्दील हो जाते हैं ।” 
“नहीं ईगो और जिद के परे भी एक बात होती है जिसे वह समझ ही नहीं पाता वह है लिंगभेद से उठकर व्यक्तित्व का सम्मान, निजता और स्वतंत्रता की छूट । ये स्वतंत्रता दैहिक ही हो ये ज़रूरी नहीं बल्कि तार्किक, सोच व विचारधारणाओं के हिसाब से होनी चाहिए ।” 
दूर्वा उस रात बड़ी गहरी नींद सोयी थी । उसके कंफेशन पर दुबारा उन दोनों में से ही किसी ने चर्चा नहीं की थी किन्तु सत्या सब सुन चुका था जो वाइन के बहाने दूर्वा कह गयी थी निढाल होने से पूर्व ।
“ओके लेट्स टेक ए ब्रेक, दूर्वा ! स्पेस विल गिव अस टाइम तो रीथिंक टू अंडरस्टैंड द सिचुएशन, मे बी, वी विल बॉन्ड अगेन टू नेवर पार्ट अवर वेज़ ?”
“मे बी ? मे नॉट बी ?” दूर्वा सोचने-समझने की स्थिति में नहीं थी ।
“मैं कहीं और शिफ्ट हो जाता हूँ, तुम रहो इसी फ्लैट में ।” मानो एहसान कर रहा हो उस पर ।
“नहीं, आई हेव अ बेटर प्लान फॉर मी ।” कम से कम उत्तर देने वाली दूर्वा में जाने कौनसी शक्ति आ गयी थी उस वक़्त कि रोहित भी हकबका गया था ।
“ओह... ओके कम आउट ?”
“मैं एक बार पेरिस जाना चाहती हूँ तो सोच रही हूँ ब्रेकअप के बहाने यही स्पेस लिया जाए ।” रोहित ने बहुत इसरार किया था उससे टिकट व होटल आदि के इंतजाम के लिए पर दूर्वा का अपना अकाउंट था, जॉब छोड़ने के बाद उसका रुपया ज्यों का त्यों जमा था ।
“कहाँ खो गयीं आप ?” उसे अपने में गुम देखकर चिंतित स्वर में सत्या ने पुनः पूछा था ।
“तुम्हें जेट लेग हो रहा होगा ? कल चलें ऐसा है तो ? किन्तु रौशनी में भव्य लगता है एफ़िल टावर । रात के समय जब पूरी 20 हजार लाइटें जगमगाने लगती हैं तब तो इस की शोभा देखते ही बनती है ।” उसका तुम कहना भाया था दूर्वा को ।
“जैसा तुम ठीक समझो ! वैसे भी मुझे नींद से और नींद को मुझसे शिकायत है । मिन्नतें कर-करके हम दोनों हार जाते हैं किन्तु न वह आती है न मैं बाज़ आती हूँ ।” वह बेवजह हँसी थी । उसे हँसते हुए देखकर वह कुछ असमंजस में था । दूर्वा ने उसकी बेचैनी भाँप ली थी सो अपनी बात पर पुनः सहमती जताते हुए उसने कहा था-
“नहीं रौशनी के शहर को रौशनी में ही देखना चाहिए, हम अभी ही देखेंगे ।”
“तुम पर वह हँसी फ़बरही थी । हँसा करो ! लेकिन आइब्रो को नज़दीक लाकर ये भृकुटियाँ इकठ्ठी न हों तो बढ़िया लुक रहे वैसे भी तनावरहित चेहरे ज़्यादा ख़ूबसूरत लगते हैं ।”
“इतनी व्याख्या एक हँसी के लिए ? इससे अच्छा तो होता कि तुम पूछ लेते कि माज़रा क्या है ?” वह फिर हँसी थी किन्तु इस बार सत्या ने और अधिक गौर से देखा था उसे ।
“कुछ तो गड़बड़ है कसम एफ़िल टावर की ।” वह मन ही मन बुदबुदाया था किन्तु ज़ाहिराना तौर पर उसने कहा था ।

“पिछले सवा सौ वर्षों में पेरिस व एफ़िल टावर एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं । पेरिस को “सिटी ऑफ़ लाइट्स” इसीलिए कहा जाता है क्योंकि सन 1820 में यह यूरोप का पहला शहर था जहाँ सड़कों पर शाम के धुंधलके से पूर्व ही गैस के लैम्प्स जलाए गए थे । आज भी रात भर पेरिस की सड़कें, महलों, चौराहों, दुकानों, नाईट क्लब्स और बार इत्यादि रंग-बिरंगी रौशनियों से जगमगाते रहते हैं ।”
“येस देट्स व्हाई इट्स कॉल्ड सिटी ऑफ़ लाइट्स !” 
“नहीं ऐसा नहीं है इस सिटी ऑफ़ लाइट्स में कुछ अँधेरे कोने भी हैं ।”
“मसलन ?”
“वह देखो उस जोड़े को जो सड़क के किनारे कम्बल ओढे बैठा है । दूर्वा ने उनकी ओर देखकर हाथ हिला दिया था, बदले में उन्होंने भी उसे वेव किया था ।”
“कौन हैं ये लोग ? इस शानदार चमकते हुए शहर के बीचोंबीच यूँ सड़क पर ? यह तो हमारे देश में ही होता है ।”
“ऐसा नहीं है, भिखारी यहाँ भी हैं । दरअसल दुनिया के खूबसूरत देश भी झुग्‍गियों की भरमार से परे नहीं है । हाँ ! ये सच है कि पेरिस में भी स्लम्स हैं । इस बस्‍ती को नाम दिया गया है ‘रोमा-जिप्‍सी गांव’ । दरअसल रोम और बुल्‍गारिया से आए शरणार्थियों ने पेरिस के आउटर में रेलवे लाइन के पास अपने लिए ये गाँव बसा लिया है । इस बस्ती में 16 हजार से ज्यादा लोग रहते हैं और जो आम इंसान की बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर हैं । इस बस्ती को ‘ला पटीट सेंटर हट्स’ के नाम से जाना जाता है ।
“मैंने सुना था पेरिस में सिर्फ़ काँच की ही सड़कें हैं ।”
“अरे ऐसा नहीं है ! सड़कें तो यहाँ भी हर देश की तरह ही हैं किन्तु साफ़-सुथरी हैं बस ।”
“नाम सुनकर तो लगता है जैसे किसी विला का नाम हो । अगर ‘ला पटीट हट्स’ रख देने से झुग्गियाँ महलों का सुख देती तो हम भी अपने यहाँ ऐसे ही नाम इजाद कर लेते ।”
सत्या ने ही बताया था कि यहाँ रहने वाले लोग ‘रोमा’ कम्युनिटी के हैं । घुमक्कड़ होने की वजह से इन्हें जिप्सी भी कहा जाता है । ये पूरे यूरोप में फैले हैं और इतने दिनों बाद आज भी अपमान और भेदभाव के शिकार हो रहे हैं । फ्रांस की केपिटल पेरिस में भी इनका यही हाल है । यहाँ रहने वाले ये लोग कारों की साफ-सफाई करने से लेकर मजदूरी और छोटे-मोटे धंधे करके अपना गुजर-बसर करते हैं । ये जिस इलाके में रहते हैं, वहाँ चारों ओर गंदगी का अंबार है । इनके लिए लाइट और पानी की व्यवस्था भी नहीं है । हालांकि, कुछ एन.जी.ओ. इनके लिए आवाज़ उठा रही हैं ।

“आवाज़ें तो हर देश में ऐसी जब तब उठती ही रहती हैं मगर सुनता कौन है ? न सरकारों तक इनकी आवाज़ें पहुंचती होंगी न भगवान तक ।” दूर्वा भावुक हो आई थी । ऊपर पहुँचकर पेरिस की जगमगाहट अब उसे मुँह चिढ़ाती नज़र आ रही थी ।
अगले कई सप्ताह वे सीन नदी के प्रसिद्ध क्रूज़, आर्क ऑफ़ ट्रायम्फ, नोत्रे डेम केथेड्रल, कॉनकॉर्ड स्क्वायर, डे ला कॉनकॉर्ड सैर करते रहे । और सोने से दमकते गेट वाला भव्य महल ‘वर्साय’ को देखने के बाद तो दूर्वा की आँखें चकाचौंध थी । अगले दिन फ़ैशन स्ट्रीट के बाहर थककर बेहाल दूर्वा ने सत्या का हाथ थाम लिया था ।
“अब और नहीं प्लीज़...”
“आओ यहाँ बैठते है कुछ देर !” और सत्या ने उसे सहारा देकर सड़क के किनारे लगी एक बेंच पर बिठा लिया था ।
“वह भी यूँ ही थक जाती थी पर फ़ैशन स्ट्रीट आना नहीं छूटता था उसका ।”
“कौन वह ?”
“वही जो कभी मेरी सबकुछ थी ये अलग बात है कि हमने शादी नहीं की थी पर लिव-इन में तो थे, सा... ला यही एक खराबी है लिव-इन रिलेशन में कि जब मन भर जाए, छोड़ कर चल दो !”
“कुछ तो बात हुई ही होगी ?”
“जब जिस रिश्ते को ख़त्म होना होता है तो वह टूटता ही है, उसके लिए किसी वजह या मक़ासद की ज़रूरत नहीं होती ।”
“हाँ... यही सच है !” बड़ी देर तक चुपचाप बैठी दूर्वा ने अपने क़रीब किसी साए को बैठे पाया था । उससे नज़रें मिलते ही वह महिला मुस्कुरा दी थी । गहरे मेकअप और उम्र से अधिक लटकी झुर्रियों को छिपाती हुई उस महिला को देखकर उसे सत्या की वार्निंग स्मरण हो आई थी । “यहाँ अफ्रीकी मूल की महिलाएँ और पुरुषों से अपना कीमती सामान और पर्स बचाना !” सत्या ने उसकी हथेली हौले से दबाते हुए उठकर चलने का इशारा किया था । उनके खड़े होते ही वह महिला जोर-जोर से अपनी भाषा में चिल्लाने लगी थी । कांपती हुई दूर्वा ने कसकर सत्या को जकड़ लिया था । वह महिला उनके चारों ओर घेरा बनाकर गोल-गोल घूमकर चीख़ रही थी ।

“चलती जाओ बिना उसकी तरफ देखे बस आगे बढती जाओ !”
“पर उसे परेशानी क्या थी ?”
“एक हो तो बताऊँ ! भूख, गरीबी, रेसिज्म या उसका पागलपन कुछ भी हो सकता है । ये हर देश की अहम समस्या है।”
घर पहुँचने तक भी दूर्वा डर से तो कुछ ठंड से काँपती रही थी । हीटर चलाकर सत्या ने उसे पलंग पर कंबल में दुबका दिया था ।
“तुम आराम करो मेरी नन्ही चिड़िया ! मैं कुछ खाने का प्रबंध करता हूँ ।” सत्या चावल और दाल बनाकर लाया तब तक दूर्वा सो चुकी थी । सत्या ने उसके मुँह पर बिखरी लटों को धीरे से सँवार दिया था । कमज़ोर पड़ गयी थी दूर्वा उस वक़्त और फफ़क-फफ़ककर रो उठी थी । उसे अपने सीने से लगाए सत्या यूँ ही सो गया था । उस रात बरसात हुई थी । सुबह देर तक सोने के बाद रात की नमी से पिघला आसमान कई दिनों के बाद कुछ-कुछ दिखाई दिया था ।
“शायद आज सूरज निकल आए ?”
“हाँ... सूरज को निकलना ही होगा, अँधेरे की स्याही जो फ़ैली है यहाँ धरा पर उसे समेटने के लिए कुछ उजास अब बिखरना ही चाहिए ।” सत्या ने दूर्वा को गले लगाते हुए कहा था ।

“मुझे जाना होगा अब सत्या !”
“क्या ज़रूरी है ? रुक नहीं सकती ?”
“अभी नहीं... शायद फिर आ जाऊं... कभी न लौटने के लिए किन्तु कुछ ज़रूरी हिसाब चुकता करने हैं इन सबसे पूर्व कि मैं पुनः जीना सीख पाऊं । तुम्हारी बुआ नाराज़ होंगी । उन्होंने अपने भतीजे से सिर्फ़ मदद की उम्मीद थमाई थी और मैं... ग्लानि होने लगी है मुझे ।”
“पागल न बनो दूर्वा ! जीवन हर किसी को अपने हिसाब से जीना चाहिए । जीवन के हर फ़ैसले का निर्णय खुद लेना सीखो । गलतियों से सबक और अनुभव जो भी मिले कम-अज-कम उनकी ज़िम्मेदार भी ख़ुद ही बनो ।” सत्या ने सिसकती दूर्वा को ढाढ़स बंधाया था । सत्या से बिछुड़ते हुए उसने किसी वादे का भरोसा नहीं जतलाया था । लेकिन उसे अब अपनी खुशियों के लिए स्वयं निर्णय लेना है ये उसे सत्या ने ही सिखाया था । हाँ... प्लेन के टेक ऑफ़ के वक़्त जी भर आया था उसका, एक हूक-सी उठी थी । उसने खिड़की से बाहर पलकें घुमा ली थी । उसकी बगल में बैठी महिला ने धीरे से पूछा था-
“सब ठीक है ?”
“जी...जी हाँ !” दूर्वा सोना चाहती थी एक गहरी नींद की कि अबकी फिर जागे तो कोई कुहासा ना दिखे उसके जीवन पर, बस हरे-भरे मैदान हों हर तरफ जिन पर वह दौड़ती चली जाए... दूर-दूर बहुत दूर तलक, वहीं उस छोर पर उसे सत्या का चेहरा मुस्कुराता दिखा था । उसने और जोर से आँखें मींच ली थी वह अबकी बार इस ख्व़ाब को जी लेना चाहती थी ।
“बेटा जी आप मेरी मदद करो नी ?”
तीसरी सीट पर बैठी महिला ने दूसरी सीट वाली महिला से कुछ कहा था शायद, तभी उसने एयर होस्टेज को बुलाकर कहा था -
“इनके कान में दर्द है कुछ रुई और गर्म चाय ले आइये प्लीज़ !”
“दूर्वा ने अपने पर्स में से टॉफ़ी निकालकर उनकी और बढ़ाई थी ।
“इसे मुँह में रखकर धीरे-धीरे चूसिए जब तक वह चाय ले आएगी ।”
“थैंक यू बेटा ! यूँ तो म्हारे बेटे ने दियो नी मने सगली चीजां पण बी एयर होस्टेज बैग ने उपराने मेल दीनी जोको, अबकी आवे नी बे तो म्हे कडास्यु बीने केर ।”
“जी कोई बात नहीं आंटी जी आप आराम से बैठिये । आपका सामान भी ऊपर से हम निकलवा लेंगे, सीट नंबर दो ने कहा था ।
“पेली बार मैं इयाँ एकली सफ़र कर री हूँ जिसे थोड़ी घबरा गी । इधर आयोड़ी थी बेटा के कन्ने एर म्हारी सास गुज़र गी । म्हारे बेटा कने छुट्टी कोनी ही ई वास्ते मने ही आनो पड्यो ।” वे परेशानी, घबराहट और दुःख सबसे एक साथ जूझती दिखीं । दूर्वा की तरफ़ देखकर वे झेंपती-सी मुस्कुरा दीं ।
“आप चिंता न करें, हम सब साथ ही तो हैं ।” दूर्वा ने उनके घुटनों पर अपनी हथेली में थामा हुआ संबल टिका दिया था ।
“हाँ... लीजिए आप कुछ बिस्कुट, केला या डेट्स खा लीजिए, थोडा अच्छा फील करेंगी ।” दूसरी सीट वाली स्त्री ने अपने पर्स में से दो केले और लंच बॉक्सेस निकालते हुए उन्हें आग्रह किया था ।”
दूर्वा ने देखा कि उसके छोटे-से पर्स में दो छोटे-छोटे डिब्बे और भी थे । बेहद करीने से उसने अपने पर्स में कई सारे पाउच और नाश्ता समा रखा था ।
“मने नी चाईजे बेटा ! थूं केरी है तो ला मेल लूँ पछी खा ल्येशुं ।” उन्होंने एक पेपर बोट पोमेग्रेनेट जूस अपने हाथों में थाम लिया । कुछ देर तक उन्होंने एयर होस्टेस का इंतज़ार किया । टेक ऑफ के बाद वे उसे धीरे-धीरे सिप करने थीं । उन्हें सीट बेल्ट बाँधने में खाशी मशक्क़त करते देख ही दूर्वा समझ गयी थी कि वे प्लेन में यात्राओं की अभ्यस्त नहीं है । नज़र मिलते ही वे मुस्कुरा देती थीं ।
“आप भी एकला ही जा रहे हो ?”
“जी !” दूर्वा के इस छोटे से उत्तर ने उन्हें निराश नहीं किया था ।”
“म्हारी माँ सिधार गी । बेटा ने छुट्टी कोणी मिली तो म्हाने एकली आनो पड्यो ।” ऐसा कहकर वे रोने लगी थीं ।
“धीरज रखें ! हम साथ हैं आप चंता न करे ! माँ की उम्र कितनी रही होगी ?” दूर्वा ने सांत्वना देने की गरज़ से उनसे बात जारी रखी थी ।
“म्हे ही सतत्तर की होण लाग गी । माँ निनिन्यान्वे की हो जाती ई महिना । बीमार तो कोणी थी, याण तो हालती-डोलती ही पण उमर बी होगी ही बीकी ।” वे देर तक सुबकती रही थीं फिर ऊँघने लगी थीं।
“आप कहाँ जा रही हैं ? ”दूर्वा ने अपने पास बैठी स्त्री से पूछा था ।
“जी मैं कंपनी के काम से इंडिया जा रही हूँ । गूगल में काम करती हूँ, यहाँ अकेली रहती हूँ बाक़ी परिवार इंडिया में ही है ।” उसने दूर्वा के एक प्रश्न पर ही सब कुछ बता दिया था ।
“हम्म... मैं सिर्फ़ ब्रेक पर आई थी यहाँ ?”’
“जी ? उसके ‘जी’ के साथ लगे प्रश्नवाचक को दूर्वा ने भांप लिया था ।
“दरअसल सत्रह साल पुरानी शादी को टूटने से बचाने का एक मौका और दिया है वक़ील ने और सलाह दी कि हम कुछ दिनों का ब्रेक ले लें ।  मुझे पेरिस देखना था सो यहाँ चली आई ।”
“वाव... साउंड्स इंट्रेस्टिंग ! आई मीन ये ब्रेक तो वाक़ई मजेदार रहा होगा, यानिकी आप यहाँ और वे ?”
“उनका नाम रोहित है । वे एक अतिव्यस्त व्यक्ति हैं । उनके जीवन में ब्रेक जैसा कुछ नहीं, सो यूँ समझिए ये ब्रेक एकतरफ़ा रहा । अब ये जो पीरियड था वह हम दोनों के लिए मनन करने के लिए ही तो था कि रिश्ते में कहाँ चूक हुई ? किन्तु उनके हिसाब से इस रिश्ते में उनकी तरफ़ से कोई चूक नहीं, बस मैं ही ज्यादा डिमांडिंग हूँ ।” 
“आप कुछ काम करती हैं ? या हाउस.......?”
“जी ! मैं हाउस-वाइफ ही कहलाना पसंद करुँगी । ये जो नया टर्म हाउस-मेकर का ईज़ाद किया है ना सोसाइटी में दरअसल स्त्रियों को लोलीपॉप थमाने से अधिक और कुछ नहीं है ।” दूर्वा कुछ उत्तेजित हो उठी थी ।
“आप शायद कुछ काम करती होतीं तो उनकी मजबूरी समझ पाती ।”
“करती थी, तब हालात और विकट थे, हम दोनों के बीच बोलचाल तक का समय नहीं था ।”
“सच कह रही हैं । मेरा नाम बिनीथा है ।” उसने अपना हाथ दूर्वा की ओर बढ़ाते हुए कहा था । दूर्वा ने उसका हाथ थामते हुए कहा था -
“और मैं दूर्वा !”
“म्हारो नाम बिमला है !” वे जागकर उनकी बातों में शामिल हो चुकी थीं । अब वहाँ सीट नंबर नहीं बल्कि तीन स्त्रियाँ बैठी थीं जिनके नाम खिड़की से बाएं की ओर क्रमश दूर्वा, बिनीथा और बिमला थे । वे तीनों एक सूत्र में बंधने लगी थीं अब, वहाँ न सीट नंबर थे न नाम, न उम्र, बस अगर कुछ था तो एक महीन धागा, जिसकी बिनाई में तीनों स्त्रियाँ अलग-अलग बिंधी थी अब तक पर अब सुलझने को आतुर थीं ।
“म्हारी माँ मने कदैई पढ़वा कोनी भेजी । मैं म्हारा भाई री पोथ्याँ बांच-बांच अर थोड़ो घणी लिखवा-पढ़वा सीखगी । थे कित्ता पढयोडा हो जी ?” बिमला ने बिनीथा और दूर्वा की तरफ एक साझा प्रश्न उछाला था ।
“मैं ऍम. बी. ए. करके एक फर्म में काम करती हूँ।”
“और मैं अब ब्रेक-ब्रेक के खेल में उलझी हूँ ।” दूर्वा की हँसी में कई सारे उत्तर थे जो बिनीथा ने भांप लिए थे किन्तु बिमला का मुँह अनभिज्ञता से खुला रह गया था । “ये अपने पति से अलग होना चाहती थी किन्तु वक़ील ने इन्हें कुछ महीनों के ब्रेकअप की सलाह दी है ताकि ये दोनों आपसी समझदारी से सोच-समझकर फ़ैसला लें ।”
“तो थे काईं निर्णय लियो?”
“अभी तो मैं पेरिस घूमकर आई हूँ, कुछ सोचा नहीं, वैसे भी मेरे अकेले सोचने से क्या होगा ? फैसला तो रोहित  और मुझे मिलकर लेना है । वह अपने बिज़नस में व्यस्त है । उसे तो शायद याद भी नहीं होगा कि हम किसी नोटिस के तहत ब्रेक पर हैं क्योंकि उसके साथ होने या न होने से उसे खासा फ़र्क पड़ा ही नहीं । हम अमूमन इतने ही अंतराल के बाद मिलते रहे हैं सो हमारी ज़िन्दगी कई छोटे-छोटे ब्रेक्स का जोड़ है ।”
“यो तो घणी परेशानी री बात है । मैं तो कदी इयाँ सोची ही कोणी । म्हारा वे घणा दिवस रे वास्ते परदेश में रहेता पण यों ब्रेक मुओ कदैई म्हारे दिमाग में कोणी आयो ।”  बिमला अजीब असमंजस में थी ।
“आप कितने बरस के हो अभी ?” बिनीथा ने बिमला से पूछा ।
“सत्ततर... थे समझो की नी, सत्तर अर सात ?”
“सेवेंटी-सेवन” दूर्वा ने बिनीथा की और देखे बिना कहा था ।
“म्हारा गोडा काम का नी रह्या । एकली जावा रो कारण ही बड़ो विकट है । म्हारी माँ गुज़र गी वठे गाम में और बेटा ने छुट्टी कोनी मिली । इयुं तो म्हारी एक बड़ेरी भेण है निम्मो, बी के दो बहुआँ है, छोटकी शांति अर बड़ेरी कामिनी । एक छोटकी भेण भी है जानकी, बे तो दूर रेवें जाकी बहुआँ तो शहर री छोरी-छापरी हैं । नोकरी करेड़ी छोरयाँ आजकाल गाँव आनों परसन कोणी करे, पण निम्मो अर उणरी बहुआँ माँ रे पास पहुँचगी । अबार सुबह पेली म्हे पहुँच जाऊंरी, थे म्हारी मदद कर दीजो सामान रे वास्ते ।”
“आप चिंता मत करों ! हम साथ हैं । हम बेल्ट से आपका सामान लेने से लेकर आपको टैक्सी दिलवाने तक आपके साथ रहेंगे ।” बिनीथा की बात से उन्हें थोडा ढाढ़स बंधा था किन्तु उनकी आँखों की नमी फिर भी बनी हुई थी । बिमला ने बिनीथा से पूछा-
“आप री उमर कित्ती वे गी बेटा ?”
“जी ! मैं पैंतीस की हूँ ।”
“ओ म्हारा राम जी, थे तो पंद्रह-सोलह से ज्यादा का नी लाग रया हो, अस्यो काईं करो हो थे ?”
“जी ! मैं कीटो डाईट पर हूँ ।” बिमला इस बार कीटो डाईट नहीं समझी थी और दूर्वा और बिनीथा दोनों ने ही  कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं समझी थी, शायद वे बूझ गयी थीं कि इस विषय में न बताने से बिमला को कोई ख़ास फ़र्क पड़ने वाला भी नहीं है ।
“शादी वेई गई आपरी बेटा ?”
“जी ! सात बरस हुए और बच्चे हमने किये नहीं ।” इस बार बिमला के साथ दूर्वा भी प्रश्नवाचक दृष्टी से बिनीथा की ओर ताक रही थी ।
“एकली आओ-जाओ हो थाणे डर कोणी लागे ?”
“डर कैसा ? मैं ब्लैक बेल्ट हूँ, फ़ास्ट ड्राइविंग कर लेती हूँ और पर्स में सिर्फ़ नाश्ता ही नहीं ये देखिये क्या-क्या है ।” उसने पर्स में से ब्लेड, चाकू, मिर्ची पाउडर, चिली स्प्रे आदि निकालकर बिमला के समक्ष रख दिया ।
“थे घणी समझदार हो, पण बे लोग जो एसिड फेंक अर भाग जावें, बी लोगों के बारे में काईं सोच्यो थे ? और जो बलात्कार री घटना हर रोज़ होवे है बीने या वस्तुआं रोक सके की ?” लाख पते की बात कही थी बिमला ने । एक गहरी चुप्पी में बिनीथा और दूर्वा दोनों मिलकर उसका उत्तर ढूँढते रहे थे किन्तु उनकी चुप्पियाँ सन्नाटें से टकराकर अनुत्तरित ही लौट आई  थीं ।
“उन लोगों की मानसिक विकृति का क्या करें ? बेटियों को संस्कार बहुत सिखा लिए, अब बेटों को संस्कार सिखाने की आवश्यकता है । इस ओर भी हम स्त्रियों को ही सोचना होगा लेकिन प्रोटेक्शन तो ज़रूरी है । जितना हो सके सजग तो रहना ही चाहिए ।
“बाल-बच्चा के बारे में भी सोचजो तो सही ।” बिमला ने अपना दूसरा उत्तर बिनीथा से कुछ यूँ पूछा था मानों पूर्व में पूछे गए उत्तर का अनुत्तरित लौटने का संज्ञान उसे पहले से ही था ।
“दरअसल सास-ससुर दूर रहते हैं मेरा टूरिंग जॉब है पति जिम इंस्ट्रक्टर हैं, उनके बिज़नेस जमाने तक मैं जॉब नहीं छोड़ सकती। वैसे भी मैं ही नौकरी क्यों छोडूँ ? एक लाख रूपए महिना कमाती हूँ ऊपर से ऑन ड्यूटी जो जाती हूँ सो टी.ए. व डी. ए. की अलग इनकम आ ही रही है । बस इसीलिए सास-ससुर को याद नहीं आता है अपने पोता-पोती के बारे में और हम दोनों के पास समय नहीं ।” बिनीथा ने दूर्वा की तरफ कुछ डेटस बढ़ा दिये थे, उनमें से कुछ डेट्स दूर्वा ने बिना औपचारिकता के उठा लिए थे और साथ ही वह समझ गयी थी कि मुशायरे की मानिंद अब शमा उसके समक्ष है यानिकी अब उसे अपने बारे में बताना है ।

 ( चित्र -अमित कल्ला )
“मैं पेरिस में सत्या से मिली । यूँ भी कह सकते हैं कि उसके साथ रही और दुनिया को नए सिरे से जिया मैंने । वह मुझसे तीन बरस छोटा है और मैं अड़तालीस की पर इस बात से शायद हम दोनों को ही कोई फ़र्क नहीं पड़ता । सच कहूँ उस रात जब वाइन के नशे में मैं उसकी बाहों में थी तब मैं दरअसल नशे में थी ही नहीं । सारी रात नशे के बहाने मैंने उसे अपनी ज़िन्दगी से जुड़े सारे राज़ खोल दिए थे । मैं विदआउट गिल्ट कह सकती हूँ, वह ज़िन्दगी की सबसे हसीन रात थी ।”
“तो क्या...? काईं थे...?” बिनीथा और बिमला एक साथ बोल उठी थीं ।
“जी... वही जो आप सोच रही हैं, हुआ था वह सब, उस रात मैंने खुद को महसूसा था और मुझे कोई अफ़सोस नहीं ।”
“इयाँ तो ये कई नई बात कोणी, पेल्का ज़माना में, बहुआँ रे टाबर कोण होता तो सासुआं जानबूझकर बीने ससुर, नंदोई अर देवर-जेठ रे सागे छोड़ अर खेत मिये चली जावती । बहु ने घरां छोड़ जावती मर्दा री रोटी बनाण वास्ते । इयाँ घर री बातां घर में ही रह जावती । जमानों बदल गयो पण औरतां री किस्मत कोणी बदली ।”
“ऐसा नहीं है, बिमला ! मुझे किसी ने कम्पेल नहीं किया था सत्या के साथ सोने के लिए, वह मेरी मर्ज़ी थी जो बिना किसी दया या खैरात की भावना के थी । हम दोनों ने ही कुछ पाया तो कुछ खोया है फिर इसमें नो प्रॉफिट नो गेन का सौदा रहा ।” दूर्वा अपने-आपको अभिव्यक्त करने में ईमानदार थी ।
वे तीनों रात के खाने के तक अपने-आप में खोई रहीं थी । बिनीथा ने बिमला को खाने के डिब्बे खोलने से लेकर कम्बल उढाने तक का सारा काम चुपचाप किया था । दूर्वा खिड़की के बाहर न जाने क्या देख रही थी जबकि वहाँ अँधेरे के सिवा कुछ नहीं था किन्तु कुछ तो था जिसे वह खोज रही थी । एक मर्तबा उसने आँखें बंद की तो रोहित  का चेहरा सामने आया था, उसने आँखें खोल ली थी । जब वह वाक़ई सोना चाहती थी तो सत्या की ऊटपटांग बातें और मासूम हरकतों को याद कर-करके देरतक मुस्कुराती रही थी । व्यस्त तो वह भी रहता है और शायद रोहित  से कुछ अधिक ही फिर भी वह इतने दिनों तक उसे कंपनी देता रहा बिना अहसान जताए, उसने भी तो अपना काम मैनेज किया ही होगा । जब-जब वह दूर्वा से परे जाकर फ़ोन करता था वह जानती थी कि वह ऑफिस में  इंस्ट्रक्सन देता था फिर दूर्वा से सॉरी बोलकर कोई और बात बोलकर उसे हँसा देता था, क्यों था ? क्या था ?  इन्हीं ख़्यालों में समाई दूर्वा गहरी नींद में समा चुकी थी ।
झपकी लेकर उठी तो बिमला और बिनीथा घरेलू बातों से लेकर राजनीति तक डिस्कस कर रही थीं।
“आप किसको वोट देने के क़ाबिल समझती हैं ?” बिनीथा ने बिमला को पूछा था ।
“म्हे लोगां तो व्यवसायी लोग हैं । म्हाने तो आपस में एक-दुज्याँ की मदद और नाम के सहारे कमाणों और खाणों है । सरकार कियाँ ही आ जावे बी ने बणाबो अर बिगाड्वों म्हारी बिरादरी रे जिम्मे आवे है ।” 
“हम्म... बात तो सही कह रही हैं, आप ! मुझे और मेरे होने वाले बच्चों को सरकारी नौकरी की तलाश रहेगी सो हम अलग तरह से सोचेंगे । मेरे पति को भी नौकरी नहीं मिली तो जिम खोलकर जद्दोजहद कर रहें हैं ।” बिनीथा ने गंभीरता से कहा था ।
“और मैं अभी कुछ भी सोचने की स्थिति में ही नहीं हूँ किन्तु मतदान अवश्य करुँगी ।” दूर्वा के वाक्य में उसके जीवन की उथल-पुथल भरी असमंजस ही झलकी थी ।
“जो बी करों, सोच-समझ अर करो, म्हारा तो यही केणो हैं, पेला जमाणा में बी मर्दां री बातां औरतां सुनती, पण करती बे आपणी मर्ज़ी री ही, म्हारा वे सिधार ग्या तो म्हारा सासरा वाला मने घणी कूटी-मारी कि म्हे म्हारा पति री जायदाद अर दूकान बे लोगों ने दे दूं पण म्हे बी गाढ़ी होगी । अंगूठों लगायों ही कोणी । धमकी दे दी कि पुलिस में चली जाऊंरी, जद जार बे लोगां म्हाने एकली छोड़ी । पछे म्हे म्हारा बच्चा पाला बड़ी मेहनत की 
”  बिमला सुबकने लगी थी पर उसकी आँखों का चौकन्नापन बिनीथा और दूर्वा की आँखों में भी समा गया था ।
“मैंने भी बच्चे डिले करने का फ़ैसला डटकर लिया था । इनका जिम जमे न जमे मैं नौकरी और बच्चे अकेली नहीं संभाल सकती, हुआ तो एक बच्चा या बच्ची कर लेंगे ।”
“देर हो जाए तो आई वी एफ जिंदाबाद !” दूर्वा की बात पे ताली मारती हुई तीनों स्त्रियाँ जोर से ठहाका मारकर हँस पड़ी थी । इस बार एक चौकन्नापन उन के साथ-साथ सारे वातावरण में बिखर गया था।
“श्श्शश... सब सो रहे हैं ।” बिनीथा ने कहा था ।
“मगर हम तो जागे हुए हैं ।” दूर्वा ने हँसते-हँसते बिमला के घुटने पर हाथ रखा था । 
“ओह सॉरी... आपको दर्द रहता है न?”
“दर्द रेवे बी है और कदे-कदे बुढापा में थोड़ो गणी काईं केवे बीने ‘सीक’ भी करूँ हूँ ।”
“सीक ?”
“डज़ शी मीन बाय अटेंशन सीकिंग ? रियली... आप ऐसा करते हो ?”
“हाँ म्हारी बहु केवे दिन में सौ दफ़ा म्हारा बेटा सूं, योर मम्मा इज़ पर्फेक्ट्ली ऑलराईट, शी ओनली सीक अटेंशन ।” बिमला के कहते ही दूर्वा और बिनीथा मुँह खोले उसकी तरफ ताकते रह गए थे ।
“आपको तो अंग्रेज़ी आती नहीं ?”
“यूँ तो घणी समझूँ हूँ, म्हारे मतलब री बातां म्हाने सगळी समझ आवे ।” इस बार फिर वे तीनों जोर से ठहाका मारकर हँस पड़ी थीं ।
“गज़ब... आप तो मतलब !” बिनीथा ने हाथ को उनकी पीठ पर थपथपाते हुए कहा था ।
“अब नी करूँ तो म्हाने बुढापा में कोण पूछे । ईण बैग माय म्हारों बेटो घणी वस्तुओं मेल दियो । खावा-पीवा  की म्हारी दवावां अर ठंडा पाणी री बोतलां । सब म्हारी बी सीकिंग रो ही नतीजों हे नी ।” 
“तो अब आपने क्या सोचा है दूर्वा ? रोहित वर्सेज सत्या के बीच कौन जीता ?” बिनीथा ने टू द पॉइंट बात की थी ।
“मुझे पता नहीं ? अभी मैं खुद को भी एक ब्रेक दूँगी । शायद अपनी छूटी नौकरी के दम पर नया सी.वी. डिजायन करूँ ।”
“चलों अभी करते हैं ।” बिनीथा ने अपना लैपटॉप खोलते हुए कहा था ।
“अगले कई घंटे वे दोनों सी. वी. की जुगत में लगे रहे थे और बिमला उनके हाव-भाव से गठजोड़ बिठाती हुई कभी हाँ तो कभी ना में सिर हिलाती जा रही थी । आज़ादी के पश्चात की तीन पीढ़ियों की उन तीन औरतों के बीच सुख-दुःख की अजब-गज़ब साझेदारी पनप रही थी । समय, काल व परिस्थितियों के अनुरूप अपने-आपको ढालकर वे तीनों अपनी मर्ज़ी का जीवन जीना सीख गयी थीं । कहीं अंधश्रद्धा के नाम पर तो कहीं जादू-टोने की आड़ में उन्होंने अपनी सुविधा के लिए इंतज़ाम जुटा लिए थे । 

स्त्री विमर्श का नारा बुलंदी पर है तो स्त्रियों ने पुराने तरीके त्यागकर अपनी आवाज़ ऊँची कर ली और अधिक स्पष्ट भी । उनकी रीढ़ की हड्डी में एक नए प्रकार की आन-बान-शान का रुतबा पुख्ता हुआ है । रक्त-मज्जा में अपने आस्तित्व की तलाश के लिए जागरुकता भरा कैमिकल प्रवाहित होने लगा है ।
दिल्ली एयरपोर्ट पर लैंड करने से पूर्व उन तीनों ने एक दूसरे के नंबर एक्सचेंज किये थे । 
“बिनीथा तुम कभी आओ अपने जिम ट्रेनर के साथ हमारे घर ।”
“उसका पता नहीं मैं अपनी ओर से वादा कर सकती हूँ । अब तक की ज़िन्दगी में जो पाठ सीखा वह यही है कि बी रेस्पोंसिबल फॉर योरसेल्फ ओनली, यूँ कांट टेक अदर्स स्टैंड ऑन देअर बिहाफ़ । कहीं न कहीं हम सब बेहद एकाकी हैं । दूर्वा सिर्फ़ आप ही ब्रेक पर नहीं हैं बल्कि कभी न कभी हम सब ब्रेक पर होते हैं । यूँ भी कहा जा सकता है कि ज़िन्दगी कई घोषित या अघोषित ब्रेक्स से मिलकर ही बनी है ।”
“सच है किन्तु मैंने कोई जल्दबाज़ी नहीं की । सत्रह बरस बहुत होते हैं एक निर्णय के बारे में सोचने के लिए ।”
“मन की करजो, तन की नहीं, तन ने तो ज्यूँ आपां ढाल लेवां यों वेस्यो ही हो जावे, पर मन री प्यास मृगमरीचिका री जियां होवे, भटक-भटक अर निढाल हो जावे मिनख, पण यो प्यास कदैई तो तृप्त होवे, कदैई उम्र भर भटकावा करे ।”
“बिमला तुम भी आना कभी मिलने या मैं और बिनीथा प्लान आउट कर लेंगे तुमसे मिलने के लिए।”
“घर ही क्यों हम सब किसी वेकेशन को प्लान आउट कर सकते हैं, व्हाई शुड ब्वायज़ हैव आल द फन ?”
“इस उमर में म्हने थे कठे ले जाय्सों ? बोझ बन अर घूमणों भी काईं घूमणों ?”
“अरे... ऐज इज़ जस्ट ए नंबर, बिमला ! हम आपके लिए एक बॉडी गार्ड ले चलेंगे ।” 
“बीने जीगेलो केवें, म्हने काईं जरुरत बीकी ।”
“हाय... कैसे पता ?” बिनिथा और दूर्वा को फिर चकित किया था बिमला के ज्ञान ने ।
“म्हे पढयोड़ी कोणी पण अक्षर ज्ञान तो है म्हने, अख़बार बाँचू अर कान खुल्ला राखूँ हूँ ।” 
गज़ब तरीका है सर्वाइवल का ये तो ! शिक्षा के लिए अक्षर ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती अनुभव ज़िन्दगी जीना सिखा देते हैं ये बात दूर्वा और बिनीथा के लिए अजीब भी नहीं थी किन्तु बिमला ने इसे आज़माया था ।
एयरपोर्ट पर उनके जैसी कई चौकन्नी स्त्रियाँ एक साथ नजर आ रही थीं । कुछ बदलाव तो आया है उनकी बिरादरी में पर अभी कुछ प्रयास और करने होंगे । बहनापे में लिपटी वे तीनों अपने-अपने सामान के साथ अपने निर्धारित गंतव्य स्थान की ओर चल दी थीं । 
बिमला को लेने उसकी बहन का बेटा आया था तो बिनीथा को उसकी कंपनी की गाड़ी । दूर्वा कैब बुक करवाने के लिए मोबाइल निकाल ही रही थी कि एक साथ दो मैसेज फ्लैश हुए थे । आदतन उँगलियाँ पहले रोहित के मैसेज पर गयी थीं । “बाहर खड़ा हूँ तुम्हारे इंतज़ार में !” दूसरा मैसेज सत्या का था “पहुँचते ही फ़ोन करना !” दूर्वा ने दोनों ही मैसेज डिलीट कर दिए थे और कैब बुक करवाने के लिए एप खोलने लगी थी । वह कुछ दिनों सबसे दूर अपने बूते पर जीवन जीने की कोशिश करना चाहती थी ।
***
रजनी मोरवाल 
संपर्क - 23/97, स्वर्ण पथ,
मानसरोवर
जयपुर-302020
मोबा. 9824160612 



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दिलीप सीमियन श्रम-इतिहास पर काम करते रहे हैं। इनकी पुस्तक ‘दि पॉलिटिक्स ऑफ लेबर अंडर लेट कॉलोनियलिज्म’ महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है और सूरत के सेन्टर फोर सोशल स्टडीज एवं नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में फैलो रहे हैं। दिलीप सीमियन ने अपने कई लेखों में हिंसा की मानसिकता को विश्लेषित करते हुए शांति का पक्ष-पोषण किया है। वे अमन ट्रस्ट के संस्थापकों में हैं। हाल इनकी पुस्तक ‘रिवोल्यूशन हाइवे’ प्रकाशित हुई है। भारत में समकालीन इतिहास लेखन में एक धारा ऐसी है जिसकी प्रेरणाएं 1970 के माओवादी मार्क्सवादी आन्दोलन और इतिहास लेखन में भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों की आलोचना पर आधारित हैं। 1983 में सबाल्टर्न अध्ययन का पहला संकलन आने के बाद से अब तब इसके संकलित आलेखों के दस खण्ड आ चुके हैं जिनमें इस धारा का महत्वपूर्ण काम शामिल है। छठे खंड से इसमें संपादकीय भी आने लगा। इस समूह के इतिहासकारों की जो पाठ्यवस्तु इन संकलनों में शामिल है उन्हें ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि के उदाहरणों के रुप में देखा जा सकता है। इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के

कथौड़ी समुदाय- सुचेता सिंह

शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी