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बिम्ब-प्रतिबिम्ब

डायरी

बिम्ब-प्रतिबिम्ब 
कुछ नोट्स कवि चित्रकार अमित कल्ला की डायरी से...

      1.                                             

दरअसल मेरे लिए पेंटिंग एक पूरी कही गयी कविता है और कविता यकीनन पेंटिंग का ही पर्याय है, दोनों ही माध्यम जहाँ एक जैसी भाषा में संवाद रचते हैं हमेशा से वहाँ ज्यादा कुछ कहना व्यर्थ होता है, कमतर में ही सार भरा अपने आप संप्रेषित होता जाता है, बशर्त जिसके लिए हमारी अपनी तैयारी हो, जिसका सीधा ताल्लुख संजीदगी से देखे और सुने जाने से हो यक़ीनन जिसके आस्वादन के तरबतर कर देने वाले अनुभव से हम बेवज़ह दूर होते जा रहे हैं, चारोंतरफ एक अजीब किस्म की दौड़ मची है, जहाँ सब कुछ जल्दबाजी भरा है आज सभी तरह के अंतराल स्थगित हैं, जिन्हें हमें नए सिरे से रचना होगा, कबीर सा गहरे पानी पैठना होगा |
      2.                                                  
चित्रों में उकेरे गए फॉर्म्स में प्रतिरुपकता से भी सामना होता है जो यकायक न होकर मंद-मंद मन के भीतर उतरता है जो उन दोंनों के बीच होने वाले संवाद की गतिशील कथात्मकता की कतरनें संवारती है | पेंटिंग्स में अधिकांशत: कॉन्ट्रास्ट, हार्मोनी और आइकोनिक व्याख्याचित्रण नहीं दीखता वहां तो अवचेतन प्रभावों की प्रतिकृतियाँ सामने होती है जो निगाह के हटने के बाद भी मष्तिष्क में अपना गहरा प्रभाव छोडती है, एक  गहरा इम्प्रेशन बनता है, मन के अतलतल में चट्टान जैसी किसी स्मृति का रूप धर लेती है जहाँ भरपूर असंगतता का विस्तार उस देखने वाले से अपना परिचय करता है, किसी मायने में उनके चित्र समय के साथ उनके अपने भीतर के फिज़िकल और मेंटल स्पेस में घटते घनवाद को भी दर्शाते हैं जहाँ वास्तविक सृष्टि की ज्योमितीय आकारों द्वारा पुनर्रचना का काम चलता है, जहाँ आत्मिक अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकात्मक प्रयोगों का सहारा लिया गया है, जो अपने आपमें निसर्ग की स्वभाविक पूर्णता को बड़ी कैफियत के साथ व्यक्त करते प्रतिबिम्बित होते हैं |

3.                                      

कला कभी भी एकांतिक नहीं हो सकती चाहे वह किसी भी स्वरूप में क्यों न हो, उसकी अपनी सामाजिकी जरूर होती है, अपने परिवेश से जुड़ते संस्कार और सरोकार अवश्य होते हैं जो कि कलाकार के माध्यम से अनेक रूपाकारों में अभिव्यक्त होते हैं, रचना की प्रायोगिक भिन्नता और व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का उसका एक दूसरे से अलग होना इस पूरे क्रम में सौंदर्य का पर्याय है, जिसके मर्म की संवेदनशीलता को जल्द से जल्द समझना और उस भिन्नता का सम्मान करना एक संवेदनशील समाज के लिए भी बेहद जरुरी है। 
कलाकार का अंतःकरण सदैव आंदोलित रहता है चेतन-अचेतन रूप से जिसकी सुनिश्चित अभिव्यक्ति उसके काम में साफ़ नज़र आती है, जिसका आधार उसके इर्दगिर्द रचा बुना जीवन ही है, ये बेशकीमती जिन्दगी और उससे जुड़े फ़लसफ़े हैं, बेशक उसके रूपांतरण में सृजनकर्ता का अपना कोई तरीका हो, जिसका सरोकार कलाकार की अपनी निजता और स्वतंत्रता से हो ।
4.                                       
दरअसल आधुनिक कला का अस्तित्व  प्रयोगों पर ज्यादा आधारित है |  जहाँ समय के साथ हुए उसके निरंतर सामाजिक और राजनैतिक अनुसन्धान ने विश्वस्तर पर न केवल संवाद की नयी परिभाषाए रची है बल्कि पूरी मनुष्यता के लिए नैसर्गिक रचनात्मक अभीप्सा को नए आयाम भी दिए हैं, अपने आप में जो एक बड़ा क्रांतिकारी कदम है | सभी कलाओं में जिसे समान रूप से देखा और जाना जा सकता है शुरुआत से ही कोई भी विधा इससे अछूती नहीं रही है, जिस तरह सभी कलाओं में आपसी परोक्ष अंतरसंबंध होते हैं जो हमेशा से उनकी यात्रा के निर्णायक सवालों और उसकी दिशाओं को तय करते हैं |


हमारा कलाकर्म आज निज अनुभूति को साझा करने में सक्षम  हुआ है | इस बात को बेहद संवेदनशीलता के साथ महसूस किया जा रहा है कि आधुनिकता हर एक समय और समाज की आवश्यकता और एक सहज प्रक्रिया का नाम है, जो एक-एक व्यक्ति के भीतर अपना रूप और आकार गढ़ती है कमोबेश वहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, कलाकार अंध प्रभावों के दायरों से बाहर निकलकर असल प्रेरणाओं को प्रोतसहित करे, अपने चारों तरफ घटित हो रहे परिवर्तनों के प्रति उचित समझ वाले दृष्टिकोण को गढ़े |
5.                                           
पता नहीं लेकिन ऐसा लगता कई कि आज कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि अभी तो जानने, समझने, देखने अनुभव करने वाली प्रक्रिया की शुरुआत भर हुयी है | कितना सारा बिखरा है चारों तरफ, कुछ भी ऐसा नहीं जहाँ से नया न मिल रहा हो, चाहे वह अनचाहा हो या फिर मनचाहा, लगातार पेंटिंग करते हुए एक धुंधलका रास्ता ज़रूर दीखता है, जिस पर हर तरह का रंग बिखरा है और मैं उन सब रंगों को छू लेना चाहता हूँ | अमूर्त (abstract) आकाश के नीचे कितने ही फूलों को खिलते देखता हूँ, उनकी सुगंध लेता हूँ लिहाज़ा अभी तो रचना प्रक्रिया को महसूस करने लगा हूँ, उसका हिस्सा बनने लगा हूँ |

मेरी हर पेंटिंग किसी यूनिफार्म आइडिये पर बनी हो ऐसा नहीं है, हाँ एक सिरीज़ का हिस्सा ज़रूर होती है मेरे लिए पेंटिंग को बनाने का प्रोसेस यानी उसकी प्रक्रिया किसी सब्जेक्ट से ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसे करने में मुझे आनंद मिलता है, अपने उस्ताद चित्रकार प्रभाकर कोलते से यह सबसे बड़ा सबब सिखने को मिला है लिहाज़ा हर चित्र की अपनी धारा, अपना स्वभाव, उसका अपना अनुशासन और विचार तो होता ही है, लेकिन उस प्रोसेस का संगी होना बड़ी बात है उसमें से गुजरने के मायने ही अलग हैं जहाँ मेरा अपना निज है और वही शायद निसर्ग की लय से असल संगत भी है |

6.                                                  

ईज़ल पर टिका कैनवास तो सिर्फ प्रतिबिम्ब है हम चितेरों की आँखों और हमारे मन में बसे हुए उस संसार का --- सामने दिखने वाली सुर्ख़ सफ़ेदी के पीछे हज़ारों हज़ार रंगों की परतें, ब्रश के स्ट्रोक्स, उनका खुरदरापन हमेशा ही मौज़ूद होता है, वहाँ रेखाओं की तिलस्मी अंगड़ाइयों के साथ साथ कोयले से उकेरी गयी आकृतियों की गहरी छाप साफ़ नज़र आती है। बून्द-बून्द बिंदु से बनती रेखा मन कि सतहों पर दस्तक देती है और अपना असल वज़ूद पाने को आतुर होती हैं। यह बंद आँखों से देखा कोई सपना नहीं हकीकत है -  कैनवास पर उतरने वाली रेखाओं की जुगलबंदी की गैर इरादतन कि गयी जमाबंदी है।

स्वभाव से दोनों धाराओं की अपनी अपनी गति और अपना-अपना रास्ता है, उनका एक दूसरे के आकाश को छूकर उसकी दहलीजों को पार करना किसी चुनौती से कम नहीं होता, यक़ीनन ऐसा करने से पहले कितनी ही बार उस सम के सिद्धांत के बारे में सोचा समझा गया, निरंतर सात आठ बरसों तक मन और ह्रदय के फलक पर जिसे कोरने का अभ्यास किया कितने ही मोड़ों पर अनुस्वारों से भी हलके कदम रखे गए होंगे और कई स्तरों पर यात्राओं की देह से गुज़रकर उस सगुण निर्गुण के वास्तविक अर्थ को अनुभव किया गया होगा । इस बात में कोई संशय नहीं की यह किसी प्रयोग का हिस्सा भर है, कलाओं में प्रयोग की अपनी प्रासंगिकता और प्रयोजन होता है, जिसके बिना उसका मूल स्वरुप अधूरा है, वस्तुतः  उसके बिना वह अपूर्ण है वही उसका अभिन्न सौंदर्य है जिसके हम साक्षी हैं |

7.                                           


एक सवाल बार- बार सामने आकर खड़ा होता है वह यह कि कलाकार होने के असल मायने क्या हैं, बुनियादी तौर पर उसका इस दुनिया में होना क्या और क्यों हैं । उदाहरण के लिए चित्रकला के सन्दर्भ में अगर हम बात करें तो किसी स्तर पर कोई भी कह सकता है की वह चित्रकार है और पेंटिंग करना उसका काम है, उसके बनाये गए चित्र के द्वारा बड़ी आसानी से उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया जा सकता है, क्या इन्ही तमाम बातों में एक कलाकार का होना छिपा है या फिर कुछ अन्य सतहें भी है, जिन्हें जाँचना परखना बेहद आवश्यक है,  मुझे लगता है कि कलाकार होना अपने आपमें बड़ी जिम्मेदारी भरा सबब है, स्वयं एक कलाकार के लिए भी जिसे अपने होने को आधा-अधूरा जानना एक ग़फ़लत है, इस क्रम में प्रसिद्ध जर्मन मनोविज्ञानी गेस्टॉल्ट और उनके बताये प्रत्यक्षीकरण का सूत्र याद आता हैं जहाँ वे "form अथवा personality as whole" का ब्यौरा देते हैं। दुनिया कि यह रीत है कि वह आपको टुकड़ों टुकड़ों में देखना सिखलाती है, लेकिन कला समग्रता की पैरवी करती है |

सही अर्थों में एक सच्चे कलाकार का समूचा जीवन ही कलामय होता है जहाँ कला में जीवन या फिर जीवन में कला इस जुमले में फर्क कर पाना बहुत मुश्किलों भरा सबब है । निश्चित तौर पर किसी भी साधारण इंसान का कला को चुनना ही अपने आप में असाधारण-सा कृत्य है, चाहे उसका ताल्लुख किसी भी विधा अथवा फॉर्म से हो, यह चुनाव ही दर-असल अपने आपमें बड़ी चुनौती है, एक देखी अनदेखी तीखी तड़प को अपने साथ सीचती हुयी चुनौती जहाँ प्रतिपल कुछ नया सृजन करने की आकांशा है, स्थापित लकीरों को मिटाने की चाहत के साथ अंतर्मन की उथलपुथल है, जिसकी समाज में स्थापित मूल्यों से निरंतर टकराहट है, कुछ नया रचने की उत्साह भरी जुम्बिश है, रचना प्रक्रिया के मार्फ़त देश और काल सरीखे पैमानों के पार जाने की ताकत है

8.                                               

मेरे काम के साथ, मेरा  मन, शांति की भावना को एक संतुलन में लाता है जो की एक ध्यान सरीखा अनुभव है, हर चित्र बनने और उसे लिखे जाने के लिए एक नई कहानी इंतज़ार कर रही होती है, चित्र हमेशा अपने स्वभाव की शांति और मानवता के  उत्साह के साथ अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के अनुभवों, यात्राओं, अपने भव और लगातार बदलती इस दुनिया के साथ होते अपने अनुभवों द्वारा प्रेरित है,  चित्रों में मैं अपने चित्त को उकेरने की कोशिश करता हूँ, हर बार अपने आप से और ज्यादा गहरे संवाद के सरोकार बने ऐसा ही संकल्प रहता है, लेकिन इस पूरी की पूरी प्रक्रिया में सामानांतर बहुत कुछ जुड़ता और घटता भी है जो किसी सपने से कम नहीं जान पड़ता ऐसा सपना, जिसको देखने वाला आप ही दृश्य होता हैं और आप दृष्टा भी, अमूमन जागते ही स्वप्न उड़न छू हो जाता है, उसकी कुछ धुंधली स्मृति परछाइयों के रूप में अपने असल वजूद को मुमकिन रखने की कोशिश जरूर करती है।

9.                                             
धीरे-धीरे निश्चित ही विश्वास गहरा होता जाता है— जैसे-जैसे अन्तर्लय संग संगत जमती है वैसे-वैसे इन रंग, रेखाओं, बिम्ब, प्रतिबिंबों, आकर और अभिव्यक्ति पर विश्वास चट्टान सा स्थिर हो जाता है। हम अपने आप को अपने ही भार से मुक्त कर पाएं शायद यही सही मायने में कला का वास्तविक प्रयोजन हैं, यह तो निवृति का मार्ग है, जहाँ पकड़ने से छोड़ना ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, सीखने से सीखे को भुलाना, हिम्मत शाह बार-बार यही दोहराते है | दरअसल जहाँ सृजन के सरोकार और स्पेस से संगती उस समूचे भाव को सही-सही अर्थ प्रदान करती है, जिन्हें विस्तार के साथ जानना और समझना बेहद जरुरी क्रम का हिस्सा लगता है, जिसका संधान विशुद्ध एकाकी अनुभवों पर आधारित है, जिनमें ढेर सारी कथात्मकता यानी नेरेटिव भी होता है और उससे जुड़े अपने संस्कार भी हैं, जिसके प्रमाणिक प्रतिबिम्ब कलाकार की रचना यात्रा से सिलसिलेवार गहरा ताल्लुख रखते हैं | परत दर परत जिन्हें अनावार्तित किया जाना अपने आप में उस सूक्ष्म-विराट अनुभव से गुजरने सरीका अहसास है | 

10.                                         

अभिव्यक्ति इस निसर्ग का अन्तरंग स्वभाव है और हम बदस्तूर उसके एक अटूट अंग | कला उस चिर मौन को संजीदगी से कहकर संभावनाओं के दरियाव - सी लहर दर लहर अविरल बहते रहने का ही नाम है, जहाँ अनुभव ही उसका मुकम्मल मंसब मालूम पड़ता है, जिसे यथासंभव पा लेना उस अनामी इबादत का एक अभिन्न हिस्सा है |
अनुभव से भरे आभासी धुंधलके के बिना कोई भी कला, कला नहीं हो सकती, उसमें छिपा रहस्य ही उसका मूल सौन्दर्य तत्व होता है, जो एक नए अंदाज़े बयां में कलाकार के मार्फ़त उसे इस दुनिया के सामने लाता है, जहाँ बहुत सारा अनदेखा, अनसुना, अनछुआ है जिसे किसी सहृदयी का इंतज़ार है | लिहाज़ा हमारे मन की सक्रीय भागीदारी ही किसी कृति के कला होने का संज्ञान करवाती है, ये दोनों ही ओर से परस्पर होने वाली खूबसूरत प्रक्रिया का नाम है जिसके बहाव से गुज़रकर वह सर्जना अपने होने के असल रूपाकारों को पाकर गहरे शब्दार्थों में समां जाती है, कोई कलाकार उस भागीदारी को कितना बना पाता है असल बात उसमें है |

11.                                         
यह कहना भर काफी नहीं कि एक बिंदु से दुसरे के बीच का ठहराव ही किसी रेखा का होना है, यक़ीनन यह कहना भर भी काफी नहीं कि प्रकाश का उत्सर्जन या उसके विसर्जन में रंगों की परिणिति पूर्ण निर्धारित है | यहाँ रंग का भाषा और भाषा के रंग हो जाने के मतले बड़े गहरे हैं लिहाज़ा बिंदु, रेखा और आकृति - फॉर्म और स्पेस की अपनी नीति और रीति है, निर्धारित रूप में जो कलाकार द्वारा चुने जाने की अपनी अन्तरंग वास्तविक लय है निश्चित रूप से जो सीखे गये को किसी हद तक भुलाने का सही रास्ता है | जी हाँ ! जहाँ हर एक रंग को चुनना और फिर उसे नज़ाकत से बुनने के भीतर उस चादर को पाने की चाहना होती है जिसे कबीर साहब ज्यों-की-त्यों धर देने की बात करते हैं, जो इस संसार में जिन्दगी को जीने की सबसे बड़ी कला है, उस वास्तविक आकाश रस को अपनी इन आँखों से हृदय तक चख लेना ही यहाँ कुछ ठोस भावार्थ को पाना है, वास्तव में जो अपने स्वभाव से असीम और अनंत है सूक्ष्म से विराट हो जाने की अविरल प्रतीति है | सिर्फ और सिर्फ जो दिखता ही अकस्मात् है, सारा का सारा खेल तो निर्धारित है खिलाडियों के बदल जाने के बावजूद, कभी इधर-से तो कभी उधर-से हार और जीत नहीं | 
 
12.                                                

कहते हैं जो सहता है वही रहता है, कलाकार के  जीवन में इस सहने के कई अर्थ होते हैं, जिससे गुज़र कर उसके विचार और उसकी कृति असल पकाव को पाते हैं, ये सहने का दौर काफी तकलीफों के साथ-साथ बड़ा रोचक भी होता है, बारम्बार जहाँ खुद को गढ़ना और बिखेरना एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा हो जाता है और क्रमशः उसकी जिन्दगी का भी अंतरंग हिस्सा । आज पूरी दुनिया को यह दिखने लगा है कि विज्ञानं अपने अंतिम पड़ावों पर है, मानवीय सभ्यता उसकी संगति की सीमाओं को छू कर अपने मूल नैसर्गिक स्वरूप में लौटना चाहती है, जिसे अपने दामन में ठहराव लिए कलाओं के सहारे की ज़रूरत है,सच्चे  लेखक, कवि, कलाकारों की ज़रूरत है जो जीवन में फैले बेरुख़ी के बारूद को बे-असर करके कल्पना और यथार्थ के बीच साँस लेने की गुंजाईश पैदा करे उन अंतरालों को गढ़े जहाँ इस दौड़ती भागती दुनिया में कोई भी कुछ देर ठहर सके, अपने भीतर उठते उन स्वरों को सुन सके, अपने मन की कह सके |

13.                                             


वैसे पेंटिंग को देखने का दुनिया में कोई एक सूत्र, फोर्मोला या उसकी शब्दावरी नहीं है, अमूमन उसका आस्वादन तो व्यक्तिक अनुभव और विभिन्न भावों की निष्पत्ति के आधार पर किया जाता है, उसे कैसे देखा समझा जाए इस मुद्दे पर समकालीन कला के परिदृश्य में काफी बहस भी होती है, अलग-अलग जानकारों ने अपनी-अपनी समझ से उसे अभिव्यक्त किया है जो प्रचुर संभावनाओं के सौन्दर्य से भरा विमर्श है | वहीँ उसका एक टेक्नीकल परिपेक्ष भी है जिसे ज़रा भी नज़रंदाज़ नहीं लिया जा सकता जिसका अपना समूचा सौंदर्यशास्त्र है जो उसके मायनों को तय करता है जिसके आधार वैज्ञानिक मान्यताओं से ओतप्रोत हैं जहाँ कोई बिंदु आपकी नज़र को थमता है ठहरता है और रेखा किसी दिशा मेंन बहाती है और समूचा दृश्य किसी अनुभव में तब्दील होता है |
      
 14.                                          


मुझे लगता है कि किसी भी पेंटिंग को देखने के लिए निश्चित तौर पर मन को एक लम्बी तैयारी की ज़रूरत तो होती है अभ्यास के जहाँ उसके अपने अर्थ हैं, जो लाज़मी-सी बात भी है, जहाँ कलाओं के अन्य आयामों का जीवन में उपस्थित होना भी किसी उजाले जैसा है जिसके साक्षी हुए बगैर उसके मर्म को हुबहू पा लेना बहुत कठिन मालूम पड़ता है, क्योंकि कलाओं के विभिन्न रूपक बड़ी ही सघनता से एक दूसरे से जुड़े होते है, उनके बीच परोक्ष-अपरोक्ष नैसर्गिक अंतर्संबंध व्याप्त है | वहीँ उनके मूल में उपस्थित चिर संगीत से निपजी सनातन लय तत्व का स्वभाव भी एक सरीखा है, कलाओं का अपना रहस्यवाद और उनकी अपनी सामाजिकी भी होती है, लिहाज़ा समस्त पूर्वाग्रहों से उभरकर ही जिसका विश्लेषण किया जाना किसी चित्र को समझने के लिए आवश्यक शर्त है | वास्तव में इस पूरे क्रम को एकीकृत रूप में समझा जाना चाहिए, इस नज़र से देखने पर मुझे राइनेर मारिया रिल्के द्वारा युवा कवि को लिखे पत्र और विन्सेंट वेन गो और उनके भाई थियो के बीच हुए उत्कट संवाद भी याद आते हैं जहाँ भीतर के एकांत को शांत और स्थिर होकर विस्तार में तब्दील करने की आधारभूत प्रेरणा छिपी है, जहाँ हडबडी-भरे मन को एकाग्र करने का अद्भुत आग्रह है और भौतिक समय से निजात पाकर किसी समदर्शी भाव के उस साथ सह-अस्तित्व को यथासंभव तलाशने की जुम्बिश है |
           
15.                                            

सही अर्थों में चित्र को देखना सीखने के इस कर्म में--- कई-कई स्तरों पर बहुत सूक्ष्म रूप में बेहद धीमी गति से अपने ही भीतर उतरना होता है, वहाँ हर सांस का अपना एक मूल्य है जो उसके संग संगती में मदद करती है, भावजगत की उस अकल्पनीय अनुभूति को रचती है, जिसका किसी विषय को जानने भर से बड़ा सरोकार है, सिलसिलेवार जहाँ सचेतन अनुभव, प्रयोग और परोक्ष रूप से उनमें व्याप्त असंख्य संभावनाओं को तलाशा जा सके, मनोविज्ञान से सम्बंधित कोग्निशन जहाँ एक अहम् भूमिका निभाता है, जहाँ पांचों इन्द्रियां अपना-अपना नियोजित कर्म करती है और जिसके वाबस्ता सिलसिलेवार कोई इमेज अपनी लय के साथ चित्त में आत्मवत्ता बरतती है लिहाज़ा चित्र एक दृश्यमान चित्त ही तो है जो किसी दृष्टा को सम्बोधि के सोपानों तक लेकर जाता है... |

  अमित कल्ला                      


स्वभाव से यायावर कवि चित्रकार अमित कल्ला ने भारत के अलावा साउथ कोरिया , सिंगापुर ,टर्की , ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इटली व दुबई में भी अपने पेंटिंग्स की प्रदर्शनी की है । हाल ही में आए 'शब्द कहे से अधिक' समेत ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित अमित के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । विभिन्न पुरस्कारों सहित अमित को संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार की चित्रकला विषय में जूनियर फैलोशिप भी मिली है ।
सम्प्रति - स्वतंत्र चित्रकार
संपर्क - मोबाइल-9413692123
ई-मेल - amitkallaartist@gmail.com


 

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शोध कथौडी एक ऐसी जनजाति है जो अन्य जनजातियों से तुलनात्मक रूप से पिछड़ी और उपेक्षित है। यह अल्पसंख्यक जनजाति महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ अंचलों में छितरायी हुई है। दक्षिण राजस्थान में इनके हालात प्रस्तुत कर रही हैं अध्येता सुचेता सिंह। दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र में कथौड़ी जनजाति है जो वहां रहने वाली जनजातियों में सबसे कम संख्या में है। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार इस जनजाति समुदाय की वृद्धि दर दशक वार घट रही है। 'ये लोग कैथ के पेड़ से कत्था निकालने का काम करते थे जो पान में लगाया जाता है इसलिए इनका नाम कथौड़ी पड़ा।' वैसे ये लोग कत्था बनाने के साथ-साथ बहुत से वन सम्बन्धी कार्य करते हैं, जैसे-बांस कटाई एवं दुलाई, वृक्ष कटाई, वन उपज संग्रहण, वन्य जीव आखेट, हाथ औजार निर्माण तथा वन औषध उपचार आदि। राजस्थान में इन लोगों का इतिहास कोई अधिक पुराना नहीं है। इन्हे महाराष्ट्र से इस क्षेत्र में कत्था उत्पादन और वन कटाई के लिए लाया गया। ऐसा अनुमान है कि जंगल के ठेकेदार इन्हे कोंकण महाराष्ट्र से यहां लेकर आये। ऐसा लगता है कि पूर्व में भी ये घुमक्कड़ जीवन जीते थे। इनकी बसाहटें म

दस कहानियाँ-१ : अज्ञेय

दस कहानियाँ १ : अज्ञेय- हीली- बोन् की बत्तखें                                                     राजाराम भादू                      1. अज्ञेय जी ने साहित्य की कई विधाओं में विपुल लेखन किया है। ऐसा भी सुनने में आया कि वे एक से अधिक बार साहित्य के नोवेल के लिए भी नामांकित हुए। वे हिन्दी साहित्य में दशकों तक चर्चा में रहे हालांकि उन्हें लेकर होने वाली ज्यादातर चर्चाएँ गैर- रचनात्मक होती थीं। उनकी मुख्य छवि एक कवि की रही है। उसके बाद उपन्यास और उनके विचार, लेकिन उनकी कहानियाँ पता नहीं कब नेपथ्य में चली गयीं। वर्षों पहले उनकी संपूर्ण कहानियाँ दो खंडों में आयीं थीं। अब तो ये उनकी रचनावली का हिस्सा होंगी। कहना यह है कि इतनी कहानियाँ लिखने के बावजूद उनके कथाकार पक्ष पर बहुत गंभीर विमर्श नहीं मिलता । अज्ञेय की कहानियों में भी ज्यादा बात रोज पर ही होती है जिसे पहले ग्रेंग्रीन के शीर्षक से भी जाना गया है। इसके अलावा कोठरी की बात, पठार का धीरज या फिर पुलिस की सीटी को याद कर लिया जाता है। जबकि मैं ने उनकी कहानी- हीली बोन् की बत्तखें- की बात करते किसी को नहीं सुना। मुझे यह हिन्दी की ऐसी महत्वपूर्ण

भूलन कांदा : न्याय की स्थगित तत्व- मीमांसा

वंचना के विमर्शों में कई आयाम होते हैं, जैसे- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इत्यादि। इनमें हर ज्ञान- अनुशासन अपने पक्ष को समृद्ध करता रहता है। साहित्य और कलाओं का संबंध विमर्श के सांस्कृतिक पक्ष से है जिसमें सूक्ष्म स्तर के नैतिक और संवेदनशील प्रश्न उठाये जाते हैं। इसके मायने हैं कि वंचना से संबंद्ध कृति पर बात की जाये तो उसे विमर्श के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोडकर देखने की जरूरत है। भूलन कांदा  को एक लंबी कहानी के रूप में एक अर्सा पहले बया के किसी अंक में पढा था। बाद में यह उपन्यास की शक्ल में अंतिका प्रकाशन से सामने आया। लंबी कहानी  की भी काफी सराहना हुई थी। इसे कुछ विस्तार देकर लिखे उपन्यास पर भी एक- दो सकारात्मक समीक्षाएं मेरे देखने में आयीं। ऐसी ही प्रतिक्रिया रणेन्द्र के उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता को भी मिल चुकी थी। किन्तु आदिवासी विमर्श के संदर्भ में ये दोनों कृतियाँ जो बड़े मुद्दे उठाती हैं, उन्हें आगे नहीं बढाया गया। ये सिर्फ गाँव बनाम शहर और आदिवासी बनाम आधुनिकता का मामला नहीं है। बल्कि इनमें क्रमशः आन्तरिक उपनिवेशन बनाम स्वायत्तता, स्वतंत्र इयत्ता और सत्ता- संरचना

समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान-1

रंगमंच  समकालीन हिंदी रंगमंच और राजस्थान -1                                         राघवेन्द्र रावत  समकालीन हिंदी रंगमंच के बारे में बात बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से भी की जा सकती थी लेकिन मुझे लगता है कि उससे पूर्व के भारतीय रंगमंच के परिवर्तन की प्रक्रिया पर दृष्टिपात कर लेना ठीक होगा | उसी तरह राजस्थान के समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करने से पहले भारतीय हिंदी रंगमंच पर चर्चा करना जरूरी है, और उससे भी पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वस्तुतः रंगमंच क्या है ?और रंगमंच के बाद हिंदी रंगमंच और उसके बाद समकालीन हिंदी रंगमंच पर बात करना एक उचित क्रम होगा भले ही यह मेरे अध्ययन की गरज ही लगे | राजस्थान के रंगमंच पर बात करना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस पर हिंदी साहित्य की तरह चर्चा नहीं हुई चाहे वह आलोचना की दृष्टि से देखें या इसके इतिहास की नज़र से देखें | दो वर्ष पहले ‘जयरंगम’ नाट्य समारोह के एक सेशन में बोलते हुए वरिष्ठ रंग एवं फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा था-“ पता नहीं कौन सा नाटक जयपुर में हो रहा है ,जबकि दुनिया में नाटक कहीं से कहीं पहुँच चुका है |” उनकी चिंता वाजिब थी क्योंकि राजस्थान

वंचना की दुश्चक्र गाथा

  मराठी के ख्यात लेखक जयवंत दलवी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जो हिन्दी में घुन लगी बस्तियाँ शीर्षक से अनूदित होकर आया था। अभी मुझे इसके अनुवादक का नाम याद नहीं आ रहा लेकिन मुम्बई की झुग्गी बस्तियों की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा के बंबइया हिन्दी के संवाद अभी भी भूले नहीं है। बाद में रवीन्द्र धर्मराज ने इस पर फिल्म बनायी- चक्र, जो तमाम अवार्ड पाने के बावजूद चर्चा में स्मिता पाटिल के स्नान दृश्य को लेकर ही रही। बाजारू मीडिया ने फिल्म द्वारा उठाये एक ज्वलंत मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया। पता नहीं क्यों मुझे उस फिल्म की तुलना में उपन्यास ही बेहतर लगता रहा है। तभी से मैं हिन्दी में शहरी झुग्गी बस्तियों पर आधारित लेखन की टोह में रहा हूं। किन्तु पहले तो ज्यादा कुछ मिला नहीं और मुझे जो मिला, वह अन्तर्वस्तु व ट्रीटमेंट दोनों के स्तर पर काफी सतही और नकली लगा है। ऐसी चली आ रही निराशा में रजनी मोरवाल के उपन्यास गली हसनपुरा ने गहरी आश्वस्ति दी है। यद्यपि कथानक तो तलछट के जीवन यथार्थ के अनुरूप त्रासद होना ही था। आंकड़ों में न जाकर मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि भारत में शहरी गरीबी एक वृहद और विकराल समस्य

फ्लैशबैक

फ्लैशबैक -१ जब सभी अतीत स्मृतियों में जा रहे हैं तो कुछ क्षण मुझे भी जाने की इजाजत दें। हमारे संगठन में एक कर्मठ ट्रेड यूनियन नेता, लेखक और लोकशासन पाक्षिक के संपादक बी. पी. सारस्वत हुआ करते थे जिन्हें आदर से सब लोग चाचा कहा करते थे। उन पर विस्तार से कभी आगे लिखूंगा। अभी तो अपने बारे में उनके कुछ उद्गार- राजाराम भादू अनजाने में एक ऐसा नाम. उभर कर सामने आया है जिसे अब सभी तरफ जाना जाने लगा है। इस नवयुवक साहित्यकार में प्रतिभा है। निरंतर चिंतन से विकसित ऊर्जा और कठिन परिश्रम के बलबूते यह रचना- कर्मी अपने सापेक्ष हस्तक्षेप से अपना स्थान बनाने में सफलता से अग्रसर है। युवा आलोचक के रूप में जहां राजाराम भादू स्पष्ट रूप से उभर कर प्रतिष्ठा पा चुके हैं, वहींं दिशाबोध साहित्यिक पाक्षिक के माध्यम से उन्होंने अपनी विकसित दृष्टि का परिचय दिया है। कविता, कहानी, आलेख से लेकर अनुवाद के क्षेत्र में उनका दखल है। साहित्य के अलावा सिनेमा, रंगमंच और अन्य कलाओं के अध्ययन में उनकी गहरी रुचि और जन- संस्कृति की अच्छी पकड के कारण उनका दायरा व्यापक हुआ है। राजाराम भादू की सहज संवेदनशीलता के पीछे उनकी ग्राम्य जी